दृश्य संवाद

’द केरल स्टोरी’ पर चुनावी दंगल

दूरदर्शन ने फैसला किया कि 5 अप्रैल को ’दि केरल स्टोरी’ मूवी की स्क्रीनिंग की जाएगी। दूरदर्शन के इस फैसले की कांग्रेस और केरल के कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने खूब विरोध किया। मूवी की स्क्रीनिंग रोकने के लिए केरल उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। लेकिन अदालत ने यह कहते हुए (अंतरिम) आदेश जारी नहीं किया कि डीडी को जवाब देने के लिए और समय दिया जाना चाहिए था। केरल उच्च न्यायालय ने दूरदर्शन (डीडी नेशनल) पर ’द केरल स्टोरी’ के प्रसारण पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। कोर्ट के इस निर्णय के बाद 5 अप्रैल को दूरदर्शन पर ’दि केरल स्टोरी’ मूवी की स्क्रीनिंग की गई। 

साल 2023 में रिलीज हुई फिल्म ’दि केरल स्टोरी’ को लेकर दावा किया गया है कि यह केरल की सच्ची कहानी पर आधारित है। फिल्म में आतंकवाद, लव जिहाद और धर्म परिवर्तन जैसे संवेदनशील मुद्दे शामिल हैं। बॉक्स आफिस पर भी कम बजट में बनी इस फिल्म की अच्छी कमाई हुई। 

केरल की वामपंथी सरकार ने दूरदर्शन के फिल्म स्क्रीनिंग के फैसले पर कड़ा विरोध जताया। केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने ट्वीट करते हुए लिखा - ’दूरदर्शन द्वारा ध्रुवीकरण को बढ़ावा करने वाली फिल्म ’दि केरल स्टोरी’ को प्रसारित करने का निर्णय बेहद निंदनीय है। राष्ट्रीय समाचार प्रसारक को भाजपा-आरएसएस की प्रचार मशीन नहीं बनना चाहिए और इस फिल्म की स्क्रीनिंग नहीं करनी चाहिए। जो केवल आम चुनाव से पहले सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाना चाहते हैं। केरल नफरत फैलाने के ऐसे दुर्भावनापूर्ण प्रयासों का दृढ़ता से विरोध करता रहेगा।’ मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि सत्तारूढ़ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की युवा शाखा, डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया के कार्यकर्ताओं ने 5 अप्रैल को तिरुवनंतपुरम में दूरदर्शन केंद्र के परिसर में धावा बोलने का प्रयास किया और मांग की कि राष्ट्रीय प्रसारक अपना निर्णय रद्द कर दे। 

कांग्रेस ने भी केरल में फिल्म की स्क्रीनिंग की निंदा की और इसे केरल के लोगों का अपमान बताया। कांग्रेस के केरल यूनिट ने इसके खिलाफ चुनाव आयोग तक का रुख किया था। 

वहीं, भाजपा ने केरल की कम्युनिस्ट सरकार और कांग्रेस पार्टी के फिल्म के प्रसारण को लेकर किए जा रहे विरोध को अनुचित बताया है। भाजपा ने यह भी दावा किया कि फिल्म का विषय वास्तविक है और वामपंथी और कांग्रेस बिना बात के विरोध कर रहे हैं। केरल में भाजपा नेता और केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री वी. मुरलीधरन ने कहा है कि इस फिल्म को सेंसर बोर्ड की अनुमति प्राप्त है। उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि हमेशा से अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में रहने वाला वाम मोर्चा अब क्यों किसी और की अभिव्यक्ति का विरोध कर रहा है? 

बता दें कि 2023 कर्नाटक विधानसभा चुनावों के अभियान के दौरान बेल्लारी में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इस फिल्म ने आतंकवाद के नए चेहरे को दिखाया है, लेकिन कांग्रेस पार्टी फिल्म को बैन करना चाह रही है और आतंकियों का समर्थन करना चाह रही है।

बता दें कि बीते वर्ष मई में रिलीज हुई फिल्म ’द केरल स्टोरी’ में अदा शर्मा ने मुख्य भूमिका अदा की। इसका निर्देशन सुदीप्तो सेन ने किया। इस फिल्म के निर्माता विपुल अमृतलाल शाह हैं। इस फिल्म का जब ट्रेलर जारी हुआ था, तब भी इस पर काफी हंगामा हुआ था। ’दि केरल स्टोरीश् की कहानी बेहद मार्मिक है। इसमें दिखाया गया है कि राज्य में किस तरह ’लव जिहाद’ के नाम पर युवतियों का धर्म परिवर्तन कराकर उन्हें आईएसआईएस में धकेला गया। उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार हुआ।

पूनम की झूठी मौत में पीआर का खतरनाक खेल

लेखक, हास्यकार एवं प्रकाशक मार्क ट्वेन का एक बेहद चर्चित कथन है - सच जब तक जूते पहन रहा होता है, तब तक अफ़वाह आधी दुनिया का सफ़र तय कर लेती है। अभिनेत्री और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर पूनम पांडे द्वारा अपनी मौत की झूठी खबर वायरल करवाने के मामले में भी यही तथ्य उभरकर सामने आता है। पहली फरवरी को पूनम पांडे की पीआर टीम ने एक पोस्ट शेयर की। इसमें बताया कि 32 साल की एक्ट्रेस की सर्वाइकल कैंसर के चलते मौत हो गई है। मुख्यधारा के कई मीडिया संस्थानों ने बिना पुष्टि के इस खबर को चला दिया। सोशल मीडिया पर इस खबर के वायरल होते ही अभिनेत्री की दुखद मौत पर संवेदनाओं की बाढ़ सी आ गई। इसी बीच के दिन बाद एक्ट्रेस सोशल मीडिया पर आकर बताती हैं कि वे बिल्कुल ठीक हैं। साथ ही स्पष्टीकरण भी दिया कि सर्वाइकल कैंसर के प्रति जागरूकता फैलाने के मकसद से उसने यह झूठ बोला। गैर-जिम्मेदाराना ढंग से फर्जी सूचनाओं को प्रसारित करने का यह तो हुआ एक मामला। 

हैरानी यह कि सप्ताह भर के भीतर ही पूनम पांडे के नाम से जुड़ा ‘फेक न्यूज’ का एक और प्रकरण उद्घाटित होता है। कई बड़े मीडिया संस्थानों और सोशल मीडिया आउटलेट्स ने खबर चलाई कि अभिनेत्री पूनम पांडे को भारत सरकार सर्वाइकल कैंसर जागरूकता अभियान का मुख्य चेहरा बनाएगी। एक अति उत्साही राष्ट्रीय स्तर के मीडिया संस्थान की खबर का शीर्षक था, ‘मोदी सरकार देगी पूनम पांडे को बड़ा तोहफा, रचा था मौत का नाटक’। रिपोर्टिंग का एक अनिवार्य सिद्धान्त है कि किसी भी खबर की प्रामाणिकता के लिए आधिकारिक पुष्टि की जाए। मगर इस खबर को चलाने वाले किसी भी संस्थान ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों का बयान लेना आवश्यक नहीं समझा। इस एक लापरवाही से यह झूठी खबर खूब प्रसारित हुई। पहले से ही फर्जी खबर के कारण चर्चा में चल रही अभिनेत्री के साथ स्वास्थ्य मंत्रालय का नाम जोड़कर मंत्रालय की साख को भी सवालिया बना दिया गया कि आखिर एक गैर-जिम्मेदाराना अभिनेत्री को मंत्रालय कैसे अपना ब्रांड एंबेसेडर बना सकता है।

मौत की झूठी खबर प्रसारित करवाने को लेकर पूनम पांडे सोशल मीडिया यूजर्ज से लेकर सामाजिक-कानूनी कार्यकर्ताओं और सिनेमा सेलिब्रिटीज के निशाने पर आ गईं। ऑल इंडियन सिने वर्कर्स एसोसिएशन ने उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग की। समाचार एजेंसी एएनआई के अनुसार, एक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर ने मुम्बई पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, जिसमें कहा कि पूनम पांडे ने कैंसर जैसी बीमारी का मजाक बनाया। यह कैंसर पीड़ितों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। मौत की झूठी खबर फैलाने के आरोप में पूनम की मैनेजर निकिता शर्मा के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया है। सोशल मीडिया पर इसे ‘भद्दा’, ‘शर्मनाक’ और ‘प्रचार का निचला स्तर’ कह कर खूब आलोचना की गई। 

इसके बाद फिल्ममेकर अशोक पंडित ने एक वीडियो शेयर करते हुए कहा कि एक्ट्रेस ने कई लोगों के इमोशन्स के साथ खेला है। उन्होंने उन सभी लोगों का भी मजाक उड़ाया है, जो सर्वाइकल कैंसर से लड़ रहे हैं। मैं सभी गर्वमेंट लॉ एंजेसी से अपील करूंगा कि पूरे देश से झूठ बोलने और यह नाटक रचने के लिए एक्ट्रेस के खिलाफ एक केस दर्ज किया जाए। वहीं, द कश्मीर फाइल्स’ फेम डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा, ‘सोशल मीडिया के बढ़ते चैलेंजेस को देखते हुए मेरा मानना है कि यहां भी कुछ रेगुलेशन होने चाहिएं। खासतौर पर न्यूजमेकर्स के लिए और उनके लिए जो अपने आप को इन्फ्लुएंसर्स बोलते हैं। सनसनीखेज और नौटंकी को सामान्य बनाना खतरनाक है। फर्जी मौत की खबर तो बस शुरुआत है। आगे-आगे देखो होता है क्या (जस्ट वेट एंड वॉच)। नोएडा के एसीपी रजनीश वर्मा कहते हैं कि पूनम पांडे ने जो एक्ट किया, वो अवेयरनेस नहीं है। अवेयरनेस का यह तरीका नहीं है। यह क्राइम है। इससे सर्वाइकल कैंसर की दवाओं की कालाबाजारी शुरू हो सकती है। 

 

इस पूरे प्रकरण में अधिवक्ता मनीष ने जो चिन्ताएं जाहिर की हैं, उन पर ध्यान दिया जाना भी जरूरी है। उन्होंने कहा कि बेशक पूनम का कहना है कि उन्होंने जागरूकता के लिए ऐसा किया, लेकिन उनकी यह हरकत जागरूक करने वाली कम और लोगों के मन में कैंसर को लेकर डर पैदा करने वाली ज्यादा थी। जिस वक्त पूनम पांडे के मरने की झूठी खबर सोशल मीडिया पर आई, उस वक्त लोगों के मन में एक डर पैदा हुआ कि कल तक जो अभिनेत्री पार्टी कर रही थी, अचानक उसकी मौत हो गई। मतलब यह लाइलाज बीमारी है। आईपीसी की धारा 505 में प्रावधान है कि कोई ऐसी अफवाह जिससे लोगों के मन में भय और डर व्याप्त हो जाए, वो कानूनी तौर पर अपराध है।

चौतरफा आलोचना के बाद विवादास्पद अभियान के लिए जिम्मेदार एजेंसी श्बांग ने सोशल मीडिया पर सार्वजनिक माफी जारी की। श्बांग के आधिकारिक हैंडल ने पूनम पांडे के इस पब्लिसिटी स्टंट को लेकर माफी पोस्ट साझा किया। एजेंसी ने इसमें लिखा, हां, हम हॉटरफ्लाई के सहयोग से सर्वाइकल कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने की पूनम पांडे की पहल में शामिल थे। इसके लिए हम दिल से माफी मांगना चाहेंगे। विशेष रूप से उन लोगों के प्रति जो किसी भी प्रकार के कैंसर की कठिनाइयों का सामना करने और किसी प्रियजन के कारण उत्पन्न हुए हैं। अब सवाल उठता है कि क्या इस माफीनामे से उस क्षति की कितनी पूर्ति सम्भव है, जो एक झूठे प्रचार अभियान के दौरान हुई।  

झूठी सूचनाओं के प्रसारण का यह प्रकरण समूचे सूचना तन्त्र, विशेषकर मीडिया के लिए नए सिरे से आत्मावलोकन की जरूरत को रेखांकित कर रहा है। इस प्रकार किसी झूठी खबर को प्रसारित करना जनता के विश्वास के साथ खतरनाक खिलवाड़ सरीखा है। मीडिया की सुर्खियां बटोरने और ध्यान आकर्षित करने का यह एक अनुचित एवं निन्दनीय तरीका है। मशहूर हस्तियों और समाचार आउटलेट्स दोनों को सच्चाई और जिम्मेदार संवाद को प्राथमिकता देनी चाहिए। सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्ज को समझना होगा कि उनके फॉलोवर्ज उनकी एक बड़ी ताकत हैं। इस ताकत का एहसास करते हुए पूरी जिम्मेवारी के साथ सूचनाएं साझा करनी चाहिएं। सबसे आगे भागने की होड़ में किसी भी सूचना की आधिकारिक पुष्टि के बिना उसे प्रकाशित करने और अधिक से अधिक पाठक, श्रेाता या फोलावर्ज के लिए सनसनीखेज सुर्खियों के खेल से बचना होगा। जिम्मेदार पत्रकारिता करते हुए पत्रकारीय-सिद्धान्तों को अपना पथप्रदर्शक बनाकर चलना होगा। तभी इस पूरे सूचना तन्त्र की विश्वसनीयता और प्रासंगिकता बची रह सकती है।

राम-मंदिर : सांस्कृतिक सातत्य का कला-पक्ष

हृदयों की चिर संचित अभिलाषा व कई सौ वर्षों की  संघर्ष गाथा राम मंदिर के रुप में मूर्तिमान हो उठी। मंदिर के स्वरूप और रामलला के विग्रह को राष्ट्र ने अश्रु नीमिलित नेत्रों से निहारा, अपना जीवन धन्य माना और असंख्य उत्कंठाओं ने एकता का सहज स्वर गुंजित किया । राममंदिर निर्माण से देश के पश्चात्ताप का कांटा निकल गया और पूरे राष्ट्र ने पीढ़ियों के दर्द को अनुभूत किया । मंदिर हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह न केवल कला, वास्तु, ज्योतिष, यांत्रिकी और कल्पना का रुप है बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत और उन्नत सभ्यता का प्रतीक भी है । एक मंदिर समाज के प्रकल्पों का केंद्र बिंदु भी होता है जहां से समरसता का प्रवाह होता है । मंदिर भारतीयता का एक सनातन स्वरूप है जो हर समय – काल में, विरोध – आक्रमण के भीषण दौर में भी अपनी जड़ें पुन: स्थापित करने अथवा खोजने का प्रस्थान बिंदु होते हैं ।

मंदिरों की बनावट एवं शैली अपने आप में मौलिक और तार्किक होती है कि उसके किसी खण्ड से उसके मूल स्वरूप की कल्पना की जा सकती है । राममंदिर के लिए चले आधुनिक अदालती कार्यवाही में भी इनकी तार्किकता देखी जा सकती है । इस मंदिर में लोकतंत्र का धैर्य भी छांह पाया है । वास्तव में राम की धीरता ही भारतीयता है । भारतीयता का आशय प्राणवन्त आस्था है । जिसकी आस्था इतनी प्राणवन्त हो तो उस आस्था का स्वरूप कैसा होगा ? उस स्वरूप में विराजने वाला कैसा होना चाहिए ? जब से मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हुआ था तभी से जन हृदय की विह्वलता आतुर थी स्वयं को व्यक्त करने के लिए । श्रद्धा और प्रेम की सम्पूर्णतम् नमसिक्त अभिव्यक्ति, मंदिर निर्माण की परिकल्पना और पत्थरों के चयन एवं शिल्प में हमें दिखाई देती है । राम धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं, तो ऐसे में उनके विग्रह के लिए कौन सा पत्थर उपयुक्त होगा? और स्तम्भों – अलंकरणों में किस प्रकार कला के सभी तत्वों का निचोड़ रखा जाय ? इस महती आकांक्षाओं का प्रतिरूप है राममंदिर । इसके निर्माण में तकनीकी रूप से शास्त्र और आधुनिक सक्षम एवं उपयुक्त समग्रियों का प्रयोग किया गया है । स्तम्भों, तोरणों और आलेखनों में प्राचीन मंदिरों के सदृश नयनाभिराम लयकारी का निर्वहन किया गया है ।

राममंदिर के मुख्य शिल्पकार चन्द्रकान्त सोमपुरा जी हैं । ये उस पारपंरिक शिल्पकार परिवार से आते हैं जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात् भव्य सोमनाथ मंदिर की शिल्प रचना की । भारत में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण अथवा बाहरी देशों में जहां – जहां भी भारतीय सांस्कृतिक विरासत आज भी विद्यमान है, उन सभी स्थानों पर मंदिर अपने आप में अप्रतिम कला का रचनाविधान है । विभिन्न पुराणों जैसे अग्नि पुराण, गरुणपुराण, विष्णु धर्मोत्तर पुराण इत्यादि में वास्तु, देवप्रतिमा एवं चित्रकला विधान का तार्किक वर्णन हम पाते हैं । मयमतम्, अभिलषितार्थचिंतामणि, मानसोल्लास, समरांगणसूत्रधार इत्यादि अनेक ग्रंथ आज भी प्राप्त हैं जिनमें मंदिरवास्तु एवं प्रतिमाविज्ञान के सिद्धांतों का वर्णन है । हमारे देश में देवमंदिर, देवप्रतिमाओं का विज्ञान और तकनीकी, प्रचीनता के साथ साथ आज भी सटीक और आधुनिक है । देश के कोने-कोने में, हजारों साल से खड़े ये मंदिर आज भी इंजीनियरिंग का आश्चर्यजनक रूप हैं । राममंदिर प्राचीनता और आधुनिकता का संगम है । राजस्थान के बलुआ पत्थर से तराशा गया यह मंदिर नागर शैली में बनाया गया है ।

नागर शैली मंदिर निर्माण की एक महत्त्वपूर्ण शैली है जो उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित है । इसके निर्माण में लार्सन एंड टुब्रो एवं रखरखाव में टाटा कंसल्टिंग कंपनी ने कार्य किया है । मंदिर निर्माण में 14 मीटर मोटे रोल काम्पैक्ट कंक्रीट को कई परतों में बनाया गया है जिस तरह प्रकृति में पत्थर का निर्माण होता है उसी प्रकार नीचे कई परतों किया गया है ।  मंदिर को नमी से बचाने के लिए 21 फुट मोटा ग्रेनाइट पत्थर का चबूतरा बनाया गया है । यह तीन मंजिल की भूकंपरोधी संरचना होगी जिसकी अनुमानित आयु लगभग 2500 वर्ष होगी । मंदिर की लंबाई 360 फुट, चौड़ाई 235 फुट और शिखर तक ऊंचाई 161 फुट रखा गया है । नागर शैली के निर्माण में प्रवेश से गर्भगृह तक कई स्थान होते हैं । राममंदिर में पांच मण्डप बनाए गए हैं यथा – नृत्य मंडप, रंग मंडप, सभा मंडप, प्रार्थना मंडप, और कीर्तन मंडप । मंडपों के ऊपर शिखर का निर्माण किया गया है । निर्माण की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें जोड़ के लिए गारे – सीमेंट का प्रयोग नहीं किया गया है क्योंकि इनकी उम्र कम होती है । इसमें ऐसे किसी सामग्री का प्रयोग नहीं किया गया है जिसकी आयु हजार वर्ष से कम हो । पत्थरों को एक – दूसरे से छिद्रबंध द्वारा जोड़ा गया है, अर्थात् एक पत्थर को दूसरे पत्थर में छेद करके उसे बराबर बिठाकर फिट किया जाता है जिससे उनमें जोड़ प्रतीत नहीं होता । दूसरी विधि में पत्थरों को तांबे की प्लेटों द्वारा जोड़ने का उपयोग किया गया है । स्तम्भों – तोरणों की भव्यता और उनमें किया गया आलेखन अत्यंत सौंदर्यपूर्ण है । रामलला के गर्भगृह की छटा निराली है ।

गर्भगृह की दीवारें और छत सुन्दर आलंकारिक आलेखनों से सज्जित हैं । कमल दल के अलंकरणों एवं छत पत्थरों के चक्राकार पद्म सुशोभित है । आलेखनों में अजंता सी लयात्मकता एवं कोमलता का अनुसरण किया गया है । विग्रह निर्माण में गंडकी नदी से प्राप्त शालिग्राम शिला का उप्रयोग किया गया है, जिसकी कार्बन डेटिंग छह करोड़ वर्ष पुरानी ठहरती है । रामलला की मूर्ति कृष्णशिला में बनाई गई है जो कर्नाटक के खदान से प्राप्त हुई है, जिसे मैसूर के कलासाधक अरुण योगीराज ने गढ़ा । इस स्थानक मूर्ति का प्रथम रेखांकन काशी के मूर्धन्य चित्रकार सुनील कुमार विश्वकर्मा ने तैयार किया था । अनुपम छवि सौन्दर्य एवं सौम्य – स्मित मुस्कान लिए रामलला को करोडों अन्तरतम् की अतृप्त स्पृहा से बनाया गया है ।

श्रद्धा, समर्पण एवं अहोभाव से कृष्णशिला में निर्मित रामलला की प्राणप्रतिष्ठा होते ही उनकी मुद्राएं पहले ( कलाकारके सिरजते समय ) की अपेक्षा कही अधिक दैदीप्यमान व आध्यात्मिक आवर्त से सम्पन्न हो उठी । जिसे देखकर मूर्तिकार अरुण योगीराज ने स्वयं कहा कि सचमुच यह मेरे द्वारा रचित नहीं है। भगवान ने निमित्त बनाकर मुझसे अपना रुप बनवा लिया । दुबारा यही आभा मैं नहीं रच सकता । यह सच है  गर्भगृह में प्रवेश से पहले वह एक कलाकृति थी और प्राणप्रतिष्ठा होने के बाद कलाकृति जीवंत स्वरूप में बदल गई । कला का मर्म ही ऐसा है  जब तक वह कलाकार के हाथों में होती है तब तक वह किसी माध्यम में रचित आश्चर्यपूर्ण कृति होती है क्योंकि वहां अपनेपन की भावासक्ति होती है कि यह मेरे द्वारा रचित है परन्तु जैसे ही उसे लोक में पूजित स्थान मिलता है,  फिर वह कृति नहीं रह जाती बल्कि कृति से परे, भूत – भविष्य – वर्तमान की अनगिन इच्छाओं के सौन्दर्य रुप धरे, सब नयनों का अपना ही रंग उसमें दिखने लगता है । लोक हृदय का स्पंदन उसमें गूंजने लगता है । कलाकार का अपना कुछ नहीं रह जाता । वह रिक्त हो जाता है जैसे नाटक में भूमिका निभाने के बाद पात्र सामान्य स्थिति में, गहराई में कहीं मौन में समा जाता है। वह साक्षीभाव से अकेला हो जाता है । मं

दिर निर्माण में कार्यरत शिल्पकार, इंजीनियर एवं मजदूरों ने बड़े मन से कार्य किया है । मंदिर के आरंभ में सीढ़ियों के दोनों ओर सिंह, गज, गरुड़ और हनुमान जी की सुन्दर मूर्तयोकी स्थापना की गई है । स्तम्भों पर अलंकरण के अलावा देवी-देवताओं को उत्कीर्ण किया गया है । इनकी मुद्राएं लयात्मक हैं । हाथ – पैर एवं अंगुलियों के अंकन में लोच है । आकृतियों का सरल रेखांकन जिसमें लय एवं गति हो, यह मुख्य विशेषताएं हैं भारतीय कला की । मंदिर केवल शिल्प के ही केन्द्र नहीं होते वरन् कला के सभी अंगों – नृत्य, संगीत, वास्तु, ज्योतिष और साहित्य के भी केन्द्र होते हैं । वास्तविक रूप से मंदिर का होना भारतीयता के जीवित रहने का प्रमाण है भारतीयता जीवंत विचार है और जीवंतता के स्रोत श्रीराम हैं । जिसकी निर्मिति जनआस्था के ज्वार से होती है वह कृति लोकपर्व का उद्गम हो जाती है । वहां लोकमंगल की भावना का उद्घोष होता रहता है । अयोध्या के राममंदिर में प्रतिदिन लाखों लोगों के दर्शन की लालसा इसका प्रमाण है ।

नए ’काल और पात्र’ के माध्यम से स्वतंत्रता की कहानी कहता है ’स्वराज’

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी को अभी तक प्लासी के युद्ध के बाद से कहने-सुनने का प्रचलन रहा है। स्वतंत्रता के नायकों का चुनाव भी इसी कालखण्ड से किया जाता है। इस कालखण्ड में भी कुछ चुनिंदा नायकों के इर्द-गिर्द स्वतंत्रता संग्राम की कहानी बुनी जाती रही है। दूरदर्शन पर 14 अगस्त 2022 से प्रसारित होने जा रहे धारावाहिक स्वराज टाइमस्केल और नायक, दोनों पैमानों पर स्वतंत्रता की प्रचलित कहानी की चुनौती देती है। इसमें जहां वास्कोडिगामा के भारत आने के बाद से भारतीय स्वतंत्रता की कहानी कही गई है, वहीं उन गुमनाम नायकों के योगदान और संघर्ष को रेखाकित करने की कोशिश की गई है, जिनकी भूमिका का आकलन सही ढंग से नहीं किया गया।
स्वराज अमृत-महोत्सव के दौरान दृश्य-श्रव्य माध्यम के जरिए इतिहास से रू-ब-रू होने परियोजना है। 75 एपिसोड के यह डाक्यू-ड्रामा सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में दूरदर्शन के क्षेत्रीय चैनलों के माध्यम से प्रसारित किया जाएगा। इसका प्रसारण आल इण्डिया रेडियो पर भी होगा। स्पष्ट है कि दूरदर्शन की पूरी अधोसंरचना का उपयोग स्वराज के प्रसारण के लिए किया जाएगा। प्रसिद्ध अभिनेता मनोज जोशी ने स्वराज में सूत्रधार की भूमिका निभाई है।
इससे पहले भारतःएक खोज, चाणक्य, मैं दिल्ली हूं जैसे अनेक धारावाहिकों के जरिए भारतीय इतिहास को खोजने और आम लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की गई है। इसमें डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी का चाणक्य ही ऐसा धारावाहिक माना जाता है, जिसने आम भारतीय की इतिहास की समझ को बेहतर ही नहीं बनाया बल्कि उनमें भारतीयता का गौरवबोध भी भरा। भारतः एक खोज और मैं दिल्ली हूं, जैसे धारावाहिक औपनिवेशिक मान्यताओं और काल-विभाजन का दृश्य-श्रव्य रूपांतरण ही कहा जा सकता है। 
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी का उपन्यास उपनिषद् गंगा दृश्य-श्रव्य माध्यमों की दुनिया में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप माना जा सकता है, लेकिन इसका कथ्य मूलतः दार्शनिक है। इसलिए इसे ऐतिहासिक धारावाहिक नहीं माना जा सकता। व्यक्ति केन्द्रित अनेक ऐतिहासिक धारावाहिकों का निर्माण और प्रसारण हुआ है, लेकिन इनमें शोध की कमी स्पष्ट दिखलाई पड़ती है और व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का परोसने का लोभ अधिकांश धारावाहिकों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर जाता है। 
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्वराज संकल्पना और प्रस्तुतिकरण के स्तर पर अब तक के डाक्यू-ड्रामा में बिल्कुल विशिष्ट दिखाई पड़ता है। इस धारावाहिक के केन्द्र में व्यक्ति नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की व्यापक परिघटना है। इस बड़ी परिघटना को निरंतर आगे बढ़ाने में जिन व्यक्तियों ने अपना योगदान दिया है, उनका श्रृखलाबद्ध प्रस्तुतीकरण यह धारावाहिक है। इसमें स्वतंत्रता संग्राम को व्यक्तिगत उद्यम नहीं बल्कि एक सतत परम्परा के रूप में दिखाया गया है।
स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय इतिहास को दिल्ली केन्द्रित मानने की संकल्पना को भी स्वराज में चुनौती दी गई है। स्वतंत्रता संग्राम के पूर्वाेत्तर भारत और दक्षिण भारत के स्वर्णिम पृष्ठ भारतीय इतिहास से सिरे से गायब है। दृश्य-श्रव्य माध्यमों में उपस्थिति का प्रश्न ही नहीं उठता। अब जब दक्षिण भारतीय सिनेमा अपने नायकों की कहानियां भव्य तरीके से सामने लेकर आ रहा है, तो अधिकांश लोगों में ऐस नायकों के बारे में कौतुहल बढ़ रहा है।
दूरदर्शन को ऐसा आभास है कि स्वराज उसके ब्रांड को पुनः स्थापित करने के लिए लाभदायक हो सकता है। इसीलिए, उसने इसके साथ ही कुछ नए सीरियल और लोगो भी लांच किया। ऐसा लगता है कि आने वाले समय में दूरदर्शन इतिहास और संस्कृति को सृजनातमक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए नए सिरे से तैयारी कर रहा है।  
इस धारावाहिक का पूरा नाम ’स्वराज- भारत के स्वतंत्रता संग्राम की समग्र गाथा’ है। नाम से ही यह स्पष्ट है कि इसके जरिए  स्वतंत्रता संग्राम की कहानी को यह समग्रता से कहने की कोशिश की गई है। गुमनाम नायक इस धारवाहिक के सबसे बड़े आकर्षण है। ऐसे में दर्शकों की इस बात पर भी दृष्टि रहेगी के किन गुमनाम नायकों का चयन किया गया है और उनका चयन क्यों किया गया है ? इस धारावाहिक के पीछे मौलिक संकल्पनाओं और तथ्यपूर्ण गवेषणाओं को आग्रह रखने वाली एक टीम ने काम किया है। इसलिए इसमें तथ्य सृजनात्मक और संदेशपूर्ण ढंग दृश्यों में परिवर्तित हुए होंगे, इतना तय है। 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दृश्य-श्रव्य माध्यम से समग्र गाथा बहुत पहले ही कही जानी चाहिए थी। किन्हीं कारणों से यह कहानी नए दौर के माध्यमों के जरिए नहीं कही जा सकी। अमृत महोत्सव के दौरान स्वराज का निर्माण और प्रसारण इस आवश्यक कमी को पूरा करता है। स्वराज देश के सच्चे नायकों को श्रद्धांजलि है और इसलिए इसका महत्व बढ़ जाता है क्योंकि सच्चे नायकों का स्मरण भविष्य में सच्चे नायकों की निर्मिति की मूलभूत शर्त भी होती है।
 

मायानगरी के अंधेर में आउटसाइडर्स का एनकाउंटर

''मुझे यहां सब कुछ चांदी की प्लेट में सजा हुआ मिला, मगर सबके साथ ऐसा नहीं है.. परवीन मेरी डार्लिंग है, उसे जबर्दस्त शोषण से गुजरना पड़ा।'' भावुक हेमा मालिनी ने ये बातें तब कही जब परवीन बॉबी अचानक देश छोड़कर चली गई थीं। ये वही वक्तप था जब परवीन बॉबी का करियर चरम पर था और फ्लॉप स्ट्रगलर महेश भट्ट को डेट भी कर रही थीं। यूं समझ लीजिए कि परवीन बॉबी सिनेमाई पर्दे के साथ निजी जिंदगी में भी वो सबकुछ कर रही थीं, जो अपनी चाहत, आधुनिकता और आत्मनिर्भरता के नाम पर महिलाएं आज करना चाहती हैं। परवीन बॉबी के साथ अपने रिश्तों पर ही महेश भट्ट ने 'अर्थ' फ़िल्म बनाई थी। इस फिल्म से महेश भट्ट का करियर परवान चढ़ा तो वहीं परवीन बॉबी ऐसी स्थिति में पहुंच गईं जहां से उनका मानसिक संतुलन डगमगाने लगा था। कहते हैं, महेश भट्ट ने परवीन बॉबी के दिमाग को इस कदर 'हाइजैक' कर लिया था कि वो जो चाहते थे परवीन बॉबी वही कर रही थीं। फिर वो अध्यात्मिक गुरु यूजी कृष्णमूर्ति के शरण में जाने की बात हो या फिर उनके कहने पर बॉलीवुड छोड़ देने का फैसला हो, परवीन बॉबी ने सबकुछ महेश भट्ट के कहने पर किया। लेकिन महेश भट्ट लगातार यह स्थापित करने में जुटे थे कि परवीन बॉबी को मानसिक बीमारी है। महेश भट्ट ने अपने कई इंटरव्यू में इस बीमारी को पैरानायड स्कित्ज़ोफ़्रेनिया नाम बताया है। हालांकि परवीन बॉबी ने खुद को कभी इस बीमारी की चपेट में नहीं बताया। उन्होंने ये जरूर माना था कि आनुवांशिक मानसिक बीमारी ने उन्हें चपेट में ले लिया था। 

बीमारी के शुरुआती दिनों में परवीन बॉबी ने अपने अकेलेपन और हिंदी सिनेमा आउटसाइडर के मुद्दे पर खुलकर बात की थी। परवीन बॉबी ने 'द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया' में अपना एक संस्मरण लिखा था- " मैं ये जान गई हूं कि यहां बने रहने का अपना संघर्ष है, इसके अपने दबाव और चुनौतियां हैं। मैं इसमें इतनी धंस चुकी हूं कि मुझे अब इसे झेलना ही होगा।"  अपनी बीमारी के दौरान ही उन्होंने अमिताभ बच्चन से जान को खतरा बताया था, लेकिन तब इसे पागलपन कहा गया। ठीक वैसे ही, जैसे आज के वक्तच में कंगना रनौट को कहा जाता है। एक दिन ऐसा भी आया जब परवीन बॉबी के मरने की खबर आई। परवीन का फ्लैट कई दिन से बंद था। कई दिनों तक उनके घर के बाहर से अख़बार और दूध के पैकेट किसी ने नहीं हटाए तो पुलिस ने दरवाज़ा तोड़ लाश निकाली। 

मायानगरी में वही सबकुछ आज भी हो रहा है। परवीन बॉबी हो या सुशांत सिंह, बॉलीवुड में आउटसाइडर को गैंगों ने अपने तरीके से निपटाया है। वहीं, कुछ आउटसाइडर ऐसे भी हुए हैं जो खामोशी से इस तमाशा को देखते आ रहे हैं या कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। विद्युत जामवाल, दीपक डोबरियाल, सोनू सूद, आशुतोष राणा, ग्रेसी सिंह, तनुश्री दत्ता, भूमिका चावला, प्राची देसाई, मधु शाह, महिमा चौधरी, नीतू चंद्रा ये कुछ ऐसे नाम हैं जो यकीनन अपनी शुरुआती फिल्मों में ही अभिनय की छाप छोड़ दी थी लेकिन अब दरकिनार कर दिए गए हैं। लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों के सुपरहीरो बनकर उभरे सोनू सूद ने हाल ही में दिए अपने एक इंटरव्यू में यहां तक कह दिया कि स्टील की नसें हों तभी इस मायानगरी में एंट्री करें। जाहिर है, सोनू सूद को इस बात का अंदाजा है कि आउटसाइडर को सिनेमाई जगत में किन चुनौतियों से गुजरना पड़ता है। जिन्हें कुछ मौके मिलते भी हैं तो वो 'एहसान' की कैटेगरी में आ जाता है। यूं समझ लीजिए कि इस मायानगरी में वही आउटसाइडर टिक सका है जो गैंग्स के आगे नतमस्तक हो चुका है। कंगना रनौत की भाषा में कहें तो चापलूस आउटसाइडर! ये वही आउटसाइडर हैं जो बॉलीवुड गैंग के आगे पीछे मंडराते हैं और उन्हें खुशामद करने में लगे रहते है। इसका फायदा उन्हें फिल्मों में जगह पाकर मिलता है।

एप्स प्रतिबंध: पता चल गया है चीन की जान किस तोते में बसती है

भारत-चीन के मध्य हुए हालिया सीमा-संघर्ष के बाद 59 चायनीज एप्स को बैन किए जाने के बाद चीन पहली बार चिंतित हुआ। वहां के विदेश मंत्रालय की तरफ से बयान आया कि चीन इस घटनाक्रम को लेकर चिंतित है। इससे पहले चीन ने पूरी तरह आक्रामक मुद्रा अपनाए हुए था। एप्स बैन किए जाने के बाद उसे व्यापार के वैश्विक नियमों की याद आई, उसने निजता के कानून की दुहाई दी और इससे भी अधिक यह कि वह भारतीय हितों को लेकर फिक्रमंद हुआ। ग्लोबल टाइम्स की तरफ से इस घटनाक्रम के बाद एक रोचक टिप्पणी आई थी कि भारत सरकार का यह कदम भारतीय हितों के अनुकूल नहीं है।

10 वर्ष पहले तक इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि एप्स को इंस्टाॅल करना, अनइंस्टाॅल करना, एप्स को बैन करना भी युद्ध का अहम हिस्सा बन जाएगा। आपके द्वारा उपयोग मे लाई जाने वाली सोशल मीडिया साइट्स आपकी अभिव्यक्ति का साधन भर नहीं है, बल्कि उनका सीधा सम्बंध राष्ट्र की सुरक्षा से भी है। इसीलिए जब 59 चीनी एप्स के ऊपर बैन लगाया गया, तो कई लोगांे ने सवाल उठाए कि एप्स बैन करने से क्या हो जाएगा ? इससे चीन को मामूली आर्थिक नुकसान के अतिरिक्त और किसी तरह का घाटा नहीं होगा। उनके इस तर्क का उत्तर तो कुछ दिनों बाद ग्लोबल टाइम्स ने खुद ही दे दिया कि अकेले टिकटाॅक को बैन करने से टिकटाॅक की पैरेंट कम्पनी को 6 बिलियन डाॅलर का नुकसान होगा।

इस आकंडे को रणनीतिक-परिप्रेक्ष्य में रखकर समझने की कोशिश की जाए तो एप्स बैन की घटना की अहमियत समझ में आती है। यह राशि भारत और रूस के बीच घातक मिसाइल डिफेस सिस्टम एस-400 के लिए हुए समझौते में खरीद की राशि के लगभग बराबर है। एस-400 के समझौता और इसका भारत आना कितना निर्णायक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तानी मीडिया और सत्ता-प्रतिष्ठान कई बार यह कह चुका है कि एस-400 मिलने के बाद भारत-पाक के बीच कायम शक्ति-संतुलन एकदम से भारत की तरफ झुक जाएगा। यह वही एस-400 है, जिसको जल्दी देने के भारत के आग्रह पर चीन ने रूस से आपत्ति दर्ज कराई था। इस परिप्रेक्ष्य में टिकटाॅक को बैन लगाने की प्रक्रिया को समझने से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत ने कितना बड़ा आर्थिक नुकसान पहुंचाया है।

एप्स बैन के कारण चीन को हुआ आर्थिक नुकसान एकपक्ष है। इसके कारण भारत ने पूरी दुनिया को एक बहुस्तरीय मैसेज दिया है। यह मैसेजिंग कितनी प्रभावी है, इसका आकलन भारत में ठीक ढंग से नहीं किया गया। भारत ने एप्स प्रतिबंधित करके एकझटके में पूरी दुनिया को यह संदेश दिया कि चीनी तकनीकी सुरक्षा के लिहाज से अविश्वसनीय है। चीन की छवि को अविश्वसनीय और संदिग्ध पहले से भी माना जाता रहा है, लेकिन अमेरिका जैसे देश भी औपचारिक और नीतिगत स्तर पर कुछ खास नहीं कर पा रहे थे। चीन का दबाव उन पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। भारत ने चीनी दबाब की चादर को एक झटके मे छिन्न-भिन्न कर दिया।साथ ही, नीतिगत-स्तर पर अपनी वैश्विक-नेतृत्व के लिए दावा ठोंका।

भारत और चीन के बीच चल रहे संघर्ष का एक मुख्य कारण वैश्विक-नेतृत्व पर दावेदारी भी है। और एप्स प्रतिबंधित करने की परिघटना के जरिए भारत ने अपनी दावेदारी को मजबूती प्रदान कर दी है। गलवान के ंसघर्ष का षड्यंत्र चीन ने इसलिए रचा था ताकि विश्व को यह संदेश दिया जा सके कि भारत कमजोर है और नई विश्व-व्यवस्था में चीन ही एशिया का नेतृत्व करेगा, भारत ने एप्स बैन कर चीन के दांव का उलट दिया ।

रोचक बात यह है कि अभी तक भारत में यह उदाहरण दिया जाता था कि अमेरिका अपनी सुरक्षा के लिए फलां कदम उठा सकता है, तो हम क्यों नहीं कर सकते ? इजरायल अपनी सुरक्षा के लिए कदम उठा सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते ?एप्स प्रतिबंधित करने की घटना ने इस तर्क को उलट कर रख दिया। अमेरिका में यह मांग उठी कि भारत एप्स को प्रतिबंधित कर सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते? भारत के निर्णय के बाद अमेरिका ने हुवई को प्रतिबंधित किया और बाद में ब्रिटेन ने भी इस दिशा में कदम उठाए।

एप्स प्रतिबंधित करने के निर्णय और उसके प्रभाव ने इस बात की तश्दीक करते हैं कि युद्ध अब कितना जटिल हो चुका है, डिजिटल स्पेस युद्ध के अहम और निर्णायक मैदान में तब्दील हो चुका है। युद्ध की इस नई शैली में विजय उसी को हासिल होगी, जिससे शत्रु के मर्मस्थलों और शक्तिकेन्द्रों की सटीक जानकारी होगी। नीतिगत स्तर पर इन मर्मस्थलों पर प्रहार कर रक्त की एकबूंद गिराए बगैर शत्रु को औंधे मुंह गिराया जा सकता है। भारतीय नेतृत्व ने फिलहाल यह साबित किया है कि उसे चीन के नाजुक मर्मस्थल का पता है, उसे पता है कि चीन की जान किस तोते में बसती है और उस पर कैसे  और कब वार करना है।

उमा का सवाल, मीडिया में बवाल

प्रश्न पूछना पत्रकारिता का गुणधर्म और मूलधर्म है। प्रश्न पूछना पत्रकारिता की सीमा और सामथ्र्य है। प्रश्न पूछना पत्रकारिता का एकमात्र व्यवहारिक विशेषाधिकार है। पत्रकारिता के प्रश्न राज और समाज के बीच संवादसेतु बनाते हैं। यही प्रश्न नीतिनियंताओं को टोकते हैं, रोकते हैं, सच्चाई का आईना दिखाते हैं और भविष्य का रास्ता भी बताते हैं। पत्रकारीय परिदृश्य में प्रश्न, उत्तर से भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं। शायद इसी को ध्यान में रखकर आल्विन टाॅफलर ने कहा है कि गलत प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करने से बेहतर है कि सही प्रश्न का गलत उत्तर प्राप्त किया जाए। पत्रकारिता के प्रश्न,व्यवस्था -विश्लेषण के लिए एक बेहतरीन संकेतक हैं।
लोकतांत्रिक शासनप्रणाली में पत्रकारिता के प्रश्नों का वजन और भी बढ़ जाता है। कई बार किसी एक पत्रकारीय प्रश्न से राजनीति की तस्वीर बदल जाती है। संसद में हंगामा होता है, सरकार पर खतरा मंडराता है और राजनेता ‘नो कमेंट मोड’ पर चले जाते हैं। लेकिन मई महीने के पहले सप्ताह में एक अद्भुत घटना देखने को मिली। पहली बार किसी राजनेता के सवाल से मीडिया की तस्वीर में व्यापक बदलाव देखने को मिला। पत्रकारों ने उमा भारती से निर्मल बाबा के सम्बंध में एक सवाल पूछा था। प्रश्न के उत्तर में उमा भारती ने एक दूसरा प्रश्न दाग दिया। उन्होंने कहा कि यदि निर्मल बाबा के खिलाफ अजीबोंगरीब टोटकों के जरिए कृपा बरसाने और आर्थिक अनियमितता के आरोप हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन मीडिया को अपना ध्यान अन्य पंथों में सक्रि चमत्कारी बाबाओं पर भी केंद्रित करना चाहिए। इसी संदर्भ में उन्होंने दक्षिण भारत में सक्रिय ईसाई धर्मप्रचारक पाॅल दिनाकरन का नाम लिया। उमा भारती के इस प्रतिप्रश्न ने पाॅल दिनाकरन को खबरिया चैनलों की सुर्खियों में ला दिया। अधिकांश चैनलों पर पाॅल बाबा प्राइम टाईम का हिस्सा बने। मीडिया में पहली बार तर्कशास्त्रियों के तीर मतांतरण के अभियान में संलग्न ईसाई प्रचारकों पर चले। मीडिया ने पाॅल की सम्पत्ति को खंगााला, उनके दावों की पोल खोली।
जांच-पड़ताल के दौरान पाॅल दिनाकरन के संबंध में बहुत चैंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। पाॅल दिनाकरन की संपत्ति निर्मल बाबा की संपत्ति से बीस गुना अधिक है, यानी वह लगभग 5 हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। वह स्वयं द्वारा स्थापित कारुण्य विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। ईसाई पंथ का प्रचार-प्रसार करने वाले रेनबो टीवी चैनल के मालिक हैं। जीसस काल्स धर्मार्ध न्यास के संस्थाापक हैं। सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में वह सीशा नामक एक अन्य संस्था के जरिए सक्रिय हैं। दस देशों में उनके प्रेयर टाॅवर है। अकेले भारत में उनके 32 प्रेयर टाॅवर हंै। पाॅल दिनाकरन अपने सामूहिक प्रार्थना कार्यक्रमों का जिन विशेष जगहों पर आयोजन करते हैं, उसे प्रेयर टाॅवर कहा जाता है। यह प्रेयर टाॅवर पाॅल दिनाकरन की संस्था जीसस काल्स की संपत्ति हैं।
लोगों के कल्याण के लिए वह प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना के एवज में मोटी रकम वसूलते हैं। प्रार्थना करना उनका पैतृक धंधा है। पाॅल दिनाकरन के पिता डीजीएस दिनाकरन का भी प्रमुख व्यवसाय प्रार्थना करना ही था। डीजीएस दिनाकरन तो सशरीर स्वर्ग जाने और ईसा मसीह से प्रत्यक्ष संवाद करने का भी दावा करते थे। पाॅल दिनाकरन ने इस पैतृक धंधे का आधुनिकीकरण कर दिया है। अब आप बिना प्रेयर टाॅवर जाए और बिना चेक दिए भी उनसे प्रार्थना करवा सकते हैं। प्रार्थना करने के लिए आॅनलाइन आवेदन कर सकते हैं और उनके खाते में आॅनलाईन भी ।
पाॅल दिनाकरन ने प्रार्थना के लिए कई श्रेणियां निधारित कर रखी हैं। उनके पास बेचने के लिए प्रार्थनाओं का एक पैकेज है। हर छोटी बडी समस्या का निदान उनकी प्रार्थनाएं करती हैं। मंत्री पद तक दिलवाने का दावा करते हैं दिनाकरन । जितनी बडी प्रार्थना , उतनी मोटी रकम । रकम मिलने के बाद पाॅल दिनाकरन प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना के इस पैकेज की सबसे बडी खूबी यह है कि एक बार बिकी हुई प्रार्थना फिर वापस नहीं होती। यानी पाॅल दरबार में प्रार्थना ‘भूल चूक लेनी देनी’ के लिए कोई स्थान नहीं है।
पाॅल दिनाकरन पर अकेले तमिलनाडु में 15 हजार से अधिक लोगों को मतांतरित करने का आरोप है। उनकी भविष्यवाणियों पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि वह लोगों को मतांतरण के लिए प्रेरित करते हैं। उन्होंने विश्व के सभी प्रमुख देशों के बारे में भविष्यवाणियां की हैं। वह स्पष्ट रुप से कहते हैं कि ईश्वरीय शक्तियों उन्हीं पर कृपा करेंगी जो ईसाइयत के रास्ते पर चल रहे हंै। वह प्रार्थना सभाओं में ईसाइयत की शरण में अपील करते हुए भी देखे जाते हैं।
मुद्दा यह है कि आसाराम बापू से लेकर निर्मल दरबार तक की सम्पत्ति पर सवाल उठाने वाले मीडिया की नजरें सम्पत्ति के इतने बडे साम्राज्य को क्यों नहीं देख पायी ? कहीं मीडिया ने जानबूझकर चमत्कार के इस गोरखधंधे की अनदेखी तो नहीं की ! अथवा छद्म पंथ निरपेक्षता की प्रवृत्ति मीडिया पर भी हावी हो गयी है, जो बहुसंख्यकों के मानबिंदुओं को ठेस पहुचाने को ही पंथनिरपेक्षता का पर्याय मानती है। या अन्य पंथों के चमत्कारी मठाधीशों का मीडिया प्रबंधन हिन्दू बाबाओं से बेहतर है , जिसके कारण उनसे जुडी नकारात्मक बातें मीडिया में नहीं आ पाती। यही प्रश्न उमा भारती ने मीडिया के सामने अन्य शब्दों में उठाए थे। उन्होंने कहा था कि हिन्दुओं को प्रयोग की वस्तु अथवा ‘गिनी पिग्स ’ मत बनाइए।
चर्च के मतांतरण अभियान के परिप्रेक्ष्य में भारतीय मीडिया की भूमिका का विश्लेषण करने पर उमा के प्रश्नों के उत्तर आसानी से प्राप्त किए जा सकते हैं। 5,6,7 नवम्बर 1999 अपनी भारत यात्रा के दौरान पोप जाॅन पाॅल द्वितीय ने दिल्ली में ‘ एक्लेशिया इन एशिया ’ नामक एक दस्तावेज जारी किया था। एशिया के बिशप सम्मेलन में जारी किए गए इस दस्तावेज में तीसरी सहस्राब्दी में चर्च के उद्देश्य , उसकी भावी रणनीति पर पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि तीसरी सहस्राब्दी एशिया में ‘ आस्था की फसल’ काटने का समय है और चर्च को ईश्वर द्वारा सौंपा गया काम तब तक पूरा नहीं होगा जब तक प्रत्येक व्यक्ति ईसाई न बन जाए।
‘एक्लेशिया इन एशिया’ में मतांतरण अभियान के लिए मीडिया का उपयोग करने की बात स्पष्ट रुप से कही गयी है। दस्तावेज कहता है कि मतांतरण के लिए भारत के प्रत्येक प्रदेश में मीडिया कार्यालय बनाए जाने चाहिए । यह दस्तावेज कैथोलिक स्कूलों में मीडिया प्रशिक्षण के जरिए ऐसे पत्रकारों को तैयार करने की भी बात कहता है जो मतांतरण के प्रति सहानुभूति रखते हों।
मतांतरण अभियान में मीडिया की उपयोग करना चर्च की व्यापक रणनीति का एक हिस्सा है। सूचना प्रवाह को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए चर्च मीडिया शिक्षा से लेकर मीडिया चैनलों तक में व्यापक पूंजी निवेश करता है। चर्च का यह पूंजी निवेश मीडिया की अंतर्वस्तु को प्रभावित करता है। भारत में भी कई चैनलों के लिए कैथोलिक चर्च ने व्यापक पंूजी निवेश किया है। अब उन चैनलों पर चर्च के खिलाफ खबरें तो आ नही सकती। उनके निशाने पर तो हिंदू संत ही होंगे। लेकिन अब भारत में चर्च पोषित खबरिया चैनलों का एकाधिकार टूट रहा है। कुछ ऐसे स्वतंत्र खबरिया चैनल स्थापित हो चुके हैं , जिनके लिए पांथिक सीमाएं कोई महत्व नही रखती। उनके लिए दर्शक और टीआरपी ही सबकुछ है। ऐसे चैनल चर्च के नियमों के बजाय बाजार और कुछ हद तक पत्रकारिता के नियमों से संचालित होते हैं।
उमा के सवाल से मीडिया में मचा बवाल चर्च के इशारे पर नर्तन करने वाले पत्रकारों और चर्च पोषित मीडिया घरानों के लिए यह एक अशुभ संकेत है। लेकिन भारतीय परिदृश्य में यह एक शुभ घटना है। यह घटना राजनीति और पत्रकारिता के अंतर्सम्बंधों के लिहाज से तो महत्वपूर्ण है ही । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह बताती है कि अब आकाशीय सूचनाएं अपनी जमीन से जुडने लगी हैं।

चमकता रजतपटल, चुकता स्मृतिपटल

भारतीय रजतपटल शत शरद ऋतुओं का द्रष्टा बन चुका है। वह शतायु हो गया है। आगामी 12-15 महीनों में कई तथ्य और तिथियां आपकी नजरों के सामने से बहुत बार गुजरेंगी। मसलन, प्रथम भारतीय कहानी आधारित फिल्म (फीचर फिल्म) ‘राजा हरिश्चंद्र’ है। इसके निर्माता धुंडिराज गोविंद फाल्के उपाख्य दादासाहब फाल्के थे। इस फिल्म की शूटिंग की शुरुआत 21 अक्टूबर 1912 से प्रारम्भ हुई। 21 अप्रैल 1913 को मुम्बई के ओलम्पिया हाॅल में इस फिल्म का पहला शो हुआ। यह शो पत्रकारों और बुद्धिजीवियों तक सीमित था। बाद में 3 मई 1913 को यह फिल्म जनसाधारण के समक्ष प्रदर्शित की गई। इन तमाम आंकड़ों को परोसने की प्रक्रिया में एक तथ्य को छुपाए जाने की प्रबल संभावना भी है। संभवतः पंथनिरपेक्षता की काली छाया और बाजार की कठोर काया का डर आंकड़ों के कारोबारियों को उस तथ्य का जिक्र करने से रोकगा, जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह को फिल्म निर्माण के लिए अपनी भूमि और भाषा अपनाने की ललक पैदा की। वह तथ्य यह है कि इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित मतांतरण अभियान से उपजे आक्रोश ने दादा साहब फाल्के को सिनेमा का भारतीय शिल्प गढ़ने के लिए प्रेरित किया था।
उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मिशनरियों द्वारा सिनेमा के जरिए पश्चिमी आदर्शों को भारत पर थोपने की प्रक्रिया का प्रतिरोध करने के लिए दादा साहब ने भारतीय सिनेमा स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारम्भ किए। यह एक स्थापित तथ्य है कि औपनिवेशिक शासनकाल में मतांतरण की प्रकिया को राज्याश्रय प्राप्त था। हिन्दू धर्मावलम्बियों को मतांतरित करने के लिए आर्थिक प्रलोभन और राजनीतिक प्रभुसत्ता दोनों को प्रयोग इसाई मिशनरियां कर रही थी। भारतीयों को मतांतरण हेतु मानसिक स्तर पर तैयार करने के लिए साहित्य वितरण जैसे पारंपरिक तरीकों के साथ सिनेमा जैसी नवीनतम माध्यमों का भी प्रयोग किया जा रहा था। इस कड़ी में वर्ष 1910 में भारत के विभिन्न हिस्सों में यीशु मसीह के जीवन पर आधारित एक फिल्म ‘ द लाइफ आॅफ क्राइस्ट’ दिखायी गयी। इसी फिल्म ने 39 वर्षीय दादा साहब फाल्के को समानांतर भारतीय सिनेमा को स्थापित करने की प्रेरणा दी। विदेशी भाव और भाषा में निर्मित इस फिल्म को दखने के बाद दादा साहब फाल्के ने यह महसूस किया कि ईसाई मिशनरियां सिनेमाई प्रभाव का उपयोग भारतीय संस्कृति के उच्छेदन के लिए कर रहीं है। उन्हें यह तथ्य समझने में भी समय नहीं लगा कि सिनेमा मनोरंजन तक सीमित नहीं है। इसमें सांस्कृतिक संरक्षण अथवा सांस्कृतिक उच्छेदन की असीम संभावनाए भी निहित हैं। उनकी दूरदृष्टि ने दीवार पर लिखी उस इबारत को भी पढ़ लिया था कि सिनेमा को भारतीय भाषा, भाव और भूमि से जोड़कर सांस्कृतिक नवचैतन्य के लिए संभावनाएं सृजित की जा सकती हैं।
उन्होंने अपनी पहली फिल्म के लिए जिस कथावस्तु का चयन किया और उसके निर्माण के लिए जिस तरह से संघर्ष किया, उससे भी यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए सिनेमा सांस्कृतिक संरक्षण का उपकरण था। उन्होंने किसी ऐसे भारतीय आदर्श पुरुष पर फिल्म बनाने की ठानी, जिसका भारतीय लोकमानस पर गहरा प्रभाव हो। इसके लिए उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति का लम्बे अरसे तक अध्ययन और अवलोकन किया। अंततः किसी आदर्श भारतीय पात्र की उनकी खोज महाराज हरिश्चंद्र पर समाप्त हुई। महाराज हरिश्चंद्र के चरित्र में निहित उदात्त नैतिक मूल्यों की स्मृति अब भी भारतीय लोकमानस में बनी हुई थी। कई नाटक कम्पनियां हरिश्चंद्र नाटक का मंचन करती थी और एक आम भारतीय में इस नाटक को जबरदस्त उत्सुकता भी थी। महात्मा गांधी ने इस बात को स्वीकार किया है ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाटक ने उनके जीवन का बहुत प्रभावित किया है। यह स्वीकृति इस बात को साबित करती है कि सम्पूर्ण भारत में राजा हरिश्चंद्र नाटक अत्यंत लोकप्रिय था। दादासाहब फाल्के द्वारा राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म निर्माण का निर्णय उनकी भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक संरचना की बेहतरीन समझ का संकेतक है। दरसअसल, रजतपटल को भारतीय स्मृतिपटल से जोडने की ललक ने ही दादासाहब फाल्के को महाराज हरिश्चंद्र पर फिल्म निर्माण करने के लिए प्रेरित किया ।
फिल्म निर्माण की बारीकियों को समझने के लिए 1 फरवरी 1912 को उन्होंने लंदन के लिए प्रस्थान किया। लंदन जाने के लिए उन्होंने अपनी बीमा पाॅलिसी और पत्नी के गहनों को गिरवी रखकर पैसे जुटाए थे। जाहिर है यह संघर्ष व्यवसायिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक संरक्षण के लिए था। व्यवसायिक इसलिए नहीं क्योंकि उस समय भारत जैसे देश में सिनेमा के जरिए व्यवसायिक हित साधना संभव नहीं था। फिल्म बनाना एक दुष्कर कार्य था और सिनेमा देखना एक अधम कार्य। सिनेमा को उस समय इतनी हीन दृष्टि से देखा जाता था कि दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र के महिला चरित्रों के लिए पुरुष कलाकारों का चयन करना पड़ा था। क्योंकि उस समय आम भद्र महिला तो दूर वेश्याएं भी सिनेमा में भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं थीं। तत्कालीन समाज में फिल्म के शौकीनों को भी तौहीन की नजर से देखा जाता था। फिल्म देखने के शौकीन लोगों को ‘ चवन्नी छाप ’ आदम कहकर बुलाया जाता था क्योंकि उस समय मुम्बई के नावेल्टी होटल में देशी दर्शकों के लिए टिकट का मूल्य चार आने निर्धारित किया गया था। ऐसे माहौल में फिल्म निर्माण के लिए पहल कोई सांस्कृतिक व्यक्ति ही कर सकता है , व्यवसायिक व्यक्ति नहीं।
दादा साहब फाल्के द्वारा ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रुप में रोपा गया भारतीय सिनेमा का वह नन्हा पौधा आज एक विशाल वट वृक्ष बन गया है। एक आंकडे़ के मुताबिक भारत में 1.3 करोड़ लोग प्रतिदिन वाॅलीवुड की फीचर फिल्मों को विभिन्न माध्यमों के जरिए देखते हैं। वाॅलीवुड में औसतन 1000 फिल्में सालाना बनती हैं। जबकि हाॅलीवुड में यह आंकड़ा 600 फिल्मों तक सीमित है। इस वटवृक्ष से तमिल, तेलगु, बंगाली, भोजपुरी फिल्मों की नई जडे़ं निकल आयी हैं। बाहर से देखने पर यह वृक्ष लहलहा रहा है। प्रभाव में वृद्वि हुई है। हमारे सुख, दुख, स्वप्न, शैली और शब्द सब फिल्मों की स्क्रिप्ट और धुनों के जरिए अभिव्यक्त हो रहे हैं। लेकिन क्या प्रभाववृद्वि और व्यवसायिक सफलता रजतपटल के मूल्यांकन के एकमेव आधार बन सकते हैं। भारतीय संदर्भों में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि दादा साहब फाल्के ने यह पर रजतपटल के शुरुआत सामाजिक सांस्कृतिक संरक्षण और सामूहिक स्मृतिपटल के पोषण के लिए की थी।
आज की स्थिति बिल्कुल उलटी है। रजतपटल भारतीय स्मृतिपटल को पोषित करने के बजाय उसकी जडों में मट्ठा डाल रहा हैं ,उसको खरोंचकर लहूलुहान कर रहा है। आज भारतीय रजतपटल के पास पैसा और तकनीकी दोनों हैं लेकिन भारतीयता को पोषित करने वाली दृष्टि नहीं है। उसकी अंतर्वस्तु या तो बाजारु-भारतीय है अथवा विदेशी। भारतीय समाज और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य की पहचान और अभिव्यक्ति का कोई भी प्रयास रजतपटल के चमकीले लोग नहीं कर रहे है। अभिव्यक्ति की बात तो दूर भारतीय मूल्यों को उपहास की विषयवस्तु के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है। चाणक्य जैसे धारावाहिक के निर्माता और रजतपटल की दुनिया भारतीयता को अभिव्यक्ति देने में सक्रिय कुछ गिने चुने लोगों में से एक डाॅ0चंद्रप्रकाश द्विवेदी आज की स्थितियों का सटीक आकलन करते हुए कहते हैं कि -

‘‘भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के के पास उस समय कई विषय रहे होंगे,लेकिन उन्होेंने अपनी फिल्म की कथा अतीत से चुनी। मतलब यह नहीं कि वे अतीतजीवी थे। उन्हें भारत के सामने एक आदर्श रखना था।उनका उद्देश्य था इस असाधारण उपकरण सिनेमा का इस्तेमाल हम समाज के लिए करें। आजादी और उससे पहले जो फिल्में हमारे यहां बनी उसमें भारत की जडें थी।भारतीय आत्मा थी।भारत के सवाल थे। उन सवालों के उत्तर देने की कोशिशें भी उनमें थी।पांचवें छठें दशक का सिनेमा भारतीय तत्वों से भरा था। परन्तु जैसे-जैसे सिनेमा का विकास होता गया , बाजार का दबाव बढता गया। हमारी कहानियां भारत से दूर होती गयीं। अब स्थिति ऐसी हो गयी है कि भारत के पात्र होत हैं और पीछे विदेशी भीड घूम रही होती है। हमारी गलियां भी अमृतसर , राजस्थान , यूपी और बिहार की नहीं रह गयीं, बल्कि अब हम गलियां भी न्यूयार्क , लंदन , शंघाई, स्पेन और कनाडा जैसे देशों की ढूंढ रहे हैं। ’’ (झंकार ,दैनिक जागरण , 5 फरवरी 2012 , पृष्ठ 4)

वर्तमान भारतीय रजतपटल में भारत और भारतीयता दोनों एकसिरे से गायब हैं। आज के रजतपटल में गोवध की समस्या नहीं है, मैली होती गंगा नहीं है, किसान आत्महत्या नहीं है, 90 करोड़ निर्धन नहीं हैं, बिजली से महरुम और ढिबरी से टिमटिमाते 10 करोड़ घर नहीं हंै, गांव की पगडंडिया नहीं हैं, हाथरस, भदोही, मुरादाबाद के हस्तशिल्पियों की दारुण दशा नहीं है। भारतीय स्मृतिपटल में रची बसी छवियां नहीं हैं, मुहावरे नहीं है। वह तो राजपथ, फ्लाईओवर, शाॅपिंगमाल्स से जगमगा रहा है। विदेशों में पिकनिक मना रहा है, बास्टर्ड कहने में इतरा रहा है और च्यूतिया कहने में लजा रहा है। उद्योगपतियों के कौशल को मसाला लगाकर दिखा रहा है। डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेदी इस संदर्भ में कहते हैं कि -

‘‘ पिछले 63 सालों में भारत के विभाजन पर कितनी फिल्में बनी? उंगलियों पर गिन सकते हैं 1984 के दंगों पर कितनी फिल्में हैं? कश्मीर का सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा हमारी फिल्मों का विषय नहीं हैं। आतंकवाद और नक्सलवाद को लेकर, भ्रष्टाचार को लेकर, आरक्षण को लेकर, रामजन्म भूमि विवाद को लेकर फिल्में नहीं बनी हैं। इतने सारे विषय देश में मौजूद हैं, परंतु हमारे फिल्मकारों को उनसे कोई सरोकार नहीं है।’’ (झंकार ,दैनिक जागरण , 5 फरवरी 2012 , पृष्ठ 4)

सर्वाधिक पीड़ादायी दृश्य यह है कि कई पीढि़यों से लोकस्मृति में घर कर चुकी छवियां और शब्द में रजतपटल पर जगह नहीं पा रहे हैं। 60 और 70 के दशक में फिल्मों के आधिकांश गाने लोकधुनों पर आधारित होते है। आज भी लोग उन्हें बडे आत्मीय भाव से गुनगुनाते हैं। नैन लडी जईहैं तो मनवा में खटक होईबै करी, चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिजडे वाली मुनिया ,दुख भरे दिन बीते रे भइया सुख भरे दिन आयो रे, जैसी लोकधुने अब रजतपटल से लुप्तप्राय हो गयी हैं। भारतीय नाटको की परंपरा सुखांत रही है, अच्छाई के पथ पर चलने वाले नायक की विजय सुनिश्चित होती है। लेकिन अब रजतपटल पर पश्चिमी दुखांत परंपरा हावी हो रही है। अच्छाई और बुराई की रेखाएं मिट रही हैं।
सोनचिरैया संस्था की संस्थापक और प्रख्यात लोकगायिक मालिनी अवस्थी रजतपटल पर लोकधुनों के गायब होने से काफी आहत हैं। वह रजतपटल में लोक के लिए सिमटते स्थान पर चिंता जाहिर करते हुए कहती हैं कि -‘‘स्थिति यह है कि सिर्फ गायन में ही नहीं लोक के सभी अंग -उपांग में क्षति है।लोक कलाकार के अस्तित्व से सीधे जुडा हुआ है लोक कलाओं का अस्तित्व।नक्कारा ,ताशा ,मृदंग ,झांझ,सींगी ,करताल और हुडुक जैसे वाद्य तभी तक सुरक्षित है ,जब तक कि इनके कलाकार । इन कलाओं को बचाना है तो इन लोक कलाओं को बढावा देना होगा । नई पीढी को इस अनमोल थाती से जोडना है तो लोककलाओं को अब स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा । यदि अपनी संस्कृति और अपने निजत्व की पहचान बनाए रखनी है तो समाज को हर हाल में नई पीढ़ी को लोक-साक्षर बनाना ही होगा।
निश्चय ही, वर्ण साक्षरण और ई साक्षरता से कम जरुरी नहीं है लोक साक्षरता। लोकसाक्षरता एक व्यापक शब्द है। इसका सम्बंध केवल गायन वादन से नहीं है। यह उस परंपरा से परिचय है जो भारतीय व्यक्तित्व को वैशिष्ट्य प्रदान करती है। इस परंपरा का उल्लेख किसी शास्त्रीय पोथी में नहीं है। इस परंपरा के प्राण भारतीयों के सामूहिक स्मृतिपटल में बसता है। इसी स्मृति पटल की बदौलत लाखों शब्द और छवियां समय के अवरोधों को पार करते हुए निरंतर एक पीढी से दूसरी पीढी में प्रवाहित हो रही हैं। स्मृतिपटल का चुकना भारतीयों की सबसे बडी सांस्कृतिक पराजय होगी। सामूहिक स्मृति पटल को बचाने के लिए लोकसाक्षरता आवश्यक है। यही सैकडों सालों की पराधीनता के कारण भारतीय भावभूमि पर जड जमा चुकी आत्महीनता की ग्रंथि को उखाड सकती है।
स्मृतिपटल और रजतपटल के बीच स्वस्थ संवाद स्थापित कर लोकसाक्षरता को बढाया जा सकता है , यह सवंाद स्मृतिपटल के संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। इसके लिए रजतपटल पर सांस्कृतिक समझ वाले लोगों की सक्रियता बढनी आवश्यक है। भारत में व्यवस्था परिवर्तन के आकांक्षी व्यक्तियों को भी रजतपटल को हल्के में लेने और उससे दूर रहने की प्रवृत्ति परिवर्तित करने होगी। जो रजतपटल प्रतिदिन 1.3 करोड भारतीयों तक पहुंचता है ,उन्हें हंसाने -रुलाने की क्षमता रखता है,युवावर्ग जिससे सर्वाधिक प्रभावित होता हो ,उसको नजरंदाज कर व्यवस्था परिवर्तन की रुपरेखा कैसे तय की जा सकती है? क्या श्री रामजन्म भूमि आंदोलन की सफलता में श्री रामानंद सागर कृत रामायण के योगदान को एकदम से नकारा जा सकता है। रजतपटल पर सांस्कृतिक व्यक्तियों की सक्रियता समय की मांग है। सांस्कृतिक व्यक्तियों की सक्रियता रजतपटल पर स्मृतिपटल का प्रभाव और दबाव सृजित करेगी। यह प्रभाव और दबाव सांस्कृतिक सम्पन्नता और निरंतरता के लिए आवश्यक है।
भारतीय स्मृतिपटल को लहुलूहान करने में मात्र रजतपटल की अंतर्वस्तु और तकनीकी ही जिम्मेदार नहीं है। रजतपटल से सम्बंधित सूचना-प्रवाह भी भारतीय स्मृतिपटल की जडें खोद रही है। व्यवसायिक सिनेमा के अतिरिक्त बहुत कुछ सर्जनात्मक भी रजतपटल की दुनिया हो रहा है। लेकिन फिल्म की दुनिया में उसकी कोई रिपोर्टिंग नहीं होती। बिग बाॅस को लेकर तो प्रिंट और मीडिया ने आसमान अपने सिर पर उठा लिया था लेकिन लगभग एक दशक के शोध के बाद मार्च से प्रसारित होने वाले डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी के धारावाहिक उपनिषद गंगा की चर्चा सूचना-संसार और फिल्म,धारावाहिक समीक्षा के काॅलम का हिस्सा नहीं बन सका । डाक्यूमेंट्री की समीक्षा अब भी रजतपटल पत्रकारिता का हिस्सा नहीं बन सकी है, जबकि यह फिल्मों की अपेक्षा भारतीय भावभूमि और समस्याओं से अधिक जुडी है। रजतपटल की पत्रकारिता को साहित्य समीक्षा जैसा गांभीर्य देकर रजतपटल के भारतीयकरण की दिशा में प्रारम्भिक कदम बढाया जा सकता है।

दूरदर्शन के नंबर वन होने के बाद टीआरपी के लिए स्टार प्लस भी लेगा रामायण का सहारा

भारतीय समाज के अंतर्मन में गहरे बसे भगवान राम के जीवन पर आधारित रामायण सीरियल की लोकप्रियता के चलते दूरदर्शन टीआरपी में नंबर वन पर आ गया है। 1987 के इस कार्यक्रम ने दूरदर्शन को नेपथ्य से निकालकर टीवी की दुनिया की मुख्यधारा में लाने का काम किया है। इसकी देखादेखी अब स्टार प्लस जैसे चैनल ने भी रामायण का सहारा लेने का फैसला लिया है। स्टार प्लस पर 4 मई से रामायण का प्रसाचरण शुरू किए जाने की खबर है। यह कार्य़क्रम स्टार प्लस पर रात 9:30 बजे दिखाया जाएगा। बता दें कि रामायण के समापन के बाद दूरदर्शन अब उत्तर रामायण का प्रसारण कर रहा है, जिसमें राम के पुत्रों लव और कुश के जीवन को दर्शाया गया है।

रामायण की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम ने री-टेलिकास्ट होने के बाद कई रिकॉर्ड अपने नाम कर लिए हैं। शो को जबरदस्त टीआरपी मिली है। यहां तक कि ‘रामायण’ के 16 अप्रैल के एपिसोड को दुनिया भर में 7.7 करोड़ लोगों ने देखा। इस नंबर के साथ यह शो एक दिन में दुनियाभर में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला शो बन गया है। दूरदर्शन इन दिनों महाभारत और चाणक्य जैसे प्रेरक कार्यक्रम भी दिखा रहा है। यही नहीं अपने पुराने कार्यक्रमों की लोकप्रियता को भुनाने के लिए राष्ट्रीय प्रसारक ने एक अलग टीवी चैलन डीडी रेट्रो की शुरुआत का फैसला लिया है, जिसमें सभी पुराने सीरियल ही दिखाए जाएंगे।