समाज संवाद

राष्ट्रीय संवाद का प्रतीक ‘श्रीराम ध्वज’

प्रतीक एवं चिन्ह अनंत काल से संवाद के बेहद महत्वपूर्ण माध्यम रहे हैं। लिखित या मौखिक संदेश बहुत बार इतने उपयोगी साबित नहीं होते, जितनी तीव्रता और परिपूर्णता से प्रतीक संवाद करते हैं। लिखित या मौखिक संदेश को भेजने और फिर उसे समझने में कईं प्रकार के अवरोधक होते हैं। भेजने वाला जिस मानसिकता और पृष्ठभूमि से उसे संपादित करता है, जरूरी नहीं प्राप्तकर्ता उसी दृष्टि से संदेश को ग्रहण करे। वहीं बात करें प्रतीकों या चिन्हों की तो इनके माध्यम से जो संदेश जाता है, लगभग पूरा समाज उसे एकरूप से ही आत्मसात करता है।

प्रतीकों में सर्वाधित महत्वपूर्ण यदि कोई वस्तु है तो वह निसंदेह ध्वज या पताका है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो ध्वज हमेशा से ही धर्म, यश, कीर्ति, विजय, सकारात्मक ऊर्जा, पहचान और शौर्य का द्योतक रहा है। काल और परिस्थिति के अनुरूप विभिन्न ध्वजों के उपयोग के उदाहरण हमें मिलते हैं। हिन्दू धर्म में घरों पर ध्वज लगाने की परंपरा पुरानी है। किसी भी शुभ और मांगलिक कार्य के दौरान या फिर त्योहारों में घर पर ध्वज लगाया जाता है। राजध्वज, संप्रदायों के ध्वज, किसी विशेष समुदाय, संस्था या गतिविधि से संबंधित ध्वज।

वहीं युद्ध-काल या रणभूमि में झंडों का विशेष रूप से प्रयोग होता है। यह झंडे संकेत के द्वारा सूचना देते हैं। महाभारत युद्ध में प्रत्येक योद्धा का अलग ध्वज था। सिख साम्राज्य की स्थापना करने वाले महाराजा रंजीत सिंह के युद्ध ध्वज में अंकित ‘देवी चण्डी, वीर हनुमान और भैरौ’ के चित्र शत्रु सेना को कंपित करने के साथ-साथ अपनी सेना में वीरता का संचार करते थे। ऐसे प्रत्येक ध्वज अपने-अपने समाज से एक ठोस प्रतीक के रूप में संवाद करते आए हैं और करते रहेंगे।

22 जनवरी, 2024 को अयोध्या में श्रीराम मंदिर में भगवान के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर ने पूरा देश को राम रंग में सराबोर कर दिया। इस दौरान देश का हर परिवार, संस्था और प्रतिष्ठान राम काज और राम उत्सव में सम्मिलित होने के लिए उत्साहित रहा। राम कथा का पठन-श्रवण, घरों की सजावट, भजन, कलश यात्राएं, प्रसाद वितरण, दीप प्रजवल्लन, कीर्तन, सोशल मीडिया के संदेश सरिखे अनेकों माध्यमों से पूरा देश राम धुन में मग्न रहा। हर कोई अपनी सुविधा, समझ और सामर्थ्य अनुसार राम संवाद कर रहा था। इस पूरे प्रकरण में एक और बहुत महत्वपूर्ण प्रतीक था जिससे पूरे समाज ने राममयी एकात्मता का संदेश दिया, वह था ‘श्रीराम ध्वज’।

इस दौरान हर घर, चौराहा, संस्थान, प्रतिष्ठान, बाजार, वाहन, वन, पर्वत, नदियां, धाम और लगभग हर स्थान पर समाज ने श्रीराम ध्वज स्थापित किया। श्रीराम ध्वज की ऐसी धूम थी कि दुकानों के साथ-साथ एमाजॉन और फिल्पकार्ट जैसे ऑनलाइन बाजारों में भी इसकी बिक्री हो रही थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि ध्वज कोई संस्था या संगठन नहीं अपितु स्वयं समाज के लोग बाजार से खरीदकर इन्हें अपने घरों और दुकानों की छतों पर लगा रहे थे। एक समय ऐसा भी आया जब लोगों को श्रीराम ध्वज बाजार में और ऑनलाइन तक मिलना बंद हो गया। पूरा भारत ‘श्रीराम ध्वज’ से सुशोभित दिखा।

वाल्मीकि रामायण में एक कथन आता है ‘एष वै सुमहान् श्रीमान् विटपी सम्प्रकाशते। विराजत्य् उद्गत स्कन्धः कोविदार ध्वजो रथे।’ जिसके अनुसार जब भरत श्रीराम से अयोध्या वापस लौटने की प्रार्थना के लिए चित्रकूट गये थे, तब उनके रथ पर कोविदार पेड़ ध्वजा पर अंकित था। भारद्वाज आश्रम में विश्राम कर रहे भगवान राम शोर सुनकर लक्ष्मण से देखने को कहते हैं। सेना के रथ पर लगे ध्वज को देख लक्ष्मण समझ गए कि सेना अयोध्या की है।

जिस प्रकार अयोध्या के राजध्वज से उस समय संकेत मिला कि यह अयोध्या की सेना है, वैसे ही राम ध्वज ने पूरे विश्व को संदेश दिया कि यह श्रीराम का राष्ट्र है। श्रीराम ध्वज के माध्यम से पूरे देश और समाज ने जो संदेश दिया उसे एक सुसंगत राष्ट्रीय संवाद के रूप में ही देखना चाहिए। एक ऐसा संवाद जिसमें बिना शब्दों और आधुनिक मीडिया के सहयोग के पूरा देश सम्मिलित हुआ और विश्व को राष्ट्रीय एकात्मता और परायणता का संदेश दिया।

न्यूजरूम में तनाव

एक अदृश्य हत्यारा दबे पांव भारतीय मीडिया न्यूजरूप में प्रवेश कर चुका है जो चुन-चुनकर पत्रकारों को निशाना बना रहा है। स्थिति गंभीर है। यदि मीडिया मालिकों, सरकारों, पत्रकार संगठनों तथा स्वयं पत्रकारों द्वारा इसे रोकने के अविलंब ठोस प्रयास नहीं हुए तो आने वाले दिनों में यह मीडिया को प्रतिभा से वंचित कर देगा
देश के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ के युवा पत्रकार तरुण सिसोदिया (37)द्वारा दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में 6 जुलाई को की गयी आत्महत्या ने देश के सम्पूर्ण पत्रकार जगत को झकझोर दिया है। इसके कुछ ही दिन बाद दिल्ली के निकट गाजियाबाद में ‘पंजाब केसरी’ के एक प्रतिनिधि पवन कुमार द्वारा भी आत्महत्या करने का मामला सामने आया। इन दोनों ही पत्रकारों को मैं व्यक्तिगत रूप से गत करीब एक दशक से जानता था। दोनों ही होनहार, युवा और जुझारू पत्रकार थे और दोनों की आत्महत्या का कारण भी एक ही है-नौकरी छूटने के कारण उत्पन्न तनाव। ‘दैनिक भास्कर’ ने फरवरी में तरुण को नौकरी से निकालने का नोटिस दिया था। पवन की भी नौकरी चली गयी थी। उस तनाव के चलते दोनों इतने अधिक मानसिक अवसाद में चले गये कि आत्महत्या जैसा गलत कदम उठा लिया।
सम्पूर्ण समाज की समस्याओं को उजागर करने वाले पत्रकारों द्वारा आत्महत्या की खबरें भले ही मुख्यधारा के मीडिया में खबर न बनी हों, परन्तु इन दोनों ही घटनाओं ने समाचार पत्रों के न्यूजरूम में पनप रहे एक गंभीर खतरे की भयावहता को उजागर कर दिया है। वैसे मीडिया मालिकों की ओर से इसे गंभीरता से लेने की खबर अभी कहीं से नहीं मिली है, परन्तु कुछ पत्रकार संगठनों ने इस मुद्दे पर देशभर के पत्रकारों में जागरूकता अभियान चला दिया है। दिल्ली पत्रकार संघ के अध्यक्ष एवं ‘पीटीआई’ के वरिष्ठ पत्रकार मनोहर सिंह ने इस मुद्दे पर कई वेबिनार किये और अपने सदस्यों को तनावमुक्ति के गुरू सीखने के लिए वे सतत प्रेरित कर रहे हैं।
भारतीय मीडिया न्यूजरूम में गत पांच वर्षों में तनाव एक गंभीर समस्या के रूप में उभरा है। वर्ष 2014 में जब मैंने अपना पीएच.डी शोधकार्य प्रारंभ किया तो न्यूजरूम में कार्यरत पत्रकारों से बात करने के बाद यह एक गंभीर समस्या के रूप में उभरकर सामने आया। इस संबंध में जब मैंने और गहन अध्ययन किया तो पता चला कि पश्चिमी देशों के न्यूजरूम में यह समस्या एक दशक पहले महसूस की गयी थी और ‘बिजनेस इनसाइडर’ सहित विश्व के कई बड़े मीडिया संस्थानों द्वारा अपने पत्रकारों को ‘रिलेक्स’ रखने के लिए अनेक उपाय करने प्रारंभ किये गये थे। तभी से मैं भारतीय मीडियाकर्मियों को इस गंभीर खतरे के प्रति आगाह करता आ रहा हूं। बातचीत में हर पत्रकार बढ़ते तनाव और उससे उत्पन्न बीमारियों की बात करता है, परन्तु किसी भी मीडिया संस्थान में पत्रकारों के तनाव को कम करने के लिए कुछ नहीं हुआ।
वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय (कोटा, राजस्थान)में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के संयोजक प्रो. सुबोध कुमार के सान्निध्य में मैंने जून 2014 में भारतीय मीडिया न्यूजरूम पर अध्ययन प्रारंभ किया। अध्ययन के दौरान न्यूजरूम में कार्यरत 82 प्रतिशत से अधिक पत्रकारों ने तनाव को एक प्रमुख समस्या बताया। उस अध्ययन में बढ़ते तनाव के जो प्रमुख कारण पत्रकारों ने गिनाये उनमें शामिल थे-काम के अनिश्चित घंटे, सुबह समय पर ऑफिस आना तो तय लेकिन जाना कब, यह किसी को नहीं पता, कार्यदशाओं में निरंतर गिरावट, बढ़ती ठेका प्रथा के कारण नौकरी और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी समाप्त होना, सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी लाभ का न मिलना, प्रतिदिन ‘स्कूप’ न मिलने के कारण तनाव, पुरानी खबर को मसालेदार बनाकर प्रस्तुत करने के लिए नये ‘आइडेशन’, प्रतिस्पर्धी संचार माध्यमों से आगे रहने की होड, डेडलाइन का दबाव, सोशल मीडिया के कारण उत्पन्न चुनौतियां, मीडिया मालिक के बिजनेस हित, संपादक की व्यक्तिगत पसंद और नापंसद, न्यूजरूम में लोगों की छंटनी, रिपोर्टर और उपसंपादक पर बढ़ता काम का दबाव, माफिया व असामाजिक तत्वों की धमकियां, आतंकी हमलों, साम्प्रदायिक दंगों और किसी महामारी, प्राकृतिक आपदा, युद्ध आदि के कारण जान का संकट, आदि। संवाददाता ही नहीं, डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों की भी दर्जनों समस्याएं हैं जिनके कारण वे हर समय तनाव में रहते हैं। 
अध्ययन के दौरान यह भी पता चला कि पत्रकार स्वयं भी इस तनाव को कम करने के लिए कुछ तरीके अपनाते हैं। कुछ पान खाते हैं, कुछ सिगरेट और मदिरा का सेवन करते हैं तो कुछ अपने बॉस को गालियां देकर मन हल्का कर लेते हैं। कुछ आपस में अपनी समस्याओं पर चर्चा करते हैं। अध्ययन में पता चला कि पत्रकारों की कार्यदशाएं इतनी अधिक बिगड़ रही हैं कि उनके पास स्वयं का इलाज कराने का भी समय नहीं है। अपने परिवार और रिश्तेदारों की बीमारी का इलाज कराना तो दूर की बात है। कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि यदि रिश्तेदारी, पास-पड़ोस आदि में कहीं कोई मृत्यु हो जाती है तो संवदेना भी व्हाट्सएप पर ही व्यक्त करनी पड़ती है, क्योंकि व्यक्तिगत मिलने का समय नहीं है। पत्रकारों ने यह भी बताया कि नयी डिजिटल तकनीक भी किसी न किसी प्रकार से तनाव की बढ़ोतरी का कारण बनती जा रही है। ऑनलाइन पोर्टलों में एक नये तरीके की समस्या सामने आ रही है। पत्रकार पहले तो मसालेदार खबर लाए और फिर पोर्टल पर अपलोड होने के बाद उस पर अधिक से अधिक लाइक और शेयर भी सुनिश्चित करे। कुछ लोगों का तो मानधन भी इस पैटर्न पर ही निर्धारित होने लगा है। 
जून 2014 से लेकर अप्रैल 2017 तक मैंने यह अध्ययन दो चरणों में किया। अंतिम चरण में 169 पत्रकारों के सैंपल पर अध्ययन किया गया। अप्रैल 2017 में पता चला कि न्यूजरूम में काम करने वाले 30 वर्ष से अधिक आयु के 48 प्रतिशत पत्रकार किसी न किसी ऐसी समस्या से ग्रस्त थे जो उनके स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही थी। 26 प्रतिशत हड्डी की समस्या, उच्च रक्तचाप और मधुमेह से ग्रस्त थे, 27 प्रतिशत को आंख संबंधी शिकायत थी, 76 प्रतिशत कभी भी समय पर भोजन नहीं कर पाते थे। 78 प्रतिशत 12 घंटे से अधिक समय तक काम करते थे। 67 प्रतिशत ने कहा कि उनके पास स्वयं का भी इलाज कराने का समय नहीं था। 82 प्रतिशत नौकरी की गांरटी न होने के कारण चिंतित थे। इस सम्पूर्ण शोध पर आधारित मेरी पुस्तक ‘द फ्यूचर न्यूजरूम’ इसी साल जनवरी में प्रकाशित हुई है।
भारतीय मीडिया संस्थानों में भले ही तनाव को बडी चुनौती के रूप में न लिया गया हो, परन्तु अमेरिका जैसे देशों में इसे अनेक बीमारियों का प्रमुख कारण मानकर इसके निदान के लिए प्रयास 2012 के आसपास ही प्रारंभ हो गये थे। उसके बाद वहां अनेक मीडिया संस्थानों में इसकी गहरायी मापने के लिए शोध भी हुए। वर्ष 2012 में लेविसन जांच आयोग ने ‘द न्यूज ऑॅफ द वर्ल्ड’ के न्यूजरूम में काम करने वाले पत्रकारों में बढते तनाव का जिक्र किया था। इसे गंभीरता से लेते हुए ‘द हफिंगटन पोस्ट ने मई 2015 में पांच लेखों की एक श्रृंखला में इस मुद्दे को उठाया। उस स्टोरी में विस्तार से बताया गया कि पत्रकारों को भी यह नहीं मालूम कि जिन बीमारियों के वे शिकार होते जा रहे हैं उसका असली कारण तनाव है। उससे सबक लेते हुए न्यूयार्क की बिजनेस और तकनीकी न्यूज वेबसाइट ‘द बिजनेस इनसाइडर’ ने अपने कर्मचारियों को खुश रखने के लिए विशेष प्रयास करने प्रारंभ किये। उसके परिणामस्वरूप एक साल में ही कंपनी छोड़कर जाने वाले कर्मचारियों की संख्या में कमी आ गयी। अमेरिका के ‘द टाकिंग प्वाइंटस मेमो’ ने अपने ऑफिस में ‘नेप रूम’ बना दिये, जहां कोई भी कर्मचारी जब चाहे कुछ समय तक सो सकता है। इस आइडिया का शुरू में कंपनी प्रबंधन में कुछ लोगों ने विरोध किया, परन्तु छह महीने बाद ही पता चला कि ‘नेप रूम’ का इस्तेमाल करने वाले कर्मचारियों की ‘क्रिएटीविटी’ पहले की अपेक्षा बढ गयी। ‘फोर्ब्स’ ने भी अपने कर्मचारियों को 2015 में 100 डालर अतिरिक्त देने प्रारंभ कर दिये ताकि वे अपनी मनपसंद चीजें खा सकें। उसने भी ऑफिस में ‘नेप रूम’ बनाये, जिसका प्रयोग संपादक से लेकर सामान्य पत्रकार तक करते हैं। चूंकि लाभदायक सिद्ध हुआ इसलिए यह अभी भी जारी है।
भारत के मीडिया संस्थानों में पत्रकारों को तनावमुक्त रखने के लिए इस प्रकार के प्रयोगों पर चर्चा करने के लिए भी लोग तैयार नहीं हैं। यहां तो यह चर्चा प्रमुखता से होती है कि जो सुविधाएं पत्रकारों को दी जा रही हैं उनमें कटौती कैसे हो सकती है। कटौती को प्रबंधन अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाता है। हकीकत यह है कि भारतीय मीडिया न्यूजरूम में तनाव एक गंभीर समस्या बन चुका है और इस पर प्रभावी रोक लगाने के लिए सभी मीडिया संस्थानों में गंभीर और ईमानदार प्रयास किये जाने की जरूरत है। वास्तव में तो तनाव पत्रकारिता जगत की अनिवार्य बुराई है इसलिये नवोदित पत्रकारों को भी तनाव को झेलने और उस पर जीत हासिल करने का प्रशिक्षण मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों से ही दिया जाना चाहिए। अपने अध्ययन में मैंने पाया कि ’पीटीआई’ जैसी न्यूज एजेंसी में अनेक युवा पत्रकारों ने तनाव को झेल न पाने के कारण पत्रकारिता ही छोड़ दी। यदि यह ट्रेंड जारी रहा तो मीडिया की तरफ प्रतिभा आकर्षित नहीं होगी। वैसे भी ‘कैरियर कास्ट’ वेबसाइट ने पत्रकारिता की नौकरी को ‘वर्स्ट जॉब लिस्ट’ में रखा है, जिसमें वृद्धि दर तेजी से घट रही है। 2015 में वेबसाइट ने दावा किया था कि आने वाले सात वर्षों में रिपोर्टर की नौकरी में 13 प्रतिशत की गिरावट होगी। भारतीय मीडिया में यह स्थिति बनती नजर आ रही है। इसलिए अविलम्ब मीडिया संस्थानों, सरकारों, पत्रकार संगठनों आदि सभी को ठोस कदम उठाने होंगे। पत्रकारों को तनाव से जूझने के गुर सीखने होंगे। आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है। समस्या से पार पाने के तरीके खोजने होंगे। 
 

फेक न्यूज का कारोबार

24 मार्च, 2020 को सरकार ने देशभर में लॉकडाउन लागू किया। मीडिया के माध्यम से अफवाहों का खेल उसी समय शुरू हो गया था। सोशल मीडिया में जहां तमाम तरह के दावे किये जाने लगे, वहीं टेलीविजन और प्रिंट मीडिया में बरती गयी असावधानी के कारण स्थिति बेकाबू हो गयी। व्हाट्सएप के माध्यम से फैलायी गयी अफवाहों के कारण नई दिल्ली के आनन्द विहार बस अड्डे पर 28 मार्च, 2020 को अचानक हजारों मजदूर पहुंच गये। वे इस गफलत में पहुंचे कि वहां से उन्हें अपने-अपने राज्य में जाने के लिए बसें मिल रही हैं। इन अफवाहों को फैलाने में आम आदमी पार्टी के कुछ नेताओं के नाम सामने आए। लॉकडाउन के दौरान हजारों लोगों के अचानक बस अड्डे पर पहुंच जाने के कारण दिल्ली पुलिस और उत्तर प्रदेश सरकार के हाथ-पांव फूल गये। जैसे-तैसे उत्तर प्रदेश सरकार ने बसों का इंतजाम करके मजदूरों को उनके गांव तक पहुंचाने का काम किया। उससे अफवाहों का बाजार अन्य राज्यों में भी गर्म हुआ और अलग-अलग स्थानों से हजारों मजदूर पैदल ही अपने अपने गांव की तरफ जाने लगे। उन्हें लेकर मीडिया ने सरकारों पर निशाने दागने प्रारंभ किये। परिणामस्वरूप, केन्द्र सरकार को श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलानी पड़ीं। उससे पहले अफवाहों के कारण 19 मई को अचानक हजारों मजदूर मुम्बई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर पहुंच गये। जिस प्रकार दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता अफवाहें फैलाने में शामिल थे उसी प्रकार खबरें आई कि मुम्बई में शिव सेना के ही कुछ लोग एक न्यूज चैनल की मदद से अफवाहें फैलाने में शामिल पाये गये।

चूंकि देशभर में तब्लीगी जमात के लोगों द्वारा कोरोना फैलाने की खबरें जोर पकड़ रही थीं, इसलिए पंजाब में 1 मई, 2020 को अफवाह फैली कि हजूर साहेब नांदेड से आए हजारों श्रद्धालु कोरोना पॉजिटिव पाये गये। कुछ श्रद्धालुओं के क्वारंटाइन सेंटरों से भाग जाने की भी खबरें आई। बाद में पता चला कि पंजाब सरकार के ही कुछ लोग इस प्रकार की झूठी खबरें फैलाकर अकाली नेताओं पर निशाना दाग रहे थे। 12 अप्रैल, 2020 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले में स्थित जहांगीराबाद गांव से बहुत ही चैंकाने वाली खबर आई। दावा किया गया कि एक महिला ने अपने पांच बच्चों को गंगा नदी में इसलिए फेंक दिया क्योंकि उसके पास उन्हें खिलाने के लिए भोजन नहीं था। प्रशांत भूषण, पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे बड़े नाम भी इस अफवाह को फैलाने में शामिल हो गये। बाद में पता चला कि महिला के घर में पर्याप्त भोजन था और उसने अपने पति से झगडे़ के बाद ऐसा कदम उठाया।

अप्रैल में फेसबुक पर एक छोटी बच्ची का फोटो वायरल हुआ। बच्ची के हाथ में पोस्टर था जिस पर लिखा था कि बच्ची कोरोना वायरस से संक्रमित है। बाद में पता चला कि वायरल हो रही फोटो काफी पुरानी थी और बच्ची को कोविड संक्रमण नहीं कैंसर था। अप्रैल में ही एक पोस्ट व्हॉट्सएप पर तेजी से वायरल हुई, जिसमें दावा किया गया कि भारत में लॉकडाउन विश्व स्वास्थ्य संगठन के लॉकडाउन प्रोटोकॉल के मुताबिक की गई है। मेसेज में कहा गया कि 20 अप्रैल से 18 मई के बीच तीसरा चरण लागू होगा। मैसेज में यह भी दावा किया गया कि डब्ल्यूएचओ ने लॉकडाउन की अवधि को चार चरणों में बांटा है। वास्तव में चार चरणों में लॉकडाउन की बात झूठी थी और यह सिर्फ लोगों में भय पैदा करने के इरादे से फैलाई गई थी। डब्ल्यूएचओ के साथ ही भारत सरकार ने भी इस मेसेज को झूठा करार दिया। उसी दौरान व्हॉट्सएप पर एक और मेसेज वायरल हुआ जिसमें दावा किया गया कि व्हॉट्सएप ग्रुप में कोरोना वायरस को लेकर कोई मजाक या जोक साझा किया गया तो कानूनी कार्रवाई की जाएगी। मैसेज में दावा किया कि मजाक या जोक साझा करने पर ग्रुप एडमिन के खिलाफ धारा 68, 140 और 188 के उल्लंघन की ही तरह कार्रवाई की जाएगी। भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) ने उसे बाद में फर्जी करार दिया।

लॉकडाउन के दौरान इटली के एक शहर की तस्वीर में ढेर सारी लाशें फैली होने का दावा करते हुए कहा गया कि कोराना के कारण इटली में भारी तबाही हो चुकी है। बाद में पता चला कि वह तस्वीर दरअसल हॉलीवुड फिल्म ‘कांटेजिनअन’ का एक दृश्य था। एक और तस्वीर वायरल हुई जिसमें जमीन पर पडे़ लोग मदद के लिए चिल्ला रहे थे। वह तस्वीर 2014 के एक आर्ट प्रोजेक्ट की थी। खबर यह भी आई कि लॉकडाउन के दौरान 498 रूपये का जियो कनेक्शन निशुल्क मिल रहा है। वह संदेश भी पूरी तरह झूठ था। एक पोस्ट में दावा किया गया कि डा. रमेश गुप्ता नाम के एक लेखक ने जंतु विज्ञान पर लिखी पुस्तक में कोरोना का इलाज होने का दावा किया। वह दावा भी पूरी तरह झूठ पाया गया। हरियाणा के गुडगांव स्थित मेदांता अस्पताल के डा. नरेश त्रेहन की ओर से दावा किया कि उन्होंने देश में आपातकाल लागू करने की अपील की है। परन्तु बाद में डा. त्रेहन ने स्वयं कहा कि उन्होंने इस प्रकार की कभी अपील नहीं की। एक पोस्ट में दावा किया गया कि कोरोना की दवा खोज ली गयी है। बाद में पता चला कि जिस पैकेट को दवा के रूप में बताया गया, वह दरअसल कोरोना जांचने की किट का पैकेट था। कुछ लोगों ने यह भी दावा किया कि कोरोना वायरस का जीवनकाल 12 घंटे होता है। जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि अभी तक स्पष्ट रूप से ऐसी कोई जानकारी नहीं आई है कि यह वायरस किसी सतह पर कितनी देर जिंदा रहता है। एक और झूठी खबर फैलायी गयी कि अस्पतालों में हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग बिस्तर तैयार किये जा रहे हैं। एक खबर भी चलायी गयी कि एक पूरा अस्पताल ही कोरोना संक्रमित हो गया है।

ऐसी खबरों की सूची बहुत लंबी है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय ने फेक न्यूज की जांच के लिए एक स्पेशल ‘फैक्टचैक’ यूनिट बनायी, जिसमें अखबार, टेलीविजन और सोशल मीडिया पर चल रही फेक न्यूज की जांच करके एक घंटे के अंदर सही जानकारी प्रसारित की जाएगी। यह प्रयोग काफी सफल रहा और पीआईबी की इस यूनिट ने सैंकडों की संख्या में ‘फेक न्यूज’ की सत्यता को परखकर लोगों को सही जानकारी दी। इसी दौरान फेसबुक ने भी फर्जी खबरों को फैलने से रोकने के लिए कुछ कदम उठाए। व्हॉट्सएप ने 7 अप्रैल को मैसेज फॉरवडिंग को सीमित कर दिया। ट्विटर ने फेक न्यूज पर 11 मई से रोक लगाना शुरू कर दिया। इन सब कदमों के बावजूद ‘फेक न्यूज’ ने मीडिया की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न खडे़ कर दिये।

‘फेक न्यूज’ पर टिप्पणी करते हुए केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहाः ‘‘यह विकृत मानसिकता और गंदी सोच का प्रतीक है। हताशा और निराशा की इतनी हद हो गयी कि लोकतंत्र में जो लोग मत से नहीं जीत सकते वे अफवाहें फैलाकर देशवासियों को संकट में डालना चाहते हैं। फेक न्यूज प्रेस की आजादी नहीं है।’’ देश में एक लाख से अधिक अखबार, 800 से अधिक न्यूज चैनल और लाखों वेबसाइट हैं। इसके अलावा देश की अधिसंख्य आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। ‘फेक न्यूज’ इन सभी माध्यमों पर पल भर में घूम जाती है। जब तक सरकारी एजेंसियां सतर्क होती हैं तब तक ऐसी खबरें पूरे विश्व में घूम चुकी होती हैं।

‘फेक न्यूज’ पर टिप्पणी करते हुए भारतीय.जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी कहते हैं, ‘‘मीडिया में जो ‘फेक न्यूज’ आ रही है उसके पीछे गैर-पत्रकारीय शक्तियां हैं। मीडिया के आवरण में दूसरे लोग इसके पीछे हैं। मीडिया में आज एक्टिविस्ट बहुत सक्रिय हुए हैं जिनका उद्देश्य पत्रकारिता नहीं, दूसरा ही कुछ होता है। इसीलिए न्यूज चैनल्स ‘व्यूज चैनल्स’ में तब्दील हो गये हैं। यह चिंता की बात है। प्रभाष जोशी कहा करते थे कि पत्रकार की ‘पॉलिटिकल लाइन’ तो हो सकती है परन्तु ‘पार्टी लाइन’ नहीं होनी चाहिए। आज कोरोना काल में मीडिया में प्रकट पक्षधरता दिख रही है। संपादकों और मीडिया मालिकों को यह तय करना पडे़गा कि मीडिया के पवित्र मंच का इस्तेमाल भावनाओं को भडकाने और राजनीतिक दुरभिसंधियों के लिए नहीं होने देना चाहिए। जिन्हें ‘एक्टिविजम’ करना है वे पत्रकारिता को नमस्कार कर दें। मीडिया का काम सत्यान्वेषण है, ‘नैरेटिव सैट’ करना नहीं। फेक न्यूज के बढ़ते उद्योग के विरुद्ध मीडिया के लोगों को ही खड़ा होना पडे़गा। अफवाहों के कारण अपनी अपार लोकप्रियता के बावजूद सोशल मीडिया भरोसा हासिल करने में विफल रहा है। इसी कारण लोग भ्रमित हैं। इसलिए आज ऐसा तंत्र खड़ा करने की जरूरत है जहां सूचनाओं का खर्च समाज उठाना शुरू करे। समाज पर आधारित मीडिया अधिक स्वतंत्र और ताकतवर होगा। मीडिया की प्रामाणिकता पर उठते सवाल बहुत चिंता की बात है।’’

सही सूचनाओं का आरोग्य सेतु

कोरोना संकट के समय आरोग्य सेतु ऐप ने शासन-प्रशासन से लेकर आमजन के मध्य संवाद के महत्वपूर्ण सेतु खड़े किए हैं। इसी ऐप के जरिए सरकार को सही समय पर करीब साढ़े छह सौ हॉट-स्पॉट्स की सटीक जानकारी मिली। समय रहते संभावित संकट की सटीक सूचना पाकर सरकार ने आवश्यक कदम उठा लिए और उसी का नतीजा है कि भारत ने कोरोना को अपने यहां अब तक बे-लगाम नहीं होने दिया। भारत अब भी अमेरिका, इटली, स्पेन, चीन, ब्रिटेन, रूस और ब्राजील जैसे संसाधन संपन्न देशों की अपेक्षा कोरोना के खिलाफ ज्यादा कारगर ढंग से लड़ाई लड़ पाया है। इस प्रकार सही समय पर सरकार और लोगों में आवश्यक सूचनाएं पहुंचाकर आरोग्य सेतु ऐप ने कोरोना के खिलाफ लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

भारत सरकार ने कोरोना संक्रमितों को ट्रैक करने के लिए अप्रैल की शुरुआत में आरोग्य सेतु मोबाइल ऐप को लॉन्च किया था। लॉन्च होने के कुछ ही दिन में इस ऐप ने सबसे ज्यादा डाउनलोड होने का मुकाम हासिल किया था। 12 मई तक इस ऐप को 10 करोड़ स्मार्टफोन उपभोक्ता डाउनलोड कर चुके थे। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने दावा किया है कि कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव संबंधी जानकारी देने के लिए सरकार द्वारा जारी आरोग्य सेतु ऐप दुनिया में सबसे अधिक डाउनलोड होने वाला स्वास्थ्य सेवा ऐप बन गया है। इसकी लोकप्रियता और कार्यप्रणाली से प्रभावित होकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी जल्द ही आरोग्य सेतु जैसा ऐप लॉन्च करने की बात कही थी, जिसमें वो सारी तकनीकी खासियतें होंगी, जो आरोग्य सेतु में हैं। भारत के अलावा फिलहाल ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम अपना खुद का वायरस को ट्रेक करने वाला ऐप लॉन्च कर चुके हैं।

इस तरह भारत सरकार ने कोरोना के खिलाफ अपनी अब तक की लड़ाई में जो सबसे कारगर कदम उठाए हैं, उनमें आरोग्य सेतु ऐप भी शामिल है। इस ऐप के प्रति लोगों में अविश्वास की भावना पैदा न हो, इसके लिए केंद्रीय संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आरोग्य सेतु ऐप को निजी ऑपरेटर को आउटसोर्स किए जाने को खारिज करते हुए कहा कि इसमें डाटा सुरक्षा की ठोस व्यवस्था है। केंद्रीय मंत्री ने अपने ट्वीट में कहा कि इस ऐप की दुनिया भर में सराहना की जा रही है जिसे सरकार ने कोरोना वायरस से लड़ाई में एक महत्वपूर्ण हथियार बताया है।

समस्या ही नहीं समाधान की बात भी करे मीडियाः के.जी. सुरेश

वरिष्ठ पत्रकार एवं भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली, के पूर्व महानिदेशक प्रो. के.जी. सुरेश ने कहा कि अब पत्रकारिता सिर्फ समस्या ही नहीं, बल्कि समाधान की भी बात करे। दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन (डीजेए) और गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के संयुक्त तत्वावधान में 27 मई, 2020 को अहिंसात्मक संवाद पर आयोजित एक वेबिनार में उन्होंने जोर देकर कहा कि यदि मीडिया में सिर्फ नकारात्मक दृष्टि पर ही ध्यान केन्द्रित रहेगा तो वह समाज में रचनात्मक उर्जा का संचार नहीं कर पाएगा। उन्होंने कहा कि समाधान-परक पत्रकारिता को पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया जाए और विशेषज्ञों से बात करके इसका पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए।

 

वेबिनार में उपस्थित दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन और नेशनल यूनियन ऑफ (इंडिया) के पदाधिकारियों ने देशभर में अहिंसात्मक संवाद आयोजित करने का प्रस्ताव रखा। वेबिनार में गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के कार्यक्रम अधिकारी डा. वेदाभ्यास कुंडु, नेशनल यूनियन ऑफ (इंडिया) के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री मनोज मिश्र, कोषाध्यक्ष व आकाशवाणी नई दिल्ली में सलाहकार श्री उमेश चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार एवं बहुचर्चित पुस्तक ‘द फ्यूचर न्यूजरूम’ व ‘आधुनिक भारत के गुमनाम समाज-शिल्पी’ सहित करीब एक दर्जन पुस्तकों के लेखक डा. प्रमोद कुमार, दिल्ली  जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष एव पीटीआई-भाषा के वरिष्ठ पत्रकार श्री मनोहर सिंह, डीजेए के महासचिव तथा ‘जनसत्ता’ के वरिष्ठ पत्रकार श्री अमलेश राजू सहित दिल्ली, चंडीगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित देश के अनेक हिस्सों से 100 से अधिक लोगों ने वेबिनार से जुड़कर अहिंसात्मक संवाद को आगे बढ़ाने पर जोर दिया। वेबिनार का संचालन डीजेए अध्यक्ष श्री मनोहर सिंह ने किया।

 

प्रो. के.जी. सुरेश ने भारतीय जनसंचार की अवधारणा परविस्तार से प्रकाश डाला और बताया कि वेद और उपनिषद काल में संचारकिस प्रकार होता था। उन्होंने कहा कि जनसंचार की भारतीय अवधारणा कभी भी नकारात्मक नहीं रही है , बल्कि इसने रचनात्मक भूमिका निभायी है। उन्होंने जोर देकर कहा कि आज हमें बुद्ध, विवेकानन्द और महात्मा गांधी सहित भारतीय महापुरूषों के संचार मॉडल को अपनाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि मीडिया की भूमिका सिर्फ सूचना प्रदान करना नहीं, बल्कि लोगों को सुशिक्षित करना भी है।

 

चर्चा की शुरूआत करते हुए डा. वेदाभ्यास कुंडु ने अहिंसात्मक संवाद के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला और महात्माबुद्ध के सह-अस्तित्व तथा करूणा के सिद्धांतों की चर्चा की। महात्मा गांधी को अहिंसात्मक संवाद का सबसे बड़ा प्रस्तोता बताते हुए उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी ने अंग्रेजों के साथ संवाद के सभी मार्ग सदैव खुले रखे। उन्होंने कहा कि गांधी जी के अहिंसात्मक संवाद को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए।

 

श्री मनोज मिश्र ने चंपारण में महात्मा गांधी द्वारा अहिंसात्मक ढंग से किये गये आंदोलन का जिक्र करते हुए कहा कि किसानों और अंग्रेज अधिकारियों से बात करते हुए उन्होंने कभी भी हिंसा का सहारा नहीं लिया और न ही कभी लोगों को कानून हाथ में लेने के लिए उकसाया। उन्होंने कहा कि मीडिया की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। वह मामले को भड़का भी सकती है और तनाव को समाप्त भी कर सकती है।

 

विभिन्न टेलीविजन समाचार चैनलों में प्रसारित समाचारों में जारी ‘तमाशा संस्कृति’ का जिक्र करते हुए  श्री उमेश चतुर्वेदी ने कहा कि इस समय कोविड-19 संकट के दौरान प्रवासी मजदूरों की समस्या का शांतिपूर्वक ढंग से समाधान निकल सकता था, परन्तु टेलीविजन मीडिया ने अफवाहों को फैलने में मदद की और लोगों को सही जानकारी न देकर भ्रम को और बढ़ाया।

 

सुप्रसिद्ध लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार डा. प्रमोद कुमार ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय और महात्मा गांधी का जिक्र करते हुए विस्तार से बताया कि दोनों ही महापुरूष मीडिया की रचनात्मक भूमिका को लेकरकितने सजग थे और उन्होंने किस प्रकार मीडिया के माध्यम से समाज के रचनात्मक पक्ष को उजागर करने में सक्रिय भूमिका निभायी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जिक्र करते हुए उन्होंने मीडिया में भाषा की मर्यादा का ध्यान रखने की जरूरत पर भी जोर दिया। इसके अलावा उन्होंने कहा कि समाज के रचनात्मक पक्ष को उजागर करने, अंहिंसात्मक संवाद को बढ़ावा देने और मीडिया में भाषा की मर्यादा जैसे विषयों को मीडिया पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाए ताकि भावी पत्रकार प्रारंभ से ही इन गुणों से युक्त होकर मीडिया में प्रवेश करें।

 

चर्चा में मधेपुरा बिहार से गांधी ज्ञान मंदिर के वरिष्ठ गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता श्री दीना नाथ प्रबोध सहित नेशनल यूनियन ऑफ (इंडिया) के महासचिव श्री सुरेश शर्मा, एनयूजे स्कूल के अध्यक्ष श्री अशोक मलिक सहित अनेक पत्रकारों ने भाग लिया।

 

सोशल मीडिया पर राजनीतिक फैक्ट चेक

एक रोड शो के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को एक व्यक्ति थप्पड़ मार देता है। उनकी पार्टी इसे विरोधी दलों का षड्यंत्र बताती है और थप्पड़ मारने वाले व्यक्ति को दूसरे दल का कार्यकर्ता घोषित कर देती है। मामला आगे बढ़ता इससे पहले ही सोशल मीडिया पर उस व्यक्ति की छान-बीन शुरू हो जाती है और जो सच हाथ लगता है कि उससे एक प्रोपेगैंडा फैलने से पहले ही ध्वस्त हो जाता है। थोड़ी सी छानबीन के बाद यह पता चल जाता है कि वह व्यक्ति ‘आप’ से ही जुड़ा हुआ है और उसके कार्यक्रमों में शिरकत करता रहा है। सोशल मीडिया के ‘फैक्ट-चेक’ के कारण राजनीति को अपना रास्ता सुधारने का यह एक उदाहरण है।
इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ महागठबंधन ने बीएसएफ से बर्खास्त जवान तेजबहादुर यादव को उम्मीदवार बनाने की घोषणा कर बहुतों को आश्चर्य में डाल दिया। यह तर्क गढ़ने की कोशिश की गई कि सरकार सैन्य बलों की वास्तविक मांगों को अनसुना कर देती है और जो सही मुद्दे उठाता है, उसके खिलाफ तानाशाही रवैया और असहिष्णुतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाती है। तेजबहादुर यादव के जरिए राष्ट्रवाद, असहिष्णुता और अधिनायकवाद के त्रिकोण में प्रधानमंत्री को घेरने की योजना थी।
विपक्ष का एजेंडा आगे बढ़ता इससे पहले ही सोशल मीडिया के ‘फैक्ट-चेक’ ने उसकी हवा निकाल दी। पहले यह खबर आई कि तेजबहादुर यादव की फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हैं। रही-सही कसर उस वायरल वीडियो ने पूरी कर दी जिसमे तेजबहादुर यादव 50 करोड़ रूपए के एवज में प्रधानमंत्री की हत्या करवाने की बात कर रहे होते हैं। हिजबुल आतंकियों के साथ अपने संबंध होने की धौंस जमा रहा है, इसके आगे की कहानी बताने की जरूरत नहीं है।
इसी तरह चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री की एक वीडियो क्लिप वायरल करने की कोशिश की गई, जिसमें वह यह कहते हुए सुनाई पड़ रहे हैं कि ‘मैं पठान का बच्चा हूं’। उन्होंने यह बात इमरान खान को उद्धृत करते हुए कही थी। लेकिन वीडियो सुनने के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे प्रधानमंत्री स्वयं को ही, पठान का बच्चा कह रहे हैं। इस वीडियो की भी पोल खुलते देर नही लगी।
ये कुछ उदाहरण भर है, जो यह दर्शाते हैं कि चुनावी मौसम में सोशल मीडिया के कारण किस कदर राजनीतिक प्रोपेगैंडा पर रोक लगी है और उसे और राजनीतिक-प्रक्रिया को ट्रैक पर रखने की मदद मिली है। अभी तक सोशल मीडिया की प्रायः इसी संदर्भ मे चर्चा होती रही है कि यह झूठ को फैलाने का साधन बन गया है। सोशल मीडिया पर जिसके मन में जो आता है, वही लिख देता है और लोग बिना सच की पड़ताल किए पोस्ट्स को लाइक-शेयर करते रहते हैं।
कुल-मिलाकर सोशल मीडिया को झूठ का मंच साबित करने की पुरजोर कोशिश होती है, लेकिन इसी बीच चुनावी मौसम के दौरान सोशल मीडिया के फैक्ट चेक वाले रूप ने यह साबित कर दिया कि सोशल-मीडिया प्रोपेगैंडा-पॉलिटिक्स को लगभग नामुमकिन बना दिया है। झूठ की राजनीति न तो अब राजनेताओं के लिए संभव रह गई है और न ही पत्रकारों के लिए। चंद मिनटों में ही झूठ की राजनीति और झूठ की पत्रकारिता का किला सोशल मीडिया पर सक्रिय जंगजू फतह कर लेते हैं।
कारण यह है कि सोशल मीडिया ने प्रत्येक व्यक्ति को जुबान दे दी है। अब एक सामान्य सा आदमी भी बड़े से बड़े राजनेता अथवा पत्रकार द्वारा चलाए गए ‘विमर्श’ में न केवल हस्तक्षेप कर सकता है, बल्कि झूठ-सच की तरफ उसका ध्यान भी आकृष्ट करा सकता है। सच के लिए शाबाशी दे सकता है। झूठ के लिए झिड़की लगा सकता है।
आम आदमी को सोशल मीडिया ‘अभिव्यक्ति का नया आकाश’ दिया है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से जो हो-हल्ला मचा है, उसका कारण यह नही कि किसी की स्वतंत्रता छीनी गई है, बल्कि इसके पीछे टीस यह है कि अब हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक मंच मिल गया है। वह किसी से भी प्रश्न पूछ सकता है। इस नई परिघटना के कारण राजनीति और पत्रकारिता ने दशकों से चली आ रही मठाधीशी ढह गई है और मठाधीश बेचैन हो गए हैं।
सोशल मीडिया के कारण जो ‘फैक्ट चेक मैकेनिज्म’ उभरा है, उससे झूठ की सियासत पर विराम लगने की संभावनाए भी बलवती हुई है। 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों को अलग-अलग नजरिए से विश्लेषित किया ही जाएगा। इन सब विश्लेषणों के बीच देखने योग्य एक रोचक बात यह होगी कि सोशल मीडिया के कारण विकसित हुआ फैक्ट चेक मेकैनिज्म चुनावी दृष्टि से कितना कारगर हुआ है।

इंटरनेट पर नए जुड़ने वाले 90 फीसदी पाठक हिंदी के, सिमट रही अंग्रेजी

इंटरनेट पर भाषा के विकास की बात करें तो गूगल की स्टडी बताती है कि 2015 से 2018 के दौरान भारत में 4 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़े हैं। इनमें से 90 फीसदी यूजर ऐसे हैं, जो हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के हैं। गूगल इंडिया की सीनियर प्रोडक्ट मैनेजर निधि गुप्ता के मुताबिक 2015-16 में हिंदी भाषा के पाठकों में 90 फीसदी का इजाफा हुआ है, जबकि अंग्रेजी के पाठक 19 फीसदी ही बढ़े हैं। यही नहीं गूगल के सभी प्रोडक्ट प्लेटफॉर्म्स पर अंग्रेजी के बाद हिंदी दूसरे नंबर की भाषा है। वह कहती हैं कि अभी गूगल इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं के यूजर्स के लिए सेवाओं, सामग्री और उत्पादों की कमी है। गूगल ने भारतीय भाषाओं के लोगों की बढ़ती मांग को समझा है और जल्दी ही इसमें विस्तार किया जाएगा।

न्यू मीडिया के जानकारों के अनुसार इंटरनेट और फिर स्मार्टफोन के आने के बाद अंग्रेजी का पाठक वर्ग सबसे पहले इस माध्यम से जुड़ा। वजह यह थी कि भारत में अंग्रेजी एलीट वर्ग की भाषा थी और उसकी एक सीमा तक जो ग्रोथ होनी थी, सबसे पहले ही हुई। अब अंग्रेजी के पाठक वर्ग के तौर पर जुड़ने वाले लोग वे ही हैं, जो ऐसे परिवारों की नई पीढ़ी हैं या फिर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त युवा हैं।

कोरोना से मीडिया संस्थान बेहाल, उनकी ही बनाई खबरों से गूगल की चांदी

भले ही दुनिया भर में कोरोना के चलते कारोबार संकट में है और मीडिया संस्थान भी दबाव की स्थिति झेल रहे हैं। इस बीच भी सर्च इंजन गूगल की पैरेंट कंपनी अल्फाबेट ने मोटा मुनाफा कमाया है। 2020 की पहली तिमाही में गूगल के रेवेन्यू में 13 पर्सेंट का इजाफा हुआ है और यह 41.2 अरब डॉलर तक पहुंच गया। भले ही बीते 5 सालों में गूगल के रेवेन्यू की सबसे कमजोर ग्रोथ है, लेकिन दुनिया भर में अन्य उद्योगों के मुकाबले कहीं सुंदर तस्वीर है। कंपनी का ऑपरेटिंग प्रॉफिट 8 अरब डॉलर रहा है। दिलचस्प बात यह है कि गूगल की इस कमाई में न्यूज का भी बड़ा हिस्सा रहा है, जिसे वह खुद जनरेट नहीं करता है, लेकिन तमाम मीडिया घरानों की ओर से तैयार खबरों पर उसे यह कमाई हुई है।

बता दें कि फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया में सरकारों ने गूगल को आदेश दिया है कि वह समाचारों से होने वाली कमाई को मीडिया संस्थानों के साथ भी साझा करे। हालांकि गूगल की ओर से अब तक इस पर कोई जवाब नहीं दिया गया है, लेकिन अकसर मीडिया संस्थानों की ओर से इस बात को लेकर चिंता जताई जाती रही है कि आखिर उनकी मेहनत पर होने वाली कमाई अकेले गूगल के हिस्से ही क्यों लगती है? यदि फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया में गूगल की ओर सरकार के फैसले को मान लिया जाता है तो यह दुनिया में डिजिटल मीडिया के रेवेन्यू सिस्टम में एक बड़े बदलाव की शुरुआत होगा।