समीक्षा

रॉकेट्री: फिल्म जो कहा गया, उसे ध्यान से सुनना है और जो नहीं कहा गया, उसे ध्यान से समझना है

फिल्म रॉकेट्री में नम्बी नारायणन अपने साथ फ्रांस जा रहे भारतीय वैज्ञानिकों को वहां पर काम करने का एक टिप्स देते हैं कि वहां पर जो कुछ कहा जाए उसे ध्यान से सुनना है और जो कुछ न कहा जाए, उसे ध्यान से समझना है। भारतीय वैज्ञानिक इसी टिप्स के आधार पर काम करते हैं, कम बोलते हैं और वहां से बहुत कुछ सीखकर वापस आते हैं। ऐसा लगता है कि यह पूरी फिल्म भी इसी संवाद के आधार पर गढ़ी गई है। कुछ मुद्दों को साफगोई के साथ परदे पर कहा गया है और कुछ अतिशय संवेदनशील मुद्दों की तरफ केवल संकेत भर किया गया है। ऐसी घटनाओं की पूरी पृष्ठभूमि समझने और सही निष्कर्ष निकालने का कार्य दर्शकों पर छोड़ दिया गया है।

उदाहरण के लिए नम्बी नारायणन को फर्जी केस में फंसाने के बाद उन पर हुए अत्याचार को बहुत मार्मिक तरीके से फिल्म में दिखाया गया है। फिल्म यह भी रेखांकित करने में सफल रही है कि नम्बी की गिरफ्तारी के बाद भारतीय अंतरिक्ष अभियान कैसे दशकों पीछे चला गया। लेकिन नम्बी के खिलाफ जो षड्यंत्र रचा गया, उसकी परतों को फिल्म ठीक ढंग से नहीं खोल पाती। शायद, इसमें एक विचारधारा का पोल खुलने का डर था और उस अधिकारी पर अंगुली उठने का डर था, जिसे गुजरात दंगों के दौरान गलत साक्ष्यों को प्रस्तुत करने के लिए हाल ही में गिरफ्तार किया गया है। उस अधिकारी की गिरफ्तारी के बाद नम्बी नारायणन ने खुलकर यह बात कही थी कि गुजरात दंगों की तरह ही उस अधिकारी ने इसरो केस में मनगढंत कहानियां गढ़ी और उसे सनसनीखेज ढंग से परोसा। नम्बी नारायणन ने आगे कहा कि जब वह गिरफ्तार हुआ तो मैं बहुत खुश था क्योंकि वह हमेशा इसी तरह की शरारतों में संलिप्त रहता था। इस तरह की चीजों का अंत होना ही चाहिए। इसीलिए मैंने कहा कि मैं बहुत खुश हूं।

वह अधिकारी हाल ही में तीस्ता सीतलवाड़ के साथ गिरफ्तार हुआ है। जाहिर है इस लॉबी के पास मजबूत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समर्थन होगा। इस अधिकारी पर यदि खुलकर प्रश्न उठता तो गुजरात दंगों के दौरान उसके द्वारा निभाई गई भूमिका और भी संदिग्ध बन जाती। शायद, इसीलिए यह फिल्म नम्बी के खिलाफ एक बड़े अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र की तरफ संकेत तो करती है, लेकिन उसके किरदारों की जांच-पड़ताल करने से बचती है। फिल्मांकन की इस शैली के कारण  राकेट्री अपने साथ कई प्रश्न लेकर आती है। एकाध प्रश्नों का उत्तर भी देती है, लेकिन अधिकांश अनुत्तरित रह जाते हैं। इसीलिए दर्शक मन में एक टीस और कई सारे प्रश्न लेकर सिनेमा हॉल से बाहर निकलता है।

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि इसमें किसी भी तरह की अतिरंजना नहीं है। फिल्म के अंतिम दृश्य में जब नम्बी नारायणन से यह कहा जाता है कि वह सभी को माफ कर दे तो उनका यह उत्तर की माफी देने से मामला समाप्त नहीं हो जाएगा, बल्कि यह हल्का हो जाएगा। किसी और के साथ मेरे जैसी दुर्घटना न हो, इसके लिए माफी नहीं लड़ना जरूरी है। व्यक्तिगत रूप से यह कथन सहज है और सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर सही भी। नम्बी के चरित्र को इसी तरीके से पूरी फिल्म में मानवीय बनाए रखा गया है। अमेरिका में इच्छित प्रोफेसर के अधीन काम करने के लिए उनके द्वारा घरेलू काम करने की बात हो या रूसी और अमेरिकी महिला सहकर्मियों से उनके संवाद हो, बहुत ही सहज और भारतीय मन के करीब लगते हैं।  

फिल्म स्वतंत्रता के बाद भारत की अंतरिक्ष यात्रा की कहानी और उसकी चुनौतियों को सलीके से परोसती है। वैज्ञानिकों ने जिस जज्बे के साथ एक सकारात्मक संस्कृति के संस्थान बनाए, और जिस सृजनात्मकता के साथ चुनौतियों पर विजय पायी, राकेट्री को बखूबी परदे पर उतारती है। यह फिल्म भी उन्ही वैज्ञानिकों की तरह विविध पक्षों को साधती हुई दिखती है। शाहरूख खान की छवि का इस्तेमाल करना हो या फिल्म के अंत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मंगल मिशन के बाद के सम्बोधन और 2019 के पद्मभूषण के समय के विजुअल्स का उपयोग करना, यह दर्शाता है कि फिल्म और निर्देशक देशभक्ति की एक कहानी सुनाने में ज्यादा उत्सुक थे और इसके लिए उन्होंने सभी तरह की छवियों का इस्तेमाल किया। 

राकेट्री से पहले सोनी लाइव पर राकेट ब्वायज वेबसीरीज भारतीय वैज्ञानिकों के जीवन और संघर्ष तथा अंतरिक्ष और सुरक्षा चुनौतियों को परदे पर दिखा चुकी है लेकिन रॉकेट्री पहली ऐसी फिल्म है, जिसमें बड़े परदे पर एक वैज्ञानिक के जीवन और भारत की अंतरिक्ष यात्रा की चुनौतियों को एकसाथ दिखाया गया है। खिलाड़ियों और गैगस्टरों से हटकर वैज्ञानिकों के जीवन में निर्देशकों की रूचि भारतीय दर्शकों और समाज में आ रहे बदलावों की तरफ भी संकेत करता है। इस बदलाव को स्वर देने वाली इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए।

सम्राट पृथ्वीराज: लगभग एक फिल्मी महाकाव्य रच गए है डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी

फिल्म सम्राट पृथ्वीराज के अंत में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी कुछ पंक्तियों में फिल्म का सारांश पढ़ते हैं। इस बहाने वह भारत के पूरे सभ्यतागत-संघर्ष का सारांश भी पढ़ जाते हैं। दबावों और फार्मूलों को सहते हुए, उनको थोड़ा-बहुत स्थान देते हुए भी अपने अनुरूप निर्णायक संदेश कैसे गढ़ा और पढ़ा जाए, फिल्म के अंत की वह चार पंक्तियां हमें बता देती है। विशेषकर जब वह कहते हैं कि भारत 755 वर्षों के संघर्ष के बाद 1947 में स्वतंत्र होता है, तो उसमे गंभीर सभ्यतागत संदेश छिपा है।

जब आपके पास अपनी बात कहने के संसाधान और प्लेटफार्म न हों तो सबसे अच्छी स्थिति तो यही होती है कि आप किसी भी सिस्टम के दबावों को सहन करते हुए उसकी क्षमताओं का उपयोग अपनी बात कहने के लिए कर लें। सम्राट पृथ्वीराज को देखने पर यही लगता है कि फिल्म में इसी नीति का पालन किया गया है। जो लोग सम्राट पृथ्वीराज’ में चाणक्य’ की झलक देखना चाहते हैं वह थोड़े निराश हो सकते हैं। चाणक्य एक निर्माता-निर्देशक का स्वप्न था और सम्राट पृथ्वीराज महज निर्देशक का प्रयास है। फिल्म देखने के बाद निर्देशक पर निर्माताओं के दबाव को स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है।

बॉलीवुड में स्थापित मानसिकता और फार्मूलों के दबाव के कारण ही इण्टरवल के पहले फिल्म की गति बहुत कमजोर दिखती है और कहानी भी भटकती हुई नजर आती है। लेकिन फिल्म के दूसरे हिस्से पर डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की छाप अधिक स्पष्ट है। इण्टरवल के बाद दर्शक फिल्म में बंध जाता है और सोचने-विचारने पर विवश हो जाता है।

अक्षय कुमार की भूमिका को लेकर सोशल मीडिया में बहुत प्रश्न उठाए गए, लेकिन पृथ्वीराज की भूमिका में वह बहुत अजीब नहीं लगते। संजय दत्त और मानुषी छिल्लर का अभिनय बेजोड़ कहा जा सकता है। अक्षय कुमार के आस-पास जिन अभिनेताओं ने भूमिका निभाई है, वह फिल्म को कमजोर नही पड़ने देती। गोरी और चामुण्ड के लिए निभाई गई भूमिकाएं भी अपनी छाप छोड़ती है।

ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से देखें तो तत्कालीन युद्धों और रणनीतियों को बहुत सफलता के साथ फिल्म में दर्शाया गया है। युद्ध और युद्ध के मैदान यथार्थ के बहुत नजदीक लगते हैं। कुछ दृश्य ऐसे हैं, जो उस समय के युद्धों की प्रतिनिधि छवि बनकर हमारे मस्तिष्क में बस जाते हैं। प्रथम युद्ध में गोरी को हाथी से नीचे गिराने की रणनीति और वीरता सृजनात्मकता को एक नए स्तर तक लेकर जाती है। 

यह फिल्म एक जरूरी बहस का उत्तर भी देती है कि भारतीयों को निरंतर संघर्षरत क्यों रहना पड़ा और अनेकों बार पराजय का सामना करना क्यों पड़ा। प्रायः इसका उत्तर वीरता और संख्या के संदर्भों में खोजा जाता है। फिल्म यह दिखाती है कि पराजयों का मुख्य कारण मुख्यतः ऐसे अनैतिक तरीकों का उपयोग करना है, जिनकी कल्पना भी भारतीयों के परे थी। भारतीय संदर्भों में युद्धों की भी एक मर्यादा थी, जबकि आक्रांताओं की युद्धनीति का मुख्य आधार ही धोखा और अनैतिकता थी। जब तक भारतीय शासक इस तरह की नई मानसिकता को समझते और उसके लिए स्वयं को तैयार करते तब तक विदेशी आक्रांता निर्णायक बढ़त हासिल कर चुके थे।

योद्धा बण गई मैं’ के अतिरिक्त फिल्म का गीत-संगीत कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता। पृथ्वीराज के समय लश्करी जबान का प्रभाव बहुत अधिक नहीं था, लेकिन गीत और संवाद में लश्करी जबान का प्रयोग फिल्म के प्रवाह को बाधित कर देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्म के देश-काल को ध्यान में रखे बगैर शब्दों का मनमाना उपयोग किया गया है। डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म में शब्दों को लेकर संवेदनशीलता न बरती गई हो, यह बात दर्शक पचा नहीं पाता।

यह फिल्म और इस पर आ रही प्रतिक्रियाएं डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी को इस बात के लिए आगाह भी करती है कि उनकी ताकत उनका इतिहास बोध और पटकथा है। इससे हटकर अन्य आयामों पर फोकस करने पर उनकी फिल्में आकर्षण खो देती हैं। पिंजर, मोहल्ला अस्सी और जेड प्लस आकर्षक पटकथा और इतिहास-बोध ही था और कमी बॉलीवुड फार्मूलों को जबरदस्ती फिल्म में घुसेड़ने की थी। सम्राट पृथ्वीराज में भी बॉलीवुड के फार्मूले कई जगह हावी हो गए है और जहां भी उन फार्मूलों को जगह दी गई है, वहां फिल्म कमजोर हो गई है।

जिन दर्शकों को फिल्म से आपत्ति है उन्हें यह समझना चाहिए कि कोई भी फिल्म ऐतिहासिक सच्चाई को ज्यों का त्यों नहीं कहती। फिल्म में कहानियों को कहने का अपना तरीका होता है। बॉलीवुड में इस तरह की फिल्मों का चयन दुष्कर कार्य है और बड़े बैनर के द्वारा ऐसी किसी फिल्म को निर्मित करने के लिए तैयार होना और भी मुश्किल कार्य है। ऐसे दबावों के बीच यदि फिल्म बनी है तो यह एक अवरोध को तोड़ने जैसा है। ऐसी फिल्मों से इतिहास पर बहस प्रारंभ होती है और फिर सच्चा और पूरा इतिहास भी लोगों के सामने आता है। इतिहास का जो सच इस फिल्म में नहीं आया है, वह किसी और फिल्म के जरिए आए, उसके लिए प्रयास होने चाहिए।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विभिन्न दबावों को सहते हुए और विभिन्न पक्षों को साधते हुए अपनी बात फिल्मों में कैसे कही जाए, इतिहास के खुरदुरे यथार्थ को फिल्मी परदे पर मनोरंजक ढंग से कैसे उतारा जाए, उसकी आवश्यक पृष्ठभूमि फिल्म सम्राट पृथ्वीराज ने बांधी है। इसीलिए, इसे अवश्य देखा जाना चाहिए।

इतिहास और वर्तमान के भ्रमों की यात्रा है... सार्थ

सार्थ : एस. एल. भैरप्पा का कन्नड़ भाषा में रचित सुप्रसिद्ध उपन्यास है। भारत के मध्यकालीन सामाजिक ऊहापोह, विचलन, विभिन्न मत-मतान्तरों का यथार्थ चित्रण है। उपन्यास का कालखण्ड सातवीं-आठवीं शताब्दी का भारत है। उस समय वैदिक धर्म का प्रभाव और उसका अनुपालन सीमित, संशयग्रस्त हो चला था। बौद्ध मत को राजकीय संरक्षण में प्रमुख मान्यता मिल रही थी। वृहत्तर भारत के पश्चिमोत्तर प्रांत सिंध की ओर से अरबों ने तलवार, हिंसा के बल पर इस्लाम को फैलाना शुरु कर दिया था। निराशा का वातावरण फैलने लगा था।
नैराश्य की इससे बड़ी पराकाष्ठा और क्या हो सकती है कि पाठक को उपन्यास के पहले ही पृष्ठ पर यह पता चले कि वह नायक जिससे पाठक का अभी परिचय नहीं हुआ हो, उसकी पत्नी उसे छोड़कर किसी राजा से सम्बन्ध बना लेती है और उस अनुचित सम्बन्ध से एक पुत्र भी हो जाता है। विषाद, सामाजिक बहिष्कार, अपयश,कुल की बदनामी को सोचती नायक की माँ की मृत्यु हो चुकी हो और दूर कहीं नायक को मृत्यु का समाचार मिले। पाठक किस प्रकार उस नागभट्ट में अपने नायक  को देखेगा? लगभग उपन्यास के अंत तक बदले की भावना से ग्रस्त और प्रेम से वंचित नायक नागभट्ट वासना में फिसलता, मोह में गिरता-पड़ता, अवगुंठन में जीता आगे बढ़ता है। बौद्ध मत, वामाचार, योग के रास्ते पकड़ता-छोड़ता भगवान कृष्ण के जीवन चरित को अभिनीत करके पुनः स्वधर्म की और लौटता है। इसका कथानक प्रथम पुरुष में है। नायक की आँखों से कहानी घटित होती है। मध्यकालीन भारत की स्थिति का सूक्ष्म चित्रण मिलता है सार्थ में। बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार,उसके ऐश्वर्य के सामने वैदिक धर्म किस प्रकार अपनी निष्ठा और नियम खोता जा रहा है? उस समय का नालंदा विश्वविद्यालय भी बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा, उसके उन्नयन के लिए ही प्रतिबद्ध था। फिर भी समाज में  वेद, उपनिषद,राम-कृष्ण आदि के चरित्र इतने गहरे थे कि सनातन का उच्छेदन आसान नहीं था। 
बहुत बारीकी से भैरप्पा जी ने उपन्यास के माध्यम से यह भी बताया कि किस प्रकार 'आचार्य वज्रपाद' जैसे बौद्ध गुरु ने आम जनता पर प्रभाव डालने के लिए वैदिक-पौराणिक चरित्र के गठन, मुद्राएँ, देवप्रतिमा विज्ञान के लक्षणों को बोधिसत्व की प्रतिकृति के साथ जोड़कर, बलपूर्वक चित्रण करवाया, जोकि आज भी हमें स्पष्ट दिखाई देता है जैसे भगवान विष्णु के सदृश अवलोकितेश्वर, शिव के सदृश मंजुश्री और दुर्गा के सदृश  तारा का विग्रह निर्माण।

लगभग तीन सौ पृष्ठों तक फैली यह कृति जीवन के सभी पक्षों को छूती है। नागभट्ट और नटी चन्द्रिका के बीच प्रेम की धारा कथा को सरस बनाती है। नागभट्ट प्रेम करके भी हठ से चन्द्रिका को पाना चाहता है दूसरी ओर चन्द्रिका, जो संगीत की साधिका है, जो अपने जीवन में कितनी ही विसंगतियों, वासनाओं के खड्ड से निकलकर ध्यान मार्ग पर चल पड़ी है, केवल शुद्ध, सात्विक प्रेम करना चाहती है नागभट्ट से,दाम्पत्य जीवन नहीं। वह गणिका नहीं है।सार्थ के चन्द्रिका से बहुत कुछ समानता मिलती है आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' की निपुणिका (निउनिया)से। निपुणिका भी अपने प्रणय की बात कभी भी बाणभट्ट से प्रत्यक्ष नहीं कहती। बाणभट्ट(सूत्रधार की भूमिका में) के प्रथम नाटक मंचन से ही बाण के प्रति प्रेम लिए, तमाम अवरोधों के बाद बाण के  नाटक में प्रेम दग्ध हृदया का अभिनय करते हुए सचमुच मंच पर ही अपनी आहुति दे देती है। वहीं सार्थ की नायिका अपने नागभट्ट को पतन से उठाने के लिए निषिद्ध तंत्राचार की योनि पूजा को भी स्वीकार करती है। उसका त्याग बहुत बड़ा है। राष्ट्र को जगाने के लिए अरब म्लेच्छों के कब्जे वाले पश्चिमोत्तर भाग मूलस्थान में नागभट्ट-चन्द्रिका दोनों नाटक खेलते हैं। दोनों पकड़ लिये जाते हैं। उन पर अत्याचार होता है। उससारा म्लेच्छों द्वारा पाशविक व्यवहार, बलात्कार और उस पिशाचवृत्ति का बीज न चाहते हुए अपने गर्भ में धारण करती है।नागभट्ट भी उसकी पवित्रता को स्वीकारता है क्योंकि वह स्वयं वासना मुक्त हो भारती देवी के एक वाक्य में उसे बोध होता है-- "गृहस्थाश्रम और वैवाहिक जीवन एक व्रत है। भावना को व्रत के नियम के अनुकूल ढ़ालना उत्तम व्रत ही नहीं बल्कि यह कर्ममार्ग का मूल तत्व है।"

इसमें ऐतिहासिक चरित्र आदि गुरू शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र और उनकी पत्नी भारती देवी भी हैं। हालाँकि आज भी कतिपय विद्वान शंकराचार्य का समय ईसा पूर्व  लगभग दूसरी शती मानते हैं परन्तु उपन्यासकार ने इनका समय आठवीं शती मानकर रचना की है।  मंडन मिश्र-भारती देवी और शंकराचार्य  का शास्त्रार्थ कहीं भी बोझिल नहीं करता बल्कि तत्कालीन समय के विश्रृंखल समाज और देशकाल, गृहस्थ और सन्यास को एक सुनिश्चित दिशा देते हुए ज्ञानमार्ग की प्रतिस्थापना होती है। आगे देश को बहुत कुछ सहना था, मंदिर-स्थापत्य-वैदिक-बौद्ध आदि सब पर म्लेच्छों का प्रहार होना था। बचाने लायक केवल सात्विक गृहस्थ धर्म ही था शायद इसीलिए भैरप्पा जी ने गृहस्थ होने और वीर्यवान संतति को जन्म देने के महागुरू के आशीर्वाद के साथ ही अपनी लेखनी को रोक दिया।

नारी चरित्र की दृष्टि से इस कृति में दो प्रमुख पात्र हैं, प्रथम भैरप्पा जी की सृजित 'चन्द्रिका' और दूसरी ऐतिहासिक चरित्र 'भारती देवी'। चन्द्रिका पूरे उपन्यास में कलाआराधिका होते हुए, योग को साधते हुए प्रेम को सात्विक भाव में पाने का प्रयत्न करती है।विकट परिस्थितियों में शीलभंग होने के बाद भी ध्यानयोग से स्वयं को परिशुद्ध कर अद्भुत् धैर्य रख कर भविष्य गृहस्थयोग की ओर उन्मुख होती है जिसमें नायक नागभट्ट की भी प्रत्याशा होती है। तथाकथित प्रगतिशीलता के चलताऊ पुरुष अहंकार से दूर स्वीकार्य भाव सृजित कर लेखक नायकत्व को स्थापित करता है। दूसरी ओर भारती देवी अपने ज्ञान-कौशल से प्रखर शंकराचार्य को भी शास्त्रार्थ में अतिरिक्त समय माँगने पर विवश कर देती है। थोड़े ही पन्नों पर भारती देवी का चरित्र आया है परन्तु उनका संवाद न केवल उस समय बल्कि आज भी प्रेम और परिवार की मर्यादा और कर्तव्य को पुर्नस्थापित करता है।
नायक निर्बन्ध, उद्दाम, शारीरिक आकर्षण को प्रेम का उद्गम लक्ष्य करके, बार-बार प्रश्न पूछ कर मानो आज के युवाओं को समाधान देता है।
मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ में हारने के बाद, सन्यास लेने के निर्णय पर बिना विचलित हुए निष्ठापूर्वक गृहस्थधर्म के पालन की प्रतिबद्धता, उनका त्याग सन्यास से कहीं ऊँचा सिद्ध कर देती हैं।  उनसे प्रेरणा लेकर ही नायक गृहस्थ की महत्ता को समझता हुआ चन्द्रिका के साथ भविष्य खोजता है।
तत्कालीन भारत की अनेक समस्याओं से जूझते निराश समय की परिणति लेखक दो तरह से करता है। सैद्धांतिक स्तर पर शंकराचार्य के ज्ञानमार्ग की प्रतिष्ठा द्वारा सनातन की प्रतिष्ठा और कर्ममार्गी भारती देवी की सात्विक गृहस्थ व्रत द्वारा परिवार की प्रतिष्ठा। मानों लेखक स्वयं नागभट्ट के रुप में विसंगतियों के बीच रास्ता खोजने निकला है तभी तो सारी कथा नायकमुख द्वारा आगे बढ़ती है।  कथानक घटना दर घटना इस तरह आगे बढ़ती है कि आप इसे पूरा करही चैन लेते हैं।
तत्कालीन मध्ययुग की लड़ाईयों और धर्मभीरुता की वृत्ति के चलते किस तरह से भारत को भविष्य में इस्लामिक आक्रमण से आक्रांत होना है,इसका स्पष्ट चित्रण सार्थ में मिलता है। प्रतिहार सैनिक मजबूत एवं संख्या में भी अधिक होने के बावजूद मूलस्थान को अरब आक्रांता से छुड़ाने के लिए मात्र इसलिए नहीं लड़ते कि म्लेच्छों ने यह बात फैला दी थी कि यदि प्रतिहार सेना आक्रमण करती है तो मार्तण्ड मंदिर नष्ट कर दिया जायेगा। "कहीं मेरे कारण मंदिर न टूट जाय.." यह सोच कर बिना अन्य कोई रणनीति बनाये जीता हुआ मोर्चा छोड़कर दूसरी ओर चली जाती है। इस तरहकितनी ही लड़ाईयाँ भारत हारा है इतिहास में।
सार्थ,  धर्म, प्रेम और परिवार की कहानी है जिसमें नायक प्रेम को शरीर में खोजते हुए, धर्मच्युत होकर देशकाल के संकीर्ण धार्मिक व्यामोह में फँसता हुआ, आसमानी किताबों के रहनुमाओं के घृणित अमानवीय अत्याचारों से निकलकर पुनः सदगृहस्थ की ओर बढ़कर सनातन मूल्यों की प्राप्ति करता है।
 

सच्चाई को दिखाने का साहसी प्रयास ’द जज’

सजग एवं साहसी फिल्म निर्देशक जीतू आरवमुदन ने ’द जज’ फिल्म बनाकर लव जिहाद की समस्या को जीवंत रूप में सामने लाने की एक जोरदार कोशिश की है। इसी फिल्म में उन्होंने तथाकथित सेक्युलरिज्म और उसके पैरोकार बुद्धिजीवियों के चेहरे से नकाब हटाने का प्रयास किया है। ’द जज’  पश्चाताप और आत्मग्लानि की एक ऐसी कहानी है  जिसने वर्तमान काल में हिंदू एवं अन्य समुदायों की महिलाओं के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को बड़ी संजीदगी के साथ प्रस्तुत किया है।

लगभग एक घंटे की इस कहानी के सभी किरदार अपनी भूमिका के साथ न्याय करते दिखे। सबसे अहम किरदार है जज का। सारी कहानी संजीव जोशी नाम के इस जज के इर्द-गिर्द घूमती है। संभवतः इसी कारण फिल्म का नाम ’द जज’ रखा गया है। सेकुलरिज्म और बुद्धिजीवियों की बात करने वाले जज साहब शुरू में ही बड़ी गंभीरता के साथ बताते हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता न केवल हमारे लिए, अपितु पूरे देश के लिए भी गलत संकेत है, क्योंकि यह हमारी देश की पंथनिरपेक्षता के खिलाफ है। उसी जज के सम्मुख एक हिंदू लड़की का मामला आता है, जिसका नाम अवंतिका चौधरी है। वह लड़की एक मुस्लिम लड़के एजाज शेख के प्यार के चंगुल में फंसकर अपने पिता की बात को नकारते हुए उस मुस्लिम लड़के के साथ शादी करने की जिद पकड़े रखती है।

तीसरा किरदार अवंतिका के पिता का है। इस मामले को लेकर वह जज साहब से व्यक्तिगत तौर पर मिलकर बहुत सारे समाचार पत्रों की कटिंग्ज दिखाते हैं कि किस तरह लव जिहाद की शिकार हुई लड़कियों की हत्या कर दी जाती है। वह पिता जज से प्रार्थना करता है कि आप आदर्श हैं, आप ही मेरी बेटी का मार्गदर्शन कीजिए। इस पर जज साहब पंथनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाते हुए कहते हैं कि जिन बातों को मैं ही नहीं मानता, उन बातों को मैं कैसे अवंतिका को समझा सकता हूं। तब अवंतिका के पिता कहते हैं कि अगर मेरी बेटी की जगह आपकी बेटी होती तो आप क्या करते? इस पर जज साहब कहते हैं कि मैं आपको कट्टरवादी मूर्ख समझता हूं, जिसे धर्म के आगे इंसानियत नहीं दिखती। जज साहब केस का फैसला सुनाते हुए शादी की सहमति देकर पूरे देश को पंथनिरपेक्षता का संदेश देते हैं। उसके बाद जो होना था, वही हुआ। निकाह के 10 दिन बाद आयशा का (निकाह के बाद अवंतिका चैधरी का बदला हुआ नाम) अर्द्धनग्न शव प्राप्त होता है। उसकी हत्या उसके पति एजाज शेख द्वारा की जाती है, जो कि पहले से दो बार शादीकर चुका था।

इस फिल्म ने एक सामाजिक हकीकत को सामने लाने का सार्थक प्रयास किया है, जिसके तहत मुस्लिम पुरुषों द्वारा गैर-मुस्लिम लड़कियों का धर्मांतरण करवाने के लिए प्रेम का नाटक किया जाता है। आज यह एक विश्वव्यापी मुद्दा बना हुआ है। कई अध्ययनों में यह बात सामने आ चुकी है। लव जिहाद को अगर हम दूसरे शब्दों में ’बेटी बचाओ, बहू लाओ’ योजना भी कह सकते हैं। हम सबके मन में एक सामान्य सा प्रश्न उठता है कि लव जिहाद करने और करवाने वालों का उद्देश्य क्या है? इसके पीछे राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक कारण हैं। इन कारणों से स्वतः ही धीरे-धीरे जनसांख्यिकी में परिवर्तन होगा और यह परिवर्तन राजनीतिक प्रणाली में भयानक सिद्ध होगा। धीरे-धीरे पूरे देश का इस्लामीकरण करना ही इन जिहादियों का उद्देश्य है। न्यायपालिका के समक्ष यह मामला पहली बार 2009 में आया था। तब केरल उच्च न्यायालय ने एक लंबी जिरह के बाद निष्कर्ष निकाला कि लव जिहाद का मामला वास्तव में है और इसकी आड़ में जबरदस्ती धर्मांतरण करवाया गया है। ऐसी घटनाएं तब से लेकर आज तक निरंतर बढ़ती ही जा रही हैं। आए दिन हम समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं कि धर्म परिवर्तन नहीं करने पर मॉडल के साथ की मारपीट। लव जिहाद के नाम पर बेरहमी से हत्या। धर्म नहीं बदला तो मुस्लिम पति ने घर से निकाला। ऐसी कितनी ही घटनाएं हम अपने आसपास में होते हुए देखते हैं, परंतु फिर भी हम सब देखकर खामोश रहते हैं, क्योंकि यह घटनाएं दूसरे के घर में होती हैं। जब तक अपने घर में कोई घटना न घटे, तब तक हम सतर्क नहीं होते। भारत के साथ-साथ कई दूसरे देशों की लड़कियां और महिलाएं इसकी चपेट में आ चुकी हैं। बहुत सारे पाठकों को तो 2014-15 में केरल में हुई लव जिहाद की घटनाएं याद ही होंगी। उनकी जांच एनआईए ने की थी। उसमें भी निष्कर्ष निकला था कि इसके पीछे आतंकी संगठन आईएसआई का हाथ है और वह इसके लिए मुस्लिम लोगों को फंडिंग करते हैं। 2020 की बहुत सारी घटनाएं जिसमें एक महक कुमारी का अपहरण करके जबरन धर्म परिवर्तन करवाकर अत्याचार किया। उसके लिए ब्रिटेन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और भारतीय प्रवासियों ने जस्टिस फॉर महक कुमारी के नाम से अभियान चलाकर विरोध-प्रदर्शन किया और कहा कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। भारत में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पंथनिरपेक्षता और कानून की आड़ में लव जिहाद जैसी दुष्वृत्तियों को बढ़ावा देते आए हैं। यहां सवाल उठता है कि क्या हम और आप सिर्फ कानून के न्याय पर ही टिके रहेंगे या फिर अपने बच्चों के हित में उनकी परवरिश में लाड़-प्यार के साथ सतर्कता भी रखेंगे? हम सभी को अपने बच्चों को इस तरह से संस्कार देने चाहिएं कि वे मानसिक रूप से इतने सशक्त बन जाएं कि कभी भी कोई उनको बहला-फुसला न सके। खुद को बुद्धिजीवी मानने वालों को भी इन घटनाओं पर निष्पक्ष रूप से मंथन करना चाहिए और समाज का सही मार्गदर्शन करना चाहिए, ताकि फिल्म के अंत में जज की तरह उनके जीवन में भी पश्चाताप ही न रह जाए।

सही मोर्चे की खबर

वास्तविक शत्रु, शस्त्र और मोर्चे की पहचान पर ही किसी संघर्ष का परिणाम सबसे अधिक निर्भर करता है। संघर्षों के दौरान बहुत से अन्य कारक भी परिणाम को प्रभावित करते हैं, लेकिन यदि कोई पक्ष शत्रु में मित्र और मित्र में शत्रु देखने के भ्रम का शिकार हो जाए या शत्रुता को लेकर ऊहापोह की स्थिति में आ जाए तो उस पक्ष का पराजित होना तय है। यह मनोदशा आत्मघात सरीखी स्थिति को जन्म देती है। इसी तरह संघर्ष के दौरान शत्रु पक्ष की रणनीति को मूर्त रूप देने वाले मोर्चों और प्रभावी हथियारों की पहचान भी अहम रणनीतिक जिम्मेदारी होती है। मोर्चे के महत्व के अनुरूप शक्ति के समानुपातिक सदुपयोग की कला सजगता से ही आती है।
दुर्भाग्यवश, सभ्यतागत-संघर्ष की वर्तमान विश्वव्यवस्था में हिंदू-धर्म शत्रु, शस्त्र और मोर्चों को लेकर भ्रम की स्थिति में है। अंतिम पैगंबर की अवधारणा पर आधारित पंथों की एकमात्र सत्य होने के दुराग्रह के कारण हिंदू धर्म की समावेशी प्रकृति को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है। एक तरफ यह कट्टरता है कि जो हमसे इतर है, वह झूठ है और उसे रहने का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ सभी पंथों को एक ही पलडे़ पर तोलने की अतिशय उदारता। यह विरोधाभासी स्थिति हिंदू-धर्म के समक्ष पिछले हजार सालों से चुनौतियां पैदा कर रही है और यह दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है।
सूचनात्मक-संकल्पनात्मक स्तर पर लड़े जा रहे वर्तमान सभ्यतागत-संघर्ष में मीडिया-अकादमिक जगत केंद्रीय भूमिका में हैं। मीडिया और अकादमिक का गठजोड़ सबसे घातक हथियार है और संघर्ष का बड़ा मोर्चा भी। इस मोर्चे पर हिन्दू धर्म की दयनीय उपस्थिति उसे कुव्याख्याओं के लिए सुभेद्य बना देती है। मीडिया और अकादमिक जगत में हिंदू धर्म की कुव्याख्याओं की पीड़ा से उपजी किताब है रीआर्मिंग-हिंदुइज्म। नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि यह कोई उत्तेजक और आक्रामक किताब है, लेकिन इसकी अंतर्वस्तु बताती है कि सबसे प्रभावी हथियार से लैस होने और सबसे निर्णायक मोर्चे पर डटने की भारतीयों से की गई अपील है।
लेखक इस मूल मान्यता को लेकर आगे बढ़ता है कि शोध, सूचना और संवाद कभी हिंदू धर्म की मूल शक्ति रहे हैं, पिछली कुछ शताब्दियों में यह परम्परा क्षीण हुई है। किताब के पहले हिस्से में उन सभी अकादमिक मिथकों की पहचान की गई है, जिनके जरिए हिंदू धर्म पर हमला किया जाता है मसलन-आर्य-आक्रमण का मिथक, वैदिक-हिंसा का मिथक, वैकल्पिक इतिहास का मिथक। दूसरे हिस्से में सनातन दर्शन के विविध आयामों को स्पर्श किया गया है और निष्कर्ष भारत की नियति, जगत गुरु के रूप में उसकी भूमिका को रेखांकित किया गया है।
लेखक इस तथ्य को मजबूती से स्थापित करता है कि हिंदू-धर्म के खिलाफ प्रतिस्पर्धी पक्ष आपस में हाथ मिलाकर आक्रमण करते हैं। इस्लाम और ईसाइयत एकजुट होकर हमला करते हैं, यूरोप और अमेरिका में वाम और दक्षिण मिलकर हिन्दू धर्म को निशाना बनाते हैं। रीआर्मिंग हिंदुइज्म इस बात से हमें सचेत करती है कि भारतीय सभ्यता पर हमलों को व्यक्तिगत पूर्वाग्रह मानने के प्रति सचेत करती है।‘ सबसे पहले हमें इस सच को स्वीकार करना चाहिए कि हिंदूफोबिया व्यक्तिगत पूर्वाग्रह नहीं है। यह एक बड़ी और गहरी राजनीतिक सच्चाई से उपजी अकादमिक रचना है। ( पृष्ठ 31)
पुस्तक की एक प्रमुख खूबी इसका संस्कृतिमय और संस्कृतमय होना है। किताब का पहले भाग का नाम देश-काल दोष है। पहले अध्याय का नाम अकादमिक माया सभा है। अंग्रेजी किताब में संस्कृत शब्दों और भारतीय संकल्पनाओं का विनियोग किताब को अलहदा बनाता है। इससे भी बड़ी बात भारतीय मानस पर किताब में स्थान-स्थान पर की गई अंतःदृष्टिपूर्ण की गई टिप्पणियां हैं। रामायण, महाभारत और पुराण हमारे लिए भूतकाल से संबंधित किताबें नहीं हैं, बल्कि शाश्वत, जीवंत सांस्कृतिक संसाधन हैं। ( पृष्ठ 144) अवतारों के जीवन में घटित त्याग-तपस्या को रेखांकित करने की शैली बहुत अनूठी है-राम और कृष्ण, महानतम, सर्वाधिक लोकप्रिय अवतार हैं। दोनों को वनवास झेलना पड़ा। एक को राज्याभिषेक से ठीक पहले और दूसरे को जन्म लेते ही। ( पृष्ठ 156)। इसी तरह भारतीयों की देव-विविधता संबंधी संकल्पना की लेखक अलग ही धरातल पर आकर्षक किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि मीडिया के अध्यापन से जुड़े एक प्रोफेसर ने भारतीय मीडिया की सभ्यतागत संघर्ष में भूमिका को इस किताब के जरिए रेखांकित किया है। साथ ही भारतीय दृष्टि से वैश्विक अकादमिक-मीडिया के गठजोड़ का मूल्यांकन किया है। अन्यथा अभी तक तो पश्चिमी मीडिया को आदर्श मानकर उसकी शब्दावली और नैरेटिव्स के अनुकरण का ही चलन रहा है। हां, कहीं-कहीं पर यह जरूर लगता है कि नई संकल्पनाओं को गढ़ने के बाद उनका उतनी गहराई से विश्लेषण नहीं किया गया है, जितना अपेक्षित है।
पुस्तक एक नया भारतीय परिप्रेक्ष्य रचने और समझने में सहायक है। पुस्तक का हिंदी संस्करण किताब को उसके लक्षित समूह तक पहुंचाने में सहायक होगा ही, भारत में चल रहे विमर्शों में कुछ नए सकारात्मक आयाम जोड़ने के लिए भी आवश्यक है।

लाल सलाम का काला कलाम

अप्रियकर घटनाओं को एकांगी नजरिए से देखना हम भारतीयों की आदत सी बन चुकी है। हमें हमेशा इस बात को स्वीकार करने में झिझक रहती है कि गली मोहल्लांे में घट रही घटनाओं का भी एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य हो सकता है और कोई वैश्विक-काॅकस देश भर में समस्याओं की श्रृंखला खड़ी कर सकता है।
साम्यवाद के संदर्भों में तो समझ की सीमाएं हमें और भी असहज बना देती हैं। जेएनयू से लेकर एचपीयू तक अपने देश और संस्कृति को लेकर जो घृणा का भाव है, उसकी जड़ों को सैद्धांतिक स्तर पर टटोलने की कोशिशंे कम ही हुई हैं। हिंदी में तो बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान और चीन को अपने देश पर तरजीह देने की विरासत किन कारणों से पैदा हुई, सभी धर्मों को अफीम मानने वाला साम्यवाद भारत में इस्लाम और ईसाइयत का पहरेदार और हिंदुत्व के प्रति घृणा भाव से कैसे भर गया, इसकी तह तक जाने की जहमत भारतीय बुद्धिजीवियों ने कम ही उठाई है।
इस परिस्थिति में प्रसिद्ध पत्रकार संदीप देव की किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की‘ सन्नाटे को चीरने वाली भूमिका में हमारे सामने आती है। किताब भारत में घटी और घट रही घटनाओं को समझने और यथार्थ को वैश्विक नजरिए से देखने के लिए प्रेरित करती है। साम्यवाद की विविध रणनीतियों और रूपों से हमारा परिचय कराती है। पुस्तक का प्रारंभ साम्यवाद के सैद्धांतिक आधारों को टटोलने से होता है और जब सैद्धांतिकी को खंगालने का काम भारत पहुंचता है, तो उसके केंद्र में नेहरू आ जाते हैं। यद्यपि यह किताब साम्यवाद का वास्तविक स्वरूप हमारे सामने रखना चाहती है, लेकिन नेहरू की वैचारिकी और व्यक्तित्व को समझने-परखने का एक नया वैचारिक सिरा भी हमारे हाथ पकड़ा जाती है। नेहरू की वैचारिक बनावट की यात्रा पर संदर्भों के साथ जिस तरह से यह पुस्तक प्रकाश डालती है, वह आंख खोलने वाला है। मसलन फिलिप स्प्रैट का यह कथन कि ‘मैं जितना समझता था, उससे बड़े कम्युनिस्ट थे।‘
कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए साम्यवादियों ने एक रणनीति के तहत किस तरह उपयोग किया और चीन युद्ध के समय उनको किस तरह अंधेरे में रखकर धोखा दिया, वह किताब में बहुत सहज और रोचक बन जाता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य साम्यवादियों के लिए सबसे बड़ा शत्रु क्यों होता है, इसकी भी बड़ी गहराई से व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। राष्ट्र को चुनौती देने के लिए ही सन् 1919 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशन की स्थापना की गई थी। इसके जरिए कई देशों में लाल क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया था।
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता नए संदर्भ ग्रंथों तक इसकी पहुंच है। हिंदी माध्यम में आई किताबों में प्रायः वैश्विक संदर्भ स्रोतांे का अभाव ही दिखता है। लेकिन लेखक ने अपनी बात को प्रमाणिक बनाने के लिए विभिन्न स्रोंतों का उल्लेख कर इस किताब को ही महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। संदीप देव ने साम्यवादियों के लाल और खूंखार चेहरे को देखने के लिए एक खिड़की खोली है और भविष्य के शोधों के लिए एक आधार भूमि उपलब्ध कराई है। भारत में साम्यवाद को लेकर नई पीढ़ी में एक कसमसाहट दिखती है, लेकिन प्रायः वह खंडन का सशक्त वैचारिक आधार उपलब्ध न होने के कारण सही रास्ते का चुनाव नहीं कर पाती। यह किताब युवाओं को वर्तमान कसमसाहट में निजात दिला सकती है। नई पीढी का पथ-प्रदर्शक बनने की सभी संभावनाओं को यह किताब खुद में समेटे हुए है।

भारतीय यर्थाथ का फिल्मी मोहल्ला

भारतीय यथार्थ को सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ उतारने के प्रयास न के बराबर हुए हैं। प्रायः भारतीय सच को फिल्मी पर्दे पर इस तरह परोसा जाता है कि उससे आत्म-परिष्कार की बजाय आत्म-तिरस्कार की भावना पैदा होती है। अभी तक फिल्मी पर्दे पर परोसे गए सच से विद्वेष और पिछड़ेपन की मानसिकता ही पैदा होती रही है।
इस परिस्थिति में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी‘ कहानी कहने के एक नए व्याकरण की तरह आई है। जिस सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ यह फिल्म खांटी भारतीय सच को परोसती है, वह फिल्म को एकदम अलहदा बना देती है। यहां हर सच के लिए स्थान है, सच में कड़वापन भी है, चरित्र में पर्याप्त विरोधाभास के लिए स्पेस है, लेकिन कहानी इस खूबसूरती के साथ कही गई है कि चरित्र गुंथे हुए है, जुबानों की तपिश के बावजूद मन में मैल पैदा नहीं होता, लोग एक-दूसरे के साथ संवाद में बने हुए हैं।
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने ऐसी ही कोशिश अपनी फिल्म पिंजर में भी की थी, लेकिन बहुत सारे पक्षों को एकसाथ समेटने के चक्कर में सब कुछ गड्डमड्ड हो गया था। ‘मोहल्ला अस्सी‘ में सभी पक्षों को इतने सहज ढंग से उकेरा गया है कि दुराग्रहों के दबाव हावी नहीं हो पाते।
फिल्म में धर्मनाथ पांडेय की भूमिका में सनी देओल देहभाषा के स्तर पर बहुत प्रभावी हैं। उनकी पत्नी की भूमिका में साक्षी तंवर ने बनारसीपन और बनारसी यथार्थ को गजब ढंग से आत्मसात किया है। पप्पू पान वाले की दुकान पर बैठने वाले सभी किरदारों ने कमोबेश अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।
विभिन्न किरदारों को यथार्थ के धरातल पर बनाए रखते हुए संदेश देने का काम डॉ. चंद्रप्रकाश की खूबी रही है। यह खूबी इस फिल्म में दिखती है। वह साक्षात्कारों में इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी वास्तविक क्षमता शब्द, संवाद और लेखन है। पूरी फिल्म में कई ऐसे संवाद हैं, जो जुबान और दिमाग दोनों पर चढ़ जाते हैं। हम घाट को पिकनिक स्पॉट और गंगा को स्वीमिंग पूल नहीं होने देंगे, अब विदेशी ही इतिहास लिखेंगे बनारस का, हमने राम से यह कभी नहीं मांगा कि कष्ट न मिले, हमने तो हमेशा कष्ट को सहने की शक्ति मांगी जैसे संवाद काफी प्रभावी हैं।
संभवतः ‘मोहल्ला अस्सी‘ ऐसी पहली फिल्म है, जिसमें ब्राह्मण वर्ग को सभी आयामों के साथ दिखाया गया है। उनका धर्मसंकट, तंगहाली, बदलते परिवेश में उभरती चुनौतियां और सामाजिक कटाक्षों के बढ़ते चलन और उससे पैदा होने वाली घुटन सभी को करीने से परदे पर उतारा गया है। शिवलिंग को प्रवाहित करते समय पांडेय परिवार जिस मानसिक स्थिति से गुजरता है, उसका चित्रण इतने प्रभावी ढंग से किया गया है कि वह दिमाग पर छा जाता है। इससे जुड़े दृश्य यह बताते हैं कि परम्पराएं बहुत त्याग से बचती और बढ़ती हैं।
बॉक्स ऑफिस पर इसे मिली सफलता-असफलता से इस फिल्म का आकलन नहीं किया जा सकता। फिल्म के चरित्र धर्मनाथ पांडेय पूरी फिल्म में संघर्ष करते हैं, लेकिन अंततः फिल्म यह बता जाती है कि सच उनके साथ है। यही बात फिल्म के लिए भी कही जा सकती है, वह सफल भले न हो, उसके पास सच है। इसी कारण ‘मोहल्ला अस्सी‘ वर्तमान का दस्तावेज और भविष्य की फिल्म है।

 

लाल सलाम का काला कलाम

डॉ. जयप्रकाश सिंह

अप्रियकर घटनाओं को एकांगी नजरिए से देखना हम भारतीयों की आदत सी बन चुकी है। हमें हमेशा इस बात को स्वीकार करने में झिझक रहती है कि गली मोहल्लों में घट रही घटनाओं का भी एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य हो सकता है और कोई वैश्विक-कॉकस देश भर में समस्याओं की श्रृंखला खड़ी कर सकता है।
साम्यवाद के संदर्भों में तो समझ की सीमाएं हमें और भी असहज बना देती हैं। जेएनयू से लेकर एचपीयू तक अपने देश और संस्कृति को लेकर जो घृणा का भाव है, उसकी जड़ों को सैद्धांतिक स्तर पर टटोलने की कोशिशें कम ही हुई हैं। हिंदी में तो बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान और चीन को अपने देश पर तरजीह देने की विरासत किन कारणों से पैदा हुई, सभी धर्मों को अफीम मानने वाला साम्यवाद भारत में इस्लाम और ईसाइयत का पहरेदार और हिंदुत्व के प्रति घृणा भाव से कैसे भर गया, इसकी तह तक जाने की जहमत भारतीय बुद्धिजीवियों ने कम ही उठाई है।
इस परिस्थिति में प्रसिद्ध पत्रकार संदीप देव की किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की‘ सन्नाटे को चीरने वाली भूमिका में हमारे सामने आती है। किताब भारत में घटी और घट रही घटनाओं को समझने और यथार्थ को वैश्विक नजरिए से देखने के लिए प्रेरित करती है। साम्यवाद की विविध रणनीतियों और रूपों से हमारा परिचय कराती है। पुस्तक का प्रारंभ साम्यवाद के सैद्धांतिक आधारों को टटोलने से होता है और जब सैद्धांतिकी को खंगालने का काम भारत पहुंचता है, तो उसके केंद्र में नेहरू आ जाते हैं। यद्यपि यह किताब साम्यवाद का वास्तविक स्वरूप हमारे सामने रखना चाहती है, लेकिन नेहरू की वैचारिकी और व्यक्तित्व को समझने-परखने का एक नया वैचारिक सिरा भी हमारे हाथ पकड़ा जाती है। नेहरू की वैचारिक बनावट की यात्रा पर संदर्भों के साथ जिस तरह से यह पुस्तक प्रकाश डालती है, वह आंख खोलने वाला है। मसलन फिलिप स्प्रैट का यह कथन कि ‘मैं जितना समझता था, उससे बड़े कम्युनिस्ट थे’।
कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए साम्यवादियों ने एक रणनीति के तहत किस तरह उपयोग किया और चीन युद्ध के समय उनको किस तरह अंधेरे में रखकर धोखा दिया, वह किताब में बहुत सहज और रोचक बन जाता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य साम्यवादियों के लिए सबसे बड़ा शत्रु क्यों होता है, इसकी भी बड़ी गहराई से व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। राष्ट्र को चुनौती देने के लिए ही सन् 1919 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशन की स्थापना की गई थी। इसके जरिए कई देशों में लाल क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया था।
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता नए संदर्भ ग्रंथों तक इसकी पहुंच है। हिंदी माध्यम में आई किताबों में प्रायः वैश्विक संदर्भ स्रोतों का अभाव ही दिखता है। लेकिन लेखक ने अपनी बात को प्रमाणिक बनाने के लिए विभिन्न स्रोंतों का उल्लेख कर इस किताब को ही महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। संदीप देव ने साम्यवादियों के लाल और खूंखार चेहरे को देखने के लिए एक खिड़की खोली है और भविष्य के शोधों के लिए एक आधार भूमि उपलब्ध कराई है। भारत में साम्यवाद को लेकर नई पीढ़ी में एक कसमसाहट दिखती है, लेकिन प्रायः वह खंडन का सशक्त वैचारिक आधार उपलब्ध न होने के कारण सही रास्ते का चुनाव नहीं कर पाती। यह किताब युवाओं को वर्तमान कसमसाहट में निजात दिला सकती है। नई पीढ़ी का पथ-प्रदर्शक बनने की सभी संभावनाओं को यह किताब खुद में समेटे हुए है।

व्यक्त नहीं कर पाई ‘संजु’

लम्बे समय के बाद काई ऐसी फिल्म आई जिसका लोग उत्सुक्ता से इंतजार कर रहे थे। इंतजार के दो कारण थे- एक तो राजकुमार हिरानी जैसे दिग्गज निर्देशक लम्बे अंतराल के बाद कोई फिल्म लेके आ रहे थे और दूसरा कारण जिसने सबको बांधे रखा वह फिल्म की थीम था। बालीवुड के खलनायक कहे जाने वाले संजय दत्त या संजु बाबा के जीवन पर बनी इस फिल्म से सबको बहुत अपेक्षाएं थी। अपेक्षाएं इस लिए थी कि संजय दत्त वैसे ही देश के एक बहुत बड़े वर्ग के चहिते रहे हैं और साथ ही उनका जीवन बड़े उतार-चढाव और विवादों से जुड़ा रहा है। ऐसे में ज़ाहिर था कि राजकुमार हिरानी संजु बाबा के अच्छे मित्र होने के नाते दुनिया के सामने उनकी सच्चाई या जीवन की दास्तां लाना चाहते थे। इसी कारण उन्होंने इतने बड़े स्तर पर इस फिल्म का निर्माण करने की सोची और बॉलीवुड के श्रेष्ठ अभिनेताओं और कलाकारों को इसके लिए चुना। लेकिन जो संदेश राजकुमार हिरानी देना चाहते थे, उससे वह पूरी तरह चूकते नज़र आए। संजय दत्त को पूरी फिल्म में मिडिया और व्यवस्था एवं संस्थाओं का शिकार बताने के प्रयास में उन्होंने  इसे बायोपिक के स्थान पर अभिनत प्रचार बनाकर अपनी योग्यताओं पर सवाल खड़े कर दिए।

इससे पूर्व भी विश्व भर में अनेक विवादित एवं बड़ी हस्तियों के जीवन पर कामयाब फिलमें बनीं हैं। उनकी कामयाबी के पिछे एक ही कारण रहा कि उनमें पक्षपात पूर्ण प्रचार की झलकियां कम और व्यक्ति के जीवन की असल झलकियां देखने को ज्यादा मिलती हैं। राजकुमार हिरानी ऐसा करने में नाकामयाब रहे, जिस कारण न ही फिल्म बॉक्स ऑफिस में कोई बहुत कमाल कर पाई और न ही संजु बाबा की छवि को अच्छा बनाने में कोई मदद कर पाई। बल्कि संजय दत्त के जीवन को और संद्धिग्द और छवि को नकारात्मक बनाने का काम इस फिल्म ने किया। जिस उत्सुक्ता से संजु बाबा को निर्दोश बताने का प्रयास इस फिल्म में किया गया उसने शक के दायरे को और बढ़ाने का काम किया।

एक और बात इस बायोपिक से सामने आई कि यह बायोपिक होने की बजाए संजय दत्त के जीवन का कुछ चुना हुआ हिस्सा था। जिसमें संजय दत्त के जीवन के बहुत से पहलू सामने लाने के प्रयास में कई असहज पहलू या सत्य छोड़ दिए गए। जवानी में किस तरह संजु बाबा नशे की लत में पड़ गए और फिर कैसे उनके पिता सुनिल दत्त ने हर संभव प्रयास करके अपने बेटे को उससे बाहर निकाला। कैसे नशे की लत्त के कारण उनकी गर्लफ्रेंड रूबी तक उनसे छूट गई। इन सब प्रकरणों को बड़ा-चड़ाकर दिखाने के लिए फिल्मी रूप दिया गया। लेकिन इस सबके बीच उनकी पहली पत्नी और बड़ी बेटी का जिक्र पूरी फिल्म में कहीं नज़र नहीं आया। ऐसे ही जीवन के कईं असहज पहलुओं को बड़ी बारीकि से इस बायोपिक में जगह नहीं मिली।

वहीं अगर फिल्म के स्टारकास्ट की बात करें तो केवल उसने ही जनता को बांधे रखा। कहानी और कंसेपट से ज्यादा दम स्टारकास्ट में था, जिसके कारण फिल्म थोड़ी चल सकी। सबसे पहले बात करें तो फिल्म के हीरो रंबीर कपूर की परफॉरमेंस लाजवाब थी। 1980 से 2015 तक के संजय दत्त का रोल अदा करके रंबीर कपूर ने एक बार फिर अपनी ऐकटिंग का लोहा मनवाया। संजय दत्त के किरदार को रंबीर कपूर ने इतना बखूबी निभाया कि कईं जगह वास्तव में भ्रम हुआ कि रंबीर कपूर हैं या संजय दत्त। उनकी मां के रोल में भी मनीषा कोयराला और पत्नी के रोल में दिया मिर्जा ने सादा और अच्छा अभिनय किया। दत्त साहब का अभिनय परेश रावल ने किया तो पर वह इतना अपील कर नहीं पाए।

क्ंसेपचुयलाईज़ेश्न और कहानी बताने में भी राजकुमार हिरानी अपने नाम के साथ इंसाफ नहीं कर पाए। बालीवुड को बड़ी बलाक्बस्टर्स देने वाले राजू हिरानी अपने चहिते हिरो की बायोपिक के साथ इनसाफ नहीं का पाए। संजय दत्त के विवादित और व्यसनों में उलझे जीवन को अति गलोरिफाई करने के चक्करों में राजकुमार हिरानी ने अपने करियर की नयुंतम कृति पेश की। व्यसनों में उलझे संजु बाबा के जीवन को जहां गलोरिफाई किया गया वहीं मुंबई बलास्ट और संजय दत्त के पास से बरामद हुई एके-56 का सारा ठीकरा मीडिया के सर फोड़ कर राजकुमार हिरानी ने अपनी बायोपिक को और नुकसान पहुंचाया। इसे कहने में कोई दोराए नही होगी कि जो संदेश वो इस बायोपिक के जरिए देना चाहते थे, उसमें पूरी तरह विफल रहे। विशेषज्ञ हो या आम आदमी, उनकी बात किसी के गले नहीं उतरी।