भाषायी योद्धा को भारत-रत्न

भारत सरकार ने स्वतन्त्रता सेनानी, शिक्षाविद्, कुशल राजनीतिज्ञ एवं प्रखर भाषायी योद्धा कर्पूरी ठाकुर को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने की घोषणा की है। जननायक कर्पूरी ठाकुर ने स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलन से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री पद के दायित्व का निर्वहन करने के समय तक भारतीय मूल्यों एवं परम्पराओं को सदैव आगे रखा। भारत रत्न से सम्मानित किए जाने की घोषणा के बाद से मीडिया और सार्वजनिक विमर्श में उनके व्यक्तित्व से जुड़े विभिन्न आयामों पर चर्चा हो रही है। किसी ने उन्हें पिछड़ों के मसीहा के रूप में व्याख्यायित किया, तो किसी ने एक कुशल एवं सफल राजनेता के रूप में उनके विराट व्यक्तित्व की बात कही। हालांकि इस समूचे विमर्श में उनके व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष उपेक्षित ही रहा या उस गम्भीरता के साथ उसकी बात नहीं हुई। यह पक्ष था कर्पूरी ठाकुर का क्षेत्रीय भाषाओं, विशेषकर मातृभाषा हिन्दी को लेकर उनके प्रेम और निष्ठा का। कर्पूरी ठाकुर ने व्यक्तिगत विचार एवं चिन्तन से लेकर कामकाज के समय हिन्दी भाषा को सर्वोच्च वरियता दी। इसी कारण ‘भाषायी योद्धा’ के रूप में उनकी पहचान एवं प्रतिष्ठा सदैव अमर रहेगी।   

दरअसल, डॉ. लोहिया के प्रभाव से वर्ष 1970 से कुछ समय पूर्व देश एक बड़े वैचारिक एवं राजनीतिक बदलाव का साक्षी बना। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् पहली बार ऐसा हुआ कि देश के नौ राज्यों में गैर-कांग्रेसी दलों की सरकार बनी। कांग्रेस के उस समय के सियासी दखल से भी डॉ. लोहिया भलीभान्ति परिचित थे। अनिश्चितताओं से भरे उस दौर में उनकी सहज इच्छा थी कि नीति और योजना के स्तर पर कुछेक ऐसे प्रयोग हो जाएं, जिनके आधार पर कांग्रेसी और गैर-कांग्रेसी सरकारों के बीच का अन्तर सहज रूप से दृष्टिगत हो सके। इस अपेक्षा के साथ स्कूली शिक्षा में अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता को समाप्त करने का कर्पूरी ठाकुर का निर्णय हिन्दी भाषी प्रदेश के एक बड़े वर्ग के लिये राहत लेकर आया। डॉ. भीम सिंह उनके इस फैसले का अवलोकन करते हुए लिखते हैं, कर्पूरीजी तब संविद सरकार में शिक्षा मंत्री और उप-मुख्यमंत्री थे। उन्होंने एक झटके में मैट्रिक पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी। अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण जो लाखों गरीब-गुरबे और ग्रामीण छात्र लगातार फेल कर रहे थे, अंग्रेजी के बिना उत्तीर्ण व्यवस्था के तहत झटके में प्रवेशिकोत्तीर्ण हो गए और उच्च शिक्षा प्राप्त करने का उन्हें सुनहरा मौका मिला। लेकिन अंग्रेजीपरस्त लोगों ने इसके लिए उनका मखौल उड़ाया। वैसे उत्तीर्ण छात्रों को “कर्पूरी डिवीजन“ से पास की संज्ञा दी गई। कर्पूरीजी का मानना था कि बगैर शिक्षा में सुधार किए प्रदेश व देश की समस्याओं का उचित समाधान नहीं हो सकता। वे शिक्षा को वायु और जल की तरह सबको सुलभ करना चाहते थे। इसीलिए वे जब-जब सरकार में गए, शिक्षा सम्बन्धी क्रान्तिकारी सुधार किए।

स्कूली शिक्षा में अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता खत्म करने के साथ ही उन्होंने कामकाज में भी हिन्दी भाषा को सुप्रतिष्ठित करने का संकल्प लिया। कैबिनेट मंत्री और बाद में मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए उन्होंने अंग्रेजी भाषा के स्थान पर हिन्दी भाषा को सामान्य कामकाज में अपनाने से सम्बन्धित महत्वपूर्ण निर्णय किए। महान कर्मयोगी जननायक कर्पूरी ठाकुर किताब में वर्णन मिलता है कि कर्पूरी ठाकुर ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में सरकारी कामकाजों में मजबूती से हिन्दी को प्रतिष्ठित किया, जिससे प्रत्येक आई.ए.एस और आई.पी.एस. ऑफिसर हिन्दी भक्त बन गए थे। किताब में आगे वर्णन मिलता है कि भाषा के बारे में समाजवादी आन्दोलन का अपना दृष्टिकोण रहा है। कर्पूरी ठाकुर 1967 में उप-मुख्यमंत्री के साथ-साथ वित्त और शिक्षा मंत्री भी थे। उस समय तक भारत सरकार से राज्य का पत्राचार अंग्रेजी में ही हुआ करता था। कर्पूरी ठाकुर ने इसका प्रतिकार किया। भाषा के सवाल पर उन्होंने केन्द्र से भी लड़ाई ठान ली। उन्होंने कहा कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसलिए केन्द्र सरकार से हिन्दी में पत्राचार होगा। अन्ततः कर्पूरी ठाकुर की जीत हुई और केन्द्र सरकार से हिन्दी में बिहार सरकार के पत्राचार का सिलसिला प्रारम्भ हुआ।

कर्पूरी ठाकुर मातृभाषा को भाव एवं विचार की सहज-सरस अभिव्यक्ति का एक प्रभाशाली माध्यम थे। सार्वजनिक जीवन में एक सफल संचारक के रूप में सुप्रतिष्ठित कर्पूर ठाकुर ने जनता के साथ संवाद के लिए मातृभाषा हिन्दी को ही चुना। महान कर्मयोगी जननायक कर्पूरी ठाकुर किताब में कर्पूर ठाकुर के भाषायी दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुए लिखा गया है, हिन्दी को राजकाज की भाषा के रूप में अपनाने के पीछे उनकी स्पष्ट धारणा यह थी कि मातृभाषा और राष्ट्रभाषा समाज तथा राष्ट्र की एकता की वाहक होती हैं। उनका मानना था कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है और हिन्दी में ही यह क्षमता है कि राष्ट्र की भावात्मक एकता को अटूट डोर से बाँध सके और इसीलिए हिन्दी को समृद्ध करने के साथ-साथ ज्ञान एवं विज्ञान की भाषा के रूप में हिन्दी को अधिष्ठापित करना होगा। उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि यह तभी सम्भव हो सकेगा जब अंग्रेजी की धौंस और जुआ को निर्ममता से उतार फेंका जाए। इस सिलसिले में वे सोवियत संघ (अब रूस), जर्मनी, जापान और फ्रांस का उदाहरण अक्सर दिया करते थे कि इन देशों में ज्ञान और विज्ञान की भाषा अंग्रेजी नहीं, बल्कि उनकी अपनी-अपनी भाषा है।

वर्ष 1977 में वह पुनः बिहार के मुख्यमंत्री बनते हैं। इस दौरान भी उन्होंने हिन्दी भाषा को राजकाज से लेकर सामान्य व्यक्ति के व्यवहार की भाषा के रूप प्रचलित करने के उद्देश्य से निरन्तर प्रयास किए। डॉ. जगन्नाथ मिश्र हिन्दी भाषा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, बिहार में राजभाषा अधिनियम के लागू रहने के बावजूद अधिकारीगण अंग्रेजी में टिप्पणियाँ लिखते थे और पत्राचार करते थे। इसके प्रति उन्होंने कड़ा रुख अपनाया और घोषणा की कि राजकाज में हिन्दी के बदले अंग्रेजी भाषा का प्रयोग कानून का उल्लंघन माना जाएगा। बस उस दिन से हिन्दी चल पड़ी।

स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलन के दौरान कर्पूर ठाकुर अग्रिम पंक्ति के सेनानियों के साथ मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्षरत रहे। इस दौरान उपनिवेशवाद के प्रतीकों के खिलाफ उनके मन में विरोधी भावना जन्म लेती रही। 1947 में लम्बे एवं व्यापक आन्दोलन के परिणामस्वरूप भारत स्वतन्त्र हो गया। इसके बावजूद करीब 200 वर्षों के शासन काल में अंग्रेजों ने तन्त्र में कुछ ऐसी व्यवस्थाएं स्थापित कर दी थीं, जिन्होंने स्वतन्त्रता के पश्चात् भी उपनिवेशवादी प्रतीकों और प्रभाव का जीवन्त बनाए रखा। ऐसी ही एक व्यवस्था थी शिक्षा और सरकार के कामकाज में अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व। शिक्षा और सरकारी कामकाज को अंग्रेजी भाषा के प्रभाव से मुक्त करवाने और मातृभाषा हिन्दी को समाज और शासन में सुप्रतिष्ठित करने वाले ‘भाषायी योद्धा’ के रूप में कर्पूरी ठाकुर का योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा।

Comments

Please Login to Submit Your Comment