भारत केन्द्रित भारत-दृष्टि और भारत केन्द्रित विश्व-दृष्टि वर्तमान बौद्धिक-पारिस्थितिकी की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गयी है। लेकिन ऐसी बौद्धिक पारिस्थितिकी निर्मित करने की जब भी कोशिश होती है, तो प्रायः सारी बहस भारत केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था तक ही सीमित कर दी जाती है, भारत-केन्द्रित सूचना व्यवस्था का पक्ष पूरी तरह उपेक्षित ही रह जाता है। वास्तविकता यह है कि जिस तरह के सूचना-सघन समाज में हम जी रहे हैं, उसमें शिक्षा क्षेत्र के पहल-प्रयोग, शोध-अन्वेषण भी बौद्धिक परिवेश और जनमानस का हिस्सा तभी बन सकते हैं, जब उसे सूचना तंत्र का सहयोग प्राप्त हो।
भारत-केन्द्रित सूचना-तंत्र के अभाव के कारण ही शिक्षा-क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण शोध हो चुके हैं, या हो रहे है, उनसे सामान्य भारतीय की तो दूर, अकादमिक व्यक्ति का भी परिचय नहीं है। वासुदेवशरण अग्रवाल की पुस्तक ’पाणिनीकालीन भारतवर्ष’ हो, या हजारी प्रसाद द्विवेदी की ’नाथ-सम्प्रदाय’, दोनों शोध की दृष्टि से प्रतिमान रचने वाली किताबें हैं, लेकिन बौद्धिक विमर्श से दोनों गायब हैं। इसका कारण शिक्षा-तंत्र की उपेक्षा के साथ सूचना-तंत्र में इनको स्थान न मिलना भी है। कमजोर सूचना-तंत्र के कारण ही ऐसे शोध-ग्रंथों के बावजूद हिन्दी पर स्तरीय-शोध के अभाव की तोहमत अलग से मढ़ दी जाती है।
पहले सूचनाओं का प्रमुख स्रोत शिक्षा-व्यवस्था थी। अब भी सूचनाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाने में उसकी एक निश्चित भूमिका बनी हुई है। इसके साथ एक हकीकत यह भी है कि पिछले तीस वर्ष में जो जीवनशैली पनपी है, उसमें शिक्षा-व्यवस्था के समानांतर ही स्थान सूचना-व्यवस्था ने भी स्थान बना लिया है। नई पीढ़ी जितना समय शिक्षण-संस्थानों में खर्च करती है, लगभग उतना ही समय सोशल-मीडिया, फिल्म, डाक्यूमेंट्री या सूचना के अन्य प्लेटफार्म पर भी खर्च कर रही है। इसलिए उसमें शिक्षा-व्यवस्था से प्राप्त सूचना को सूचना-तंत्र से प्राप्त सूचनाओं की कसौटी पर कसने और सूचना-तंत्र से प्राप्त सूचनाओं को किताबों से प्राप्त सूचनाओं के साथ सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति पनपी है। यदि आज यह कहा जाने लगा है कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की सूचनाएं अन्य यूनिवर्सिटी की सूचनाओं पर भारी पड़ रही हैं, तो इसे पूरी तरह से मजाक में नहीं टाला जा सकता। इस कथन को शिक्षा-तंत्र और सूचना-तंत्र के उभरते सम्बंधों के परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की कोशिश होनी चाहिए।
भारत-केन्द्रित बौद्धिक पारिस्थतिकी रचने और उसके माध्यम से सांस्कृतिक-स्वतंत्रता प्राप्त करने के जिस लक्ष्य की चर्चा होती है, उसकी पूर्वशर्त भारत केन्द्रित सूचना-तंत्र का निर्माण है। भारतीय दृष्टि से संचालित संचार-व्यवस्था, सूचना-प्रवाह का निर्माण शैक्षणिक-परिवेश के विऔपनिवेशीकरण(डिकोलोनाइजेशन)के लिए आवश्यक नहीं है, बल्कि नए देश-काल, विश्व-व्यवस्था में भारत और भारतीयता को प्रत्येक मोर्चे पर स्थापित करने के लिए भी आवश्यक है। भारत के विश्व-महाशक्ति बनने का रास्ता उसके सूचना-महाशक्ति बनने से होकर ही गुजरता है और ऐसा होने के बडे़ स्पष्ट कारण हैं।
भारत अभी तक अपनी जीवंत सांस्कृतिक विरासत का उपयोग शेष दुनिया से सम्बंध बनाने और उनके बीच स्थापित करने के लिए एक सीमा से अधिक नहीं कर सका है। विशेषज्ञ समय-समय पर यह राय देते रहे हैं कि सांस्कृतिक-कूटनीति का उपयोग कर भारत स्वयं को आसानी से विश्व-पटल पर स्थापित कर सकता है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में तो भारत का सांस्कृतिक प्रभाव अब तक बना हुआ है, लेकिन वहां भारत अपनी सशक्त-उपस्थिति दर्ज कराने में असफल रहा है, तो उसका कारण यही है कि उसके पास सूचना का वैश्विक ढांचा नहीं है।
वैश्विक सूचनातंत्र के अभाव के कारण ही भारत दक्षिण-पूर्व एशिया में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के पाठ-भेद से उत्पन्न दूरी अथवा पूरी दुनिया में जातिवाद को नस्लवाद के समान बताकर होने वाले बौद्धिक आक्रमणों के समुचित प्रतिकार के स्थान पर रक्षात्मक हो जाता है, स्पष्टीकरण देने लगता है। हद तो तब हो जाती है जब पाकिस्तान जैसे इस्लामिक गणतंत्र और चीन जैसे लौह-पर्दे की नीति से संचालित देश भी भारत को खुलेपन, सहिष्णुता पर उपदेश देकर चले जाते हैं, और सूचना के क्षेत्र में कमजोर स्थिति के कारण हम सफाई देने की मुद्रा अपना लेते हैं। 5 अगस्त 2019 के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कई बार यह बयान दिया कि भारत गांधी-नेहरू के आदर्शों से दूर जा रहा है, नया भारत असहिष्णु है। इस नैरेशन को आगे बढ़ाने वाले आलेख दुनिया भर के अखबारों में प्रकाशित हुए। भारत पाकिस्तान प्रेरित इस विमर्श का ठीक ढंग से उत्तर नहीं दे सका। साधारण सा तर्क दिया जा सकता था कि गांधी और नेहरू को 70 साल पहले पूरी तरह से दरकिनार कर ही तो पाकिस्तान की नींव रखी गई थी। अब जब भारत अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप निर्णय रहा है, तो पाकिस्तान किस मुंह से गांधी-नेहरू की दुहाई दे रहा है। भारत को पांथिक-सहिष्णुता पर पग-पग उपदेश देने वाले देश के पूर्व-विदेशमंत्री के ऊपर केवल इस कारण ईशनिंदा का मामला दर्ज हो जाता है कि उसने सभी पंथों को समान बता दिया था। लेकिन इसे राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के वास्तविक चरित्र की झलक के रूप में पेश करने में भारत विफल रहा। इसका एकमात्र कारण सूचना-प्रवाह में हमारी कमजोर वैश्विक स्थिति ही रही है। एक कठुआ-प्रकरण के कारण हिन्दुस्तान को रेपिस्तान बताने के अभियान को यदि वैश्विक स्तर पर स्वीकृति मिल जाती है, तो इसका भी बड़ा कारण सूचना के मोर्चे पर भारत की कमजोर-प्रतिक्रिया ही थी।
स्पष्ट है कि भारत की छवि को लगातार नुकसान पहुंचाने वाले, उसे पिछड़ा और अमानवीय साबित करने वाले मीडिया अभियानों का उत्तर मजबूत सूचना-व्यवस्था के जरिए ही दिया जा सकता है। भारत की वैश्विक स्वीकृति उसकी सशक्त सूचना अधोसंरचना पर ही निर्भर करेगी। अभी तो स्थिति यह है कि देश में अपवाद स्वरूप घट रही कुछ अप्रिय घटनाओं को भारत के चरित्र के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें सूचना-क्षेत्र में लगातार हो रही हैं और भारतीय सूचना-तंत्र का राडार प्रायः इन खबरों का नोटिस भी नहीं ले पाता, सही प्लेटफार्म पर सटीक उत्तर देना तो बहुत दूर की बात है।
इसी प्रक्रिया का दूसरा पक्ष है अपनी परम्परा, विरासत, दृष्टिकोण और दर्शन के सकारात्मक पक्ष से पूरी दुनिया को परिचित कराना। योग की वैश्विक स्वीकृति के बाद भारत की वैश्विक-स्तर पर एकतरह से रीब्रांडिंग हुई है। लेकिन योग की दस्तक और प्रामाणिकता और आवश्यकता इतनी अधिक थी कि उसकी स्थापना होनी ही थी, फिर भी देश और विदेश में लम्बे समय तक सूचना के अवरोध खड़े किए ही गए। योग के अतिरिक्त कई ऐसी विधाएं अब भी हैं, जो दुनिया में भारत की पहचान बना सकती हैं। कलरीपयट्टू जैसी भारतीय मार्शल आर्ट, शास्त्रीय संगीत, भारतीय वेश-भूषा, पर्यावरण-मित्र जीवनशैली आदि ऐसे क्षेत्र है, जिन्हें यदि ठीक ढंग से विश्व-बिरादरी के समक्ष लाया जाये तो उनको स्वीकार किए जाने में समय नहीं लगेगा। इनसे भारत की दूसरे देशों को प्रभावित करने की साफ्ट-पॉवर बहुत बढ़ जाएगी। कारण साफ है, इन विधाओं का अपना विशिष्ट भारतीय दर्शन भी है, जो इनके साथ पूरी दुनिया की यात्रा करेगा और स्वीकृत भी होगा। इनकी स्वीकृति के लिए आवश्यकता केवल मजबूत और विश्वसनीय सूचना-संरचना की है।
स्वदेशी सूचना-तंत्र की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि सूचना-प्रवाह और उससे सम्बंधित डेटा देश की सुरक्षा और सम्प्रभुता में निर्णायक स्थान प्राप्त कर चुके हैं। युद्धभूमि अब जल, थल, नभ के साथ वर्चुअल दुनिया तक विस्तृत हो चुकी है। शत्रु अब वर्दी-रहित है, और नागरिक-क्षेत्रों में बैठकर सूचना, वीडियो के जरिए हमलों को अंजाम दे सकता है। वर्तमान युद्ध में केवल सशस्त्र सैनिक नहीं, बल्कि निशस्त्र आम नागरिक भी योद्धा की भूमिका में आ चुके हैं।
सोशल-मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर बने अकाउंट और उन पर हो रही गतिविधियां महत्वपूर्ण सूचनाएं शत्रुओं तक पहुंचा सकती हैं। मसलन, हाल में चीन अपने सैनिकों को उचित सम्मान देने के प्रश्न पर केवल इसलिए दबाव में आ गया क्योंकि उसके ही सोशल-मीडिया प्लेटफार्म पर एक ऐसा वीडियो आ गया, जिसमें एक चीनी सैनिक के शव को उचित सम्मान न देने पर उसके परिजन असंतोष व्यक्त कर रहे थे। इसी तरह, 2015 में आईएसआईएस के एक ठिकाने को तबाह करने में अमेरिकी सेना को इसलिए सफलता मिली थी क्योंकि उसके हाथ एक आतंकी कमांडर की सेल्फी लग गई थी। आईएसआईएस के एक कमांडर ने अपने किसी ठिकाने से फेसबुक पर एक सेल्फी पोस्ट की, अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने सेल्फी के लोकशन की छानबीन की और 22 घंटे बाद वहां बमबारी कर ठिकाने को तहस-नहस कर दिया गया। सोशल-मीडिया पर जनरेट हो रहे डेटा की सुरक्षा सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है और यह कार्य स्वदेशी सूचना-तंत्र का विकास करके ही संभव है।
ऐसे और भी कारण है, जो वैश्विक परिप्रेक्ष्य से लैस स्वदेशी सूचना-तंत्र को वर्तमान भारत की सबसे बड़ी आवश्यकता बना देते हैं। एक राष्ट्र और सभ्यता के रूप में सूचना के वैश्विक और विश्वसनीय ब्रांड खडे़ करना सामूहिक-जिम्मेदारी है। यह सांस्कृतिक-स्वतंत्रता की मूलभूत शर्त है। यदि अगले कुछ वर्षों में यह कार्य नहीं होता तो सबसे निर्णायक मोर्चे पर पिछड़ने के लिए हम अभिशप्त होंगे।
2020-06-02
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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