सांस्कृतिक सीमाओं के बोध की वापसी

भारत और भारत की नैसर्गिक सीमाओं की जानकारी इस भू खंड और विश्व के अन्य क्षेत्रों में निवास करने वाले जन-मानस को लम्बे समय से है। भारत में ज्ञान की उपासना कर रहे विद्वान हों, कला के क्षेत्र में कार्य कर रहे कलाकार, राजनीतिज्ञ, साधू-संन्यासी और विशेषकर राज कर रहे शासक एवं सम्राट, सभी में भारत की सांस्कृतिक एवं नैसर्गिक सीमाओं की असंदिग्ध समझ थी और वे इसके प्रति सजग भी थे।

भारत के अन्दर की राजनीतिक सीमाएं बदलती गई, परंतु सांस्कृतिक सीमाएं ज्यों का त्यों ही रहीं। राज-सत्ताएं बदलीं, दर्शन बदले, नए पंथ-संप्रदाय आए, लेकिन यहां रहने वाले लोगों का राष्ट्रबोध ज्यों का त्यों रहा। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम हर क्षेत्र की कुछ विशेषताएं रहीं। इन सभी विविदताओं के बावजूद सांस्कृतिक एकता के चलते राष्ट्रीय एकात्मता का भाव प्रवाहित रहा। इसी लिए जब बाहरी आक्रमण हुए, तब जो भूभाग आक्रांताओं के कब्जे में आए उसे किसी विशेष प्रांत पर हमला न मानकर, शासकों और महात्माओं ने भारत पर हमला माना। सांस्कृतिक सीमाओं का बोध होने की वजह से आक्रांताओं से सुदूर के हिस्सों को मुक्त करने के लिए निरंतर संघर्ष होते रहे। इसी कड़ी में उदाहरण के तौर पर कश्मीर के राजा सम्राट ललितादित्य ने भारत की नैसर्गिक सीमाओं को स्वतंत्र कराने के लिए अभियान चलाया था।

तत्पश्चात गुरु नानक देव की वाणी में बाबर के हमले के बारे में कहा गया ‘‘खूरासान खसमाना किया हिंदूस्तान डराइआ, आपै दोसू न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ।’’ बाबर द्वारा किए गए हमले को गुरु नानक देव ने हिन्दुस्तान पर हमला बताकर, उसकी क्रूरता और लूट का संपूर्ण वर्णन किया। बाद में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सम्राट ललितादित्य की भांति पुनः भारत की नैसर्गिक सीमाओं से आक्रांताओं को खदेड़ा।

भारत का मुकुट कहा जाने वाले कश्मीर में सम्राट ललितादित्य जैसे महान राजाओं का शासन रहा। इस दौरान भारत के बड़े क्षेत्र का शासन लम्बे समय तक कश्मीर से चला। इसी कश्मीर में तंत्र, शिक्षा और दर्शन के महान स्थल और विद्वानों ने जन्म लिया। जिसमें शारदा पीठ भारत में ज्ञान अर्जन की भूमि के रूप में स्थापित हुई। आचार्य अभिनवगुप्त जैसे विद्वानों ने इस भूमि पर ज्ञान की साधना की। इसी प्रकार अर्थ और व्यवसाय के लिहाज से भी यह क्षेत्र भारत की मजबूती का कारण रहा। रेशम मार्ग के नाम से प्रसिद्ध विश्व का व्यवसाय मार्ग इसी क्षेत्र के लद्दाख से होके निकलता था।

समय के साथ विदेशी आक्रान्ताओं के हमले भारत ने सहे, जिसका सबसे अधिक प्रभाव इसी क्षेत्र पर पड़ा। जो भी आक्रमण भारत में हुए वह इसी उत्तर-पश्चिमी दिशा से हुए। सम्राट ललितादित्य के समय एवं उसके उपरांत बनाए गये मंदिर और धर्म स्थलों को विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा ध्वस्त किया गया। विदेशी संस्कृति एवं सभ्यता का आगमन इस क्षेत्र में सबसे पहले हुआ। भारत का उत्तर-पश्चिमि क्षेत्र का भूखंड विदेशों से साथ लगे होने के कारण जमीन के रास्ते से आक्रांताओं के हमलों का शिकार बना। इसी वजह से इसी क्षेत्र से हमले हुए और इस हमलों को समय-समय पर केवल उस भूखंड पर नही अपितु भारत पर ही हमला माना गया। दक्षिण, पूर्व और पश्चिम समुद्र से गिरे रहने के कारण इस क्षेत्र से कम हमले हुए और उत्तर एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्र तिब्बत से लगता था, जिसका भारत से कोई सांस्कृतिक और सभ्यतागत संघर्ष नहीं था।

सम्राट ललितादित्य के बाद पुनः भारत की नैसर्गिक सीमाओं तक आक्रमण कर विदेशी आक्रान्ताओं को भगाने का कम महाराजा रणजीत सिंह ने किया। तदोपरांत महाराजा गुलाब सिंह ने राज्य की सत्ता संभाली और सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर राज्य अस्तित्व में आया। महाराजा गुलाब सिंह के सेनापति जोरावर सिंह ने तिब्बत तक का क्षेत्र विदेशी राज से मुक्त करवा, पुनः वहां भारतीय राज की स्थापना की। भारत की नैसर्गिक सीमाओं के प्रति जागरूक राजाओं और शासकों ने निरंतर आक्रान्ताओं को वहां से खदेड़ा और भारत को सुरक्षित रखा। अंग्रजी शासन से भारत की स्वतंत्रता के समय जम्मू-कश्मीर का शासन डोगरा राजा महाराजा हरी सिंह के पास था। महाराजा हरी सिंह भारतीय शासक थे, जिनकी भारत भक्ति से अंग्रेज भली भांति परिचित थे। भारत को छोड़ते समय अंग्रेज कभी नहीं चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत में रहे।

जिस राज्य ने भारत के ज्ञान, दर्शन, कलाओं और कुशल शासकों को जन्म दिया, उसका भारत से अलग होना उस राज्य की ही हत्या होती। साथ ही जम्मू-कश्मीर का शासन भारतीय राजा के अधीन होने की वजह से अंग्रेज उसका निर्णय नहीं कर सकते थे। राज्य के विलय का निर्णय केवल जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरी सिंह को करना था। जैसा कि विदित था, माउंटबेटन और जिन्ना के निरंतर दबाव और पंडित जवाहरलाल नेहरु की अज्ञानता के बावजूद महाराजा हरी सिंह ने राज्य को पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बनने दिया। अंततः 21 अक्तूबर 1947 को राज्य पर जबरन कब्जा करने के लिए पाकिस्तान द्वारा हमला किया गया। 26 अक्तूबर 1947 को महाराजा हरी सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर राज्य का पूर्ण विलय भारत में कर दिया।

विलय उपरांत जवाहरलाल नेहरु के दबाव के चलते महाराजा हरी सिंह को राज्य कि बागडोर नेहरु के मित्र शेख मुहम्मद अब्दुल्लाह को सौंपनी पड़ी। भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर राज्य को पाकिस्तानी कब्जे से छुड़ा रही थी कि अंग्रेजों द्वारा एक और खेल खेला गया और एक बार पुनः पंडित नेहरु का उपयोग भारत के हितों के विरुद्ध किया गया। 31 दिसम्बर 1947 को माउंटबेटन ने नेहरु को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में जम्मू-कश्मीर को ले जाने के लिए मना लिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने भी पाकिस्तान के इस हमले को भारत पर हमला मान उसका क्षेत्र खाली करने का निर्णय सुनाया, लेकिन संघर्ष विराम की घोषणा से दोनों देशों की सेनाएं जहाँ थीं, वहीं रह गयीं।

जम्मू-कश्मीर से महाराजा हरी सिंह का शासन खत्म हो गया था और भारत में जिनका शासन था उन्हें भारत की सांस्कृतिक सीमाएँ तो दूर, भारत का ही बहुत अल्प ज्ञान था। विदेशों से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर, विदेशी मुल्यों और तत्कालिक वैश्विक ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें पढ़ कर आये लोग अब भारत चला रहे थे। इसी कारण माऊंटबेटन के बहकावे पर बड़ी आसानी से भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में चला गया और जम्मू-कश्मीर का आधे से ज्यादा हिस्सा पाकिस्तान के अवैध कब्जे में ज्यों का त्यों रहा। जम्मू-कश्मीर का सामरिक महत्व न समझते हुए और भारत की सांस्कृतिक सीमाओं का बोध न होने के कारण से भविष्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा भारत ने मोल ले लिया।

अब पुनः भारत का उत्तर-पश्चिम विदेशी कब्जे में आ गया और भारत का पश्चिमि क्षेत्रों से सड़क मार्ग कट गया। इसके बाद एक ओर बड़ा खतरा सुरक्षा की दृष्टि से भारत पर मंडराने लगा। भारत की सांस्कृतिक सीमाओं के सामरिक महत्व से अनभिज्ञ भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू पुनः एक बार इस खतरे को नजरअंदाज कर विश्व शांति स्थापित करने के उद्देश्य में लगे रहे। यह खतरा था चीन का तिब्बत की ओर बढ़ने का। बहुत लोगों के आगाह करने के बावजूद पंडित जी ने इसे नजरअंदाज कर विश्व शांति पर ज्यादा जोर दिया। अंततः चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर इसपर कब्जा कर लिया। अब जिस उत्तर और उत्तर-पूर्वी समाओं से भारत को कभी खतरा नहीं था, वह भी हो गया।

अब से पहले चीन के साथ भारत का कोई सीमा विवाद नहीं था, क्योंकि भारत से चीन की सीमा लगती ही नहीं थी। पंडित जी को पुनः सरदार पटेल समेत चीन के भारत पर संभावित हमले को लेकर कई लोगों ने चेताया। लेकिन पंडित जी चीन को खतरा मानने को त्यार ही नहीं थे। अंततः पंडित नेहरू का यह भ्रम भी टूटा और 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। भारत का उत्तर-पूर्व और उत्तर का बहुत हिस्सा चीन के कब्जे में आ गया और पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान ने चीन को उपहार के रूप में दे दिया। जिसके बाद चीन ने भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र को सीमा विवाद में उलझाए रखा। तदोपरांत भारत की सुरक्षा को लेकर जितने भी खतरे हुए या भारत के जितने भी युद्ध हुए वह इन्हीं सीमाओं को लेकर हुए। भारत को इसके बाद जितने भी खतरे हुए या संकट आए तो उसका मुख्य कारण भारत की सांस्कृतिक सीमाओं से अनभिज्ञ रहने वाले राजनेताओं के हाथ में भारत की सत्ता होना ही था।

भारत की सुरक्षा को हुए खतरे के अलावा यदि जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति की भी बात करें, तो वह भी दयनीय ही रही। पंडित नेहरू के अत्याधिक विश्वास और समर्थन होने की वजह से शेख अब्दुल्ला ने राज्य में अपनी सुविधा से शासन चलाना शुरु कर दिया और देखते ही देखते राज्य के बहाने अपने लिए विशेष व्यवस्थाएं और सुविधाएं जुटाना प्रारंभ कर दी। माऊंटबेटन के बाद शेख अब्दुल्ला ने पंडित नेहरू को जम्मू-कश्मीर को लेकर अपने हिसाब से चलाना शुरु कर दिया। एक बार दोबारा देश की संप्रभुता और राज्य के सामरिक महत्व को नजरअंदाज कर शेख के दबाव के चलते जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 और 1954 में राष्ट्रपति के आदेश द्वारा अनुच्छेद 35ए लाया गया। जहां पहले भारत की सांस्कृतिक सीमाओं के प्रति सजग शासकों ने देश की अखंडता के लिए बाहरी ताकतों को भी घुटने पर लाते रहे, वहीं पंडित नेहरू शेख अब्दुल्ला के दबाव के आगे भी टिक न सके।

समय के साथ दिल्ली में पंडित नेहरू के परिवार या उसकी मदद से सरकारे बनती गई और जम्मू-कश्मीर में शेख परिवार या उसकी मदद से सरकारें बनती गई। पाकिस्तान और चीन का खतरा यूं ही बरकार रहा। भारत द्वारा कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं की गई। वहीं राज्य में अनुच्छेद 370 और 35ए की वजह से राज्य के विकास और वहां के जनता के कल्याण के रास्ते रुक गए। कश्मीर में बैठे अलगाववादी, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार डराते रहे और दिल्ली घुटने टेकता रही। भारत की सदियों पुरानी सामरिक बुद्धि और शक्ति पाकिस्तान और चीन का खतरा तो क्या कश्मीर के चंद परिवारों के आगे भी असहाय सी हो गई। अनुच्छेद 370, 35ए पर चर्चा तो दूर, कश्मीर के कुछ परिवारों की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य जम्मू-कश्मीर को लेकर करना नामुमकिन सा लगने लगा।

अंग्रेजों के जाने के बाद एक लम्बे काल तक भारत की सत्ता उन लोगों के हाथ में रही जिन्हे भारत की सांस्कृतिक सीमाओं का बौध नहीं था। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव भारत के लिए एक उम्मीद लेकर आया। भाजपा चुनाव जीती और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने। किसी ने इसे भारत में पुनः भारत का शासन के रूप में बताया और किसी ने भारत की वास्तविक स्वतंत्रता। लेकिन भारत में पुनः भारतीय शासन आने की पहली शर्त थी, भारत की सांस्कृतिक सीमाओं का बोध रखने वाला शासक। नरेंद्र मोदी ने देश की सत्ता संभालते ही जम्मू-कश्मीर को लेकर ऐसे कदम उठाए जिसकी आशा तो भारत सदियों से रखता था, पर उम्मीद बहुत कम।

जम्मू-कश्मीर के सामरिक महत्व को समझते हुए सर्वप्रथम राज्य में तैनात भारत की सेनाओं को घाटी से आतंकवाद के खात्मे और पाकिस्तान से मुकाबले के लिए बिल्कुल स्वतंत्र छोड़ दिया गया। घाटी में वर्षों से सक्रिय कईं आतंकियों का इस बीच भारतीय सेनाओं द्वारा सफाया किया गया। बीच में मुफ्ती परिवार की पीडीपी के साथ भाजपा ने सरकार भी बनाई, पर वैचारिक और राज्य के सामरिक विषयों पर समझौता होते देख दो वर्ष बाद सरकार से समर्थन वापस ले लिया। जो भारत आज से पूर्व जम्मू-कश्मीर की बात पर ही हतबल हो जाता था, उसने अब भारत और वैश्विक मंचों पर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर वापिस लेने की बात करना शुरु कर दी। हर मंच से भारत द्वारा अधिकारिक रूप में कहा जाने लगा कि भारत और पाकिस्तान के बीच अब जम्मू-कश्मीर को लेकर कोई विषय बचा है, तो वह पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर है।

पाकिस्तान द्वारा पूर्व की भांति ही आंतकवादियों को भेज सुरक्षा बलों पर हमले कराना और घाटी में अशांति फैलाने का वो खेल वैसे ही जारी रहा। पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा उड़ी में भारतीय सुरक्षा बलों पर हमला और पुलवामा में केंद्रीय सुरक्षा बल पर हुए हमलों का जो उत्तर भारत द्वारा दिया गया, उसका अनुमान पाकिस्तान तो क्या, शायद भारत को भी नहीं होगा। पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल स्ट्राईक और बालाकोट में आतंकी ठिकानों पर किए हवाई हमले, अपने पूराने रूप में लौट रहे नए भारत की पहचान थी। सम्राट ललितादित्य और महाराजा रेजीत सिंह द्वारा किया गया कार्य हजारों वर्षों बाद दोहराया गया। भारत ने शत्रु और आक्रांताओं की सीमा के अंदर घुरकर उसका सर्वनाश किया।

तिब्बत पर हुए हमले को जिस तरह से पंडित नेहरू द्वारा नकारा गया, जिसका दंश भारत आज तक भुगत रहा है। उसके विपरीत डोकलाम में चीनी सेना से सीधी टक्कर लेकर भारत ने चीन के भी होश उड़ा दिए और अंततः चीन को पहली दफा पीछे हटना पड़ा। वहीं जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में टैंक और लड़ाकू जहाज उतार कर वहां भी चीनी घुसपैठ को बंद किया गया। अब भारत सामरिक दृष्टि से वही कर रहा था जो उसकी अखंडता के लिए सही था। शेख अब्दुल्ला के दबावों से हार मान जाने वाला भारतीय शासन अब विश्व के बड़े दबावों के नीचे दबने से भी मना कर चुका था। भारत की सामरिक दृष्टि और रणनीति तो अब समझ में आ गई थी। लेकिन जम्मू-कश्मीर के अंदर परिस्थियां अभी भी बहुत हद तक वैसी ही थी।

कश्मीर में बैठे अलगावादी, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार का अहंकार अब भी बरकार था। वह अभी भी आश्वस्त थे कि भारत को वह जब चाहें विशेष राज्य का ढकोसला रच के डरा-धमका सकते हैं। यही कारण था कि अब्दुल्ला और मुफती परिवार का अहंकार इतना बढ़ गया कि वह यह तक कहने लगे कि अनुच्छेद 370, 35ए को छेड़ोगे तो राज्य तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा,, राज्य भारत से अलग हो जाएगा, मोदी दो बार तो क्या दस बार भी प्रधानमंत्री बन जाए तो भी अनुच्छेद 370 और 35ए नहीं हटा सकता, आदि।

अंततः 5 अगस्त 2019 का वह स्वर्णिम दिन, जिसका इंतजार भारत को सदियों से था। प्रधानमंत्री नरेंद्र के नेतृत्व में भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 के एक को छोड़ सब प्रावधान और 35ए हटा दिए गए और राज्य का पुनर्गठन कर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख दो केंद्र शासित राज्य बना दिए गए। दो केंद्र शासित राज्यों के मानचित्र ने भारत के सांस्कृतिक सीमाओं के बोध का मानचित्र स्पष्ट कर दिया। केंद्र शासित राज्य जम्मू-कश्मीर के मानचित्र में बिना किसी नियंत्रन रेखा के, पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के हिस्से के जिलों को स्पष्ट दर्शा कर भारत ने अपनी भविषय की रणनीति भी स्पष्ट की। वहीं केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के मानचित्र में भी पाक और चीन अधिक्रांत लद्दाख को पूर्णता बिना किया नियंत्रन रेखा या वास्तविक नियंत्रन रेखा के भारत का हिस्सा बताकर स्पष्ट संदेश दिया। इस दिन भारत की जीत हुई। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि भारत का शासन सदियों बाद भारत की सांस्कृतिक सीमाओं का बोध के प्रति सजग शासक के हाथों में था।

 

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