22 जून को एक लाइव टीवी डिबेट के दौरान सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद ने भारतीय सूचना-तंत्र पर कटाक्ष करते हुए एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उनके अनुसार सेना और सरकार के आधिकारिक बयान के बारे में भारतीय मीडिया का एक वर्ग संदेह पैदा करना चाहता है। इस वर्ग की तरफ से ऐसे अपुष्ट तथ्य सामने रखे जा रहे हैं, जिनसे राष्ट्रीय हित को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है। पूर्व भारतीय सैन्य अधिकारी ने सवाल उठाते हुए कहा कि देश के बयान को सच न मानकर जिन अपुष्ट तथ्यों और प्रायोजित प्रश्नों को सच के रूप में परोसा जा रहा है, उनका सोर्स पता किया जाना चाहिए। यदि स्रोत की पहचान हो जाए तो भारतीय मीडिया के उस वर्ग की मानसिकता और हितों की आसानी से पहचान की जा सकती है।
स्पष्टतः लेफ्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद ग्लोबल टाइम्स के प्रोपेगेंडा को भारत के आधिकारिक बयान पर तरजीह देने वाले मीडिया के एक वर्ग की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे थे। उन्होंने कहा कि युद्ध जैसी स्थिति में शत्रु के बयान को अधिक वजन देकर भारतीय मीडिया का एक वर्ग क्या साबित करना चाहता है? वह भारतीय मीडिया के उस वर्ग के बारे में अपनी खीझ व्यक्त कर रहे थे, जो 16 जून के बाद ग्लोबल टाइम्स के दृष्टिकोण,तथ्य और बयानों को अंतिम सच मानकर ज्यों का त्यों स्वीकार रहा था।
ऐसी ही एक बहस में हायब्रिड वारफेयर पर विशेषज्ञता रखने वाले लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने राय दी कि गलवान-संघर्ष ने चीन के उस मनोवैज्ञानिक लाभ को ध्वस्त कर दिया है, जो उसने 1962 के युद्ध के बाद हासिल किया था। यह साबित हो गया है कि जमीन पर चीन, भारतीय सेना से बहुत कमजोर है। गलवान का सैन्य महत्व तो है ही, उससे अधिक महत्व मनोवैज्ञानिक है।
इन दोनों टिप्पणियों को केन्द्र में रखकर 16 जून के बाद भारतीय मीडिया के व्यवहार को देखें तो कोई बहुत अच्छी तस्वीर नहीं उभरती। निर्णायक मौकों पर अपने देश, सेना, सरकार को लेकर वह अजीब तरह के हीनताबोध का प्रदर्शन करती है। शल्य वृत्ति उसके भीतर बहुत गहरे तक धंसी हुई है।
भारतीय मीडिया के एक वर्ग की यह प्रवृत्ति हायब्रिड वारफेयर, या फिफ्थ जनरेशन वारफेयर के वर्तमान दौर में देशहित को गंभीर नुकसान पहुंचा रही है। युद्ध की नई शैली सीमा और सैनिकों तक सीमित नहीं है। सूचना-तंत्र और सूचना-प्रवाह इसका अहम हिस्सा हो चुके हैं। इस लिहाज से पत्रकार देश की सुरक्षा की अहम कड़ी बन चुके हैं। सोशल-मीडिया के आने के बाद तो प्रत्येक नागरिक, उसकी सोच और अभिव्यक्ति की भी युद्ध में निश्चित भूमिका तय हो जाती है।
ऐसे में पेशेवर मीडिया से सम्बंध रखने वाले लोग ’मेड इन चाइना वर्जन’ को अधिक तरजीह देकर देश की सुरक्षा और सम्प्रभुता के साथ खिलवाड़ क्यों करना चाहते हैं? इसका रहस्यभेदन करना राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ खुले एक महत्वपूर्ण मोर्चे को फतह करने जैसा है। आखिर क्या कारण है कि अपने ऊल-जलूल शीर्षकों के लिए पहचान बना चुका अंग्रेजी अखबार भारत-चीन संघर्ष के बाद बड़े निर्लज्जतापूर्वक यह शीर्षक लगाता है कि उन्होंने हमें घर में घुसकर मारा। इस शीर्षक से देशवासियों और सेना को क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही थी और इससे किसके हितों की पूर्ति हो रही थी, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है।
क्या कारण है कि ग्लोबल टाइम्स के इस निष्कर्ष को कि चीन में भारतीय प्रधानमंत्री के आधिकारिक बयान की बहुत प्रशंसा हो रही है, हमारे अखबार ज्यो का त्यों प्रकाशित करते हैं? यह जानते हुए कि ग्लोबल टाइम्स की हैसियत चीनी सत्ता-प्रतिष्ठान के प्रोपेगैंडा-मशीन से अधिक कुछ नहीं हैं। यही ग्लोबल टाइम्स पिछले पांच सालों से भारतीय प्रधानमंत्री को अतिराष्ट्रवादी रवैये के लिए कोसता रहा है। उसकी यह स्टोरी प्रधानमंत्री की राष्ट्रवादी और मजबूत निर्णय लेने वाली छवि को नुकसान पहुंचाने के लिए प्लांट की गई थी। भारत का मीडिया उसकी चाल में फंसा, और उसके बाद कुछ राजनीतिक दल भी। यह एक वेल-डिजाइन और वेल-टारगेटेड स्टोरी थी।
ऐसा नहीं है कि ग्लोबल टाइम्स की भारतीय प्रधानमंत्री की मजबूत और निर्णायक छवि को नुकसान पहुंचाने की कोशिश अपने तरह की पहली कोशिश हो। भारत में 2019 में होने वाले आम चुनावों के ठीक पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने यह कहते हुए सबको हैरत में डाल दिया था कि यदि चुनावों में मोदी जीतते हैं तो भारत और पाक के शांति-प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। इससे पहले इमरान खान मोदी को हठी और शांति-प्रक्रिया का दुश्मन बताते रहे हैं। जाहिर है यह बयान मोदी को चुनावों में नुकसान पहुंचाने और उस फर्जी नैरेशन को मजबूत करने के लिए दिया गया था, जिसमें पुलवामा हमलों के लिए मोदी और पाकिस्तान की मिलीभगत का आरोप लगाया गया था। चुनाव समाप्त होने के बाद, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, इमरान खान ने फिर भूलकर भी ऐसा बयान नहीं दिया। स्पष्ट है कि सूचना-संग्राम का अपना आकलन, अपने निशाने और रणनीति होती है, जिसे समग्र परिप्रेक्ष्य में रखे बगैर समझा नहीं जा सकता।
ऐसा नहीं कि भारतीय मीडिया का जो वर्ग चायनीज वर्जन को अंतिम मानकर परोस रहा है, उसे मीडिया के जरिए लड़ी जाने लड़ाई और उसके तौर-तरीकों का पता न हो। इनमें से अधिकांश कई दशकों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं, इसलिए उनकी समझ पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। फिर दो ही संभावनाएं बचती हैं, या तो वे घरेलू राजनीतिक-संघर्ष को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक खींचने की कोशिश कर रहे हैं या फिर उनकी निष्ठा देश के प्रति कभी रही नहीं हैं, और अन्य देशों के मीडिया आउटलेट का एक्सटेंशन काउंटर के रूप में कार्य रहे हैं। हो सकता है कि यह दोनों बातें साथ-साथ काम रही हों।
भारतीय मीडिया के मेड इन चाइना संस्करण को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अविश्वसनीय होना चीन की सबसे बड़ी पहचान है। चीन और उसके उत्पादों के बारे में कोई भी किसी भी तरह का दावा करने से बचता है। दुकानदार, खरीददार सभी का चीनी उत्पादों के बारे में मूल्यांकन यही होता है-चीनी सामान है, कितने दिन चलेगा इसका कोई भरोसा नहीं। वहां की पत्रकारिता को लेकर अविश्वास तो और भी अधिक है। क्योंकि अभी दुनिया में जिन कुछ देशों में आयरन कर्टेन पॉलिसी शिद्दत के साथ लागू की जाती है, उनमें चीन सबसे ऊपर है। ऐसे में मेड इन चाइना वर्जन के सहारे भारत में पत्रकारिता करना राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक तो है ही, पत्रकारीय-मूल्यों के लिहाज से भी यह गर्त में जाने जैसा है।
चायनीज मीडिया के भारतीय संस्करणों को जून 2020 के तीसरे सप्ताह में यह बात समझ में आ गई होगी कि किसी दूसरे देश का भोंपू बनने और वास्तविक खबर के बीच अंतर करने का कौशल अब भारतीय जनता में आ गया है। इसलिए पत्रकारिता के मूल्यों की दुहाई देकर देशहित के साथ खिलवाड़ करने का खेल भी वह अच्छी तरह समझने लगी है। अब चीन के सबसे बड़े रणनीतिकार माने जाने वाले शुन झू की बिना लड़े युद्ध जीतने की नीति भारत में आगे नहीं बढ़ पाएगी। ऐसे में चीन और भारत में काम कर रहे मेड इन चाइना वर्जन को स्वीकार करने वाले मीडिया का अवसाद और अवमूल्यन की तरफ बढ़ना बहुत स्वाभाविक है।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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