पंचायतों को लेकर मीडिया अक्सर भ्रष्टाचार, सरपंच की हत्या, मारपीट व रेप जैसी खबरों का ही प्रसारण करता है, जबकि पंचायती राज से समाज में कुछ सकारात्मक बदलाव भी आए हैं। पत्रकारिता के वर्तमान दौर को लेकर पंचायती राज के संपादक श्रीपाल जैन से बातचीत के कुछ अंश:
-पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?
उदयपुर से जब मैं पीएचडी कर रहा था तो मैं दैनिक हिन्दुस्तान, दिनमान, धर्मयुग जैसे अखबारों में लिखता रहता था। 1981 में मैंने हिन्दुस्तान में उप संपादक के पद पर कार्यभार संभाला। उस समय मुझे पत्रकारिता व लैक्चरर में से किसी एक विकल्प को चुनना था। दिल्ली का एक आकर्षण होने के कारण मैंने पत्रकारिता को चुना। हिन्दुस्तान में मैंने सहायक संपादक और वरिष्ठ सहायक संपादक के पद पर कार्य किया। वर्ष 2008 में मैंने पंचायती राज पत्रिका में संपादक का पद संभाला।
-पत्रकारिता के दौरान आपके क्या रोचक अनुभव रहे?
पत्रकारिता के दौरान मेरे दो रोचक अनुभव रहे। शेख अब्दुल्ला जब बीमार चल रहे थे तो हिन्दुस्तान के संपादकीय पृष्ठ पर उनके उत्तराधिकारी को लेकर एक लेख जा रहा था। रात 1 बजे के करीब खबर आई कि उनका निधन हो गया। उस समय कई संस्करण जा चुके थे लेकिन दिल्ली के लिए जो संस्करण जा रहा था उसमें मैंने उस लेख को थोड़ा सा बदल दिया। उसके अगले दिन मुझे और मेरे साथियों को सराहना पत्र दिया गया। दूसरा अनुभव था कि एक दिन नाइट शिफ्ट के दौरान राजनीतिक विषय पर एक लीड बनी हुई थी। करीब पौने दो बजे खबर आई कि सलमान रूश्दी के खिलाफ अयातुल्लाह खुमैनी ने मौत का फतवा जारी कर दिया है। मैंने पहली वाली लीड खबर को नीचे करके इस खबर को लीड बना दिया जिसके लिए संपादक ने अगले दिन मेरी सराहना की।
-वर्तमान पत्रकारिता के दौर में आप क्या परिवर्तन देखते हैं?
पत्रकारिता के क्षेत्र में तीन स्तर पर परिवर्तन आए हैं। पहला विषय वस्तु, दूसरा प्रस्तुतीकरण और तीसरा साधनों के स्तर पर परिवर्तन आया है। विषयवस्तु के स्तर पर देखा जाए तो आज बॉलीवुड, ब्यूटी और फैशन का आवश्यकता से अधिक कवरेज बढ़ गया है। इसके अलावा आर्थिक विषयों का भी कवरेज बहुत बढ़ गया है। कभी-कभी तो कंपनियों की तिमाही रिपोर्ट ही पहले पेज पर लगा दी जाती है, विशेषकर अंग्रेजी अखबारों में। इन सबके कारण मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग का कवरेज अधिक बढ़ गया है और निम्न वर्ग जैसे किसान, मजदूर व आम आदमी के मुद्दों को उठाने वाली ग्राम पंचायतों का कवरेज घट गया है। अंग्रेजी अखबारों में तो ग्राम पंचायतों का जिक्र तक नहीं होता। दूसरा साज सज्जा के आधार पर भी परिवर्तन आया है। आज खबरों के साथ हाईलाइटर, आकर्षक चार्ट व मैप देने का चलन बढ़ गया है जो सराहनीय है। लेकिन आज अखबारों में आर्टिस्टों की जगह डिजाइनरों ने ले ली है जिसके कारण कार्टूनिस्ट का पतन हुआ है। खबरों के प्रस्तुतीकरण के आधार पर भी परिवर्तन हुआ है। आज स्टोरी को मुहावरों व दमदार अंदाज में प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन खबरें संक्षिप्तीकरण से ग्रस्त होती जा रही है जिसका कारण विज्ञापन है।
-पंचायती राज से क्या समाज में कुछ परिवर्तन आ रहे हैं?
पंचायती राज से समाज में दो ढंग के परिवर्तन आ रहे हैं। एक तो महिला सशक्तिकरण का सिलसिला बढ़ा है। आज देश के 12 राज्यों में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण है। करीब 30 लाख प्रतिनिधियों में 13-14 लाख महिलाएं हैं। वहीं स्थानीय स्तर पर महिलाओं के राजनीति में आने से राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के द्वार खुलते हैं। दूसरा, 73 और 74 संवैधानिक सुधार के बाद केन्द्र व राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की राशि सीधा पंचायतों के खातें में जा रही है। पहले यह राशि नौकरशाहों के पास जाती थी। इससे नौकरशाहों का भ्रष्टाचार कम हुआ है लेकिन राजनीतिक भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। कई मामलों में तो यह भी देखा गया है कि नौकरशाह व निर्वाचित प्रतिनिध मिलकर भ्रष्टाचार कर रहे हैं।
-पंचायती राज पर मुख्यधारा की मीडिया का क्या रूख है?
मुख्यधारा की मीडिया पंचायती राज को अधिक कवर ही नहीं करता और स्थानीय मीडिया कवर करता भी है तो वह भ्रष्टाचार, मारपीट, सरपंच की हत्या, सरपंच द्वारा रेप, रिश्वत लेना जैसी खबरें देता है। मीडिया को पंचायती राज के बारे में ज्यादा जानकारी ही नहीं है कि पंचायती राज कार्य कैसे करता है। पंचायतों को लेकर मीडिया के पास अच्छी जानकारी नहीं है।
-प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में से कौन पत्रकारीय मूल्यों को बेहतर तरीके से निभा पा रहा है?
तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो प्रिंट मीडिया ज्यादा विश्वसनीय है। लेकिन दोनों ही मीडिया आंशिक या पूर्ण रूप से एकपक्षीय होते जा रहे हैं। पत्रकारों की राजनेताओं से निकटता होती है। आज पत्रकार इस निकटता का प्रयोग धन कमाने में कर रहा है। पहले यह खाना खिलाने या डायरी देने तक ही सीमित था लेकिन राजनेताओं से निकटता के कारण आज पत्रकार कई काम करा लेता है। इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ रहा है कि कई बार राजनेताओं के खिलाफ खबर छपती भी नहीं है।
-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की रिपोर्टिंग के बारे में आपका क्या मत है? क्या आप इससे संतुष्ट हैं?
अखबारों में अंतर्राष्ट्रीय समाचारों का कवरेज घटा है और इसके स्पष्ट कारण है। एक तो जबसे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का उदय हुआ है, राजनीतिक उथल-पुथल ज्यादा होती रही है। इस उथल-पुथल के पीछे की राजनीति और इस उथल-पुथल के कारणों पर पत्रकार टिप्पणी करने लगे हैं। इससे संबंधित खबरें जा रही हैं। वहीं भ्रष्टाचार, रेप, अपराध जैसी खबरें इतनी बढ़ गई है कि अंतर्राष्ट्रीय खबरों का कवरेज कम हो रहा है। दूसरा अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर देखें तो अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर समस्याएं कम हुई है। सोवियत संघ के पराभव के बाद दुनिया बहुध्रुवीय हो गई है। चीन, भारत, ब्राजील जैसे देशों का उदय हो रहा है। आज युद्ध का दायरा भी सिमट गया है। आज युद्ध के मृतकों की संख्या 90 प्रतिशत तक कम हो गई है। इसके कारण भी कवरेज कम हो रहा है।
-आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मध्यपूर्व, अफ्रीका, अमेरिका में जो संघर्ष चल रहे हैं, उसको लेकर क्या भारतीय मीडिया पश्चिमी नजरिए से देखना चाहती है?
यह बात काफी हद तक सही है। हम पहले भी पश्चिमी नजरिए से देखते थे। वामपंथी नजरिए से भी देखने वाले लोग थे, लेकिन उनकी संख्या काफी कम थी। वैश्वीकरण के दौर में हम पश्चिमी देशों के बहुत नजदीक आए। इस कारण हमारा नजरिया पश्चिम के नजरिए से ही देखने का रहा है। हालांकि यह संतुलित नजरिया नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज पश्चिम में ही वैश्वीकरण का विरोध हो रहा है। विश्व बैंक ने भी माना है कि अति उदारीकरण से स्थिति खराब भी हो सकती है।
-आर्थिक पत्रकारिता पर मीडिया का क्या रूख है?
मीडिया का रूख बहुत दुर्भाग्यशाली है। मीडिया में आर्थिक मामलों की समझ रखने वाले बहुत कम लोग हैं। जबकि यह ट्रेनिंग के स्तर पर होना चाहिए। उप संपादकों, पत्रकारों को अर्थव्यवस्था संबंधी अच्छी जानकारी दी जानी चाहिए।
-वर्तमान दौर में राजनीतिक पत्रकारिता पर आपकी क्या राय है?
राजनीति के क्षेत्र में खोजी पत्रकारिता बढ़ी है, लेकिन कई बार खबरें एकपक्षीय होती है। सामान्य तौर पर कहा जाता है कि पत्रकार बिक जाता है और यह सिलसिला निश्चित रूप से ज्यादा ही बढ़ा है। दूसरी ओर राजनीतिक पत्रकारिता को अधिक महत्व देने से दूसरी खबरें घटी है। आम आदमी की चुनौतियों और समस्याओं की खबरें कम जाती है।
-आज मीडिया के संपादकीय पृष्ठ का ढांचा पूरी तरह से बदल गया है। इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?
इसको दो स्तर पर देखा जा सकता है हिन्दी और अंग्रेजी समाचार पत्र। अंग्रेजी समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर अधिकतर लेख विशेषज्ञों और विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों द्वारा लिखे जा रहे हैं। उनकी भाषा शैली ऐसी होती है जिसे आम लोगों को समझने में कठिनाई होती है। हिन्दी में भी यही परंपरा चल रही है कि विशेषज्ञ ही लिखेंगे। वह ज्यादा मेहनत करके नहीं लिखते और अधिकतर अनुवादित ही होता है। यह कार्य इतनी जल्दी होता है कि कई बार वाक्य संरचना में भी गड़बड़ हो जाती है। इस प्रकार भाषा की दृष्टि से वह ऊबऊ होते है और उसका एक सही अर्थ नहीं निकलता। अतः इसके लिए जरूरी नहीं है कि नामी विशेषज्ञों से लिखवाया जाए। थोड़ा छोटे स्तर के लेखकों से भी लिखवाना चाहिए और लेखकों के बीच प्रतिस्पर्धा कायम रखनी चाहिए।
-कई बार नॉन ईश्यूज पर भी लिखा जाता है। इस पर आपकी क्या राय है?
यह भी सही बात है कि कई बार नाॅन ईश्यूज पर लिखा जा रहा है जैसे मसलन जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन एक हकीकत है और एक हाईप भी है। इसी प्रकार एड्स को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि भारत में 50 लाख लोग एचआईवी पोजिटिव है और 10 साल बाद के आंकड़ें 25 लाख बताए गए। इस प्रकार एड्स को लेकर हाइप बना दिया गया। देव आनंद के निधन पर भी यही स्थिति देखने को मिली। निश्चित रूप से वह देश के बड़े कलाकार थे लेकिन उनको लेकर अखबारों के पेज भर दिए गए।
-आमतौर पर कहा जाता है कि मीडिया से आम आदमी के मुद्दें गायब होते जा रहे हैं। क्या आप इससे सहमत हैं?
निश्चित रूप से मीडिया से आम आदमी के मुद्दें गायब होते जा रहे हैं क्योंकि भारत वर्ष में दो चीजें बहुत महंगी हो गई है। पहली शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य। यह गरीबों की पहुंच से बाहर हो गए हैं। वहीं शिक्षा में कैसे माफिया काम कर रहा है, आज तक मीडिया ने इसे हाईलाइट नहीं किया और स्वास्थ्य में कितनी नकली दवाएं आ रही हैं व स्वास्थ्यकर्मी कितने अनुशासन में रहते हैं, इस बारे में भी अधिक कवरेज नहीं होता। जबकि मानव विकास सूचकांक में भारत बहुत पीछे चल रहा है। इसके आधारभूत तत्वों में स्वास्थ्य और शिक्षा भी शामिल है। आज बांग्लादेश हमसे स्वास्थ्य में और श्रीलंका हमसे शिक्षा में आगे बढ़ रहा है।
-मीडिया पर उठ रहे सवालिया निशानों को मद्देनजर रखते हुए क्या मीडिया पर निगरानी आवश्यक है?
मीडिया की निगरानी अति होने पर आवश्यक है। वैसे मीडिया को आत्मनियंत्रक होना चाहिए। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो एक न एक दिन ऐसी स्थिति आ सकती है।
-क्या मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए?
बिल्कुल, मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए। कई बार मीडिया गैर जिम्मेदारपूर्ण आचरण करता है, चाहे वह मालिक के कारण हो, संपादक के कारण हो या किसी लालच में हो।
-आम लोगों की नजरों में मीडिया का स्तर जो गिर गया है, उसके लिए क्या प्रयास किए जाने चाहिए?
इसके लिए तीन स्तरों पर प्रयत्न किए जाने चाहिए। पहला, सरकार और अदालत के स्तर पर प्रयास होना चाहिए। मीडिया में अगर अपमानजनक और गलत खबर छपी तोे उसके लिए मीडिया के संबन्धित व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जाए और उस पर दोषसिद्धि करके सजा दी जाए। यह सजा आर्थिक भी हो सकती है। दूसरा, खुद मीडिया के लोगों को आत्ममंथन करना चाहिए। तीसरे स्तर पर प्रबंधन है। मीडिया के प्रबंधकों को प्रशिक्षण पर ध्यान देने के लिए कदम उठाने चाहिए।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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