जब आर्गनाइजर ने लड़ी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई
पिछले 6 वर्षो से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग खूब अलापा जा रहा है। जिन लोगों ने आपातकाल लगाए जाने के पक्ष में खूब नारे लगाए थे, या उसे अनुशासन पर्व माना था, उन्हें भी अभिव्यक्ति की आजादी अचानक खतरे में नजर आने लगी है। अभिव्यक्ति की आजादी को राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ की हद तक ले जाने वाले इन राजनीतिक खिलाड़ियों को भारतीय जनता ने बहुत गंभीरता से नहीं लिया, तो इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि जनता को इनके पुराने कारनामे याद थे। रही बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की तो इतिहास यह बताता है कि स्वतंत्र भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पहली बड़ी लड़ाई आर्गनाइजर समाचार पत्र ने लड़ी थी।
70 वर्ष पहले तत्कालीन सरकार ने जैसे आर्गेनाइजर की आवाज का गला दबाने की कोशिश की वैसी ही उनकी नियत आज भी बनी हुई है। बॉम्बे उच्च न्यायालय के द्वारा अर्नब गोस्वामी के केस में दिया गया निर्णय तो यही संकेत करता है। 70 वर्षों से अपने विरोधियों का स्वर दबाने की लिए सेंसरशिप, राजद्रोह तथा अन्य पुलिस केस करवाने के हथकंडे पूर्व की सरकारें अपनाती रही हैं।
घटना भारतीय संविधान के लागू होने के एक महीने बाद की है। आरएसएस के विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए आर्गनाइजर नाम से एक साप्ताहिक पत्र निकलता है। मार्च 1950 में पत्रिका के प्रिंटर तथा पब्लिशर ब्रज भूषण शर्मा एवं संपादक के. आर. मलकानी को एक आदेश दिल्ली प्रशासन की तरफ से मिलता है, आर्गेनाइजर पत्रिका के छपने से पहले इसे दिल्ली सरकार के एक अधिकारी को दिखाया जाना जरुरी है और उक्त अधिकारी की स्वीकृति के बाद ही इसे छापा जा सकता है।
प्रेस की आजादी या अभिव्यक्ति की आजादी को रोकने या कम करने के कई तरीके होते हैं, जिसमें अखबार या पत्रिका को छपने से पहले रोक लगा देना इसमें सबसे खतरनाक भी है क्योंकि इसे “निपिंग इन द बड” या शुरुआत में ही खत्म करना कह सकते हैं। इसके अलावा प्रसार पर रोक लगा देना या अखबारी कागज मुहैया न कराना भी प्रेस की आजादी को रोकने के अन्य तरीके हो सकते हैं जो तब प्रचलन में थे। देश में अभिव्यक्ति की आजादी के बहुत से केस हुए है तथा उनमें से कुछ को बहुत प्रचारित भी किया गया है, लेकिन ब्रज भूषण शर्मा बनाम दिल्ली प्रशासन का सर्वोच्च न्यायालय का केस लोगों की नजर में ज्यादा नहीं आ पाया। शायद इसलिए क्योंकि एक ही दिन यानी 26 मई 1950 को सुप्रीम कोर्ट की 6 न्यायाधीशों की संविधान पीठ, उस समय सुप्रीम कोर्ट में 6 ही न्यायाधीश थे, ने दो मामलों पर अपना निर्णय दिया जो कि प्रेस की आजादी से सम्बंधित थे। एक था ब्रज भूषण का केस दूसरा था रोमेश थापर का केस। इन मामलों में जब निर्णय दिए गए तो एक केस की बात को दूसरे केस में कहा गया इसलिए रोमेश थापर केस का तो लोग नाम जानने लगे परन्तु दूसरे केस के बारे में भूल गए।
आर्गेनाइजर के खिलाफ जब 2 मार्च 1950 को पूर्व सेंसरशिप का आदेश दिल्ली प्रशासन ने दिया, उसको पूर्व पंजाब जन सुरक्षा कानून जो कि दिल्ली में लागू किया गया था, की धारा 7 के तहत यह कहा गया कि कोई भी राजनैतिक अथवा साम्प्रदायिक खबरें बिना सरकारी अधिकारी की स्वीकृति के आप प्रकाशित नहीं कर सकते। चूँकि ये कानून 1949 में बना था तथा 26 जनवरी 1950 से सभी भारतीयों को अभिव्यक्ति की आजादी मौलिक अधिकार के रूप में मिल गयी थी, इसलिए ब्रज भूषण शर्मा तथा के. आर मलकानी के द्वारा सीधे सुप्रीम कोर्ट में इस आदेश को चुनौती दी गयी। भारत के संविधान के अनुसार यह अभिव्यक्ति की आजादी पर सरकार की तरफ से एक हमला था तथा उससे केवल भारत का सर्वोच्च न्यायालय ही न्याय दिला सकता था। पिटीशनर की तरफ से मुख्य मुद्दा यही था कि बदले परिवेश में जब देश में संविधान के तहत भारतीय नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी मौलिक अधिकार के रूप में मिली है, उसको एक संविधान लगने से पूर्व के कानून के द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता। सरकार का पक्ष यह था कि वादी की तरफ से ऐसी सामग्री प्रकाशित की जा रही है जो जन सुरक्षा, लोक व्यवस्था तथा देश की सुरक्षा के लिए खतरा है। उस समय अनुच्छेद 19 (1)(क) में जो अभिव्यक्ति की आजादी का मौलिक अधिकार मिला, वो पूर्ण नहीं था और उस पर कुछ पाबंदियां थी जो राष्ट्रीय सुरक्षा, शालीनता या नैतिकता, अदालत की अवमानना तथा मानहानि के कानून से सम्बंधित थी। आर्गेनाइजर पर जो पाबन्दी लगायी गयी थी वह लोक सुरक्षा कानून के तहत लगायी गयी थी और लोक सुरक्षा या लोक व्यवस्था सम्बन्धी कोई भी पाबन्दी उस समय की अभिव्यक्ति की आजादी पर नहीं लगायी जा सकती थी। माननीय न्यायालय ने बहुमत से (6 में से 5 न्यायाधीश) यह माना कि पत्रिका पर पूर्व सेंसरशिप एक तरह से प्रेस की आजादी पर पाबन्दी है जो कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(क) में जो अभिव्यक्ति की आजादी का मौलिक अधिकार दिया गया है उसके विरुद्ध है। इसी बात को मानते हुए इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की आजादी को बनाए रखा और आर्गनाइजर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ध्वजवाहक बना और पिछले 70 वर्षों से प्रखर होकर आमजन की बात हम सबके सामने रखता आया है और आज भी बदलते परिवेश में डिजिटल फॉर्मेट में सब तक पहुंच रहा है।
दूसरे केस में, रमेश थापर की पत्रिका क्रॉस रोड के नाम से प्रकाशित होती थी, का मामला था। उसमे भी यही तर्क दिए गए थे। क्रॉस रोड पत्रिका जल्द ही बंद हो गयी लेकिन आर्गनाइजर आज भी प्रखर रूप से अपनी बात रखती है। ब्रज भूषण तथा रोमेश थापर के फैसले के रूप में जब जवाहरलाल नेहरू सरकार का गैर कानूनी आदेश सर्वोच्च न्यायलय ने निरस्त कर दिया तो नेहरू ने अभिव्यक्ति की आजादी पर दूसरे हमले का मन बना लिया। इन फैसलों के एक वर्ष बाद नेहरु ने भारतीय संविधान में सबसे पहला संशोधन लाकर अभिवय्क्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया। इसके द्वारा संविधान में कई बदलाव किये जिसमें सबसे महत्वपूर्ण बदलाव 19 (1)(क) में अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार पर जो पाबंदिया अनुच्छेद 19 (2) में दी गई हैं उनका विस्तार कर दिया तथा अभिव्यक्ति की आजादी को काफी कम कर दिया। समय-समय पर कांग्रेस की सरकारों द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी को कमतर किया जाता रहा जिसकी चर्चा हम आगे के अंकों में करेंगे।