कला और कुम्भ में संवाद का समय

कलाएं मानव मन की वृत्तियों का परिष्कार करती हैं। कला केवल रंग या मिट्टी ही नहीं होती बल्कि हाथों से कुछ बनाना या विचार को सम्यक रूप से प्रकट करना कला के रूपों में आता है। भारतीय मानस में प्राचीन काल से केवल चित्रकारी या मूर्तिनिर्माण ही कला की पहचान नहीं रही बल्कि अन्य किसी भी विधा में पटु होना, प्रवीण होना कला की ही संज्ञा मानी जाती थी। आजकल अंग्रेजी चलन में जिस ‘स्मार्ट नेस’ या ‘शॉर्पनेस’ कहकर भंवें चढ़ाकर ‘वॉव’ किया जाता है इस कवायद को भी हम कला कह सकते हैं। यदि कोई बच्चा बड़ी सफाई से दूसरे बच्चे के खिलौने को अपना बताने लगता है तो लोग हँसकर कहते हैं ये तो बड़ा कलाकार है। खाट में सुतली की विशेष तरीके से की गई बुनाई को देखकर लोग कह उठते है वाह! क्या कलाकारी है। किसी भी गढ़ाई-बुनाई या रचने में उपयोगिता के कारण उसका प्रभाव कम या ज्यादा हो सकता है परन्तु बनाने के आनन्द में कोई असर नहीं पड़ता। रचने की संवेदना और उसकी संवाद प्रक्रिया कृति की महत्ता स्थापित करती है। कृतियों में उसकी परंपराएं देशकाल और जीवन का स्पंदन होना चाहिए। जहां जीवन है वहां संवाद है। संवाद होगा तो नया परिवेश आकार लेता है। इस परिवेश को माध्यमों में पुर्नरचित करना कला बन जाती है। जीवन व्यापक अर्थों में परंपराओं में ढ़लता रहता है धर्म के अवयवों को लेकर। विशाल धर्मप्राण समूह का जनसंवाद किसी कुम्भ में पूरा होता है। व्यापक तौर पर यह समष्टि बन जाता है और प्रति व्यक्ति के लिए परंपरा से एकालाप।
भारतीय कलादर्शन के सम्बन्ध में पूर्व में जितने भी शिल्प शास्त्रीय ग्रंथ मिलते हैं उनके अनुशीलन से ज्ञात होता है कि हर तरह की कार्य-कुशलता ‘कला’ है। विशिष्ट कुशलताओं में चित्रकला (आलेख्य) को सर्वोपरि माना गया। उसके अभ्यास, निरूपण की विधियाँ भी युगानुरूप अवधारणा से युक्त हैं । संस्कृत साहित्य में वर्णित पात्र, उनकी अभिरूचि, प्रदर्शन, प्रवृतियाँ वहीं हैं जो कामसूत्र अथवा अन्य शिल्प ग्रंथों में कला प्रमाण रूप में बताये गए हैं। भारतीय जीवन दर्शन अंकन की परंपरा टूटती है, इस्लामी आक्रमण से। सल्तनत काल में हमारी वैचारिक संस्थाएँ (मंदिर, गुरूकुल) नष्ट किए जाते हैं जो समाज और सत्ता दोनों के लिए नीति, कला, शास्त्रार्थ के केन्द्र थे। मुगलों के समय पुनः कला को प्रश्रय देने की कोशिश होती है तो कला अभिरूचि के नाम पर उनके पास क्या थे?केवल हाशिये की फूल-पत्ती के अंलकरण। आपको ज्ञात होना चाहिए कि इस्लाम में चित्र बनाना हराम है। क्योंकि चित्र, अल्लाह की बराबरी मानी जाएगी जो कि गुस्ताखी होगी। तो इतनी मात्रा में मुगल पेंटिंग कैसे बनी? मुगल काल के बड़े सिद्धहस्त कलाकारों में नाम आता है- दसवन्त, बसावन, मिस्कीन गोवर्धन, केसूदास, मनोहर, जगन्नाथ इत्यादि। बाद में चित्रकारों की परंपरा में सीखकर कुछ नाम आते हैं- मंसूर, मुशफिक, शीराजी।
मुगल चित्रों में हाशिए और उसके सजावटी अलंकरण की खूबी भी ईरानी प्रभाव से निर्मित हुई मानी जाती है। केवल फूल-पत्ती वाली हाशिए की कला कितनी कमनीय हो सकती थी? तो अन्य किस्से-कहानियाँ भीरचे जिनमें पंचतंत्र, महाभारतका फारसी अनुवाद भी था। दरबारी चित्र जरूर बने परन्तु धीरे-धीरे भारतीय लोक की भाव-धारा जो राधा-कृष्ण के प्रेम में बहती रही थी, चित्रांकन की मुख्य धारा में पुनः आ गयी। राजस्थानी चित्रकला (बूंदी, कोटा, किशनगढ़ शैली), पहाड़ी चित्रकला (कांगड़ा, बसोहली, मंडी, चम्बा शैली) में जीवन अपनी विशिष्ट अंकन मेंशैलीबद्ध हो नये कलेवर में दिखायी पड़ती है। भारतीय जीवन दर्शन अद्भुत है। यह अद्भुत दृष्टि दो महान चरित्र में मिलता है, जो स्थूल रूप में जीवन धारण कर वास्तविक मनुज होने की पराकाष्ठा दिखायी। एक लोकोत्तर राम दूजे कठोर नियमों का समयानुसार संधान करते श्रीकृष्ण। इनके आदर्शों के लम्बे अन्तराल के पश्चात हमारे समाज में जो विकृतियां फैली उनको पुनः शोधन कर नया आधार भूमि प्रदान करते हैं भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध।
आप देख सकते हैं कि कला में ज्यादातर प्रेम का ही अंकन हुआ राधा-कृष्ण को आलम्बन बनाकर। संसार में किसी भी कला में संगीत को चित्रित नहीं किया गया है परन्तु राजस्थानी शैली में रागों पर आधारित ‘रागमाला’ बनायी गई। अद्भुत सम्मिलन है संगीत और कला का। विशेष मौसम, प्रहर में गाये जाने वाले रागों को प्रकृति के आलम्बन से, रंगो के चयन, ब्रशों से महीन छाया पैदा कर चित्रित किया गया है। यह बताता है कि उस समय भी कलाकार केवल छवियों का चितेरा नहीं था बल्कि नगर, पुर, लोक आदि में जो संगीत बह रहा था उससे कटा हुआ नहीं था।
‘बारहमासा’ जिसमें बारहों महीने की विशेषताओं से युक्त मौसमी एवं मानवी प्रवृतियों जो कवियों के लिए चुनौतीपूर्ण थी उसे कलाकारों ने भी सुन्दरतम अंकित किया। परिवेश और उसका सहजीवन, उससे उपजी परंपराएँ यह किसी समाज की अपनी स्वाभाविक गति का निर्माण करती हैं। यह स्वभाव ही जीवन बोध है जो गुणों के रूप में सभ्य होने का अनिवार्य प्रमाण बन जाती है। समाज की स्वाभाविक गति पूरे साल भर चलते-चलते एक जगह ठहरती है वहीं कुछ भावमय वृतियां परंपराएं बन जाती हैं। ये आचारमय परंपराएं उत्सव का रूप ले लेती हैं। यही उत्सव तो कलाओं को जन्म देती है। उल्लासमय कोलाहल देती हैं, कोई धुन पैदा करती है। कलाएं समाज एवं व्यक्ति के बीच समय का संवाद करती हैं। इस महती संवादधारा का महत्वपूर्ण पड़ाव है- कुम्भ। राग-विराग, प्राप्ति व परेशानी के चकरघिन्नी से निकलकर अमृतमयी गंगा रेती पर निवास व करोड़ों डुबकी एक साथ। एक जीवन से विरागी-संन्यासी, दूसरा ‘गृह कारण नाना जंजाला’ में गृहस्थ। दो महनीय वृत्ति एक साथ होते हैं त्रिवेणी पर। अद्भुत संयोग जो सनातन समाज ने तय किये हैं। हमारा धर्म मात्र कठोर नियमावलियों में ही नही है यह तो ‘मनाते चलो’ की धारा में बहती हुई रूप बना लेती है। जिसमें साधु-सन्यासी, बाल-वृद्ध, छोटे-बड़े सभी की कामनाओं को साधे एक जगह खड़े हो, गंगा की अजस्र धारा में अपने-अपने कंठों से एक गीत गाना एक अद्भुत उत्सवी परंपरा को चलाता है, यही कुम्भ है।
असंख्य सिरों का धारा में डुबकी लगाना, जुड़ी हुई दसों उंगलियों से टपकती बूंदों में होठों से कल्याण की कामना प्रवाहित होती है। क्या यह कला का रूप नहीं है? देश के कोने-कोने से आया हर व्यक्ति जो श्वास-श्वास में मंगलमयी बुदबुदाहट लिए अजस्र स्रोतस्विनी को निहारता रहता है... यह एक पटचित्र ही तो है जिसे किसी कलाकार ने कैनवस पर बनाया तो नहीं लेकिन असंख्य चित्र हर क्षण घटित होते रहते हैं। वर्ष की इकाई में घटने वाली कुम्भ जीवन को रच देता है, माँज देता है। परन्तु इस संवादमय अनूठी घटना को कलाओं ने कितना रचा है? लोक ने तो बहुत रचा, गीतों में, मंगलकामनाओं में, मनौती में। हमारी चाक्षुष कलाएं थोड़ी कृपण रह गई। आजादी के प्रयत्न के साथ ही कला में भी भारतीय स्वरूप की ओर हम बढ़े थे लेकिन बीच में बाहरी लोगों के करतब देखने उनके बाजारों में घूम गये।
लोककलाओं का बंटवारा करके उसे ग्रामीणों-अनपढ़ों और आदिवासियों के हुनर पे छोड़ दिया और हम हैट-बूट तान के ‘मॉडल-स्टडी’ करने लगे बंद कमरों में। करोड़ों मनों-हृदयों की इतनी बड़ी सहज आस्था, सहज सम्मिलन आज तक किसी चित्रकार-मूर्तिकार की कला साधना का विषय नहीं बना ?आश्चर्य है। जीवन के सहज उच्छलन-स्पंदन का राग, रंगों में क्यों न ढ़ला? जबकि हमनें ‘रागमाला’ चित्रित किये हैं। रूप रचने वाले आँखों से इतना बड़ा जनसमूह आज भी ओझल क्यों है जबकि बहुत से आधुनिक प्रसिद्ध कलाकारों ने ‘मेडोना एण्ड चाइल्ड’ को बड़े मन से रचा।
धर्म के स्वरूप का इतना बड़ा चिन्तन-आयोजन-भाव, आजादी पश्चात नामी कला-जादूगरों को क्यों प्रभावित नहीं किया जबकि वे ईसा मसीह के क्रॉस पर लटकाए जाने वाले चित्र बनाकर आँसुओँ से भर गये। तथाकथित समकालीन कलाकारों में आज भी भारतीय लोक स्पंदन की समझ का घोर अभाव है। अधिक हुआ तो शहरों की भीड़-भाड़, ट्रैफिक, मेट्रो या मकानों के डिब्बे ही रख रहे हैं... उलट-पलट रहे हैं... पेड़ों की तरफ भी मुड़े हैं परन्तु नन्दलाल बोस, रामकिंकर बैज, के.जी. सुब्रह्मण्यम जैसी त्यागमयी साधना का अभाव है। उपरोक्त सवालों के घेरे में ऐसा नहीं है कि अन्य भारतीय विषय चित्रित ही नहीं किये गये लेकिन ज्यादातर कलाकार या तो स्वकेन्द्रित हो गये या पश्चिमी तकनीकों के मुरीद। वे शहरों तक सीमित रह गये। वे शहर जो खुद भी न्यूयार्क, लन्दन और हांगकांग हो जाने का सपना देखते हैं। दृष्टि में लोक की समझ गाँव नामक झोपड़ी या स्त्री के शरीर सौष्ठव तक ही सीमित रह गया। लोक शहर का विपरीत होना ही नहीं है। भीड़-भाड़ नैराश्य का ठीक उल्टा निर्णय एकाकी होना मात्र नही है। यह तो एक चेतन दृष्टि है जो उधार से नहीं मिलता। हिन्दी साहित्य की प्रगतिवादी धारा में व्यक्त- मिलों, ट्रेनों और ऑफिसो से निकलती समयबद्ध नौकरीपेशा भीड़ की नैराश्य मानसिकता का आरोप कुंभ पर भी मढ़ दिया गया भीड़ मानकर। जबकि कला तो दृष्टि की भाषा है। कलाकारों ने अपनी आंखों से लोकोत्सव नहीं देखा। उन्होने समझा कला केवल कलाकार, कूँची और कैनवस में ही है जिसे वो अपनी व्यक्तिगत वैचारिकता से गढ़ता है। कलाकार भूल गया कि वह तो मात्र चितेरा है। उसे रचना है जो बाहरघटित हो रहा है ... जो ध्वनिमय प्रकृति है... वह जो हर-हर करता बढ़ता समाज है।
किन्तु अफसोस। रेखाएं विचारों में फंस गयी। रंग राजनीति का चेहरा बन गयी और कलाकार करोड़ी क्रांति का दुलरूआ, तो नजर कहां से पैदा हो। जिस अगम्य को तत्व रूप में समझते-समझाते, चिंतन-विमर्श करते हुये कितने ही शास्त्र रच-रचा गये। सनातन धारा बन गयी। उसको गढ़ते हुए कितनी ही कलाकार पीढ़ी ने स्थूल माध्यमों में प्राण-छन्द पैदा किये। क्या किसी ने यक्ष-यक्षिणियाँ देखे थे? कुबेर? या विद्याधर- विद्याधरी? क्या सारे देवी-देवताओं को सामने बिठाकर ‘मॉडल-स्टडी’ किया गया था? या मन्दिर पहले कहीं देखे गये थे? नहीं। जब देखे नहीं गये थे तो स्वरूप कैसे बना? धर्मानुप्राणित लोक चेतना ने अनगढ़ रूप रचे थे, दीक्षित कलाकारों ने शास्त्रीय आधार प्रदान किया। सारे रूप-विधान, वास्तु, तत्व दर्शन के ही रूप निरूपण हैं। अपने शास्त्रों के बोध का मानक स्वरूप निर्धारित किया गया बिना दूसरों से तुलना किये। किसी श्रेष्ठता बोध की स्थापना हेतु नहीं अपितु जिस चिंतन बीज तक भारतीय मनीषा पहुंची थी उस परा को संवाद की लय देने के लिए पूर्व की कलाओं ने रूप संधान किया।
‘लीयते परमानंदेययात्मा सा परा कला’ आग्रह यही है कि प्राचीन का केवल गुणगान ही न हो बल्कि उसकी रचना प्रक्रिया और विचारों को रूप में ढ़ालने की सिद्ध तकनीक पर भी ध्यान हो। प्राचीनता मात्र संग्रहित ही न हो अपितु उसका पुर्नसंधान भी हो। दर्शन, विचारों को रूपायित करना बोरियत और पुरानेपन के एहसास से भर सकता है इसलिए कला को विनोदपूर्ण एवं मनोरंजक होना आवश्यक है, अन्यथा कलाकार वैचारिकता से बोझिल हो जायेगा। इसके लिए लोकरंजक होना पड़ेगा। उन लोगों के बीच जाना होगा जो जीवन की तात्कालिक पूर्ति हेतु जरूरत भर की तकनीक स्वयं निर्माण कर लेता है। ये उसकी कलाकारी है जिसे बेचा नहीं जाता उपलब्ध कराया जाता है। जीवन की कम से कम सुविधाओं में रहकर प्राकृतिक नियति के स्वाध्याय से हमें लोक की चित्त, धारणा समझने में सहायता मिल सकती है। गैलरी कल्चर तो फिरनी है जो ऊपर-नीचे फिराती रहेगी। करोड़ी होना माया है।‘माया महाठगिनी हम जानी’ बिकाऊ संस्कृति में कला मात्र दिखाऊ हो जाती है। व्यक्तिगत बाजीगरी का रूतबा बन जाती है। व्यक्ति केवल अपने आप में संपूर्ण नही हो सकता उसे समष्टि में घुलना होगा। जीवन व्यापक अर्थों में परंपराओं में ढ़लता रहता है, धर्म के अवयवों को लेकर। इन सबका मिलान है- कुंभ।
पूर्णता के घट में सब तिरोहित करना है। भागीरथी में डुबकी के बाद बरौनियों से झरती बूंदों के बीच खुलता संसार देखो। गहरे हरे रंग की ठहरी गति, बलुई धवलता का तेज बहाव एकमेक होती हुयी कैनवस की सीमा के पार निकल गई है। हवाओं के अन्तराल में केसरिया का तेज स्ट्रोक लगा है। असंख्य सिरों के परिप्रेक्ष्य में नाद की एक अमूर्त सी आकृति दिखायी देती है परन्तु पूरी तरह बन नहीं पाती। फिर कोशिश.. रंग की धार.. लेकिन छूट जाता है कुछ। इस क्रम में कितनी चीजें सृजित हो जाती हैं फिर भी समग्र मूर्तिमान स्वरूप पूर्णत्व का, कुंभ का आना अभी बाकी है।

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