दृश्य परंपरा और इतिहास

कलाएं अपने समय, अपने समाज की मुखर दस्तावेज होती हैं। विधि, माध्यम, रुप-स्वरुप और निर्माण के पीछे संस्कृति के प्रवाह को समेटे कलाएं किसी सभ्यता का सच्चा इतिहास व्यक्त करती हैं। कोई भी शिल्प अपने समय की कारीगरी, वास्तुकौशल और मेधाशक्ति को रूप मानकर इतिहास के प्रचलित अर्थों से अलग समानांतर व्याख्या करता है। जिस प्रकार शब्द स्वयं में परंपरा और विचारों को समाहित किये रहते हैं उसी प्रकार कलाओं में रचनाविधान के प्रतीकों और रूपों में तत्कालीन समय का मुहावरा गढ़ा गया होता है। उसको बिना लिखित इतिहास के समझना अपनी जड़ों को जानना है। वर्तमान में लिखित इतिहास प्रमाण के रुप में रेखांकित किया जाता है। भारत के संदर्भ में समय को लिखित ब्यौरे के रूप में रखना छोटे दायरे में रखना है।

हमारे देश में ज्ञान, विचार की दो परंपराएं रही हैं– एक श्रुति परंपरा, दूसरी दृश्य परंपरा। मौखिक रूप से कंठस्थ किया हुआ शास्त्र, नीति, निष्ठा, पीढ़ियों तक पहुंचता रहा। शास्त्रीयचिंतन, पाठ, दर्शन के अतिरिक्त नृत्य, नाट्य, चित्र-मूर्ति, वास्तु आदि दृश्य परंपरा में आते हैं। नृत्य, नाट्य, भाव, भंगिमाओं और अंगसंचालन की विशेष क्रियाएं हैं। सामयिक जीवन की प्रतिकृति और जीवनमूल्यों की संस्कृति को धारण किये हुए नाट्य-नृत्य की धारा आज भी प्रवाहित है। ये गतिशील और तुरंत असर डालने वाली विधा है और समाज का व्यक्ति ही स्वयं माध्यम है परन्तु चित्र-मूर्ति इत्यादि अपने स्थूल माध्यमों के कारण जीवनदर्शन को विशिष्ट मुद्राओं से उद्घाटित करता है। समय के थपेड़ों के बीच संस्कृति प्रवाह अक्षुण्ण रखता है। हो सकता है उस स्थान विशेष का समाज राजनीतिक विवशताओं के चलते अपने धार्मिक विश्वासों, आस्थाओं को बदल ले परन्तु कलाएं किसी आदेशों से, दबावों में अचानक नहीं बदलती, वह अपने मूल अभिव्यक्ति को रचती हुई चलती है। उन्ही रूप, निर्माण प्रक्रिया का रिवर्स अध्ययन करके हम उस समय को पुनः समझ सकते हैं। भारत के अलावा अन्य देशों, अफगानिस्तान, कम्बोडिया, इंडोनेशिया में उत्खनन में पाये जाने वाले शिवलिंग, बौद्ध मूर्तियां मंदिर भारत की दृश्य परंपरा का ही अंग है। यह लिखित इतिहास चर्या से शिल्पकला आगे का जीवंत इतिहास है। वैदिक समय सत्यचिंतन और विचारों के शास्त्रार्थ का काल था। उस समय वाक् और ध्वनियों पर अधिक चिंतन-मनन हुआ। जीवन की सामान्य गतिविधियों को निष्ठापूर्वक जीना कलारूप ही था परन्तु रूप गढ़ना विशिष्ट बोध था। इसीलिए उस समय आराध्यों के कुछ आकार ही बने।

दृश्य कलाएं सभ्यताओं का ऐतिहासिक चरित्र हैं। मंदिर स्थापत्य, दर्शन, कौशल का साभ्यतिक इतिहास है। इस दृष्टि से भारत के इतिहास को समझा तो गया लेकिन अतीत के गौरव की तरह। जबकि जिस आइकनोग्राफी में महान शिल्प रचे गए वह इस देश की श्रुतिपरंपरा का ही स्वरुप है। आधुनिक कमजर्फ नजरों ने केवल मिथुनमूर्तियां देखीं और अपनी स्वेच्छाचारिता की व्याख्या कर मात्र पर्यटन की वस्तु बना दिया। मूर्तियों के शरीर पर पत्थरों पर उकेरा गया महीन आवरण नहीं देखा, जंघाएं देख लीं। बाहरी परिप्रेक्ष्य से होते हुए अन्दर ध्यान और मुक्ति के साधन आराध्य की अवधारणा नहीं समझी।

भारतीय संदर्भ में कलाएं केवल कौशल और मनोरंजन ही नहीं है बल्कि वह हमारे ज्ञान, वैचारिकी की दृश्य विधा हैं। अतः आराध्य मूर्ति केवल विशिष्ट ही नहीं है। वह शास्त्रीय विधान से बनाई गई प्राणछन्दस्वरुप है। शिल्प-वास्तु की संकल्पना, ज्यामितीय आकलन, गणितीय माप और अलग-अलग शिल्प गढ़ने के उचित प्रमाण, भाव के कारण लिखित इतिहासों से कहीं आगे है। ये शिल्पीय संकल्पनाएं रूढ़ नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि कोई एक किताब ऊपर से आ गई, अब केवल उसके अनुसार ही चलना है। जबकि कालान्तर में विभिन्न विद्वानों ने शिल्पीय कल्पनाओं और शास्त्रीयता की पुनर्व्याख्या भी की है। यह हमारा सौभाग्य है कि संस्कृत में कई ग्रंथ आज हमारे पास सुरक्षित हैं जिसमें शिल्प, वास्तु, कुआं, घर, मंदिर, देव-प्रतिमा इत्यादि के निर्माण की विस्तृत  व्याख्या  है।

कालक्रमानुसार विभिन्न क्षेत्र की भाषाएं बदल गई हैं। पहनावा, खान-पान और लोकरीतियाँ भी अलग हैं लेकिन कलानिर्माण की मूल संकल्पनाएं सभी जगह एक ही हैं। उनकी चिंतनधारा के केन्द्र में सनातनधर्म के जीवनमूल्य ही अलग-अलग रंगों में बिखरते रहे। लोकानुरुप उनका स्वरुप और भी सरल हुआ। बड़े स्थापत्य भले न हुए हों लेकिन खिलौने, मातृ-देवियों की निर्मिति में तत्कालीन समय की कारीगरी और कौशल स्वतंत्र रूप से दिखाई पड़ता है। खिलौने के रुप में डौलिया कर बनाये जाने वाले चेहरे, उनको पहनाया गया वस्त्र, सिरछत्र, तरह-तरह के जूड़े की शैली या फिर छोटे कद, गठीले बदन की यक्षमूर्तियों से उस समय के समाज के बारे में स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है।

कलाएं जीवंत होती हैं उनमें इतिहास के लक्षण मौजूद रहते हैं। किसी सभ्यता के बारे में उत्खनन में मिली मूर्ति, दैनिक कलात्मक वस्तुएं और स्थापत्य से जानकारी प्राप्त होती है। कला और इतिहास का अर्न्तसंबंध गहरा है। हम दोनों को अलग रख कर संभ्रम की स्थिति में हो सकते हैं। भारत की प्राचीनता का काल इतने पीछे तक है कि पश्चिमी इतिहास की दृष्टि सनातन संस्कृति के अजस्र प्रवाह को स्वीकार ही नहीं कर सकता। तो क्या हम किसी इन्तजार में उपेक्षित बैठे रहें? इसके लिए आकलन के एक नियम सभी पर लागू नहीं हो सकते। अब तक हम दूसरों की दृष्टि से देखे गये, लिखे गये भारत को पढ़ा-समझा है। जिससे कई संशय बने रह जाते हैं। जो भी शास्त्र सुरक्षित हैं या तो उन्हें प्रमाण मानें या पाश्चात्य कसौटी पर अपनी संस्कृति को परखें। यह द्वन्द्व कला क्षेत्र में अत्यधिक है।

आजकल आधुनिकता के नाम पर अथवा नया करने के फेर में प्रयोगों का नितान्त आत्मकेन्द्रित रवैया दिखाई पड़ता है, कलाकारों में। हर कोई नया‘वाद’ ‘इज्म’ ही गढ़ रहा है। चित्र-मूर्ति क्षेत्र के दिग्गज कलाकार निरी भौतिक दृष्टि रखकर किन्हीं आकारों को ही उलट-पलट रहे हैं। भारत की सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति अवरुद्ध है। जो शिल्प स्थापत्य बचे हुए हैं वे पुराने के नाम पर दर्शनीय हैं, केवल पठनीय नहीं। जबकि सारी विदेशी तकनीकें, विद्वान और कला-पारखी हमारे मन्दिर स्थापत्य की कारीगरी के डी.एन.ए. टेस्ट में लगी हुई  हैं। वे जानते हैं कहीं भारतीय चेतना अपने प्राचीन गौरव को जान न ले इसीलिए विदेशी हिस्ट्री चैनल एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर निर्माण की अद्भुत क्षमता को किसी एलियन से जोड़ता है। वो संभावना व्यक्त करता है कि कोई एलियन बनाकर चले गए।  वरना कठोर ज्वालामुखी से बने चट्टानी पहाड़ो को काटकर इतना बड़ा स्थापत्य समूह बनाना उस समय असंभव था। इस प्रकार की संशय संभावना हमारी परिकल्पनाओं को रोक देती है, हमें कमजोर बना देती है। ऐसी संशयात्मक व्याख्याएं विश्वास पर सवाल खड़े करने की भावना पैदा करती है जिससे भारत के लोगों को अपने गौरव का भान न हो कि हम उन पूर्वजों की ही कड़ी हैं जो इतनी महान कलाक्षमताओं के पुरुषार्थ से भरे थे। यह संशय संभावना हमारी विराट कलाक्षमताओं को कुंदकर उसे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा में बदल देती है।

इतिहास की इस तरह की अधूरी दृष्टि को और बड़ा करना होगा। हमें कलाओं के जरिए केवल संस्कृति का गुणगान ही नहीं बल्कि तकनीकों, माध्यमों के द्वारा तत्कालीन समाज की कारीगरी और कला मनीषियों के चिंतन को देखना पड़ेगा। तकनीक और कौशल क्या आज के विशालकाय उद्योगों के मानक नहीं हैं? कौशल में चिंतन के इतने विराट परिप्रेक्ष्य को भारत की इतिहास दृष्टि बनाना चाहिए। इस कौशल आधारित गौरव-भाव से भारत को सामूहिक चेतना को आधुनिक समय के वृहद् शिल्प निर्माण के लिए खड़ा किया जा सकता है। सहस्राब्दियों से खड़े ये अद्भुत मंदिर स्थापत्य वास्तविक भारत को जानने के समय यंत्र हैं, जिसके द्वारा समाज और प्रकृति की सार्थक व्याख्या की जा सकती है।

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