सरस संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया

संज्ञाएं पहचान का आधार होती हैं। संज्ञाशून्य होना पहचानविहीन होने जैसा है। इसीलिए, पहचान गढ़ने का कोई भी काम किसी संज्ञा से प्रारम्भ होता है। यदि किसी व्यक्ति या समाज से उसकी संज्ञाए छीन ली जाएं तो उसके सामने पहचान का संकट खडा हो जाता है। यही खासियत उन्हें सांस्कृतिक और साभ्यतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है। हर आक्रांता देर-सवेर उन संज्ञाओं का नाम बदलना चाहता है, जिनसे आक्रांत समाज की पहचान जुड़ी हुई होती है।
संज्ञाएं किसी समाज की वास्तविक पहचान को न केवल उसकी स्मृति में न केवल बनाए रखती हैं बल्कि उस पहचान को फिर से स्थापित करने हेतु संघर्ष करने के लिए प्रेरित भी करती है। इसीकारण ये आक्रांताओं के सामने चुनौती बन जाती है। इसलिए संज्ञाहरण या संज्ञा

संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इसकी घोषणा 19 दिसम्बर 2016 को ही कर दी थी। अब इससे सम्बंधित वैश्विक कार्यक्रमों की विधिवत शुरुआत भी पेरिस स्थिति यूनेस्को हाउस से हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र प्रत्येक वर्ष को किसी चयनित मुद्दे के ‘अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाता है। इस संस्था के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित करना अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता को बताने और उसकी तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने का एक तरीका है।
संयुक्त राष्ट्र की इस परम्परा के लिहाज से देखें तो वर्ष 2019 को ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाने में कोई अनूठापन नहीं दिखता। सामान्य समझ तो यही बनती है कि संयुक्त राष्ट्र इस वर्ष देशज भाषाओं के संरक्षण
-संवर्द्धन के लिए विशेष प्रयास करेगा। वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे भाषायी-सम्मोहनों और दबावों के बीच संयुक्त राष्ट्र की ऐसी पहल साहसी मानी जाएगी। लेकिन बात केवल साहस की नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी समझ के अनुसार इस वर्ष को मनाने जा रहा है, वह उसके निर्णय को अनूठा और क्रांतिकारी दोनों बना देते हैं।
संयुक्त राष्ट ने ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के लिए जो थीम निर्धारित की है, वह अब तक की भाषायी समझ को सिर के बल खड़ी कर सकती है। थीम के अनुसार ‘देशज भाषाएं विकास, शांति
-निर्माण, सुलह का उपकरण हैं।’ इस थीम की जरूरत और आशय को अधिक स्पष्ट करते हुए संयुक्त राष्ट्र एक आकार लेती भाषायी समझ की तरफ संकेत करता है।
इस संस्था के ही शब्दों में कहें तो ‘भाषाएं लोगों के रोजमर्रा के जीवन में संचार, शिक्षा, सामाजिक एकीकरण और विकास के उपकरण के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि लोगों की विशिष्ट पहचान, सांस्कृतिक इतिहास, परम्परा और स्मृति का भण्डार भी हैं। इतना मूल्यवान होने के बावजूद विश्व भर में भाषाएं खतरनाक दर से विलुप्त हो रही हैं। इस बात को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है, ताकि इनके बारे में जागरूकता पैदा हो सके। इसका लक्ष्य इन भाषाओं को बोलने वाले लोगों को लाभ पहुंचाना तो है ही, उन अन्य लोगों को भी इस बात का अहसास दिलाना है कि देशज भाषी दुनिया की सांस्कृतिक विविधता में किस कदर योगदान कर रहे हैं।’
संयुक्त राष्ट्र ने देशज भाषाएं क्यों महत्वपूर्ण हैं, इसके लिए 6 कारण गिनाए हैं। संस्था के अनुसार देशज भाषाएं ज्ञान और दुनिया को समझने की एक विशिष्ट प्रणाली से हमारा परिचय कराती है। देशज भाषाएं शांति का माध्यम है, यह टिकाउ विकास, निवेश, शांति
-स्थापना और सुलह का के रास्ते खोलती हैं। भाषा मूलभूत मानवाधिकार और स्वतंत्रता है। यह सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देती है। और अंतिम यह कि यह विविधता की पोषक है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा देशज भाषाओं के पक्ष में दिए गए इन तर्कों की वजह से भाषा का कद यकायक बढ़ जाता है। इस बड़े फलक पर भाषा का जुड़ाव हर उदात्त आदर्श से हो जाता है, वह मानवीय मूल्यों तक पहुंचने का प्राथमिक उपकरण बन जाती है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित ‘मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स’ या ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स’ के संदर्भों में भाषाओं की अहमियत बढ़ जाती है। ऐसा लगता है कि भाषायी सामर्थ्य का निवेश किए बगैर किसी भी लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। भाषा मूलभूत अधोसंरचना के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती है।
संयुक्त राष्ट्र ने भाषायी सामथ्र्य के अनछुए लेकिन प्रभावी पहुलओं की अपनी स्वीकृति दे दी है। इसी के साथ बदलाव और टकराव की भूमिका भी तैयार कर दी है। भाषा अब जिस नए कलेवर में हमारे सामने आ रही है, उसका सामथ्र्य यदि अपने सम्पूर्ण कलाओं के साथ अवतार ले रहा है, तो इससे भविष्य में व्यापक बदलाव दिख सकते हैं। लेकिन इसके साथ टकराव के नए मोर्चे भी तैयार होंगे।
अभी तक भाषा को पहनने वाले कपड़े के तरह परोसा जाता था। जब चाहे बदल लो। वह तो अभिव्यक्त का उपकरण भर है, इसे संस्कृति, पहचान से जोड़ना मूर्खता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र तो स्पष्ट कह रहा है कि भाषा पहचान को गढ़ती है और यह सांस्कृतिक स्मृतियों का सामूहिक कोश है। चुनौती इस तर्क को भी मिलेगी कि परम्परा को किसी भी भाषा में आगे बढ़ाया जा सकता है, इसलिए परम्परा के आग्रही व्यक्तियों को भाषा के बारे में आग्रह नहीं रखना चाहिए।
प्रश्न उस लोकप्रिय तर्क पर भी उठेंगे, जो कहता है कि विकास की खास भाषा होती है। भाषा
-विविधता को कलह का कारण मानने वाले भी संयुक्त राष्ट्र की नई भाषायी लाइन से निराश होंगे। भाषायी मानवाधिकार और भाषायी स्वतंत्रता की संकल्पनाएं, किस कदर उठापटक पैदा कर सकती हैं, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल नहीं है। अभी तक मानवाधिकार की एक खास वैश्विक भाषा है और उसी खास भाषा में दक्षता प्राप्त कर स्वतंत्र होने की घोषणा की जा सकती है।
देशज भाषाओं के बहाने ही सही, संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी समझ को गढ़ने और फैलाने की कोशिश कर रहा है, उसके असर से कोई भी देश अछूता नहीं रहेगा। देश के भीतर भी विभिन्न मोर्चों पर इसके अलग
-अलग तीव्रता के प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। भारतीय संदर्भों में देखें तो संयुक्त राष्ट्र के नव-भाषायी संकल्पों से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में से एक मीडिया का क्षेत्र होगा। भारतीय मीडिया अब भी परम्परागत भाषायी आख्यानों से संचालित होता है। अधिकांश बिंदुओं पर उसकी दिशा संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के उलट दिखाई पड़ती है।
भाषा सम्बंधी एक आयाम का विश्लेषण भी इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त होगा कि भारतीय मीडिया की भाषायी समझ ठहर गई है। नए अध्ययनों के आलोक में वह अपनी भाषायी समझ का विश्लेषण करने के लिए न तो तैयार है और न ही कहने का नया व्याकारण तैयार करने में उसकी रुचि है। मसलन, संयुक्त राष्ट्र जहां भाषा के माध्यम से शांति की संभावनाओं को तलाश रहा है। भाषा के संयमित-संतुलित उपयोग पर जोर दे रहा है, वहीं भारतीय मीडिया दिन--दिन कर्कश होती जा रही है। उसे लगता है कि सच चिल्लाकर-शोर मचाकर ही सच कहा जा सकता है।
भाषायी मर्यादा का हनन भारतीय मीडिया का स्थायी चरित्र बनता जा रहा है। शोरगुल तक तो फिर भी गनीमत थी। अब तो यह घृणा के स्तर तक पहुंच गया है। इसका ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब द क्विंट की एक पत्रकार ने सार्वजनिक रूप से अमित शाह की मौत की कामना की। 16 जनवरी 2019 को अमित शाह ने ट्वीट किया कि -मुझे स्वाइन फ्लू हुआ है, जिसका उपचार चल रहा है। ईश्वर की कृपा, आप सभी के प्रेम और शुभकामनाओं से शीघ्र ही स्वस्थ हो जाऊंगा। इस पर द क्विंट की पत्रकार स्तुति मिश्रा ने अमित शाह की मौत की इच्छा ट्वीटर पर जाहिर की।
इसी तरह द क्विंट के ही स्तंभकार विकास महरोत्रा ने 7 मार्च 2017 को ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी रोड की तस्वीर साझा करते हुए उनके मौत की कामना की थी। कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने पर जब तजिन्दर पाल बग्गा ने सिखों की चिंताओं को आवाज दी तो एक महिला पत्रकार ने उनके मरने की कामना करते हुए उन्हें शोक संवेदना भेजी।
एनडीटीवी की राजनीतिक सम्पादक सुनेत्रा चैधरी से इससे भी एक कदम आगे निकल जाती हैं। उन्होंने 3 अक्टूबर 2009 को एक ट्वीट किया था। ट्वीट नरेन्द्र मोदी को स्वाइन फ्लू होने से जुडा़ था और उसका आशय भी स्तुति मिश्रा जैसा ही था। अपने इस ट्वीट पर घिरने के बाद उनका उत्तर था कि मुझे ऐसा लिखने का कोई पछतावा नहीं है। मृणाल पांडे के नाम से पत्रकारिता जगत में सब परिचित ही हैं। उन्होंने पत्रकारिता से जुड़े कई सरकारी
-गैरसरकारी पदों की शोभा बढ़ाई है। एक मात्र बौद्धिक होने की आत्ममुग्धता उनमें मौक-बे-मौके दिखती रहती है। इसी कड़ी में वह प्रधानमंत्री को ‘वैशाखनंदन’ कह जाती हैं। आलोचना होने पर उन्होंने अपनी इस गलती को भी बौद्धिकता का मायाजाल रचकर
ये उदाहरण भारतीय मीडिया की भाषायी समझ पर प्रश्न जैसे हैं। संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया अपनी भूमिका को नए सिरे से कैसे परिभाषित करेगी, उस पर बहुतों की नजर रहेगी। भविष्य में विमर्श और विश्वसनीयता का स्तर मीडिया की भाषायी समझ पर ही निर्भर करेगा।

परिवर्तन करके साम्राज्यवादी शक्तियां अपने साम्राज्य को स्थायी बनाने का बंदोबस्त करती रही हैं। आक्रांताओं द्वारा संज्ञाओं के साथ खिलवाड़ इसलिए भी किया जाता है क्योंकि यह पराधीन समाज को नीचा दिखाने का अवसर भी प्रदान करता है।
दूसरी तरफ संस्कृति के प्रति संवेदनशील लोग नई संज्ञाओं को संरक्षित रखने की कोशिश करते हैं या आरोपित संज्ञाओं के स्थान पर मूल संज्ञाओं की वापसी के लिए संघर्ष करते हैं। एक सांस्कृतिक व्यक्ति भली प्रकार से यह जानता है कि संज्ञाओं के संरक्षण का मतलब अपनी सभ्यता-संस्कृति के गुणसूत्रों की रक्षा करना है। संज्ञा बीज है। यदि वह अक्षुण्ण बनी रहती है तो सांस्कृतिक प्रवाह भी कमोबेश बना रहता है। संज्ञा प्रेरणा और स्वप्न है। उसमें बदलाव का मतलब किसी सभ्यता के स्वप्नों और प्रेरणाओं पर कब्जा करना है।
एक सभ्यता के रूप में लगभग तेरह सौ वर्षों से राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्षों के साथ भारत संज्ञाओं के मोर्चे पर युद्धरत है। सत्ता हथियाने के बाद होने वाले नरसंहारों, मन्दिरों, लूट-पाट, बलात्कार शिक्षा में बदलाव जैसे बिंदुओं की चर्चा तो कमोबेश होती रही है, लेकिन भारत ने खुद को पहचान देने वाली संज्ञाओं के लिए कैसे संघर्ष किया है, इस पर चर्चा अभी न के बराबर हुई है। हाल में इलाहाबाद और फैजाबाद का ‘पुर्ननामकरण संस्कार‘ होने के बाद नाम और नामकरण को लेकर भारतीय मीडिया में यकायक चर्चाओं की बाढ़ आ गई। भारत के सांस्कृतिक अभिकेन्द्रों में शामिल रहे प्रयाग और अयोध्या को उनकी मूलसंज्ञा से सम्बोधित किए जाने के बाद भारतीय मीडिया में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह की छिछली चर्चाएं की गई और सतही दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया, उससे यह जरूरी हो गया कि संज्ञाओं से सम्बंधित परम्परागत भारतीय दृष्टिकोण से परिचित हुआ जाए।
उत्तर प्रदेश में परम्परागत संज्ञात्मक चेतना की कुछ स्थानों पर हुई अभिव्यक्ति के बाद मीडिया में जो बहस चली या चलाई गई, वह मुख्यतः चार तर्को के आधार पर गढ़ी गई। पहली यह कि नाम में क्या रखा है, किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है। दूसरा तर्क यह गढ़ा गया कि लोगों के विकास और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए। नाम बदलने से वस्तुस्थिति थोड़ी ही बदल जाती है। तीसरे तर्क का सहारा कुछ मौलानानुमा लोगों ने लिया और यह कहा कि यदि नामकरण करना ही है तो नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण कर दिया जाए। और यह भी कि नामकरण इतिहास के साथ खिलवाड़ है।
इन चार तर्कों को यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोदी मीडिया के ये तीनों तर्क न केवल भोथरे हैं बल्कि उनकी सांस्कृतिक निरक्षरता के द्योतक भी हैं। भारत में गुणधर्म के आधार पर नामकरण करने की परम्परा रहा है। चर्चा में रहे अयोध्या या प्रयाग के नामकरण का उनकी विशेषताओं और इतिहास से गहरा सम्बंध है। अयोध्या का मतलब जो योध्य नही हैं, जिसे युद्ध में जीता नहीं जा सकता। प्रयाग के नामकरण का सम्बंध भी ब्रह्मा के प्रथम यज्ञ से है। केवल अयोध्या या प्रयाग का ही नहीं, व्यक्तियों या स्थानों का नामकरण उनके गुणधर्मों के निश्चित करने की भारत में परम्परा रही हैं। संज्ञाओं को लेकर इस अतिशय संवेदनशीलता के कारण ही भारत में निरुक्त जैसा एक पूर्ण शास्त्र अस्तित्व में आया और नामकरण को सोलह संस्कारों में शामिल किया गया। अब जिन्हें टॉम, डिक, हैरी में से कुछ भी चुन लेने की आदत है, वह निश्चित नाम के आग्रह और नामों के अवदान को स्वीकार कर पाएं, यह मुश्किल है। भारत में नामों की कितनी महत्ता है कि इसका अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि भारतीयों ने कुछ अर्थों में नाम को राम से भी बड़ा मान लिया। तुलसीदास जी रामनाम को ही सर्वोत्तम तीर्थ बताते हुए कहते हैं कि
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कासी बिधि बसि तनु तजें, हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम
-नाम अनुराग।।
यानी विधिपूर्वक काशी में रहकर शरीर त्यागने से और प्रयाग में हठपूर्वक शरीर त्यागने से जो मोक्ष रूपी फल मिलता है, वह राम नाम में अनुराग होने से मिल जाता है। तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में नाम की विस्तृत महिमा गाई है। वह ‘को बड़ छोट कहत अपराधू, सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू’ कहकर रूप और नाम की तुलना से बचते हैं लेकिन आगे जाकर रूप को नाम के अधीन बताने में भी नहीं हिचकते हैं-देखिअहिं रूप नाम अधीना। रूप ग्यान नहिं नाम विहीना। उनके अनुसार नाम में अनुराग रखने वाले भक्तों को हमेशा मंगल ही होता है-भाय कुभाय अनख आलसहूं। नाम जपत मंगल दिसि दसहूं।
नाम-महिमा का यह चिंतन, अक्षर को अविनाशी और शब्द को ब्रह्म मानने वाली वृहद दार्शनिक रूप का प्रतिफल है। इसीकारण, भारतीय परम्परा अष्टोत्तरशतनामावली, सहस्रनामावली जैसी परम्पराओं का विकास हुआ। प्रयाग और अयोध्या के नामकरण को इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भारतीय जनमानस को उसकी वास्तविक स्मृतियों से जोड़ने वाला आवश्यक सांस्कृतिक कर्म है।
इतिहासकार होने का दावा करने वाली एक टोली ने यह तर्क गढ़ा की नाम में बदलाव इतिहास के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ है। भारतीयता को लेकर हमेशा अरण्यरोदन करने वाली एक मंडली ने नामकरण को फिजूलखर्ची साबित करने की कोशिश की।
स्पष्ट है नामकरण को लेकर भारतीय परम्परा बहुत सजग और सुव्यवस्थित रही है। इसमें किसी का भी, कुछ भी नाम रख देने वाले चिंतन के लिए स्पेस न के बराबर रहा है। नामकरण से सम्बंधित परम्परागत बोध के छीजने के बावजूद आज भी एक सामान्य भारतीय परिवार में जन्मे नवजात का नामकरण उसकी जन्मकुंडली के आधार पर संभावित गुणों और विशेषताओं का ध्यान में रखकर किया जाता है। ऐसे में कम से कम भारतीय संदर्भों में तो यह तर्क हास्यास्पद ही कहा जाएगा कि नाम में क्या रखा है ? या किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है।
दूसरा तर्क यह है दिया गया कि नाम बदलने से वस्तुस्थित थोड़ी ही बदलती है। हां, यह सच है कि नाम बदलने से तुरंत वस्तुस्थिति में तो कोई बदलाव नहीं आता लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इससे हमारी चेतना की प्रक्रिया और बोधात्मक स्वरूप में तुरंत ही बदलाव आ जाता है। यह बोधात्मक बदलाव देर
-सवेर वस्तुस्थिति में बदलाव का कारण बनता है। नामकरण, विकास की प्रक्रिया और सांस्कृतिक बोध में सम्बंध स्थापित कर वस्तुस्थिति में बदलाव का मजबूत और दूरगामी आधार सृजित करता है। विकास की दिशा यदि सांस्कृतिक-बोध से शून्य है तो ऐसा विकास न स्थायी होता है और न ही शुभ। ऐसा विकास अंततः रावण की लंका बनाता है, जो सोने की होते हुए अनाचार का पर्याय बनती है। इसलिए विकास और सांस्कृतिक बोध को साथ लाने का कार्य उचित नामकरण करने या मूल नामों को पुनः स्थापित करने से प्रारंभ होता है। नामकरण तुरंत बदलाव नहीं पैदा करता लेकिन यह ऐसा बोध पैदा करता है, जिससे बदलाव की संभावनाएं पैदा होती हैं।
जहां तक नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण करने की बात है तो आदर्श स्थिति में ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन यह तर्क उन शहरों के संदर्भ में अपने
-आप प्रासंगिक हो जाता है, जिनके प्राचीन नामों को आक्रांताओं ने जबरन बदल दिया। अयोध्या या प्रयाग प्राचीन नगर थे, इन नगरों से ही आस-पास के क्षेत्रों की पहचान होती थी। इन नगरों को आक्रमणकारियों ने तो नहीं बसाया था। धार्मिक-सांस्कृतिक कारणों इन पुराने शहरों को नए नाम दे दिए गये थे। इसलिए सांस्कृतिक दृष्टि से बर्बर लोगों ने बिना शहर बसाए नए नामकरण करने की जो भूल की थी, उसका परिमार्जन किया जाना आवश्यक हो जाता है। अयोध्या और प्रयाग को उनका मूल सम्बोधन पुनः प्रदान कर ऐसा ही आवश्यक परिमार्जन किया गया है।
इतिहास के साथ खिलवाड़ करने की बात तो पूरी तरह देशबोध और कालबोध से जुड़ी बोध है। यदि आप का इतिहास 11वीं शताब्दी या 15वीं शताब्दी तक जाता है तो नैसर्गिक नाम देने के सरकारी प्रक्रिया इतिहास के साथ खिलवाड़ लगेगी लेकिन यदि आपका इतिहास बोध इससे और आगे जाता है तो यह इतिहास के साथ किए गए खिलवाड़ को ठीक करने जैसा होगा। मामला दृष्टि का है, कोई 11 शताब्दी के बाद के घटनाक्रम को ही इतिहास मानता है तो खुद ही इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहा है।
फिजूलखर्ची के संदर्भों में तो यही कहा जा सकता है कि अर्थ का सबसे अच्छा निवेश बोध, ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में ही हो सकता है। इन क्षेत्रों में किया गया निवेश अंततः आर्थिक दृष्टि से भी लाभकारी साबित होता है। नैसर्गिक नाम की वापसी बोध में बदलाव के लिए बहुत जरूरी है और इसमें होने वाले आर्थिक खर्चे को आवश्यक निवेश मानकर स्वीकार किया जाना चाहिए। यहां इस तथ्य को भी ध्यान रखना चाहिए कि लालबुझक्कणों की एक टोली आर्थिक खर्चे का तर्क तभी देती है जब देश कुछ मूलभूत और महत्वपूर्ण हासिल करने की दिशा में अग्रसर होता है। पोखरण के समय भी खर्चे का रोना
-रोया गया था, मंगलयान के समय भी और अयोध्या और प्रयाग के नामों को लेकर रोजी-रोटी की दुहाइयां दी जा रही है। रोजी-रोटी का प्रश्न महत्वपूर्ण है। लेकिन हमेशा सांस्कृतिक भाव-बोध या मूलभूत शोध के विरोध में जाकर ही रोजी-रोटी का प्रश्न उठाना शातिराना हरकत ही कही जाएगी।
जो यह मानते हैं कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष अब भी चल रहा है , उनके लिए नैसर्गिक नामों की वापसी एक आवश्यक कदम और महत्वपूर्ण उपलब्धि की तरह है। अकादमिक षड्यंत्रों और मीडियाई छल से परे जाकर आम जनमानस को टंटोले तो कृत्रिम नामों का हटना उनके लिए यह अरसे से कलजे पर रखे हुए पत्थर और सम्मान पर लगे हुए कलंक के हटने जैसा है। भारतीय जनमन का ईमानदारी से टंटोलें तो वहां पर यही स्थायी भाव मिलेगा।

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