डॉ. प्रमोद कुमार

न्यूजरूम में तनाव

एक अदृश्य हत्यारा दबे पांव भारतीय मीडिया न्यूजरूप में प्रवेश कर चुका है जो चुन-चुनकर पत्रकारों को निशाना बना रहा है। स्थिति गंभीर है। यदि मीडिया मालिकों, सरकारों, पत्रकार संगठनों तथा स्वयं पत्रकारों द्वारा इसे रोकने के अविलंब ठोस प्रयास नहीं हुए तो आने वाले दिनों में यह मीडिया को प्रतिभा से वंचित कर देगा
देश के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ के युवा पत्रकार तरुण सिसोदिया (37)द्वारा दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में 6 जुलाई को की गयी आत्महत्या ने देश के सम्पूर्ण पत्रकार जगत को झकझोर दिया है। इसके कुछ ही दिन बाद दिल्ली के निकट गाजियाबाद में ‘पंजाब केसरी’ के एक प्रतिनिधि पवन कुमार द्वारा भी आत्महत्या करने का मामला सामने आया। इन दोनों ही पत्रकारों को मैं व्यक्तिगत रूप से गत करीब एक दशक से जानता था। दोनों ही होनहार, युवा और जुझारू पत्रकार थे और दोनों की आत्महत्या का कारण भी एक ही है-नौकरी छूटने के कारण उत्पन्न तनाव। ‘दैनिक भास्कर’ ने फरवरी में तरुण को नौकरी से निकालने का नोटिस दिया था। पवन की भी नौकरी चली गयी थी। उस तनाव के चलते दोनों इतने अधिक मानसिक अवसाद में चले गये कि आत्महत्या जैसा गलत कदम उठा लिया।
सम्पूर्ण समाज की समस्याओं को उजागर करने वाले पत्रकारों द्वारा आत्महत्या की खबरें भले ही मुख्यधारा के मीडिया में खबर न बनी हों, परन्तु इन दोनों ही घटनाओं ने समाचार पत्रों के न्यूजरूम में पनप रहे एक गंभीर खतरे की भयावहता को उजागर कर दिया है। वैसे मीडिया मालिकों की ओर से इसे गंभीरता से लेने की खबर अभी कहीं से नहीं मिली है, परन्तु कुछ पत्रकार संगठनों ने इस मुद्दे पर देशभर के पत्रकारों में जागरूकता अभियान चला दिया है। दिल्ली पत्रकार संघ के अध्यक्ष एवं ‘पीटीआई’ के वरिष्ठ पत्रकार मनोहर सिंह ने इस मुद्दे पर कई वेबिनार किये और अपने सदस्यों को तनावमुक्ति के गुरू सीखने के लिए वे सतत प्रेरित कर रहे हैं।
भारतीय मीडिया न्यूजरूम में गत पांच वर्षों में तनाव एक गंभीर समस्या के रूप में उभरा है। वर्ष 2014 में जब मैंने अपना पीएच.डी शोधकार्य प्रारंभ किया तो न्यूजरूम में कार्यरत पत्रकारों से बात करने के बाद यह एक गंभीर समस्या के रूप में उभरकर सामने आया। इस संबंध में जब मैंने और गहन अध्ययन किया तो पता चला कि पश्चिमी देशों के न्यूजरूम में यह समस्या एक दशक पहले महसूस की गयी थी और ‘बिजनेस इनसाइडर’ सहित विश्व के कई बड़े मीडिया संस्थानों द्वारा अपने पत्रकारों को ‘रिलेक्स’ रखने के लिए अनेक उपाय करने प्रारंभ किये गये थे। तभी से मैं भारतीय मीडियाकर्मियों को इस गंभीर खतरे के प्रति आगाह करता आ रहा हूं। बातचीत में हर पत्रकार बढ़ते तनाव और उससे उत्पन्न बीमारियों की बात करता है, परन्तु किसी भी मीडिया संस्थान में पत्रकारों के तनाव को कम करने के लिए कुछ नहीं हुआ।
वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय (कोटा, राजस्थान)में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के संयोजक प्रो. सुबोध कुमार के सान्निध्य में मैंने जून 2014 में भारतीय मीडिया न्यूजरूम पर अध्ययन प्रारंभ किया। अध्ययन के दौरान न्यूजरूम में कार्यरत 82 प्रतिशत से अधिक पत्रकारों ने तनाव को एक प्रमुख समस्या बताया। उस अध्ययन में बढ़ते तनाव के जो प्रमुख कारण पत्रकारों ने गिनाये उनमें शामिल थे-काम के अनिश्चित घंटे, सुबह समय पर ऑफिस आना तो तय लेकिन जाना कब, यह किसी को नहीं पता, कार्यदशाओं में निरंतर गिरावट, बढ़ती ठेका प्रथा के कारण नौकरी और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी समाप्त होना, सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी लाभ का न मिलना, प्रतिदिन ‘स्कूप’ न मिलने के कारण तनाव, पुरानी खबर को मसालेदार बनाकर प्रस्तुत करने के लिए नये ‘आइडेशन’, प्रतिस्पर्धी संचार माध्यमों से आगे रहने की होड, डेडलाइन का दबाव, सोशल मीडिया के कारण उत्पन्न चुनौतियां, मीडिया मालिक के बिजनेस हित, संपादक की व्यक्तिगत पसंद और नापंसद, न्यूजरूम में लोगों की छंटनी, रिपोर्टर और उपसंपादक पर बढ़ता काम का दबाव, माफिया व असामाजिक तत्वों की धमकियां, आतंकी हमलों, साम्प्रदायिक दंगों और किसी महामारी, प्राकृतिक आपदा, युद्ध आदि के कारण जान का संकट, आदि। संवाददाता ही नहीं, डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों की भी दर्जनों समस्याएं हैं जिनके कारण वे हर समय तनाव में रहते हैं। 
अध्ययन के दौरान यह भी पता चला कि पत्रकार स्वयं भी इस तनाव को कम करने के लिए कुछ तरीके अपनाते हैं। कुछ पान खाते हैं, कुछ सिगरेट और मदिरा का सेवन करते हैं तो कुछ अपने बॉस को गालियां देकर मन हल्का कर लेते हैं। कुछ आपस में अपनी समस्याओं पर चर्चा करते हैं। अध्ययन में पता चला कि पत्रकारों की कार्यदशाएं इतनी अधिक बिगड़ रही हैं कि उनके पास स्वयं का इलाज कराने का भी समय नहीं है। अपने परिवार और रिश्तेदारों की बीमारी का इलाज कराना तो दूर की बात है। कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि यदि रिश्तेदारी, पास-पड़ोस आदि में कहीं कोई मृत्यु हो जाती है तो संवदेना भी व्हाट्सएप पर ही व्यक्त करनी पड़ती है, क्योंकि व्यक्तिगत मिलने का समय नहीं है। पत्रकारों ने यह भी बताया कि नयी डिजिटल तकनीक भी किसी न किसी प्रकार से तनाव की बढ़ोतरी का कारण बनती जा रही है। ऑनलाइन पोर्टलों में एक नये तरीके की समस्या सामने आ रही है। पत्रकार पहले तो मसालेदार खबर लाए और फिर पोर्टल पर अपलोड होने के बाद उस पर अधिक से अधिक लाइक और शेयर भी सुनिश्चित करे। कुछ लोगों का तो मानधन भी इस पैटर्न पर ही निर्धारित होने लगा है। 
जून 2014 से लेकर अप्रैल 2017 तक मैंने यह अध्ययन दो चरणों में किया। अंतिम चरण में 169 पत्रकारों के सैंपल पर अध्ययन किया गया। अप्रैल 2017 में पता चला कि न्यूजरूम में काम करने वाले 30 वर्ष से अधिक आयु के 48 प्रतिशत पत्रकार किसी न किसी ऐसी समस्या से ग्रस्त थे जो उनके स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही थी। 26 प्रतिशत हड्डी की समस्या, उच्च रक्तचाप और मधुमेह से ग्रस्त थे, 27 प्रतिशत को आंख संबंधी शिकायत थी, 76 प्रतिशत कभी भी समय पर भोजन नहीं कर पाते थे। 78 प्रतिशत 12 घंटे से अधिक समय तक काम करते थे। 67 प्रतिशत ने कहा कि उनके पास स्वयं का भी इलाज कराने का समय नहीं था। 82 प्रतिशत नौकरी की गांरटी न होने के कारण चिंतित थे। इस सम्पूर्ण शोध पर आधारित मेरी पुस्तक ‘द फ्यूचर न्यूजरूम’ इसी साल जनवरी में प्रकाशित हुई है।
भारतीय मीडिया संस्थानों में भले ही तनाव को बडी चुनौती के रूप में न लिया गया हो, परन्तु अमेरिका जैसे देशों में इसे अनेक बीमारियों का प्रमुख कारण मानकर इसके निदान के लिए प्रयास 2012 के आसपास ही प्रारंभ हो गये थे। उसके बाद वहां अनेक मीडिया संस्थानों में इसकी गहरायी मापने के लिए शोध भी हुए। वर्ष 2012 में लेविसन जांच आयोग ने ‘द न्यूज ऑॅफ द वर्ल्ड’ के न्यूजरूम में काम करने वाले पत्रकारों में बढते तनाव का जिक्र किया था। इसे गंभीरता से लेते हुए ‘द हफिंगटन पोस्ट ने मई 2015 में पांच लेखों की एक श्रृंखला में इस मुद्दे को उठाया। उस स्टोरी में विस्तार से बताया गया कि पत्रकारों को भी यह नहीं मालूम कि जिन बीमारियों के वे शिकार होते जा रहे हैं उसका असली कारण तनाव है। उससे सबक लेते हुए न्यूयार्क की बिजनेस और तकनीकी न्यूज वेबसाइट ‘द बिजनेस इनसाइडर’ ने अपने कर्मचारियों को खुश रखने के लिए विशेष प्रयास करने प्रारंभ किये। उसके परिणामस्वरूप एक साल में ही कंपनी छोड़कर जाने वाले कर्मचारियों की संख्या में कमी आ गयी। अमेरिका के ‘द टाकिंग प्वाइंटस मेमो’ ने अपने ऑफिस में ‘नेप रूम’ बना दिये, जहां कोई भी कर्मचारी जब चाहे कुछ समय तक सो सकता है। इस आइडिया का शुरू में कंपनी प्रबंधन में कुछ लोगों ने विरोध किया, परन्तु छह महीने बाद ही पता चला कि ‘नेप रूम’ का इस्तेमाल करने वाले कर्मचारियों की ‘क्रिएटीविटी’ पहले की अपेक्षा बढ गयी। ‘फोर्ब्स’ ने भी अपने कर्मचारियों को 2015 में 100 डालर अतिरिक्त देने प्रारंभ कर दिये ताकि वे अपनी मनपसंद चीजें खा सकें। उसने भी ऑफिस में ‘नेप रूम’ बनाये, जिसका प्रयोग संपादक से लेकर सामान्य पत्रकार तक करते हैं। चूंकि लाभदायक सिद्ध हुआ इसलिए यह अभी भी जारी है।
भारत के मीडिया संस्थानों में पत्रकारों को तनावमुक्त रखने के लिए इस प्रकार के प्रयोगों पर चर्चा करने के लिए भी लोग तैयार नहीं हैं। यहां तो यह चर्चा प्रमुखता से होती है कि जो सुविधाएं पत्रकारों को दी जा रही हैं उनमें कटौती कैसे हो सकती है। कटौती को प्रबंधन अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाता है। हकीकत यह है कि भारतीय मीडिया न्यूजरूम में तनाव एक गंभीर समस्या बन चुका है और इस पर प्रभावी रोक लगाने के लिए सभी मीडिया संस्थानों में गंभीर और ईमानदार प्रयास किये जाने की जरूरत है। वास्तव में तो तनाव पत्रकारिता जगत की अनिवार्य बुराई है इसलिये नवोदित पत्रकारों को भी तनाव को झेलने और उस पर जीत हासिल करने का प्रशिक्षण मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों से ही दिया जाना चाहिए। अपने अध्ययन में मैंने पाया कि ’पीटीआई’ जैसी न्यूज एजेंसी में अनेक युवा पत्रकारों ने तनाव को झेल न पाने के कारण पत्रकारिता ही छोड़ दी। यदि यह ट्रेंड जारी रहा तो मीडिया की तरफ प्रतिभा आकर्षित नहीं होगी। वैसे भी ‘कैरियर कास्ट’ वेबसाइट ने पत्रकारिता की नौकरी को ‘वर्स्ट जॉब लिस्ट’ में रखा है, जिसमें वृद्धि दर तेजी से घट रही है। 2015 में वेबसाइट ने दावा किया था कि आने वाले सात वर्षों में रिपोर्टर की नौकरी में 13 प्रतिशत की गिरावट होगी। भारतीय मीडिया में यह स्थिति बनती नजर आ रही है। इसलिए अविलम्ब मीडिया संस्थानों, सरकारों, पत्रकार संगठनों आदि सभी को ठोस कदम उठाने होंगे। पत्रकारों को तनाव से जूझने के गुर सीखने होंगे। आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है। समस्या से पार पाने के तरीके खोजने होंगे। 
 

फेक न्यूज का कारोबार

24 मार्च, 2020 को सरकार ने देशभर में लॉकडाउन लागू किया। मीडिया के माध्यम से अफवाहों का खेल उसी समय शुरू हो गया था। सोशल मीडिया में जहां तमाम तरह के दावे किये जाने लगे, वहीं टेलीविजन और प्रिंट मीडिया में बरती गयी असावधानी के कारण स्थिति बेकाबू हो गयी। व्हाट्सएप के माध्यम से फैलायी गयी अफवाहों के कारण नई दिल्ली के आनन्द विहार बस अड्डे पर 28 मार्च, 2020 को अचानक हजारों मजदूर पहुंच गये। वे इस गफलत में पहुंचे कि वहां से उन्हें अपने-अपने राज्य में जाने के लिए बसें मिल रही हैं। इन अफवाहों को फैलाने में आम आदमी पार्टी के कुछ नेताओं के नाम सामने आए। लॉकडाउन के दौरान हजारों लोगों के अचानक बस अड्डे पर पहुंच जाने के कारण दिल्ली पुलिस और उत्तर प्रदेश सरकार के हाथ-पांव फूल गये। जैसे-तैसे उत्तर प्रदेश सरकार ने बसों का इंतजाम करके मजदूरों को उनके गांव तक पहुंचाने का काम किया। उससे अफवाहों का बाजार अन्य राज्यों में भी गर्म हुआ और अलग-अलग स्थानों से हजारों मजदूर पैदल ही अपने अपने गांव की तरफ जाने लगे। उन्हें लेकर मीडिया ने सरकारों पर निशाने दागने प्रारंभ किये। परिणामस्वरूप, केन्द्र सरकार को श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलानी पड़ीं। उससे पहले अफवाहों के कारण 19 मई को अचानक हजारों मजदूर मुम्बई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर पहुंच गये। जिस प्रकार दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता अफवाहें फैलाने में शामिल थे उसी प्रकार खबरें आई कि मुम्बई में शिव सेना के ही कुछ लोग एक न्यूज चैनल की मदद से अफवाहें फैलाने में शामिल पाये गये।

चूंकि देशभर में तब्लीगी जमात के लोगों द्वारा कोरोना फैलाने की खबरें जोर पकड़ रही थीं, इसलिए पंजाब में 1 मई, 2020 को अफवाह फैली कि हजूर साहेब नांदेड से आए हजारों श्रद्धालु कोरोना पॉजिटिव पाये गये। कुछ श्रद्धालुओं के क्वारंटाइन सेंटरों से भाग जाने की भी खबरें आई। बाद में पता चला कि पंजाब सरकार के ही कुछ लोग इस प्रकार की झूठी खबरें फैलाकर अकाली नेताओं पर निशाना दाग रहे थे। 12 अप्रैल, 2020 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले में स्थित जहांगीराबाद गांव से बहुत ही चैंकाने वाली खबर आई। दावा किया गया कि एक महिला ने अपने पांच बच्चों को गंगा नदी में इसलिए फेंक दिया क्योंकि उसके पास उन्हें खिलाने के लिए भोजन नहीं था। प्रशांत भूषण, पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे बड़े नाम भी इस अफवाह को फैलाने में शामिल हो गये। बाद में पता चला कि महिला के घर में पर्याप्त भोजन था और उसने अपने पति से झगडे़ के बाद ऐसा कदम उठाया।

अप्रैल में फेसबुक पर एक छोटी बच्ची का फोटो वायरल हुआ। बच्ची के हाथ में पोस्टर था जिस पर लिखा था कि बच्ची कोरोना वायरस से संक्रमित है। बाद में पता चला कि वायरल हो रही फोटो काफी पुरानी थी और बच्ची को कोविड संक्रमण नहीं कैंसर था। अप्रैल में ही एक पोस्ट व्हॉट्सएप पर तेजी से वायरल हुई, जिसमें दावा किया गया कि भारत में लॉकडाउन विश्व स्वास्थ्य संगठन के लॉकडाउन प्रोटोकॉल के मुताबिक की गई है। मेसेज में कहा गया कि 20 अप्रैल से 18 मई के बीच तीसरा चरण लागू होगा। मैसेज में यह भी दावा किया गया कि डब्ल्यूएचओ ने लॉकडाउन की अवधि को चार चरणों में बांटा है। वास्तव में चार चरणों में लॉकडाउन की बात झूठी थी और यह सिर्फ लोगों में भय पैदा करने के इरादे से फैलाई गई थी। डब्ल्यूएचओ के साथ ही भारत सरकार ने भी इस मेसेज को झूठा करार दिया। उसी दौरान व्हॉट्सएप पर एक और मेसेज वायरल हुआ जिसमें दावा किया गया कि व्हॉट्सएप ग्रुप में कोरोना वायरस को लेकर कोई मजाक या जोक साझा किया गया तो कानूनी कार्रवाई की जाएगी। मैसेज में दावा किया कि मजाक या जोक साझा करने पर ग्रुप एडमिन के खिलाफ धारा 68, 140 और 188 के उल्लंघन की ही तरह कार्रवाई की जाएगी। भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) ने उसे बाद में फर्जी करार दिया।

लॉकडाउन के दौरान इटली के एक शहर की तस्वीर में ढेर सारी लाशें फैली होने का दावा करते हुए कहा गया कि कोराना के कारण इटली में भारी तबाही हो चुकी है। बाद में पता चला कि वह तस्वीर दरअसल हॉलीवुड फिल्म ‘कांटेजिनअन’ का एक दृश्य था। एक और तस्वीर वायरल हुई जिसमें जमीन पर पडे़ लोग मदद के लिए चिल्ला रहे थे। वह तस्वीर 2014 के एक आर्ट प्रोजेक्ट की थी। खबर यह भी आई कि लॉकडाउन के दौरान 498 रूपये का जियो कनेक्शन निशुल्क मिल रहा है। वह संदेश भी पूरी तरह झूठ था। एक पोस्ट में दावा किया गया कि डा. रमेश गुप्ता नाम के एक लेखक ने जंतु विज्ञान पर लिखी पुस्तक में कोरोना का इलाज होने का दावा किया। वह दावा भी पूरी तरह झूठ पाया गया। हरियाणा के गुडगांव स्थित मेदांता अस्पताल के डा. नरेश त्रेहन की ओर से दावा किया कि उन्होंने देश में आपातकाल लागू करने की अपील की है। परन्तु बाद में डा. त्रेहन ने स्वयं कहा कि उन्होंने इस प्रकार की कभी अपील नहीं की। एक पोस्ट में दावा किया गया कि कोरोना की दवा खोज ली गयी है। बाद में पता चला कि जिस पैकेट को दवा के रूप में बताया गया, वह दरअसल कोरोना जांचने की किट का पैकेट था। कुछ लोगों ने यह भी दावा किया कि कोरोना वायरस का जीवनकाल 12 घंटे होता है। जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि अभी तक स्पष्ट रूप से ऐसी कोई जानकारी नहीं आई है कि यह वायरस किसी सतह पर कितनी देर जिंदा रहता है। एक और झूठी खबर फैलायी गयी कि अस्पतालों में हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग बिस्तर तैयार किये जा रहे हैं। एक खबर भी चलायी गयी कि एक पूरा अस्पताल ही कोरोना संक्रमित हो गया है।

ऐसी खबरों की सूची बहुत लंबी है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय ने फेक न्यूज की जांच के लिए एक स्पेशल ‘फैक्टचैक’ यूनिट बनायी, जिसमें अखबार, टेलीविजन और सोशल मीडिया पर चल रही फेक न्यूज की जांच करके एक घंटे के अंदर सही जानकारी प्रसारित की जाएगी। यह प्रयोग काफी सफल रहा और पीआईबी की इस यूनिट ने सैंकडों की संख्या में ‘फेक न्यूज’ की सत्यता को परखकर लोगों को सही जानकारी दी। इसी दौरान फेसबुक ने भी फर्जी खबरों को फैलने से रोकने के लिए कुछ कदम उठाए। व्हॉट्सएप ने 7 अप्रैल को मैसेज फॉरवडिंग को सीमित कर दिया। ट्विटर ने फेक न्यूज पर 11 मई से रोक लगाना शुरू कर दिया। इन सब कदमों के बावजूद ‘फेक न्यूज’ ने मीडिया की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न खडे़ कर दिये।

‘फेक न्यूज’ पर टिप्पणी करते हुए केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहाः ‘‘यह विकृत मानसिकता और गंदी सोच का प्रतीक है। हताशा और निराशा की इतनी हद हो गयी कि लोकतंत्र में जो लोग मत से नहीं जीत सकते वे अफवाहें फैलाकर देशवासियों को संकट में डालना चाहते हैं। फेक न्यूज प्रेस की आजादी नहीं है।’’ देश में एक लाख से अधिक अखबार, 800 से अधिक न्यूज चैनल और लाखों वेबसाइट हैं। इसके अलावा देश की अधिसंख्य आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। ‘फेक न्यूज’ इन सभी माध्यमों पर पल भर में घूम जाती है। जब तक सरकारी एजेंसियां सतर्क होती हैं तब तक ऐसी खबरें पूरे विश्व में घूम चुकी होती हैं।

‘फेक न्यूज’ पर टिप्पणी करते हुए भारतीय.जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी कहते हैं, ‘‘मीडिया में जो ‘फेक न्यूज’ आ रही है उसके पीछे गैर-पत्रकारीय शक्तियां हैं। मीडिया के आवरण में दूसरे लोग इसके पीछे हैं। मीडिया में आज एक्टिविस्ट बहुत सक्रिय हुए हैं जिनका उद्देश्य पत्रकारिता नहीं, दूसरा ही कुछ होता है। इसीलिए न्यूज चैनल्स ‘व्यूज चैनल्स’ में तब्दील हो गये हैं। यह चिंता की बात है। प्रभाष जोशी कहा करते थे कि पत्रकार की ‘पॉलिटिकल लाइन’ तो हो सकती है परन्तु ‘पार्टी लाइन’ नहीं होनी चाहिए। आज कोरोना काल में मीडिया में प्रकट पक्षधरता दिख रही है। संपादकों और मीडिया मालिकों को यह तय करना पडे़गा कि मीडिया के पवित्र मंच का इस्तेमाल भावनाओं को भडकाने और राजनीतिक दुरभिसंधियों के लिए नहीं होने देना चाहिए। जिन्हें ‘एक्टिविजम’ करना है वे पत्रकारिता को नमस्कार कर दें। मीडिया का काम सत्यान्वेषण है, ‘नैरेटिव सैट’ करना नहीं। फेक न्यूज के बढ़ते उद्योग के विरुद्ध मीडिया के लोगों को ही खड़ा होना पडे़गा। अफवाहों के कारण अपनी अपार लोकप्रियता के बावजूद सोशल मीडिया भरोसा हासिल करने में विफल रहा है। इसी कारण लोग भ्रमित हैं। इसलिए आज ऐसा तंत्र खड़ा करने की जरूरत है जहां सूचनाओं का खर्च समाज उठाना शुरू करे। समाज पर आधारित मीडिया अधिक स्वतंत्र और ताकतवर होगा। मीडिया की प्रामाणिकता पर उठते सवाल बहुत चिंता की बात है।’’

बडे़ बदलाव की दस्तक

कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न हालात में भारतीय मीडिया ऐसे बडे़ बदलाव के मुहाने पर पहुंच गया है जहां मीडिया मालिकों, मीडियाकर्मियों और पाठकों/श्रोताओं सहित ‘न्यूजमेकर्स’ को भी अपनी आदतें बदलनी पड़ रही हैं। परन्तु यह तो बदलाव की दस्तक भर है। आने वाले दिनों में मीडिया का स्वरूप और भी नये रंगों में नजर आएगा। इसलिए और भी बडे़ बदलाव की तैयारी अभी से प्रारंभ कर लीजिए।

भारतीय मीडियाकर्मियों के लिए कोरोना वायरस के कारण लागू घरवास (लॉकडाउन) एक भयावह सपना सिद्ध हुआ है। उनकी हालत बेघर हुए लाखों प्रवासी मजदूरों से भी बदतर है। यह सही है कि ऑनलाइन मीडिया में काम करने वाले पत्रकार लॉकडाउन से उतने प्रभावित नहीं हुए, परन्तु प्रिंट और टेलीविजन पत्रकारों के सामने नौकरी का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। जो पत्रकार स्वतंत्र लेखन करके अपना जीवन-यापन करते रहे हैं अथवा छोटे समाचार पत्र-पत्रिकाओं में काम करते थे उनकी स्थिति बहुत दयनीय हो चली है। हालत यह है कि पत्रकारों के प्रमुख संगठन, दिल्ली पत्रकार संघ, के पास राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में बड़ी संख्या में मीडियाकर्मियों ने लॉकडाउन के दौरान राशन आदि के रूप में मदद की गुहार लगायी और दिल्ली पत्रकार संघ ने महज अप्रैल माह में ही कई सौ पत्रकारों की विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से सहायता करायी। संकट में फंसे हर व्यक्ति की आवाज बुलंद करने वाले पत्रकारों की यह हालत होगी, यह किसी ने नहीं सोचा था। सरकार ने मजदूरों, किसानों आदि के लिए राहत पैकेज घोषित किये हैं, परन्तु कोरोना योद्धा के रूप में अग्रिम मोर्चे पर डटकर काम करते हुए इस खतरनाक वायरस की चपेट में आ चुके पत्रकारों की सुध किसी ने नहीं ली। बहुत से स्वाभिमानी पत्रकार आज भी किसी के सामने मदद हेतु हाथ फैलाने के लिए तैयार नहीं हैं, परन्तु प्रश्न यह है कि आखिर कब तक वे ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि संकट के अभी समाप्त होने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।

 

देशभर में पत्रकार भी हैं संक्रमितः

महामारी के दौरान अग्रिम मोर्चे पर रहकर काम कर रहे हैं अनेक पत्रकार देशभर में इस खतरनाक वायरस की चपेट में आ चुके हैं। मुंबई के ‘टीवी9मराठी चैनल’ के आईटी विभाग में कार्यरत रोशन डायस की तो 22 मई को इस वायरस के कारण मृत्यु हो गयी। रोशन पहले ‘स्टार न्यूज’ में भी काम कर चुके हैं। रोशन का अप्रैल में कोरोना टेस्ट हुआ था। उस टेस्ट में करीब 53 मीडियाकर्मी कोरोना पॉजिटिव मिले थे। उसी में रोशन भी एक था। उसे आइसोलेशन वार्ड में क्वारंटाइन किया गया था। हालत बिगड़ने पर उसे आईसीयू में भर्ती किया गया, जहां उसने 22 मई को दम तोड़ दिया। 46 वर्षीय रोशन के परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं। इधर, राजधानी दिल्ली में ज़ी न्यूज के पत्रकारों के कोरोना की चपेट में आने की खबर है। इसके अलावा भी कुछ और मीडिया हाउसों ने कोरोना पॉजिटिव मामलों की सूचना दी हैै। इंडिया न्यूज नेटवर्क में आउटपुट टीम की एक महिला कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव पायी गयी है।

 

छोटे प्रकाशन बंदः

इस संकट का एक और पहलू है। लॉकडाउन के कारण हजारों की संख्या में छोटे समाचार पत्रों का देशभर में प्रकाशन बंद हो गया है। यहां तक कि नामचीन पत्र-पत्रिकाएं सिर्फ डिजिटल संस्करण प्रकाशित करने के लिए बाध्य है। ‘पांचजन्य’ और ‘आर्गनाइजर’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं भी सम्पूर्ण लॉकडाउन की अवधि में सिर्फ डिजिटल संस्करण ही अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर रही हैं। हालांकि यह बात अलग है कि लॉकडाउन की इस अवधि में इसके डिजिटल पाठकों की संख्या में कई गुणा वृद्धि हुई है। यदि ये पत्रिकाएं इन डिजिटल पाठकों को अपने नियमित ग्राहकों में तब्दील कर लें तो यह उनकी बड़ी कामयाबी मानी जाएगी। यही सवाल अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी है।

 

‘वर्क फ्रॉम होम’ स्थायी ‘ट्रेन्ड’

लॉकडाउन के दौरान मीडिया में ‘वर्क फ्रॉम होम’ को बिना झिझक स्वीकार्यता मिली है। यहां तक कि देश की ‘पीटीआई’ जैसी बड़ी न्यूज एजेंसी का पूरा स्टाफ घर से ही काम कर रहा है। हालांकि, वर्ष 2015 से मेरे जैसे कुछ लोग मीडिया में ‘वर्क फ्रॉम होम’ की बात उठाते रहे हैं। परन्तु बड़ी संख्या में मीडिया नियंता हमारे सुझाव पर हंसते थे। परन्तु अब ‘वर्क फ्रॉम हॉम’ ने ही न केवल मीडिया संस्थानों का अस्तित्व बचाया, बल्कि मीडियाकर्मियों की नौकरी भी बचायी। संकट की इस घड़ी में जब लोग समाचार पत्र और पत्रिकाओं को भी वायरस फैलने का एक माध्यम मानकर उन्हें खरीदने में संकोच कर रहे हैं ऐसे में डिजिटल तकनीक ने लोगों की नवीन समाचारों की भूख को शांत किया है। हालांकि महामारी के कारण ‘वर्क फ्रॉम होम’ की यह परम्परा लॉकडाउन के बाद कितने दिन जारी रहेगी यह कहना अभी मुश्किल है, परन्तु बेहतर होगा कि मीडिया संस्थान इसे अपनी आदत में शामिल कर इसे नये ‘वर्क कल्चर’ के रूप में स्वीकार करें। सोशल मीडिया कंपनी ‘फेसबुक’ के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने 25 मई, 2020 को घोषणा की कि वर्ष 2030 तक उसके करीब आधे कर्मचारी अपने घरों से काम करने लगेंगे। कंपनी ने यहां तक कहा है कि वह सभी कर्मचारियों को स्थायी रूप से घर से ही काम करने की अनुमती देने की तैयारी कर रही है। फेसबुक अपने कर्मचारियों को यह विकल्प चुनने का ऑफर देने की तैयारी में है कि वे स्वयं तय करें कि वे कहां से बेहतर काम कर सकते हैं। इस दिशा में उनका तकनीकी विभाग इसे अमलीजामा पहनाने के लिए काम कर रहा है। ‘गूगल’ ने अपने कर्मचारियों को इस पूरे साल घर से काम करने की छूट दे दी है। ‘अमेजॉन’ और ‘माइक्रोसॉफ्ट’ ने भी इस साल कम से कम अक्टूबर तक घर से काम करने की अनुमति दे दी है। इसके अलावा सभी बड़ी कंपनियां सिर्फ तकनीक की मदद से घर से काम करके ही अपना व्यवसाय बचाकर अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन देने का प्रयास कर रही हैं। इसलिए माना जा सकता है कि महामारी के बाद घर से काम करना एक स्थायी ‘ट्रेंड’ बनने जा रहा है।

 

 

मीडिया में डिजिटल बूमः

कोरोना महामारी के दौरान जहां प्रिंट के प्रसार में जबर्दस्त कमी देखने को मिली है, वहीं टेलीविजन और डिजिटल की ‘व्युअरशिप’ में अप्रत्याशित उछाल आया है। टेलीविजन की बात करें तो आम मनोरंजन के कार्यक्रमों की तुलना में समाचारों की ‘व्युअरशिप’ भी काफी बढ़ी है। मनोरंजन की दृष्टि से दशकों बाद ‘दूरदर्शन’ की ‘व्युअरशिप’ में उछाल आया है। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सहित पुराने धारावाहिकों को एक बार फिर बहुत पसंद किया गया। डिजिटल मीडिया में समाचार वेबसाइट्स को 35 से 50 प्रतिशत तक अधिक रीडरशिप मिली है। इसमें भी मोबाइल पर खबरें पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी है। यह इस बात का संकेत है कि आने वाले समय में डिजिटल में अपार संभावनाएं हैं। अभी तक जो लोग आदतन छपा हुआ अखबार पढ़ने के आदी थे वे भी अब मोबाइल पर खबरें पढ़ने की आदत डाल रहे हैं। इसलिए जो मीडिया हाउस डिजिटल-केन्द्रित रणनीति बनाएगा वह आगे जाएगा। अभी डिजिटल के साथ सबसे बड़ा प्रश्न रेवेन्यू का है। इसलिए मीडिया के समक्ष बड़ी चुनौती यह है कि डिजिटल से ‘रेवेन्यू जनरेशन’ कैसे हो? इसके लिए सिर्फ मीडिया घरानों को ही नहीं, बल्कि पाठकों को भी बदलना पडे़गा। जितना पैसा वे हर माह अखबार के हॉकर को देते हैं उतना नहीं तो उससे कम पैसा देकर उन्हें डिजिटल संस्करण पढ़ने के लिए देने की आदत डालनी होगी। कुछ समाचार पत्रों ने डिजिटल में ‘सबस्क्रिप्शन मॉडल’ शुरू किये हैं। पहले जिन बड़े अखबारों ने इस मॉडल को नहीं अपनाया था अब वे भी ‘पेवॉल’ के बारे में सोचने को मजबूर हैं।

संकट के इस दौर में डिजिटल को इसलिए भी नया पाठक वर्ग मिला है क्योंकि हर कोई पल-पल की नवीन जानकारी चाहता है। सभी को चिंता है कि कब क्या हो जाए पता नहीं। कहीं उनकी ही बिल्डिंग में या आसपास कोरोना का कोई नया मामला तो नहीं निकल आया। जो नए रेड जोन जारी हो रहे हैं वे कौन-कौन से हैं? नई गाइडलाइंस जारी हो रही हैं। कोई नई अधिसूचना आ रही है, वॉट्सएप पर इससे जुड़ी तमाम खबरें आ रही हैं। इन सभी चीजों ने डिजिटल को और मजबूत किया है। लोगों को यह समझ में आ गया है कि उन्हें यदि किसी खबर के बारे में अपडेट चाहिए तो उन्हें डिजिटल से जुड़ना पड़ेगा और यदि खबर का सार चाहिए या किसी खबर का महत्वपूर्ण हिस्सा पढ़ना है या किसी खबर के बारे में 400-500 या हजार शब्दों में जानकारी चाहिए तो अगले दिन अखबार में ही मिलेगी। इसलिए समाचार पत्र का डिजिटल संस्करण भी चाहिए।

डिजिटल तीनों माध्यमों का समागम है, जहां पाठकों को टेक्स्ट, ऑडियो और विडियो सभी मिल जाते हैं। यह सुविधा अखबारों में नहीं मिलती।

 

चौंकाने वाले गैजेट्स की दस्तकः

गूगल-प्रेस एसोशिएसन के संयुक्त प्रयास से 2017 में प्रारंभ ‘रडार प्रोजेक्ट’ ने अमेरिकी और ब्रिटिश मीडिया में दो साल से खलबली मचा रखी है। सरकारी डाटा पर आधारित खबरें तैयार करने में यह प्रोजेक्ट काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसके अलावा चीन में टेलीविजन समाचार वाचन के लिए रोबोट एंकर के प्रयोग तीन साल से जारी हैं। हाल ही में चीन ने विश्व की पहली 3डी न्यूज एंकर को लांच किया। यह आधुनिक तकनीक से युक्त एक रोबोट है। चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी ‘शिन्हुआ’ और एक अन्य एजेंसी ने मिलकर इसे बनाया है। यह 3डी न्यूज एंकर आसानी से घूम सकती है और जैसी खबर होती है उसके चेहरे के हावभाव भी वैसे ही बदल जाते हैं। ये अपने सिर के बालों और ड्रेस में भी परिवर्तन कर सकती है। अभी यह एक महिला की आवाज में ही न्यूज पढ़ती है मगर इसमें एक खास बात ये है कि यह किसी भी व्यक्ति की आवाज की नकल कर सकती है। यानि यदि आप अमिताभ बच्चन की आवाज में समाचार वाचन चाहते हैं तो आने वाले समय में वह भी संभव हो सकेगा। इसलिए संभव है कि आने वाले समय में ऐसे 3डी न्यूज एंकर ही चैनलों पर समाचार वाचन करते हुए नजर आएं। इससे पहले चीन ने 2018 में ‘क्यू हाउ’ नाम से डिजिटल एंकर का प्रयोग किया था। उसे मशीन लर्निंग तकनीक के जरिए आवाज की नकल करने के योग्य बनाया गया था। ‘शिन्हुआ’ का दावा है कि आने वाले कुछ दिनों में रोबोट एंकर स्टूडियो के बाहर भी समाचार पढ़ते हुए देखे जा सकेंगे। यानि अभी कुछ चैनलों के एंकर स्टूडियो के बाहर एंकरिंग करते हुए दिखते हैं मगर आने वाले समय में इसमें रोबोट का भी इस्तेमाल हो सकेगा। हो सकता है कि टीवी की दुनिया में ऐसे रोबोट एंकर ही प्राइम टाइम में खबरें पढ़ते हुए दिखाई दें।

 

भविष्य के अखबारः

कोरोना महामारी के कारण जो माहौल बनता नजर आ रहा है उसमें यदि आने वाले दिनों में बहुमंजिले मीडिया हाउस महज एक कक्ष में सिमट जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हो सकता है कि मीडिया हाउस अपने वर्तमान बहुमंजिले भवनों को किराये पर उठाकर उनसे पैसे कमाएं क्योंकि ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कारण जब स्टाफ ही ऑफिस नहीं आएगा तो उन्हें विशाल भवनों की जरूरत नहीं होगी। इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में प्रिंट भी किसी गैजेट में सिमट जाए। पाठकों को रूमाल जैसे गैजेट थमा दिये जाएंगे। जब मन चाहा जेब से निकालकर खबर पढ़ ली और फिर मोडकर जेब में रख लिया। एक बदलाव यह होगा कि प्रिंट अब चौबीस घंटे में एक बार नहीं, बल्कि हर पल उस गैजेट के माध्यम से नवीन खबरें अपडेट करता रहेगा। इसलिए समाचार पत्र-पत्रिकाओं के स्वरूप में बड़ा बदलाव आना लाजिमी है। नये गजेट्स में सिमटने वाली पत्रिकाएं अब टैक्स्ट, ऑडियो और वीडियो का सम्मिश्रण उसी प्रकार प्रस्तुत करें जैसा कुछ साल पहले ‘हैरी पॉटर’ फिल्म और दूसरे कुछ ‘साइंस फिक्शन्स’ में देखा गया। कुल मिलाकर अब मीडिया मालिकों को ही नहीं, बल्कि मीडिया में काम करने वाले मीडियाकर्मियों, पाठकों और देश के नीति-निर्माताओं सभी को नये ढंग से सोचना होगा। जो इस बदलाव के लिए तैयार होंगे वे टिकेंगे जो नहीं बदलेंगे वे इतिहास का अध्याय बन जाएंगे।