मनोगत
मनोगत - सितंबर, 2020 :-
सुशांत सिंह राजपूत की मौत से मुंबइया फिल्म जगत में एक उभरता सूरज वक्त से पहले डूब गया। मायालोक का एक हिस्सा अंधरे में डूब गया। प्रकृति का नियम है कि दूसरे छोर पर तभी सूरज उगता है जब एक छोर अंधेरे में डूब जाय। इसलिये जिन्हें अपने यहां उजाले की चाहत थी उन्होंने सुनिश्चित किया कि विपरीत ध्रुव पर अंधेरा छा जाय। उनकी कोशिशें सफल रहीं।
अंधेरा भी सबके लिये अभिशाप नहीं होता। मुंबई में एक समानान्तर दुनियां है जो अंधेरा छाने के बाद ही गुलजार होती है। उसे अंधेरे का, शाम ढ़लने का इन्तजार रहता है। वह अपने अंधेरों पर शर्मिन्दा नहीं, दूसरों का सूरज लील कर ही अंधेरा कमाती है। रोशनी भरी दुनियाँ के नियम यहां नहीं चलते। यहां सूरज छीन लेना भी जायज है और अँधेरा छीन कर बड़ा ‘अंधेरेदार’ बन जाना भी।
बहरहाल, अंधेरे के इन आढ़तियों ने जब अंधेरे की नीलामी शुरू की तो उल्लुओं की आंखें चमक उठीं। खुदरा व्यापारी जबतक आंखें रगड़ कर अंधेरे के अभ्यस्त होने की कोशिश कर ही रहे थे कि पहली बोली लगाने वाला अपनी गठरी समेटता जा पहुंचा वापस अपनी जगमगाती दुनियां में। आउटपुट की डेस्क पर वामाचार द्वारा सुशांत की मौत को मथा गया और चौंधियाती रोशनी के बीच स्टूडियो में टीआरपी के मक्खन का बड़ा भाग बटोर लिया। बचे हुए मक्खन की एक-एक बूंद के लिये बाकी व्यापारियों के बीच देवासुर संग्राम से अधिक सघन संघर्ष जारी है। सोशल मीडिया पर शेयर और लाइक पाने का संघर्ष इस टीआरपी संघर्ष का ही विस्तार है।
सुशांत की मौत ने फिल्मी दुनियां की चारदीवारी में एक ऐसा सुराख कर दिया है जिसमें से झांक कर हर कोई अपनी आंखों देखा सच दुनियाँ को बता रहा है। मायालोक के हर रहस्य को जानने को उत्सुक एक वर्ग हर नये आभास को सत्य मानकर उस पर विश्वास करता है। प्राइम टाइम में हर चैनल हर रात एक नया तमाशा लेकर आता है और दर्शक उस पर टीआरपी के सिक्के उछालता है। मदारी टीआरपी बटोरता है और अगली रात नये तमाशे के साथ आने का वादा करके चला जाता है।
घंटों के तनाव के बाद दर्शक चैन की सांस लेता है। मन ही मन सोचता है कि अगर सुशांत की मौत न हुई होती तो शायद आज भी विकास दुवे को ही देखना पड़ता। दर्शक अनुभवी हो चुका है। वह जानता है कि विकास दुबे सिर्फ अपराधीथा। अपराध में ग्लैमर का तड़का अगर लगे तो टीआरपी के पैमाने पर वह सोने पर सुहागा है। सुशांत की मौत विकास पर हावी होगी ही। तारिकाओं के ट्वीट इसे लम्बे समय तक प्रासंगिक बनाये रखेंगे। वह यह भी जानता है कि दुनियाँ आनी-जानी है। महत्वपूर्ण मौत नहीं टीआरपी है।
‘प्रणव दा’ चले गये! जो आया है वह जायेगा, प्रणव दा भी चले गये! क्या कहा ? देश केलिये उन्होंने कितना कुछ किया ? पतन के दौर में भी मूल्यों पर टिके रहे! ठीक है, दे तो दिया भारतरत्न!लेकिन टीआरपी के पैमाने पर वे सुशांततो क्या, विकास दुवे के सामने भी कहीं ठहरते हैं? नहीं न। फिर आज उनकी चर्चा का क्या प्रयोजन। यह चैनल का निर्णय नहीं है। यह तो दर्शक का ही निर्णय है कि वह क्या देखना चाहता है। यही तो टीआरपी है। दर्शक नहीं, यह टीआरपी के डब्बे हैं जो कुछ अफलातूनों की सनक को भारतीय दर्शकों का मत बता कर परोसते हैं और‘अंधेरे के आढ़ती’अंधेरा बेच कर उजाले अपनी तिजोरियों में बंद कर लेते हैं।
परदा छोटा हो या बड़ा। सत्य हरिश्चंद्र हो या उदन्त मार्तण्ड।दादा साहब फाल्के हों या पं. जुगल किशोऱ शुक्ल, या फिर गणेश शंकर विद्यार्थी अथवा बाबूराव पराड़कर। यात्रा मूल्यों की स्थापना से प्रारंभ हुई और अवमूल्यन का बोझ समेटे आज उन्हीं मूल्यों के विरुद्ध ताल ठौंक रही है। सत्व और तम के इस निरंतर संघर्ष में ‘संवादसेतु’ सत्व के पक्ष में खड़ा है और यह परिस्थितिजन्य विवशता नहीं उसका चुनाव है, संकल्प है।
आशुतोष भटनागर