लोकसंवाद में महाराणा प्रताप

हल्दी घाटी में समर लड्यो, वो चेतक रो असवार कठे... हिंदवा सूरज मेवाड़ रतन, वो महाराणा प्रताप कठे...। कभी आक्रांता मुगलों को भी लोहे के चने चबवाने वाले और भारत की प्रतिरोध की संस्कृति के प्रतीक महाराणा प्रताप को लोकसंवाद की परंपरा में कुछ यूं याद किया जाता है। विश्वविद्यालयों में इतिहास की पुस्तकों में हम जिन महाराणा के बारे में जानते हैं, उनका विस्तार लोक परंपरा में उससे कहीं अधिक है। राजस्थान और देश के असंख्य लोगों के मन में आज भी अन्याय के खिलाफ वह एक नायक के तौर पर स्थापित है। महाराणा प्रताप का अकबर से कब युद्ध हुआ, कौन जीता, किसका कितना नुकसान हुआ और उसके बाद क्या परिणाम हुए, यह इतिहासकारों के शोध के विषय हमेशा बने रह सकते हैं। लेकिन, भारतीय जनमानस के लिए महाराणा प्रताप इतिहास के किसी शासक या योद्धा की भूमिका से परे हैं।

बीते 400 सालों के इतिहास में महाराणा प्रताप की लोककथाएं एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी पीढ़ी और फिर आगे तक रिसते हुए यहां तक पहुंची हैं। भले ही उनके संबंध में तमाम इतिहासकारों ने संक्षिप्त भूमिका ही लिखी हो, लेकिन लोककंठ में उनका विस्तार अथाह है। वो नीले घोड़े रा असवार, म्हारा मेवाड़ी सरदार... लिखित इतिहास से परे हैं। महाराणा प्रताप के जीवन का हम अध्ययन करते हैं तो हम यह पाते हैं कि वह संसाधनों के बिना भी जीवट के साथ लड़ते रहे। परतंत्र नहीं होना है, भले ही उसकी कीमत घास की रोटियां खाना हो। महाराणा प्रताप की यह सीख भारत के स्वाभिमान का प्रतीक है। महाराणा प्रताप की कथाएं हमें यह भी बताती हैं कि भारत किस तरह से लोकसंवाद के जरिए अपने पूर्वजों का स्मरण करता रहा है। भले ही उनके बारे में हमें इतिहास कर अपने हिस्से का ही सच बताते हैं, लेकिन लोककथाएं हमें उन अनछुए पहलुओं से अवगत कराती हैं, जो महाराणा प्रताप होने के मायने बताते हैं।

भारत हमेशा से वाचाल समाज रहा है और यही कारण है कि हम पीढ़ियों तक किसी भी चीज को बिना लिखे ही पहुंचा सके हैं। इसका कारण लोकसंवाद की वह परंपरा ही है, जो हमें पूर्वजों से विरासत में मिली है। महाराणा प्रताप ऐसे नायक हैं, जिन पर कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया। उनका कोई दरबारी कवि नहीं था, जो उनकी वीरता की गाथाओं का दस्तावेजीकरण करे। फिर भी हमें महाराणा की वीरता से लेकर उनके अश्व चेतक की चपलता तक का वर्णन कविताओं, रागनियों, गीतों और किस्सों में मिलता है। भले ही महाराणा का केंद्र मेवाड़ और राजस्थान रहा हो, लेकिन लोकसंवाद की इस परंपरा के चलते ही वह पूरे भारत में आंक्राताओं के खिलाफ एक नायक, एक प्रतीक के तौर पर जाने गए।

कवि माधव दरक ने महाराणा के स्मरण में सुंदर कविता लिखी है। वह लिखते हैं-

ये माटी हल्दीघाटी री लागे केसर और चंदन है,

माथा पर तिलक करो इण रो इण माटी ने निज वंदन है...

या रणभूमि तीरथ भूमि, दर्शन करवा मन ललचावे,

उण वीर-सुरमा री यादा हिवड़ा में जोश जगा जावे...

उण स्वामी भक्त चेतक री टापा, टप-टप री आवाज कठे,

हल्दी घाटी में समर लड्यो, वो चेतक रो असवार कठे...।

महाराणा प्रताप के घोड़े 'चेतक' पर लिखी गई कविता भी हम सभी ने पढ़ी है। कवि श्यामनारायण पांडेय ने 20वीं सदी में इस कविता को रचा था, लेकिन उसकी प्रेरणा पीढ़ियों से लोककंठ में रची-बसी राणा की अनसुनी कहानियां ही थीं। जो चेतक पर सुंदर रचना के माध्यम से प्रस्फुटित हुईं। महाराणा प्रताप का यह नायकत्व लोकसंवाद की इस परंपरा के चलते और निखरे हुए स्वरूप में हम सभी के समक्ष आया है। महाराणा प्रताप की जयंती के इस अवसर पर अपने नायक का स्मरण करने के साथ ही हमें लोकसंवाद की उस शैली और परंपरा को भी बनाए रखने के क्या यत्न हो सकते हैं, उस पर विचार करना चाहिए। महाराणा प्रताप जैसे हमारी पीढ़ी तक आए हैं, वैसे ही भावी पीढ़ियां भी उन्हें समझ सकें, उनके व्यक्तित्व में झांक सकें, इसके लिए हमें लोकसंवाद का वह झरोखा खुला रखना होगा, जो हमारे पूर्वजों ने तैयार किया था।

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