चुनावी भाषा की चकल्लस

व्यक्ति अपनी मातृभाषा अथवा परिवेश की भाषा में सबसे सहज व स्वतंत्र महसूस करता है और  किसी अन्य भाषा के मुकाबले क्रिएटिव होने की सम्भावना भी सर्वाधिक होती है। संवाद और संचार की दृष्टि से मातृभाषा अहम भूमिका निभाती है, संवाद और संचार तभी प्रभावी होगा, सफल होगा, जब भाषा का माध्यम मातृभाषा होगी। मातृभाषा व्यक्ति के दैनिक जीवन में अहम रोल निभाती है, और अगर बात चुनाव की हो, राजनीति की हो, तो भाषा का महत्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि आज का दौर लोगों को आश्वस्त कर उनका मत प्राप्त करने का है, और अपनी भाषा में लोग जल्दी आश्वस्त भी होते हैं।

राजनीति, और मातृभाषा एक-दूसरे के पूरक हैं। भारतीय संदर्भों में इसका महत्व पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का वह बयान है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘मेरी हिंदी अच्छी नहीं है, इसलिए प्रधानमंत्री से ज्यादा बेहतर पद राष्ट्रपति का है’। हालांकि इस बयान के बाद एक इंटरव्यू में प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ‘मैंने कहा था कि प्रधानमंत्री का पद आम आदमी के करीब होता है, उसे आम लोगों से संवाद करना होता है और हिंदी आम आदमी की भाषा है, ऐसे में प्रधानमंत्री के पद पर बैठने वाले शख्स का हिंदी में जबरदस्त दखल होना चाहिए, तभी वह आम लोगों से बेहतर संवाद स्थापित कर पाएगा’। राजनीति में हिंदी भाषा के लिहाज से प्रणब मुखर्जी का यह बयान कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं।

महात्मा गांधी जनसंपर्क हेतु हिंदी भाषा को ही ज्यादा उपयुक्त मानते थे। गांधी जी का मानना था कि ‘वास्तव में अपने लोगों के दिलों तक तो हम अपनी भाषा के द्वारा ही पहुंच सकते हैं’। राजनीति में तो यह बात बहुत मायने रखती है।

2014 के लोकसभा चुनावों के दौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी भाषा के लिहाज से लोकप्रिय राजनेता हैं। नरेंद्र मोदी के धाराप्रवाह हिंदी भाषणों को नजरअंदाज करने की संभावना कम ही रहती है, हां यह बात अलग है कि आप उनसे सहमत हों या असहमत। पीएम मोदी ने वर्तमान समय में भारत समेत विश्व में हिंदी भाषा में अपने भाषणों के जरिए, संवाद के जरिए, हिंदी भाषा की लोकप्रियता को और बढ़ाया है, साथ ही स्वयं की लोकप्रियता के कारणों में से एक कारण यह भी है कि वे अक्सर अपनी चुनावी रैली में परिवेश की भाषा का उचित उपयोग करते हैं, जिस कारण जनता भावनात्मक रूप से जुड़ती है। आप इसे रणनीति कह सकते हैं।

भाषा एक उपकरण के तौर पर संचार, शिक्षा, सामाजिक एकीकरण और विकास के लिए उपयोग में तो लाई ही जाती है साथ ही भाषा पहचान का अभिन्न हिस्सा है, जो विभिन्न भाषाई व  सांस्कृतिक विविधताओं को बनाये रखती है। बच्चे की पहली भाषा उसकी मातृभाषा होती है, मातृभाषा में मौलिक चिन्तन की संभावना सर्वाधिक है, बच्चे का दृष्टिकोण, सोचने की शक्ति, तर्क की शक्ति, किसी अन्य भाषा के मुकाबले अधिक होती है। बच्चे के विकास के लिए शिक्षा महत्वपूर्ण है और संपूर्ण विकास के लिए मातृभाषा। यही बात युवाओं पर भी लागू होती है। गांधी जी भी शिक्षा के माध्यम के लिए मातृभाषा को ही सर्वोतम मानते थे। उनका कथन था ‘किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना, मैं राष्ट्र का दुर्भाग्य मानता हूं’। गांधी जी किसी भाषा का विरोध नहीं करते थे, उनका कहना था कि ‘भाषाएं खूब पढ़ें, मगर मैं यह हरगिज नहीं चाहूंगा कि कोई हिंदुस्तानी अपनी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी उपेक्षा करे, उसके प्रति शर्म महसूस करे’।

शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषा का कितना योगदान है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ईएफए (एजुकेशन फॉर ऑल) यूनेस्को 2003 की एक रिसर्च रिपोर्ट जिसमें, लिखा है कि ‘गुणवत्ता शिक्षा प्राप्त करने में मातृभाषा केंद्रीय भूमिका निभाती है’।

यूनेस्को द्वारा जारी की गई ‘एजुकेशन टुड़े द मदर टंग डिलेमा’ नामक एक रिसर्च रिपोर्ट, जिसमें  यूनेस्को के भूतपूर्व शिक्षा सहायक निदेशक जॉन डेनियल का कहना है कि, ‘जो बच्चे अपनी मातृभाषा में अपनी शिक्षा शुरू करते हैं, वे बेहतर शुरूआत करते हैं और लगातार बेहतर प्रदर्शन करते हैं, उन बच्चों की तुलना में जो नई भाषा के साथ अपनी शिक्षा शुरू करते हैं’। यूनेस्को की एक और रिसर्च रिपोर्ट ‘मदर टंग मैटर्स लोकल लैंग्वेज ऐज अ की टू इफेक्टिव लर्निंग’। 2008 की यह रिसर्च रिपोर्ट द्विभाषी शिक्षा प्रक्रिया में मातृभाषा के अहम योगदान को दर्शाती है, रिसर्च में बताया गया है कि द्विभाषी शिक्षा प्रक्रिया हो या फिर बहुभाषी, दोनों में मातृभाषा का उपयोग एक माध्यम के रूप में किया जा सकता है, जिससे शिक्षा प्रभावी होगी साथ ही व्यक्ति का सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर संपूर्ण विकास होगा। रिसर्च का उद्देश्य मातृभाषा का शिक्षा में योगदान और विभिन्न भाषाई व सांस्कृतिक विविधता को दर्शाना है। रिपोर्ट में चार अलग-अलग देशों की अलग-अलग परिस्थतियों को लिया गया है, जिनमें द्विभाषी शिक्षा प्रणाली अपनाई गई व परिणाम सकारात्मक थे। यूनेस्को द्वारा की गई ऐसी दो-तीन रिसर्च नहीं हैं, बल्कि अनेकों हैं, जिनमें मातृभाषा को द्विभाषी शिक्षा के नजरिये से, व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिहाज से, महत्वपूर्ण बताया गया है।

भारत विकासशील देश है, जो डिजीटलीकरण की ओर बढ़ रहा है। केपीएमजी इंड़िया और गूगल द्वारा की गई ‘इंडियन लैंग्वेज डिफाइनिंग इंडियाज इंटरनेट’ नामक स्टड़ी बताती है कि भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ता डिजिटल कंटेट को अंग्रेजी के बजाय, भारतीय भाषाओं में अधिक पसंद कर रहे हैं, सर्च कर रहे हैं और भारतीय भाषाओं में डिजिटल कंटेट की मांग दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। स्टड़ी में अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं की तुलना के मुताबिक 2011 में भारत में अंग्रेजी इंटरनेट यूजर 68 मिलियन थे, जबकि भारतीय भाषाओं के इंटरनेट यूजर 42 मिलियन थे। 2016 में यही भारतीय भाषाओं के इंटरनेट यूजर 234 मिलियन हो गए जबकि भारत में अंग्रेजी इंटरनेट यूजर 175 मिलियन रह गए। स्टडी में एक अनुमान के मुताबिक 2021 तक भारत में अंग्रेजी भाषा के इंटरनेट यूजर लगभग 199 मिलियन जबकि भारतीय भाषाओँ के इंटरनेट यूजर 536 मिलियन हो जाएंगे। बाजार की भाषा तो परिवेश की भाषा रही है, यह स्टड़ी भी यही बताती है। स्टड़ी में बताया गया है कि 88 प्रतिशत भारतीय इंटरनेट यूजरों ने डिजिटल विज्ञापनों के लिए अंग्रेजी भाषा की तुलना में परिवेश की भाषाओं की तरफ कदम बढ़ाया है। बहरहाल आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि डिजीटलीकरण के इस दौर में भाषाई एकाधिकार नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं का दब-दबा रहेगा।

2019 चुनावी वर्ष है, तमाम मीड़िया रणनीतिकार और राजनेता अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए भरसक प्रयास करेंगे, लेकिन उन्हें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि मातृभाषा को दरकिनार कर, भारत जैसे भाषाई विविधता के लिहाज से सम्पन्न देश में, जीत के बारे में सोचना महज हवाई कल्पना करना होगा।

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