भारतीय कला में प्रमाशक्ति

हाल ही में संसार की सबसे ऊँची मूर्ति सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा का अनावरण हमने देखा। विशाल एवं भव्य कला का उत्कृष्ट नमूना। इतनी बडी मूर्ति में भी पटेल जी के व्यक्तित्व की गहराई, गरिमा और स्थूल शरीर की भँगिमा, चेहरे की शिकन में जरा भी अन्तर नहीं आया है।बल्कि यह मूर्ति उनके सम्पूर्ण जीवन की आभा और लोहत्व को कुछ अधिक ही निखारती है। आपको आश्चर्य होगा कि मूर्ति इतनी बड़ी होने के बावजूद भी चरित्रांकन में लेशमात्र भी अंतर नहीं है। आदमकद मूर्ति रचना, फिर भी आनुपातिक रूप से एक उदाहरण रूप में सामने होता है लेकिन आकृति की माप यदि कई गुना बढ़ गयी तो इतना सटीक अंकन कैसे संभव है। केवल सटीक ही नही बल्कि उस व्यक्तित्व का प्राण गढ़ना, यह कलाकार के लिए अत्यंत साधना का प्रतिफल होता है।
केवल अनुपातानुसार विस्तार कर देने से आकृति में एक प्रकार की कठोरता बढ़ती है। सामान्य दृष्टि में किसी वस्तु को हम जितना देख पाते हैं उससे कई गुना विस्तारित रुप देखने के लिए आँखों का दृष्टि-पथ विशाल हो जाता है, ऐसे में रूप-भावकाबोध बनाये रखने हेतु कलाकार की अन्तर्निहित शक्ति उसे ठीक-ठीकदिशा देती है। वह है प्रमा । प्रमाकिसी भी रूप, वस्तु या कल्पना का यथार्य भूमि पर स्थूल आकलन है। यतीन्द्रमतदीपिका में प्रमा का लक्षण देते हुये कहा गया है- यथावस्थित व्यवहारानुगुणं ज्ञानं प्रमा।अर्थात् जिस रूप में वस्तु विद्यमान है उसी रूप में उसकी अनुभूति प्रमा कहलाती है। प्रमाशक्ति प्रत्येक जीव में होता है चाहे वह पशु-पक्षी हो या मानव। यहाँ तक कि कुछ ही दिन का पैदा हुआ गाय का बच्चा छोटी सी नाली के उपर से कूदकर पार हो जाता है। उछलकर पार हो जाने का निश्चित अनुमान लगाना उसके अन्दर की प्रमा शक्ति ही है। कला में, चित्रांकन में, यह शक्ति विशेष संदर्भ में प्रयोग होती है। प्रमा शक्ति कलाकार की वह अदभुत क्षमता है जिससे वह दर्शक को आश्चर्य चकित कर देता है। किसी वस्तु के सूक्ष्म अंकन, हू-ब-हू चित्रण में, सजीव मूर्तिमान कर देने में, देखकर भ्रम पैदा कर देने में यह शक्ति ही कार्य करती है। इस क्षमता के आधार पर ही सूक्ष्म को विराटतम् में और विराटतम् को छोटे रूप में दिखाया जाता है।
भारतीय जीवन दर्शन में, विद्वत् परम्परा में, सामान्य आचार-व्यवस्था में, अमूमन दो धारा रही है। एक लोकधारा दूसरी शास्त्रीय। लोक और शास्त्र सदैव एक दूसरे को कहीं प्रभावित, कहीं समानांतर तो कहीं आपस में समाविष्ट होते रहे हैं। भारतीय कलाधारा में द्वितीय महत्वपूर्ण सोपान है- प्रमाण किसी वस्तु या सुन्दरता की पुर्नसृजन हेतु प्रमाण अर्थात माप उसकी आकारिकी का ज्ञान होना परमावश्यक है। प्रथमतया हम अपनी आँखों से देखकर तुलनात्मक रुप से आकलन कर लेते हैं परन्तु मात्र इतने से रुपसिद्धि नही होने वाला। रुपाकारों की सत्यता और उसका सही-सही बोध बिना प्रमाण ज्ञान के नहीं हो सकता। कला रचना के विभिन्न आयामों की दिशा में हमारी भारतीय मेधा अत्यंत समृद्ध रही है। अनेकानेक विद्वान और उनके ग्रंथों से हमारा कलाविषयक मार्ग प्रशस्त एवं आलोकित हैं।
यथाचित्रसूत्र(विष्णुधर्मोत्तरपुराण)मानसोल्लास,शुक्रनीतिसार, उज्जवलनीलमणि, संमराङगणसूत्रधार, वृहत्संहिताआदि।
कला में माप, प्रमाणादि विचार में स्वतंत्रतापूर्वक लोक और शास्त्रीय धाराएँ निर्बाध चलती रही हैं। लोक में व्याप्त कलादृष्टि में प्रमाशक्ति अदभुत रुप में विद्यमान है परन्तु प्रमाण, अनुपात का अपना अनोखा ढंग है। इसका सबसे सुंदर उदाहरण लोक में बनने वाले मिट्टी के शिल्प व खिलौने हैं। बंगाल के विष्णुपुर व तमिलनाडु में बनने वाले मिट्टी की मूर्ति में स्वतः एक अनुपात है। विष्णुपुर में स्थानीय मिट्टी में अदभुत रचना की गई है। मंदिरों का निर्माण एंव उसमें रचित भावमय आकृतियाँ जिनमें उस कलाकार के हाथों के रचाव का सौष्ठव दिखाई पड़ता है। तमिलनाडु के लोक कलाकारों द्वारा बनाया जानेवाला घोड़े की विशालतम आकृतियाँ, यथार्थ में बने घोड़े से अलग सौंदर्य प्रमाण सिद्ध करती हैं।
इसमें कोई लिखित शास्त्रीय नियम नहीं है, परन्तु परम्परा से प्राप्त एक आकार नियम है जो उसे मिट्टी में बनाने पर, सरल आकार गढने के लिए प्रमाबोध होना चाहिए, जो कि उस मिट्टी में काम करते हुये ही जाना जा सकता है। लोकप्रमाण का सबसे अनूठा और अत्यंत सरल रुप आपको वनवासी लोगों की कला में मिलेगा। भारतीय कला में जितना बाहुल्य नगरीय एवं ग्रामीण समाज का रहा है, उससे कम आदिवासियों का नही है। प्रकृति में अत्यधिक रमें होने के कारण इनमें हू-ब-हू सादृश्य या प्रमाण का गणितीय आकलन की नियमावली नहीं है किन्तु स्वतः जन्य रुपबोध का प्रमाण इनके पास है जो कि नगरीय समाज के कलाप्रमाण नियमों से बिल्कुल भिन्न है। इनके यहाँ शब्द कम होते हैं, भाव ज्यादा। इनमें बनने वाले लम्बोतरे चेहरे, अधिक लम्बाई के शरीर वाले शिल्प, अद्भुत आकलन से युक्त हैं। वस्तुतः ये शिल्प इनके पूज्य देवों के होते हैं।उनको केवल बनाना ही नहीं होता बल्कि रचना एक अनुष्ठान होता है। इसलिए स्वतः निर्झरणी की तरह स्वतंत्र रचनाविधान होता है। इन शिल्पों में अनुपात उस अनुष्ठानिक के ऊपर होता है। इस तरह हर पीढी उस आंकलन, उस अनुष्ठान को रचती है किन्तु सबका प्रमाण उस व्यक्तिगत के अऩुसार होता है फिर भी एक दायरे में, जिसे आप आदिवासी कलाएँ कहकर सीमा रेखा में बाँध देते हैं। जब इन्ही भाव, आकृति, प्रमाणों को बहुतेरे आधुनिकों (पिकासो, गोग्वं, हुसैन आदि) ने चित्र में उतार कर गैलरी बाजार में करोडों में बेचा तो वे समकालीन कला के धरोहर बन गये।
भारतीय समाज प्रयोगों की अनवरत भूमि रही है। लोक हमेशा स्वतंत्र रहा है अपने प्रतिमान गढने के लिए। उसका अपना प्रमाण है, अपनी शास्त्रीयता। इसका सुन्दर स्वरुप ग्राम्य जीवन में फैले त्योहारोंपर सृजित विविध रंगोली, मांडना आदि रचनाएँ है। विवाहादि, पूजन के अवसर पर गाय के गोबर से गौर-गणेश हाथों से बनाकर (त्वरित) पूजा किया जाता है। वे ग्रामदेवता जो ग्राम की रक्षा करते हैं, उनकी आकृति में जो पिंडी बना दी जाती है या पहलवान बीरबाबा बनाने के लिए अनगढ पत्थर पर सिंदूर, टीक दिया जाता है, या सायर देवी के नाम पर, ललही छठ के नाम पर मिट्टी के ढूहे की थान बना दी जाती है, उसमें किसी शास्त्रीय नियम की आवश्यकता नहीं होती। एक तरफ मन्दिर बनाने के और उसमें मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हेतु इतने नियम, विधि-विधान बनाये गये हैं, वहीं दूसरी ओर दो ईंट शंकुनुमा खडे कर उसके अन्दर नदी के बालू से निकले गोले पत्थर को रखकर, जल चढाकर शिव बना दिया जाता है। अद्भुत छूट है लोक मन को ।
विष्णु धर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र के अध्याय 35 में चित्रांकन हेतु शरीर की ऊँचाई के अनुसार पाँच प्रकार के पुरुष माने गये हैं- हंस, भद्र, मालव्य, रुचक, शशक। इसी प्रमाण के अनुरुप देवता, मनुष्य, गन्धर्व, किन्नर आदि चित्रित किये जाते थे। चित्रसूत्र के 39 अध्याय तक विभिन्न अंगों के प्रमाण, शरीर मुद्राओं के माप का वर्णन है। साधारण मानव, राक्षस, किन्नर, यक्षादि के शारीरिकी का उनके मुखादि भाव का विस्तृत वर्णन है। यह प्रमाण इतना सरल है कि आकृतियों के मापन हेतु'बित्ता'व 'अंगुल' भी प्रमाणरुप में समझाये गये हैं। देवता अथवा मानव का चित्रण सामान्य मनुष्य से बड़ादिखाया जाना चाहिए। अजंता की 17वीं गुफा में चित्रित महात्मा बुद्ध और यशोधरा का चित्र जिसमें यशोधरा अपने पुत्र राहुल को बुद्ध को सौंप रही है।
इस चित्र में बुद्धत्व को दर्शाने हेतु यशोधरा - राहुल के आकार की तुलना में समान दृश्य तल पर बुद्ध को अपेक्षाकृत बडा चित्रित किया गया है। यहाँ अधिक बड़ा बनाना, बुद्ध की महिमा को कलाकार ने प्रमाण में ढालकर अद्भुत प्रमाशक्ति का परिचय दिया है। इस तरह के अनेक उदाहरण अजंता-एलोरा में आपको मिल जायेंगे। जिसे भारतीय दृष्टि कहते हैं, उसका मूल तत्व स्वयं मे प्रतिष्ठित होना अर्थात इस प्रकृति से, जगत से आत्मीय संवाद। जड-जंगम से चक्षु संवाद की धारा एकल, एकांगी या एकमार्गी नही हो सकती। वह दृष्टि विश्व के अनेक दृष्टान्तों से भिन्न है, इसलिए उसकी पुर्नसृष्टि के सारे आकलन, उपकरण एकदम नया होगा, अजनबियत की हद तक। किसी से तुलनात्मक रुप में श्रेष्ठबोध की प्रतियोगिता से परे। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि कुछ साल हम किसी आक्रमण काल में रहे उसके बाद हमने अपनेहीदृष्टि की उपेक्षा कर दी। एक विकसित उधारी मुलम्मेमें अपनी मूल धात्विकता को ढंक दिया। अब सब एकरंगी वैश्विकता में मारे-मारे फिर रहे हैं। विश्व अभी भी भारत को उसके अजंता-एलोरा, खजुराहो, कांगडा, राजस्थानी, पिछवई, मधुबनी, वरली में ढूँढ रहा है। मैं नहीं कहता कि फिर से वही हो जाना चाहिए जो चार-पाँच सौ साल पहले था लेकिन मूल आत्मा की खोज होनी चाहिए। ऐतिहासिक अनस्थिरता के लम्बे कालखण्ड के बाद हमने तथाकथित आजादी भी पाई तो पहचान की हडबोंगई में उन्ही के रुप ओढ़ लिए जिनके हम गुलाम थे। कला के हमारे मानक पुराने घोषित कर दिये गये।
कला विद्यालयों में प्रमाशक्ति का अध्ययन विकास केवल एकअर्थी बनकर रह गया है। निर्जीव वस्तुओं को एक साथ टेबल पर कपड़े के साथ, खास दिशा से आती प्रकाश-छाया में संयोजित करके चित्रण करना जिसे अंग्रेजी में 'स्टिल लाइफ' कहा जाता है। स्त्री या पुरुष को मॉडल बनाकर सामने से हू-ब-हू आनुपातिक चित्रण करना यह 'लाइफ स्टडी'कहलाता है अर्थात प्रमाण अध्ययन केवल सामने उपस्थित वस्तु के आकार के समान। जो वस्तु जितना इस दुनिया में है उतना बराबर ही रच देना चमत्कृत भले ही कर दे किन्तु यह एकांगी ही होगा। अरे! हम तो रुप के अन्दर उस आत्मा को रचने वाले हैं। हमने तो उस अगम्य को भी ध्वनित किया है। उस आकार को बनाकर उसमें प्राणछन्द रचे हैं। वो सहज है, सरल भी लेकिन एकदिशीय नहीं, बहुदिशीय, एकप्रमाण नहीं, बहुप्रमाण।

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