शब्दावली

ओटीटी प्लेटफार्म

ओटीटी शब्द ओवर-द-टॉप का शॉर्ट फॉर्म है। ओटीटी एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जहां फिल्म और टेलीविजन कंटेंट को केबल या सैटेलाइट प्रसारणकर्ता के बजाय इंटरनेट पर प्रसारित किया जाता है। इंटरनेट की सहायता से मिलने वाली इस सेवा से केबल बॉक्स से छुटकारा मिला और अपने हाथ में एक स्मार्ट फोन पर टीवी के तमाम कार्यक्रम देख पाना संभव हो गया। भारत में प्रमुख ओटीटी प्लेटफॉर्म हॉटस्टार, अमेजन प्राइम, नेटफ्लिक्स, वूट, जी5, सोनी लाइव हैं। हाल के कुछ ही वर्षों में भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर टीवी के साथ ही वेब सीरीज, हास्य कार्यक्रम और फिल्मों की स्ट्रीमिंग काफी लोकप्रिय है।

भारत में ओटीटी सेवा का विस्तार तेजी के साथ हो रहा है। ऐप डिस्ट्रीब्यूशन प्लेटफॉर्म मो-मैजिक द्वारा देश भर में किए गए एक सर्वे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। इन आंकड़ों के अनुसार इंटरनेट की पहुंच और तेज गति देश में वीडियो कंटेंट देखने के तरीके को तेजी से बदल रही है। देश में 55 फीसदी लोग टीवी शो, फिल्में, खेल और दूसरे कंटेंट ओटीटी प्लेटफॉर्म जैसे हॉटस्टार, अमेजन प्राइम, नेटफ्लिक्स पर देख रहे हैं। 41 फीसदी लोग कंटेंट देखने के लिए डीटीएच प्लेटफॉर्म जैसे टाटा स्काई, डिश टीवी का इस्तेमाल करते हैं। इस सर्वे के मुताबिक भारत में अभी भी हॉट स्टार सबसे ज्यादा देखा जा रहा है।

एक अन्य रिपोर्ट का आकलन है कि भारत में ओटीटी सेवा का बाजार 2023 तक 3.60 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार 2018 तक यह बाजार 35 हजार करोड़ रुपए का था। इंटरनेट की बढ़ती स्पीड और स्मार्टफोन यूजर बढ़ने की वजह से भारत में ओटीटी मार्केट 15 फीसदी की तेज रफ्तार से बढ़ रहा है। 2025 तक इसका वैश्विक मार्केट 17 फीसदी की रफ्तार से बढ़कर 240 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा।

दरअसल, कोरोना संक्रमण के बढ़ते प्रकोप को रोकने के लिए किए गए लॉकडाउन की वजह से सिनेमा हॉल बंद हैं। इस बीच कई प्रोडक्शन हाउस ओटीटी प्लेटफार्म पर ही अपनी फिल्म रिलीज कर रहे हैं। हाल ही में विद्या बालन स्टारर महत्वाकांक्षी बायोपिक फिल्म शकुंतला देवी, दिल बेचारा या गुलाबो सिताबो जैसी मुख्यधारा की कई फिल्मों को इस मंच से ग्लोबल रिलीज मिल चुकी है। हालांकि इस व्यवस्था में कमाई को लेकर बॉक्स ऑफिस जैसा गणित नहीं है। एक रिपोर्ट की मानें तो अगर कोई फिल्म इन दिनों ओटीटी पर डायरेक्ट रिलीज होती है, तो ओटीटी राइट्स से ही लगभग 80 फीसदी राजस्व मिलता है और सैटेलाइट राइट्स से मुनाफे का 20 फीसदी हिस्सा निकलता है।

ओटीटी प्लेटफॉर्मों पर फिल्मों की कमाई का गणित सीधा होता है। रिलीज या स्ट्रीमिंग के लिए ओटीटी को फिल्मों के अधिकार खरीदने होते हैं। अधिकारों के लिए निर्माता को एक रकम मिलती है। यह डील एक ही फिल्म के अलग-अलग भाषाओं के वर्जन के लिए अलग-अलग होती है यानी हर वर्जन के राइट्स की डील अलग से होती है। दूसरी तरफ, कुछ फिल्मों का निर्माण ओटीटी प्लेटफॉर्म करवाते हैं। यानी खास तौर पर किसी फिल्म के लिए ओटीटी प्लेटफॉर्म कोई डील करता है। जैसे एचबीओ एक ओटीटी प्लेटफॉर्म है, जो खास तौर पर फिल्में अपने प्लेटफॉर्म के लिए बनवाने के बिजनेस में है। इस डील में होता यह है कि प्लेटफॉर्म एक तयशुदा रकम फिल्म निर्माताओं को देता है और निर्माता उससे कम रकम में फिल्म बनाते हैं। इसमें बची हुई रकम उनका लाभ होता है।

ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कमाई के मुख्यतः तीन तरीके प्रचलित हैं। ओटीटी का हर यूजर किसी भी कंटेंट को जब डाउनलोड करता है, तो उसके लिए एक शुल्क अदा करता है। दूसरा तरीका है सब्सिक्रिप्शन। कोई भी यूजर हर महीने या एक समय सीमा के लिए एक रकम चुकाता है और उस प्लेटफॉर्म का तमाम कंटेंट देख सकता है। तीसरा तरीका है कंटेंट देखने का कोई चार्ज नहीं है, लेकिन कंटेंट के बीच बीच में यूजर को विज्ञापन देखने होते हैं। जैसे यूट्यूब फ्री है, लेकिन वीडियो के बीच में ऐड देखने होंगे। इन विज्ञापनों के जरिये ओटीटी की कमाई होती है। कुल मिलाकर ओटीटी पर बिजनेस का मॉडल बहुत साधारण है। पहले प्लेटफॉर्म अपने कंटेंट को बनाने या खरीदने में पैसा खर्च करता है और उसके बाद दर्शकों या यूजरों से एक चार्ज लेकर वो कंटेंट बेचा जाता है।
पिछले समय के अनुभवों को सामने रखें तो ओटीटी प्लेटफॉर्म सिनेमाघरों के विकल्प के तौर पर उभरा है। हालांकि इसके अपने फायदे और नुकसान हैं। मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल के शब्दों में सिनेमा जो लार्जर दैन लाइफ अनुभव देता है वो टीवी या छोटी स्क्रीन पर पूरी तरह नहीं मिलता। सिनेमाघर में फिल्म देखना एक सामाजिक उत्सव और सामूहिक अनुभव होता है। फिल्में कई माध्यमों से देखी जा सकती हैं, सबकी अपनी अहमियत है।

हालांकि ओटीटी प्लेटफॉर्म का अब तक का छोटा सा सफर ही कई बार विवादों में आ चुका है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि अब तक इस पर नियंत्रण को लेकर कोई भी नियामक संस्था नहीं बनाई जा सकी है। इस तरह की निगरानी के अभाव में कंटेट निर्माता बार-बार गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति की लक्षमण रेखा लांघते रहे हैं। कुछ समय पूर्व अश्लील वेब सीरीज के जरिये हिंदू देवी-देवताओं और भारतीय सेना के अपमान को लेकर प्रोड्यूसर और डायरेक्टर एकता कपूर की गिरफ्तारी को लेकर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर खंडपीठ में सुनवाई चली थी। इस दौरान कोर्ट ने सूचना एवं प्रसारण विभाग को पक्षकार बनाने का आदेश देते हुए केंद्र शासन से पूछा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म के जरिये दिखाई जाने वाले वेब सीरीज को लेकर क्या प्रावधान है? इसे नियंत्रित कौन करता है? जिस तरह से फिल्मों को नियंत्रित करने के लिए सेंसर बोर्ड है, वैसी कोई व्यवस्था वेब सीरीज को लेकर है क्या? शिकायतकर्ता वाल्मीकि सकरगाए ने पांच जून को इंदौर के अन्नपूर्णा थाने में एकता कपूर के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी कि उनकी कंपनी ऑल्ट बालाजी सोशल मीडिया पर ट्रिपल एक्स वेब सीरीज चलाती है। वेब सीरीज में हिंदू देवी-देवताओं और भारतीय सेना का अपमान किया गया है। वेब सीरीज के जरिये अश्लीलता परोसी जा रही है। एपिसोड में दिखाया गया था कि पुरुष पात्र भारतीय सेना की वर्दी पहना होता है। एक महिला पात्र उसकी वर्दी फाड़ती है। इस अपमान से आहत होकर शिकायत दर्ज कराई थी।

ओटीटी प्लेटफॉर्म इसलिए भी चर्चा में रहा है क्योंकि इसके जरिए गाली-गलौज, कामुकता और हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके बावजूद दर्शक इन्हें देखने का लोभ नहीं छोड़ पाते, जिसकी वजह से क्राइम सीरीज जमकर लोकप्रिय होती हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कई ऐसी नकारात्मक वेब सीरीज उपलब्ध हैं, जिन्होंने दर्शकों के बीच खूब लोकप्रियता हासिल की, लेकिन इसके साथ-साथ समाज को गलत दिशा में बढ़ाने का काम भी किया है। डिज्नी प्लस हॉटस्टार की आर्या, अमेजन प्राइम की ब्रीद: इनटू दि शैडोज, पाताललोक, मिर्जापुर और नेटफ्लिक्स की सेक्रेड गेम्स ऐसी ही कुछ वेब सीरीज हैं।

इस समय ओटीटी प्लेटफॉर्म आईटी मंत्रालय के तहत आता है। मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी ने यह जानकारी दी है कि भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफार्म पर दिखाए जाने वाले कंटेंट को अपने दायरे में लाना चाहता है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सचिव अमित खरे ने कहा, कि ओटीटी एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है जो अभी अपनी प्रकृति के हिसाब से आईटी मंत्रालय के तहत आता है। इस प्लेटफार्म पर वेब सीरीज, सीरियल जैसे कंटेंट दिखाए जाते हैं, इसलिए इसे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत आना चाहिए। भारत में अभी तक ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए कोई नियामक नहीं है। प्रिंट, रेडियो, टीवी, फिल्म और ओटीटी इन पांच अलग मीडिया में से चार के लिए नियामक है, जबकि एक अभी खुले रूप से कारोबार कर रहा है। इस समय अगर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कोई फिल्म रिलीज होती है तो वह सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन के तहत नहीं आती है।

ओटीटी प्लेटफॉर्म बाजारमें लगातार अपनी स्थिति को मजबूत करता जा रहा है। भविष्य में इसके विकास की संभावनाएं और भी प्रबल हैं। ऐसे में इस प्लेटफॉर्म को बिना किसी निगरानी के खुला नहीं छोड़ा जा सकता। लिहाजा यदि एक उचित नियामक संस्था की निगरानी में इस सेवा को विस्तार मिले तो सूचना तंत्र की पहुंच, गति एवं सुविधा को बढ़ावा देने में यह प्लेटफॉर्म मददगार साबित हो सकता है।
 

आईसीटीसी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता और सुरक्षा का प्रश्न

आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन का कभी कोई विकल्प नहीं हो सकता। सूचना और तकनीकी के क्षेत्र में तो दूसरों पर निर्भर रहने का जोखिम बिलकुल भी नहीं लिया जा सकता। सूचना, संचार एवं तकनीकी क्षेत्र सीधे-सीधे डाटा से जुड़ा हुआ है। इस क्षेत्र में भी भारत अगर दूसरे देशों, खासकर चीन पर निर्भर रहेगा, तो आर्थिक एवं भू-राजनीतिक चुनौतियों के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा हमेशा दांव पर लगी रहेगी। लिहाजा, सूचना एवं तकनीकी क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं हो सकता।

मोदी सरकार ने अपने पहले ही कार्यकाल में डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया और स्टार्ट अप इंडिया जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं को लागू करके भारत को आत्मनिर्भर बनाने के अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। कोरोना काल में आर्थिक मंदी के बाद से भारत को आत्मनिर्भर बनाने की जरूरत भी नये सिरे से महसूस की जाने लगी है। इस दिशा में अहम मोड़ तब आया, जब 15 जून को सीमा पर चीन के साथ झड़प में भारत के 20 जवान शहीद हो गए थे। उस समय चीन-विरोध में जो माहौल पैदा हुआ, उसमें भारत की जनता और सरकार के स्तर पर चीनी सामान के खिलाफ एक मजबूत जनमत बनना शुरू हो गया। भारत सरकार ने चीन को स्पष्ट संदेश भेजते हुए 59 चीनी मोबाइल ऐप्स को अपने यहां प्रतिबंधित कर दिया। इसके दूसरे चरण में भारत सरकार ने चीन पर एक और डिजिटल स्ट्राइक करते हुए 47 एप्स पर प्रतिबंध लगा दिया है। चीन के खिलाफ भारत सरकार का यह कदम अप्रत्याशित एवं साहसिक है। हालांकि यह तो शुरुआत भर है। अभी आगे एक लंबी लड़ाई सामने है।

भारतीय बाजार में आईसीटीसी क्षेत्र में अथाह संभावनाएं मौजूद हैं। इस साल जनवरी महीने में भारत के स्मार्टफोन बाजार ने अमेरिकी बाजार को पहली बार पीछे छोड़ दिया और वह चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा स्मार्टफोन बाजार बन गया। भारत में फिलहाल 50 करोड़ 40 लाख इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, जो कि विश्व में चीन के बाद दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या है। एक अनुमान के अनुसार 2021 तक भारत की तकरीबन 59 फीसदी आबादी इंटरनेट से जुड़ चुकी होगी। लेकिन वायरलेस हैंडसेट और दूरसंचार तकनीक को लेकर हम अभी भी काफी हद तक आयात, खासकर चीन पर निर्भर हैं। यह आर्थिक  दृष्टि से बेहद खतरनाक स्थिति है। हम हर वर्ष अरबों रुपये चीन के खजाने में डाल रहे हैं और वह उसी धन का दुरुपयोग भारत और अपने दूसरे पड़ोसी देशों की मुश्किलों को बढ़ाने के लिए करता रहा है।

अगर भारतीय बाजार में चीनी मोबाइल हैंडसेट, कम्प्यूटर औैर दूसरे दूरसंचार यंत्र अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहे हैं, तो इसके पीछे एक साथ कई कारण कार्य कर रहे होते हैं। सबसे पहले तकनीकी को अपनाने की बात आती है। इसे समझने के लिए आईसीटीसी क्षेत्र से संबंधित 4जी का ही एक उदाहरण लेते हैं। 4जी तकनीक आने पर चीनी मोबाइल हैंडसेट बनाने वाली कंपनियों ने बाजार की तमाम संभावनाओं को अपने पक्ष में लाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। वहीं उसकी भारतीय समकक्ष कंपनियों ने इस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया। इसी का नतीजा है कि 4जी आधारित मोबाइल हैंडसैट बनाने के मामले में भारतीय बाजार का एक बड़ा हिस्सा आज भी चीन मोबाइल उत्पादक कंपनियों के कब्जे में है। सीमा पर तनाव पैदा होने से पहले तक भारतीय बाजार में तीन टॉप हैंडसैट ब्रैंड (शाओमी, ओप्पो और वीवो) चीन के थे। सीमा पर तनाव के दौरान इन कंपनियों को भारत में जरूर कुछ विरोध झेलना पड़ा, लेकिन अब पुनः पहले वाली स्थिति होने लगी है। नवीन तकनीकी को अपनाने के साथ-साथ ये कंपनियां अपने उत्पाद की ब्रांडिंग पर भी विशेष ध्यान देती रही हैं। ओप्पो और वीवो का कार्य देखने वाली बीबीके इलैक्ट्रॉनिक्स मार्केंटिग के लिए 250 मिलियन अमेरिकी डॉलर के बजट को खर्च करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध दिखी। इसी तरह बाकी चीनी कंपनियां अपने उत्पादों की ब्रांडिंग के लिए कोर कसर नहीं छोड़तीं। चीनी कंपनियों की भारतीय बाजार में सफलता की यह भी एक कुंजी रही है। इसके उलट भारतीय कंपनियां इस मोर्चे पर भी पिछड़ी हुई नजर आईं।

तकनीकी निर्भरता को लेकर अगली सबसे बड़ी चुनौती चीन के भारत के खिलाफ चलाए जा रहे प्रोपगेंडा को लेकर है। सूचनाओं के जरिए लड़े जा रहे इस युद्ध में चीन और इसकी आईसीटीसी क्षेत्र से जुड़ी कंपनियां भारत को दुनिया के सामने नकारात्मक रूप से पेश करके इसकी सॉफ्ट पावर को लगातार टारगेट कर रही हैं। इसे हाल के एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। कुछ समय पहले चीनी कंपनी अलीबाबा के यूसी ब्राउज़र और यूसी न्यूज के खिलाफ इसी कंपनी में काम करने वाले पुष्पेंद्र परमार ने कंपनी के खिलाफ न्यायालय में केस किया है। उनका आरोप है कि यूसी न्यूज ने अपने पोर्टल पर भारत में उन खबरों को सेंसर करने की कोशिश की, जो चीन के खिलाफ थीं। जब उन्होंने कंपनी की इस साजिश के खिलाफ आवाज उठाई, तो उन्हें कंपनी से निकाल दिया गया। इसके अलावा इसी कंपनी पर आरोप है कि यह कंपनी भारत में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने के लिए फेक न्यूज को बढ़ावा देती रही है। यह तो महज एक मामला है, चीनी कंपनियां सुनियोजित ढंग से लंबे समय से भारत के खिलाफ एजेण्डा आधारित सूचना प्रवाह को बढ़ावा देती रही हैं। दूसरा, जो भी चीनी कंपनियां भारतीय बाजारों में अपने मोबाइल हैंडसैट उतारती हैं, उसमें यूसी ब्राउज़र, यूसी न्यूज और ओपेरा मिनी जैसे सॉफ्टवेयर और ऐप्स पहले से ही इंस्टॉल रहते हैं। इसके कारण जाने-अनजाने भारतीय उपभोक्ता इसका उपयोग करते हैं और इसके पीछे के चीनी प्रोपगेंडा का शिकार भी होते रहे हैं।

आईसीटीसी क्षेत्र में दूसरों पर निर्भरता का सबसे बड़ा संकट राष्ट्रीय और लोगों की निजी सुरक्षा में सेंध से जुड़ा है। यह क्षेत्र सीधे-सीधे डाटा और राष्ट्रीय एवं निजी गोपनीयता से जुड़ा होता है। सूचना एवं तकनीकी क्षेत्र से जुड़े लोग हमेशा एक बात पर विशेष तौर पर जोर देते हैं कि गोपनीयता ही सब कुछ होती है। लेकिन जब हम विदेशी तकनीक को अपना रहे हैं और उस पर अपनी निजी एवं गोपनीय जानकारी साझा कर रहे हैं, तो हम एक तरह से सेवा मुहैया करवाने वाली कंपनियों एवं देशों को अपनी निजता और गोपनीयता में सेंधमारी का न्यौता ही दे रहे हैं। इस तरह से चीनी कंपनियों का डाटा पर जो नियंत्रण होता है, उसके जरिए वे लगातार भारत और भारतीयों की गतिविधियों पर निगरानी रखता है। चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) पर बार-बार आरोप लगते रहे हैं कि वह आईसीटीसी कंपनियों के सहयोग से दूसरे देशों पर लगातार साइबर हमले करती रही है। 2013 में सीआईए के पूर्व प्रमुख मिशेल हैडन ने दावा किया कि ’चीन की दिग्गज दूरसंचार कंपनी हुआवे सुरक्षा को लेकर एक गंभीर खतरा है।’

वैश्वीकरण के बाद अब पूरी दुनिया में नि-वैश्वीकरण के प्रति रुझान बढ़ने लगा है। नि-वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें विभिन्न राष्ट्रों के बीच निर्भरता एवं एकीकरण में कमी आने लगी है। इसके तहत हर राष्ट्र सर्वप्रथम अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए प्रयासरत है। कोविड-19 महामारी के बाद से यह अवधारणा और भी मजबूती के साथ जोर पकड़ने लगी है। भारत को भी अब आत्मनिर्भता के क्षेत्र में मजबूती से कदम आगे बढ़ाने चाहिए, क्योंकि आत्मनिर्भरता का दूसरा कोई और विकल्प नहीं हो सकता। इस हेतु आईसीटीसी क्षेत्र निश्चित तौर पर भारत की प्राथमिकताओें में शुमार होना चाहिए।
 

कीबोर्ड करेज

डिजिटल होती दुनिया में कीबोर्ड करेज एक ऐसी टर्म है, जिसने कम्प्यूटर एवं इंटरनेट उपयोग करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया है। इसके बावजूद सीमित प्रचलन के कारण बहुत से लोग इससे अब तक अनजान ही हैं। कम्यूटर एवं इंटरनेट का उपयोग करने वालों के लिए एक कहावत आमतौर पर उपयोग की जाती है। ’वह हर व्यक्ति ज्यादा हिम्मतवाला होता है, जब वह कीबोर्ड के पीछे छिपकर खुद को अभिव्यक्त कर रहा होता है।’ शब्द कीबोर्ड करेज इसी कहावत को विस्तार से परिभाषित करता है।

कम्यूटर स्क्रीन और कीबोर्ड के माध्यम से बहादुरी दिखाना, जो कि असल जीवन में उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का गुण होता ही नहीं है, कीबोर्ड करेज कहलाता है। इस दौरान वह व्यक्ति इंटरनेट के विभिन्न सोशल मंचों पर लिखते वक्त साहसपूर्ण होने का झूठा दंभ भरता है, जबकि असल जीवन में वह व्यक्ति वैसा बिलकुल भी नहीं होता है।

अपने जीवन के एक उदाहरण को लेकर इसे सरल ढंग समझाने का प्रयास करते हैं। कुछ समय पहले हमने रामायण के रावण को आदर्श रूप में स्थापित करने वाले एक एजेंडे को उद्घाटित करने के लिए श्रृंखला के तहत अपने फेसबुक अकांउट से पोस्ट करना शुरू किया। मेरे एक फेसबुक मित्र को वह नागवारा गुजरा और उन्होंने उस पोस्ट पर कुछ आपत्तिजनक टिप्पणियां करनी शुरू कर दीं। जब हद ही हो गई, तो असल जीवन के रिश्ते की परवाह करते हुए हमने वो पोस्ट डिलीट कर दी। उसके कुछ समय बाद उन्हीं मित्र से मिलना हुआ। मन में वही पुरानी बात खटक रही थी तो उनसे पूछ ही लिया। उस पर उनकी शाब्दिक एवं देहभाषा के रूप में मिली प्रतिक्रिया बेहद हैरान करने वाली थी। उस बात पर वह जवाब देने से बच रहे थे और इस तरह दर्शा रहे थे कि मानों सोशल मीडिया पर उस पोस्ट को लेकर दोनों के बीच कुछ हुआ ही नहीं हो। उन्हें मेरे किसी सवाल का जवाब देने का साहस न हुआ। तब मेरे समक्ष उस मित्र के दो चेहरे थे। पहला वो जो सोशल मीडिया पर मैंने देखा था और दूसरा प्रत्यक्षतः मेरे समक्ष मौजूद था। इन दोनों चेहरों के बीच का फर्क कीबोर्ड करेज ही निर्धारित करता है।

आज सूचनाओं के क्षेत्र में फेक न्यूज एक सामान्य सी अवधारणा बन चुकी है। सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया तक दोनों ही इसके शिकार नजर आते हैं। कहना गलत न होगा कि कीबोर्ड करेज ने भी फर्जी खबरों को तैयार करने और उन्हें तेज गति के साथ प्रसारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दरअसल किसी भी व्यक्ति के लिए यह मुश्किल होता है कि वह दूसरे व्यक्ति के सामने जाकर कोई झूठ बोल दे। इसके उलट एक कीबोर्ड और कम्प्यूटर स्क्रीन की मनोवैज्ञानिक सुरक्षा के बीच झूठ फैलाना कहीं सरल काम है। झूठ को फैलाने का मकसद पूरा होने या फिर झूठ पकड़े जाने पर किसी तरह की कार्रवाई से बचने के लिए अकसर उसे इंटरनेट से हटा भी दिया जाता है। मगर अपनी अप्रत्याशित गति के कारण वह झूठ तब तक बहुत सा नुकसान पहुंचा चुका होता है।

फेक न्यूज फैलाने के अलावा कीबोर्ड करेज का सबसे ज्यादा नुकसान सोशल मीडिया का उपयोग करने वालों को हुआ है। तर्क-वितर्क का यह ऑनलाइन मंच सबको अपनी बात रखने का समान अवसर देता है। संवाद को सार्थक बनाने वाली यही खासियत बहुत से मामलों में मुश्किलें भी पैदा कर देती है। इसका सबसे बड़ा कारण है असहमतियां। असहमतियां होना गलत नहीं है। असहमतियों में ही तो संवाद की खूबसूरती छिपी होती है। लेकिन जब हम अपनी असहमतियों की तरह दूसरों की असहमतियों का सम्मान करना भूल जाते हैं, तो टकराव की स्थिति पैदा होती है। ऊपर से कीबोर्ड करेज वैसे भी मनोवैज्ञानिक साहस तो प्रदान कर ही रहा होता है। यहीं से शुरू होता है ट्रोलिंग, निजी हमलों, घटिया एवं गैर जिम्मेदार टिप्पणियों और लानत-मलानत का सिलसिला। वैसे तो साहसी होना एक सकारात्मक गुण है, लेकिन वर्णित कमियों के कारण कीबोर्ड करेज एक अवगुण माना जाता रहा है।

हालांकि हर व्यक्ति, वस्तु या विचार का नकरात्मक के साथ-साथ कोई न कोई सकारात्मक गुण भी होता है। कीबोर्ड करेज का भी एक महत्वपूर्ण गुण है। समाज में बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें खुद को अभिव्यक्त करने का मौका नहीं मिल पाता। इसके कई कारण हो सकते हैं। कुछ लोगों के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा घटा होता है, जो उनके कहने का साहस छीन लेता है। वे लोग उस दबाव तले इस कदर दब जाते हैं कि फिर अपनी बात बोलकर सबके सामने रखने में खुद को असमर्थ सा महसूस करते हैं। कुछ लोग ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं, जो घर में सबसे छोटे होते हैं। उन्हें अकसर अपनी बात रखने का मौका नहीं मिल पाता। कीबोर्ड करेज इन गुमनाम आवाजों को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम बना है। इस साहस के कारण यह वर्ग संवाद की प्रक्रिया में शामिल हो सका है।

कीबोर्ड करेज और एल्कोहोल में एक बड़ी खास समानता है। दोनों ही चीजें व्यक्ति को कृत्रिम साहस प्रदान करती हैं और दोनों के ही उपभोग में एक सीमा आती है जब ये विनाशकारी बन जाते हैं। कीबोर्ड करेज संवाद के क्षेत्र में उपयोगी साबित हो सकता है यदि इसका इस्तेमाल निजी हमलों या आपसी टकराव के बजाय सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्यों में किया जाए। बेहतर हो कि यदि किसी विषय पर लोगों के दिलो-दिमाग में असहमतियां हैं, तो सम्मानपूर्वक ढंग से सुलझाने की खुद में हिम्मत पैदा करें। तभी वह उपयोगी है, फिर चाहे वह साहस कोई सा भी हो।

मिलेनियल्स

सामान्य प्रचलन में एक मान्यता है कि हर तीस वर्ष के अंतराल पर एक नई पीढ़ी आकार लेती है। मिलेनियल्स शब्द भी एक निश्चित अवधि के दौरान जन्म लेने वाली पीढ़ी को रिपरजेंट करता है। यह शब्द 1987 से प्रचलन में है। मिलेनियल्स को इन्फोर्मेशन एज नेट जेनरेशन इको बूमर्ज जेनरेशन नेक्सट आदि कई दूसरे नामों से भी जाना जाता है। यूएस के सेंसस ब्यूरो यानी जनगणना के आंकड़ों की मानें तो इस वक्त दुनिया की एक चौथाई आबादी मिलेनियल्स की है। आसान भाषा में आप इसे युवा आबादी कह सकते हैं। 1980 या 82 से साल से लेकर 2000 के बीच जो लोग पैदा हुए हैं यानी 21वीं सदी की शुरूआत में वयस्क हुए हैं, उन्हें मिलेनियल्स कहा जाता है। भारत में आमतौर से जिन्हें आजकल के बच्चे या आजकल के जवान कह दिया जाता है। कुछ समय पहले यह शब्द काफी सुर्खियों में था और सोशल मीडिया पर भी इसके पक्ष और विरोध में एक लंबी बहस हुई थी। यह शब्द तब एकाएक काफी लोकप्रिय हो गया था जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऑटोमोबाइल सेक्टर में आई जबरदस्त मंदी को लेकर बयान दिया कि मिलेनियल्स की सोच बदली है और वो ओला और उबर जैसी प्राइवेट टैक्सी के इस्तेमाल पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं।

मोटे तौर पर मिलेनियल्स की अवधारणा सात मुख्य बिंदुओं को स्पर्श करती है। ये सात बिंदु हैं- संस्कृति, प्रेरणा, नवाचार, डिजिटल तकनीकी, सहभागिता, ज्ञानार्जन और नेतृत्व। मिलेनियल्स के प्रतिनिधि ये युवा संचार के युग में डिजिटल और वास्तविक जीवन में ज्यादा कुशल और तेज हैं। सामाजिक व सामुदायिक शैली के जीवन वाले ये युवा वैयक्तिक स्वतंत्रता को तरजीह देते हैं। ये युवा ज्यादा संतुलन और बेहतर स्वास्थ्य वाली जीवन शैली चाहते हैं। अपने और समाज के लिए और बेहतर व अनुकूल प्रॉडक्टस की डिमांड करते हैं। संपर्क एवं सुविधा के लिए इन युवाओं में ज्यादा ललक है। कुल मिलाकर ये युवा अपनी पिछली पीढ़ियों की तुलना में तकनीक विज्ञान और समझ को लेकर बेहतर और तेजतर हैं इसलिए इन्हें जेन एक्स या जेन वाय जैसे शब्द भी मिल चुके हैं। लेकिन इन आधुनिक खूबियों के बावजूद इसकी आलसी जल्दबाज और कम या न विचार करने वाली यानी दूर की न सोचने वाली पीढ़ी कहकर आलोचना भी होती रही है।

भारत में इस शब्द पर अब तक ज्यादा अध्ययन नहीं हुआ है, इसलिए बहुतों के लिए यह एक नई टर्म हो सकती है। दुनिया के कई हिस्सों में खासकर पश्चिम में मिलेनियल्स वाली अवधारणा पर काफी अध्ययन हो चुका है। इसलिए वहां की मिलेनियल्स आबादी को लेकर ज्यादा सुनने-पढ़ने को मिलता है। विकसित देशों में इस जेनरेशन में यह प्रवृत्ति देखी गई है कि ये परिवारों सामाजिक संस्कारों और जीवन के पुराने मूल्यों की कद्र नहीं करते। यह प्रवृत्ति भारत में भी धीरे-धीरे उभरने लगी है। इसके बावजूद भारतीय मिलेनियल्स के बारे में यह राय नहीं बनाई जा सकती। भारत की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस श्रेणी में आता है। तकनीकी का अधिकतम उपयोग भले ही इसे पसंद होए लेकिन सामाजिक मूल्यों से अभी भी यह गहरे तक जुड़ा हुआ है। दुनिया की तुलना में भारत की यह आबादी आलसी या गफलत की शिकार नहीं कही जा सकती। यहां माता-पिता अभिभावकों या बड़े-बुजुर्गों को लेकर मिलेनियल्स में एक चिंता और समझ के साथ उन्हें साथ लेकर चलने की सोच कायम है। इन्हें जिम्मेदारी का बखूबी एहसास है और मूल्यों की फिक्र है। इन मूल्यों के साथ ही तकनीक विज्ञान और कौशल के गुणों से भरपूर यह पीढ़ी ज्यादा ईमानदार और बेहतर व्यवस्था की पक्षधर दिखती है।

रेजिना लटरेल और कैरेन मैकग्रा लिखित दि मिलेनियल माइंडसेटस् ऐसी ही एक किताब है, जिसमें न सिर्फ इस पीढ़ी के कई लोगों, बल्कि पुरानी पीढ़ियों के कुछ लोगों से बातचीत कर दो जेनरेशन के बीच में एक आपसी समझ बनाने की दिशा में कोशिश की गई है। मिलेनियल शब्द को और गहराई से समझने के लिए इसी तरह का एक प्रयास भारत में भी हुआ है। सुब्रह्मण्यम एस कलापति ने दि मिलेनियल्स-एक्सप्लोरिंग दि वर्ल्ड ऑफ दि लारजेस्ट लिविंग जेनरेशनस् में इस दिशा में बहुत बढ़िया काम किया है।

मिलेनियल जेनरेशन ने हमारे जीवन, कामकाज के तौर-तरीकों और मूल्यों को प्रभावशाली ढंग से प्रभावित किया है। मिलेनियल्स शब्द सिर्फ एक पीढ़ी का नहीं, बल्कि एक पूरी सोच में परिवर्तन को इंगित करता है। भारतीय युवा अगर सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों से जुड़ा रहकर तकनीकी विकास को अपनाएं तो इस वर्ग में देश को आगे ले जाने की अपार संभावनाएं हैं।

वेबीनार

कोरोना महामारी के दौरान जब देश-दुनिया के अधिकतर लोग घर से ही काम कर रहे हैं, तो अपने दैनिक कामकाज निपटाने में इंटरनेट काफी मददगार साबित हो रहा है। इंटरनेट नई-नई चीजें सीखने के लिए युवा और पुरानी पीढ़ी के लोगों के लिए अब एक प्लेटफार्म बन गया है। इसने लोगों को एक मंच प्रदान किया है, जहां वे तेजी से संपर्क कर सकते हैं और तुरंत कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इसी क्रम में हाल के समय में एक नई तकनीक विकसित की गई है, जिसका नाम है वेबीनार। वेबीनार दो शब्दों के मेल से बना है, वेब यानी वेब आधारित और सेमीनार यानी संगोष्ठी। वेब आधारित संगोष्ठी को ही वेबीनार कहते हैं। वेबीनार के द्वारा इंटरनेट के माध्यम से लाइव बैठक या प्रस्तुतिकरण का संचालन किया जाता है। इसमें वेब कॉन्फ्रेंसिंग तकनीकों का सहारा लेकर आप वीओआईपी से जुड़े क्रियाकलाप जैसे व्याख्यान, प्रजेंटेशन को उपलब्ध करवा सकते हैं। इसके लिए आपको सिर्फ जरूरत है - एक कंप्यूटर और एक इंटरनेट कनेक्शन की और फिर, आप दुनिया भर में लोगों से तुरंत संपर्क कायम कर सकते हैं और दुनिया में कहीं भी चर्चा और सेमिनार आयोजित कर सकते हैं। इस प्रकार संवाद के नए सेतु बांधने में वेबीनार का महत्व लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
वेबीनार तकनीक के कई ऐसे लाभ हैं, जिसके कारण आज के समय में बेहद महत्वपूर्ण बन चुकी है। लचीलापन इस तकनीकी का सबसे बड़ा लाभ है। वेबीनार लोगों को अपने घर, किसी कैफे या जहां भी किसी व्यक्ति को सुविधा हो ऐसे किसी अन्य स्थान से संगोष्ठी का आयोजन करने की अनुमति देता है। इसके लिए केवल एक विशिष्ट समय निर्धारित करने और सारे प्रासंगिक ऑडियंस को सूचित करने की जरूरत है। एक बार जब आप वेबीनार की तारीख, समय और ऐसे अन्य आवश्यक प्वाइंट्स का विवरण साझा कर देते हैं, तो अधिक संख्या में लोग उस वेबीनार में शामिल हो सकते हैं। दूसरा, इस तकनीक के जरिए दूर-दूर फैले बहुत बड़ी संख्या में लोगों द्वारा भी एकसाथ सेमीनार को अटेंड किया जा सकता है। स्काइप और गूगल ड्यूओ जैसे वीडियो कॉलिंग सॉफ्टवेयर व्यक्तिगत उपयोग के लिए अच्छे हैं, लेकिन, पेशेवर कार्यक्रमों के लिए कोई बड़ा प्लेटफार्म चाहिए और उस समय वेबीनार के वास्तविक उपयोग और महत्व का पता चलता है।
इस तकनीक का तीसरा लाभ बेहतर संवाद का है। वेबीनार वक्ता और श्रोताओं के बीच बेहतर इंटरेक्शन की सुविधा देता है, क्योंकि यह सभी लोगों को समान स्तर पर लाता है। आप वेबीनार के दौरान अपने प्रश्न बोलकर या लिखकर पूछ सकते हैं या फिर, लाइव सेमिनार खत्म हो जाने के बाद आप ई-मेल के माध्यम से अपने प्रश्न पूछ सकते हैं। वेबीनार को चैथा लाभ सेशन रिकॉर्डिंग प्राप्त करने की सुविधा से जुड़ा है। कुछ वेबीनार होस्ट या ऑर्गेनाइजर्स अपने सभी उपस्थित मेम्बर्स को सेशन की रिकॉर्डिंग भी उपलब्ध करवाते हैं, ताकि मेम्बर्स बाद में अपनी सुविधा के अनुसार इस रिकॉर्डिंग से लाभ उठा सकें। यदि किसी कारणवश कोई सेशन अटेंड नहीं कर पाते हैं, तो आप होस्ट से उस सेशन की रिकॉर्डिंग प्राप्त कर सकते हैं।
वेबीनार से मिलता-जुलता एक शब्द वेबकास्ट भी आपने सुना ही होगा। तकनीकी क्षेत्र ये जुड़े ये दोनों शब्द शब्द एक से ही प्रतीत होते हैं, लेकिन इन दोनों में बहुत ज्यादा अंतर है। वेबकास्ट रेडियो या टीवी प्रसारण की तरह होता हैं, जिसमें पारस्परिक आदान-प्रदान एकतरफा होता है। इसमें ऑडियंस की भूमिका बेहद सीमित होती है। दूसरी तरफ वेबीनार ज्यादा संवादात्मक होता है। यहां श्रोता, वक्ता के व्याख्यान के दौरान ही अपने सवाल पूछ सकता या अपनी राय दे सकता है। गूगल हैंगआउट्स, वेबीनार ऑन एयर, स्काइप, गो टू वेबीनार, सिस्को वेबएक्स, एडोब कनेक्ट, मेगा मीटिंग, रेडी टॉक, एनी मीटिंग, ऑन स्ट्रीम वेबीनार आयोजित करने के लिए कुछ अच्छे सॉफ्टवेयर हैं।

साइऑप्स (साइकोलॉजिकल ऑपरेशन्ज)

साइऑप्स यानी साइकोलॉजिकल ऑपरेशन्ज विभिन्न कालखंडों में युद्ध कला का एक बेहद प्रभावी और लोकप्रिय प्रारूप रहा है। अभी हाल ही में भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों में जिस तरह का टकराव देखने को मिला, वहां दोनों देशों ने अपने-अपने स्तर पर इस हथियार का इस्तेमाल करने का प्रयास किया। साइऑप्स ऐसी लड़ाई है जो मनोवैज्ञानिक विधियों द्वारा लड़ी जाती है। इसका उद्देश्य दुश्मन के अंदर सुनियोजित ढंग से मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया को उद्घटित करना होता है, ताकि हथियारों की लड़ाई के पहले ही दुश्मन का मनोबल तोड़ दिया जाए। इतिहास के पन्ने पलटने पर आप पाएंगे कि प्राचीन काल से ही लोग मनोवैज्ञानिक युद्ध करते आ रहे हैं। कुछ ऐतिहासिक लड़ाइयों के जरिए इस अवधारणा को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
फारसियों और मिस्र के लोगों के बीच 525 ईसा पूर्व में लड़ी गई पेलुसियम की लड़ाई मनोवैज्ञनिक रूप से लड़ी गई थी। मिस्र के लोग बिल्लियों की पूजा करते थे। यह बात फारसी जानते थे। वह बिल्ली को सेना के आगे करते ताकि मिस्र वाले उन पर वार ना कर दें। वह लड़ाई अंततः फारिसयों ने हथियारों से नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक युद्ध द्वारा जीती थी। मंगोल के सेनापति चंगेज खान का नियम था कि पहले गांव को जलाकर राख करके दूसरे गांवों का मनोबल तोड़ा जाए, ताकि उनमें लड़ने की क्षमता ही न बचे। अगर एक गांव के सब लोगों को मार दिया तो आगे वाले गांव के लोग बिना लड़े ही हथियार डाल देते थे। भारत में मुगलों के राज का भी कमोबेश यह एक बड़ा कारण रहा है। भारत के भी कई राजा-महाराजा मुगलों से मनोवैज्ञानिक युद्ध की वजह से ही हारे। भारत पर करीब 200 वर्षों तक शासन करने वाले अंगे्रजों ने भी इसी नीति का अनुसरण किया था। आधुनिक युग में लड़े जा रहे युद्ध भी इसी नीति को आधार बनाकर लड़े जा रहे हैं। अमेरिका में अक्सर हर लड़ाई के पहले प्रोपे्रगेंडा फैलाया जाता है। विश्व के इतिहास में हर जीतने वाले ने मनोविज्ञान के आधार पर अधिकतर अपने दुश्मन का मनोबल तोड़ा है। यही है मनोवैज्ञानिक लड़ाई। यदि गहराई से देखा जाए, तो सारे युद्ध मनोवैज्ञानिक ही होते हैं, क्योंकि दिखने वाली हार जीत युद्ध की योजना और उसके सफल क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। युद्ध विद्या के जानकार मानते हैं कि युद्ध के निर्णय पहले ही तय हो जाते हैं। सामान्य व्यक्ति को वह युद्ध के परिणाम बाद में दिखाई पड़ते हैं। ऐसे ही एक युद्ध विचारक सून जू ने अपनी किताब ‘द आर्ट ऑफ वार’ में लिखा है -समस्त युद्धों में विजय का मूल भ्रम है। युद्ध की विभिन्न रणनीतियों में शत्रु के दिमाग को पढ़कर उसके विपरीत योजना बनाना और उसे लागू करना यही युद्ध का मनोवैज्ञानिक पहलू है।
कोई ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब कश्मीर में जारी अशांति के मद्देनजर केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने कहा था कि साइबर जगत में लड़ा जाने वाला ’मनोवैज्ञानिक युद्ध’ हमारे समय का नया खतरा बन चुका है। उन्होंने नए युग के इस युद्ध में मुकाबला करने के लिए लोगों से ’सोशल मीडिया सैनिक’ बनने का अनुरोध किया था। इसके साथ ही उन्होंने इस हकीकत को भी जोर देकर बयां किया था कि मौजूदा समय में दुनिया हैरतअंगेज गति के साथ बदल रही है। पहले पारंपरिक युद्ध होते थे, फिर परमाणु युद्ध हुए और फिर लिमिटेड इन्टेंसिटी वार (जैसे करगिल युद्ध) हुआ। लेकिन आज का खतरा साइबर युद्ध है और वह भी इस मनोवैज्ञानिक युद्ध के जरिए।
मनोवैज्ञानिक युद्ध की मारकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने संकेत किया कि विश्व के जीवित जंग के मैदानों के रूप में प्रसिद्ध राजौरी तथा पुंछ के जिलों में गोलियां इतनी प्रभावशाली नहीं होतीं, जितना कि मानसिक स्तर पर लड़े जाना वाला युद्ध। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर जवान मानसिक स्तर पर अपने आप पर तथा दुश्मन पर विजय हासिल कर लेता है, तो वह आप तो सुरक्षित रहता ही है, अपने साथियों को भी इस आग से बचाए रखता है। इसी मानसिक युद्ध, जिसे मनोवैज्ञानिक युद्ध भी कहा जा सकता है, के कारण ही आज भारतीय सैनिक पाकिस्तानी सेना पर विजय हासिल किए हुए हैं इस सच्चाई के बावजूद कि पाक सेना ने इन दोनों सेक्टरों में अधिकतर ऊंचाई वाले क्षेत्रों पर कब्जा कर रखा है। गोलियों की बरसात और पाक सैनिकों द्वारा समय-समय पर परिस्थितियों को भयानक बनाने की कोशिशों के बावजूद भारतीय सैनिक अपना मनोबल नहीं खोते हैं। यह सब इसलिए होता है, क्योंकि वे मनोवैज्ञानिक युद्ध में सफलता के झंडे गाढ़ चुके होते हैं। यही कारण है कि नियंत्रण रेखा पर कई स्थानों पर पाकिस्तानी तथा भारतीय सीमा चैकियों में अंतर 100 फुट से भी कम है, लेकिन क्या मजाल पाक सैनिक की कि अपने सामने वाले पर गोलियां दाग सकें।
इतिहास के झरोखे में झांककर देखें तो भारतीय सभ्यता बार-बार बाहरी विचारधाराओं का प्रभाव में आई और लगभग हर विचारधारा ने इसके मनोविज्ञान को प्रभावित करने को प्रयास किया। बंटवारे से पहले हिन्दुओं को बाहरी देशों से आये इस्लाम और इसाई धर्मों से अपने देश को बचाने के लिये संघर्ष करना पड़ता था, किन्तु बंटवारे के पश्चात् विदेशी धर्मों के अतिरिक्त विदेशी आर्थिक शक्तियों से भी जूझना पड़ रहा है, जो हिन्दू जीवनशैली की विरोधी हैं।
दूसरी तरफ विश्व भर से भारत के खिलाफ सक्रिय राजनीतिक मिशन पड़ोसी देशों में युद्ध की स्थितियां और कारण उत्पन्न करते रहे हैं, ताकि विकसित देशों के लिये उन देशों को युद्ध का सामान और हथियार बेचने हेतु बाजार उपलब्ध रहे। एक देश के हथियार खरीदने के पश्चात् उसका विरोधी भी हथियार खरीदेगा और यह क्रम चलता ही रहेगा।
दूसरे देशों पर नियंत्रण रखने की भावना से कार्य कर रही ये ताकतें लक्षित देश की तकनीक को विकसित नहीं होने देतीं और उसमें किसी ना किसी तरह से रोड़े अटकाती रहती हैं। देशभक्त नेताओं की गुप्त रूप से हत्या या उनके विरुद्ध सत्ता पलट भी करवाते हैं। इस प्रकार के सभी यत्न गोपनीय क्रूरता से करे जाते हैं। उनमें भावनाओं अथवा नैतिकताओं के लिये कोई स्थान नहीं होता। इसी को ‘कूटनीति’ कहते हैं। कूटनीति में लक्षित देशों की युवा पीढी को देश के नैतिक मूल्यों, रहन सहन, संस्कृति, आस्थाओं के खिलाफ भटकाकर अपने देश की संस्कृति का प्रचार करना तथा युवाओं को उसकी ओर आकर्षित करना भी शामिल है, जिसे मनोवैज्ञानिक युद्ध कहा जाता है। यह बहुत सक्षम तथा प्रभावशाली साधन है। इसका प्रयोग भारत के खिलाफ आज धड़ल्ले से हो रहा है। इस नीति से समाज के विभिन्न वर्गों में विवाद तथा विषमतायें बढ़ने लगती हैं तथा देश टूटने के कगार पर पहुंच जाता है।
आमने-सामने की जंग के अलावा भी कई अन्य क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिक युद्ध छिड़ा हुआ है। इसके जरिए विकसित देश अपने सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के साथ-साथ बाजार के विस्तार में जुटे हुए हैं। इसके लिए इन्होंने आज ऐसी कई कपटी विधियां ईजाद कर ली हैं, जो अल्पविकसित या भारत जैसे विकासशील देशों की जनता, खासकर युवा वर्ग के मनोविज्ञान को मनमाफिक सांचे में ढाल रही हैं। इस पूरे खेल में ब्रांड एम्बेसेडरों तथा रोल माॅडलों की सहायता से पहले अविकसित देश के उपभोक्ताओं की दिनचर्या, जीवन-पद्धति, रुचि, सोच-विचार, सामाजिक व्यवहार की परम्पराओं तथा धार्मिक आस्थाओं में परिवर्तन किये जाते हैं, ताकि वह घरेलू उत्पादों को नकार कर नये उत्पादों के उपयोग में अपनी ‘शान’ समझने लगें। युवा वर्गों को अर्थिक डिस्काउंटस, उपहार, नशीली आदतों, तथा आसान तरीके से धन कमाने के प्रलोभनांे आदि से लुभाया जाता है, ताकि वह अपने वरिष्ठ साथियों में नये उत्पादों के प्रति जिज्ञासा और प्रचार करें। इस प्रकार खानपान तथा दिखावटी वस्तुओं के प्रति रुचि जागृत हो जाती है। स्थानीय लोग अपने आप ही स्वदेशी वस्तु का त्याग करके उसके स्थान पर बाहरी देश के उत्पादों को स्वीकार कर लेते हैं। इस प्रकार घरेलू बाजार विदेशियों का हो जाता है। कोकाकोला, फेयर एण्ड लवली, लोरियाल आदि ब्रांड्ज की भारत में आजकल भरमार इसी अर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक युद्ध के कारण है।
ऐसा ही एक युद्ध भारत की सनातन परंपराओं का दुष्प्रचार करने हेतु छेड़ा गया है। भारतीय संतों के खिलाफ दुष्प्रचार के लिये स्टिंग ऑपरेशन, साधु-संतों के नाम पर यौन शोषण के उल्लेख, नशीले पदार्थों का प्रसार और फिर ‘भगवा आतंकवाद’ का दोषारोपण किया जाता है। अकसर इन प्रसार माध्यमों का प्रयोग हमारे चुनावों के समय में हिन्दू विरोधी सरकार बनवाने के लिये किया जाता है। भारत के अधिकतर मुख्य प्रसार माध्यम ईसाइयों, धनी अरब शेखों या अन्य हिन्दू विरोधी गुटों के हाथ में हैं, जिनका इस्तेमाल हिन्दू विरोध के लिये किया जाता है। भारत सरकार धर्मनिरपेक्षता के बहाने कुछ नहीं करती। अवैध घुसपैठ को बढ़ावा देना, मानवाधिकारों की आड़ में उग्रवादियों को समर्थन देना तथा हिन्दू आस्थाओं के विरुद्ध दुष्प्रचार करना आजकल मीडिया का मुख्य लक्ष्य बन चुका है। नकारात्मक समाचारों को छापकर वे सरकार और न्याय-व्यवस्था के प्रति जनता में अविश्वास और निराशा की भावना को भी उकसा रहे हैं। हिन्दू धर्म की विचारधारा को वह अपने स्वार्थों की पूर्ति में बाधा समझते हैं। कॉन्वेन्ट शिक्षित युवा पत्रकार उपनिवेशवादियों के लिये अग्रिम दस्तों का काम कर रहे हैं। सनातन परंपराओं के खिलाफ लड़ा जा रहा यह युद्ध भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से मनोवैज्ञानिक आधार पर ही लड़ा जा रहा है।
इस प्रकार अलग-अलग कालखंडों में रूप बदलकर साइकोलॉजिकल ऑपरेशन्ज, युद्ध क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। मनोविज्ञान को आधार बनाकर लड़े जाने वाले इस प्रकार के युद्ध में सूचनाएं प्रमुख भूमिका में रहती हैं। भारत के विरोध में उतरी इन फौजों द्वारा छेड़े गए युद्ध अंततः उन्हें परास्त करने हेतु जरूरी है कि हर भारतीय न केवल इन षड्यंत्रों को समझे, बल्कि उन्हें परास्त करने के लिए एक प्रभावी तैयारी करे।

मोजो की मौजभरी पत्रकारिता

समाज के अन्य क्षेत्रों की ही तरह मीडिया क्षेत्र तकनीकी विकास से गहरे से प्रभावित हुआ है। हाल के समय में तकनीकी विकास मीडिया क्षेत्र में जो कुछ बड़े बदलाव लेकर आया है, उन्हीं में से एक है मोबाइल जर्नलिज्म। मोबाइल जर्नलिज्म पत्रकारिता का वह स्वरूप है जिसमें आवश्यक उपकरणों एवं व्यावसायिक प्रसारण की गुणवत्ता से लैस मोबाइल मल्टीमीडिया स्टूडियो के जरिए खबरों को कवर किया जाता है। मोबाइल जर्नलिज्म में मोजो किट की मदद से किसी खबर से संबंधित शूटिंग, रिकॉर्डिंग, सम्पादन और इसके वितरण का कार्य किया जाता है। इसके अलावा अगर किसी एक्सक्लूसिव खबर को कवर किया जाना है तो मोजो किट लाइव स्ट्रीमिंग के कार्य में एक बेहतरीन विकल्प के रूप में उपयोगी साबित हो रहा है। मोजो किट के जरिए एक्सिक्लूसिव खबरों को लाइव स्ट्रीमिंग से न्यूज रूम में शेयर किया जाता है और फिर वहां से खबर को टीवी चैनल पर प्रसारित किया जा सकता है।
मोबाइल जर्नलिज्म के शुरू होने के बाद स्मार्टफोन केवल मोबाइल बनकर कर नहीं रह गया है बल्कि मीडिया कवरेज में इसने खुद को एक उपयोगी उपकरण के रूप में स्थापित कर लिया है। डिजिटल होती मीडिया दुनिया में मोबाइल जर्नलिज्म ने ग्राउंड रिपोर्टिंग के क्षेत्र को विस्तृत बनाने के साथ-साथ सरल भी बना दिया है। इस आविष्कार ने रिपोर्टिंग के लिए परंपरागत मीडिया के भारी-भरकम उपकरणों को जगह-जगह ढोने की मजबूरियों से मुक्ति दिलाई है। मोबाइल जर्नलिज्म दोनों ही तरह के पत्रकारों के लिए मददगार साबित हो रही है। चाहे वे पेशेवर पत्रकार हों या शौकिया पत्रकार।
मीडिया में समय का अपना खास महत्व रहा है। किसी भी खबर की उपयोगिता तभी है जब उसे समय पर लक्षित समूह तक पहुंचाया जाए। पहले के समय में मीडिया नेटवर्क की अपनी एक सीमित पहुंच होती थी और उस क्षमता के साथ हर खबर को समय पर कवर कर पाना संभव नहीं था। हरसंभव प्रयास के बाद भी कई खबरें छूट जाती थीं लेकिन मोबाइल जर्नलिज्म और मोजो किट के माध्यम से सीमित संसाधनों एवं नेटवर्क की चुनौती से निपटने में मीडिया ने काफी हद तक सफ लता हासिल की है। मोजो की खूबियों के कारण तमाम मीडिया हाउस न केवल इसके महत्व को स्वीकार करने को बाध्य हैं बल्कि अपने लिए इसकी उपयोगिता को देखकर उन्होंने इसे प्रोत्साहित भी किया है।
अगर बात करें मोबाइल जर्नलिज्म के लिए जरूरी उपकरणों की तो एक बढिय़ा क्वालिटी के मोबाइल के जरिए इस कार्य को अंजाम दिया जा सकता है। हालांकि मोबाइल जर्नलिज्म में पेशेवर दक्षता और गुणवत्ता जैसे मूल्यों को शामिल करना है तो इसमें मोजो किट काफी मददगार साबित हो सकती है। इस किट में आम तौर पर ट्राइपॉड, शॉटगन माइक्रोफोन, एल.इ.डी. ऑडियो एडेप्टर, माइक्रोफोन केबल, माइक्रोफोन एक्सटेंशन केबल, पोर्टेबल पावर बैंक, मोबाइल हेडफोन जैसे आवश्यक उपकरण शामिल रहते हैं। मोजो किट की मदद से कवरेज को किसी पेशेवर वीडियोग्राफ र की ही तरह अंजाम दिया जा सकता है। यह उपकरण या किट आज तमाम ऑनलाइन रिटेलर कंपनियां किफायती दामों पर उपलब्ध करवा रही हैं। सबसे आगे, सबसे तेज की राह पर अग्रसर मीडिया जगत में नि:संदेह मोजो एक प्रभावी उपकरण बनकर उभरा है। हालांकि इसकी अपनी कुछ चुनौतियां भी हैं। सबसे आगे निकलने की होड़ में या शौकिया तौर पर पत्रकारिता क्षेत्र में प्रवेश करने वाले लोगों द्वारा अस्पष्ट, आधी-अधूरी या फि र गलत सूचनाएं भेजने की हर समय आशंका बनी रहती है। इसके अलावा हल्के मोबाइल या सहायक उपकरण किसी खबर की कवरेज की व्यावसायिक गुणवत्ता वाली अपेक्षाओं को पूरा करने में अक्षम रहते हैं। इन चुनौतियों से यदि प्रभावी ढंग से पार पा लिया जाए तो मोबाइल जर्नलिज्म की विश्वसनीयता और उपयोगिता को बढ़ाया जा सकता है। मोजो के क्षेत्र में नागरिक जागरूकता एवं भागीदारी को बढ़ाने के साथ मीडिया हाउस और शिक्षण संस्थान अगर इस क्षेत्र से जुडऩे के इच्छुक लोगों के शिक्षण प्रशिक्षण के प्रयास करें तो अभिलषित परिणाम हासिल किए जा सकते हैं।