भारतीय यर्थाथ का फिल्मी मोहल्ला

भारतीय यथार्थ को सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ उतारने के प्रयास न के बराबर हुए हैं। प्रायः भारतीय सच को फिल्मी पर्दे पर इस तरह परोसा जाता है कि उससे आत्म-परिष्कार की बजाय आत्म-तिरस्कार की भावना पैदा होती है। अभी तक फिल्मी पर्दे पर परोसे गए सच से विद्वेष और पिछड़ेपन की मानसिकता ही पैदा होती रही है।
इस परिस्थिति में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी‘ कहानी कहने के एक नए व्याकरण की तरह आई है। जिस सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ यह फिल्म खांटी भारतीय सच को परोसती है, वह फिल्म को एकदम अलहदा बना देती है। यहां हर सच के लिए स्थान है, सच में कड़वापन भी है, चरित्र में पर्याप्त विरोधाभास के लिए स्पेस है, लेकिन कहानी इस खूबसूरती के साथ कही गई है कि चरित्र गुंथे हुए है, जुबानों की तपिश के बावजूद मन में मैल पैदा नहीं होता, लोग एक-दूसरे के साथ संवाद में बने हुए हैं।
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने ऐसी ही कोशिश अपनी फिल्म पिंजर में भी की थी, लेकिन बहुत सारे पक्षों को एकसाथ समेटने के चक्कर में सब कुछ गड्डमड्ड हो गया था। ‘मोहल्ला अस्सी‘ में सभी पक्षों को इतने सहज ढंग से उकेरा गया है कि दुराग्रहों के दबाव हावी नहीं हो पाते।
फिल्म में धर्मनाथ पांडेय की भूमिका में सनी देओल देहभाषा के स्तर पर बहुत प्रभावी हैं। उनकी पत्नी की भूमिका में साक्षी तंवर ने बनारसीपन और बनारसी यथार्थ को गजब ढंग से आत्मसात किया है। पप्पू पान वाले की दुकान पर बैठने वाले सभी किरदारों ने कमोबेश अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।
विभिन्न किरदारों को यथार्थ के धरातल पर बनाए रखते हुए संदेश देने का काम डॉ. चंद्रप्रकाश की खूबी रही है। यह खूबी इस फिल्म में दिखती है। वह साक्षात्कारों में इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी वास्तविक क्षमता शब्द, संवाद और लेखन है। पूरी फिल्म में कई ऐसे संवाद हैं, जो जुबान और दिमाग दोनों पर चढ़ जाते हैं। हम घाट को पिकनिक स्पॉट और गंगा को स्वीमिंग पूल नहीं होने देंगे, अब विदेशी ही इतिहास लिखेंगे बनारस का, हमने राम से यह कभी नहीं मांगा कि कष्ट न मिले, हमने तो हमेशा कष्ट को सहने की शक्ति मांगी जैसे संवाद काफी प्रभावी हैं।
संभवतः ‘मोहल्ला अस्सी‘ ऐसी पहली फिल्म है, जिसमें ब्राह्मण वर्ग को सभी आयामों के साथ दिखाया गया है। उनका धर्मसंकट, तंगहाली, बदलते परिवेश में उभरती चुनौतियां और सामाजिक कटाक्षों के बढ़ते चलन और उससे पैदा होने वाली घुटन सभी को करीने से परदे पर उतारा गया है। शिवलिंग को प्रवाहित करते समय पांडेय परिवार जिस मानसिक स्थिति से गुजरता है, उसका चित्रण इतने प्रभावी ढंग से किया गया है कि वह दिमाग पर छा जाता है। इससे जुड़े दृश्य यह बताते हैं कि परम्पराएं बहुत त्याग से बचती और बढ़ती हैं।
बॉक्स ऑफिस पर इसे मिली सफलता-असफलता से इस फिल्म का आकलन नहीं किया जा सकता। फिल्म के चरित्र धर्मनाथ पांडेय पूरी फिल्म में संघर्ष करते हैं, लेकिन अंततः फिल्म यह बता जाती है कि सच उनके साथ है। यही बात फिल्म के लिए भी कही जा सकती है, वह सफल भले न हो, उसके पास सच है। इसी कारण ‘मोहल्ला अस्सी‘ वर्तमान का दस्तावेज और भविष्य की फिल्म है।

 

लाल सलाम का काला कलाम

डॉ. जयप्रकाश सिंह

अप्रियकर घटनाओं को एकांगी नजरिए से देखना हम भारतीयों की आदत सी बन चुकी है। हमें हमेशा इस बात को स्वीकार करने में झिझक रहती है कि गली मोहल्लों में घट रही घटनाओं का भी एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य हो सकता है और कोई वैश्विक-कॉकस देश भर में समस्याओं की श्रृंखला खड़ी कर सकता है।
साम्यवाद के संदर्भों में तो समझ की सीमाएं हमें और भी असहज बना देती हैं। जेएनयू से लेकर एचपीयू तक अपने देश और संस्कृति को लेकर जो घृणा का भाव है, उसकी जड़ों को सैद्धांतिक स्तर पर टटोलने की कोशिशें कम ही हुई हैं। हिंदी में तो बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान और चीन को अपने देश पर तरजीह देने की विरासत किन कारणों से पैदा हुई, सभी धर्मों को अफीम मानने वाला साम्यवाद भारत में इस्लाम और ईसाइयत का पहरेदार और हिंदुत्व के प्रति घृणा भाव से कैसे भर गया, इसकी तह तक जाने की जहमत भारतीय बुद्धिजीवियों ने कम ही उठाई है।
इस परिस्थिति में प्रसिद्ध पत्रकार संदीप देव की किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की‘ सन्नाटे को चीरने वाली भूमिका में हमारे सामने आती है। किताब भारत में घटी और घट रही घटनाओं को समझने और यथार्थ को वैश्विक नजरिए से देखने के लिए प्रेरित करती है। साम्यवाद की विविध रणनीतियों और रूपों से हमारा परिचय कराती है। पुस्तक का प्रारंभ साम्यवाद के सैद्धांतिक आधारों को टटोलने से होता है और जब सैद्धांतिकी को खंगालने का काम भारत पहुंचता है, तो उसके केंद्र में नेहरू आ जाते हैं। यद्यपि यह किताब साम्यवाद का वास्तविक स्वरूप हमारे सामने रखना चाहती है, लेकिन नेहरू की वैचारिकी और व्यक्तित्व को समझने-परखने का एक नया वैचारिक सिरा भी हमारे हाथ पकड़ा जाती है। नेहरू की वैचारिक बनावट की यात्रा पर संदर्भों के साथ जिस तरह से यह पुस्तक प्रकाश डालती है, वह आंख खोलने वाला है। मसलन फिलिप स्प्रैट का यह कथन कि ‘मैं जितना समझता था, उससे बड़े कम्युनिस्ट थे’।
कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए साम्यवादियों ने एक रणनीति के तहत किस तरह उपयोग किया और चीन युद्ध के समय उनको किस तरह अंधेरे में रखकर धोखा दिया, वह किताब में बहुत सहज और रोचक बन जाता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य साम्यवादियों के लिए सबसे बड़ा शत्रु क्यों होता है, इसकी भी बड़ी गहराई से व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। राष्ट्र को चुनौती देने के लिए ही सन् 1919 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशन की स्थापना की गई थी। इसके जरिए कई देशों में लाल क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया था।
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता नए संदर्भ ग्रंथों तक इसकी पहुंच है। हिंदी माध्यम में आई किताबों में प्रायः वैश्विक संदर्भ स्रोतों का अभाव ही दिखता है। लेकिन लेखक ने अपनी बात को प्रमाणिक बनाने के लिए विभिन्न स्रोंतों का उल्लेख कर इस किताब को ही महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। संदीप देव ने साम्यवादियों के लाल और खूंखार चेहरे को देखने के लिए एक खिड़की खोली है और भविष्य के शोधों के लिए एक आधार भूमि उपलब्ध कराई है। भारत में साम्यवाद को लेकर नई पीढ़ी में एक कसमसाहट दिखती है, लेकिन प्रायः वह खंडन का सशक्त वैचारिक आधार उपलब्ध न होने के कारण सही रास्ते का चुनाव नहीं कर पाती। यह किताब युवाओं को वर्तमान कसमसाहट में निजात दिला सकती है। नई पीढ़ी का पथ-प्रदर्शक बनने की सभी संभावनाओं को यह किताब खुद में समेटे हुए है।

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