राम-मंदिर : सांस्कृतिक सातत्य का कला-पक्ष

हृदयों की चिर संचित अभिलाषा व कई सौ वर्षों की  संघर्ष गाथा राम मंदिर के रुप में मूर्तिमान हो उठी। मंदिर के स्वरूप और रामलला के विग्रह को राष्ट्र ने अश्रु नीमिलित नेत्रों से निहारा, अपना जीवन धन्य माना और असंख्य उत्कंठाओं ने एकता का सहज स्वर गुंजित किया । राममंदिर निर्माण से देश के पश्चात्ताप का कांटा निकल गया और पूरे राष्ट्र ने पीढ़ियों के दर्द को अनुभूत किया । मंदिर हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह न केवल कला, वास्तु, ज्योतिष, यांत्रिकी और कल्पना का रुप है बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत और उन्नत सभ्यता का प्रतीक भी है । एक मंदिर समाज के प्रकल्पों का केंद्र बिंदु भी होता है जहां से समरसता का प्रवाह होता है । मंदिर भारतीयता का एक सनातन स्वरूप है जो हर समय – काल में, विरोध – आक्रमण के भीषण दौर में भी अपनी जड़ें पुन: स्थापित करने अथवा खोजने का प्रस्थान बिंदु होते हैं ।

मंदिरों की बनावट एवं शैली अपने आप में मौलिक और तार्किक होती है कि उसके किसी खण्ड से उसके मूल स्वरूप की कल्पना की जा सकती है । राममंदिर के लिए चले आधुनिक अदालती कार्यवाही में भी इनकी तार्किकता देखी जा सकती है । इस मंदिर में लोकतंत्र का धैर्य भी छांह पाया है । वास्तव में राम की धीरता ही भारतीयता है । भारतीयता का आशय प्राणवन्त आस्था है । जिसकी आस्था इतनी प्राणवन्त हो तो उस आस्था का स्वरूप कैसा होगा ? उस स्वरूप में विराजने वाला कैसा होना चाहिए ? जब से मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हुआ था तभी से जन हृदय की विह्वलता आतुर थी स्वयं को व्यक्त करने के लिए । श्रद्धा और प्रेम की सम्पूर्णतम् नमसिक्त अभिव्यक्ति, मंदिर निर्माण की परिकल्पना और पत्थरों के चयन एवं शिल्प में हमें दिखाई देती है । राम धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं, तो ऐसे में उनके विग्रह के लिए कौन सा पत्थर उपयुक्त होगा? और स्तम्भों – अलंकरणों में किस प्रकार कला के सभी तत्वों का निचोड़ रखा जाय ? इस महती आकांक्षाओं का प्रतिरूप है राममंदिर । इसके निर्माण में तकनीकी रूप से शास्त्र और आधुनिक सक्षम एवं उपयुक्त समग्रियों का प्रयोग किया गया है । स्तम्भों, तोरणों और आलेखनों में प्राचीन मंदिरों के सदृश नयनाभिराम लयकारी का निर्वहन किया गया है ।

राममंदिर के मुख्य शिल्पकार चन्द्रकान्त सोमपुरा जी हैं । ये उस पारपंरिक शिल्पकार परिवार से आते हैं जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात् भव्य सोमनाथ मंदिर की शिल्प रचना की । भारत में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण अथवा बाहरी देशों में जहां – जहां भी भारतीय सांस्कृतिक विरासत आज भी विद्यमान है, उन सभी स्थानों पर मंदिर अपने आप में अप्रतिम कला का रचनाविधान है । विभिन्न पुराणों जैसे अग्नि पुराण, गरुणपुराण, विष्णु धर्मोत्तर पुराण इत्यादि में वास्तु, देवप्रतिमा एवं चित्रकला विधान का तार्किक वर्णन हम पाते हैं । मयमतम्, अभिलषितार्थचिंतामणि, मानसोल्लास, समरांगणसूत्रधार इत्यादि अनेक ग्रंथ आज भी प्राप्त हैं जिनमें मंदिरवास्तु एवं प्रतिमाविज्ञान के सिद्धांतों का वर्णन है । हमारे देश में देवमंदिर, देवप्रतिमाओं का विज्ञान और तकनीकी, प्रचीनता के साथ साथ आज भी सटीक और आधुनिक है । देश के कोने-कोने में, हजारों साल से खड़े ये मंदिर आज भी इंजीनियरिंग का आश्चर्यजनक रूप हैं । राममंदिर प्राचीनता और आधुनिकता का संगम है । राजस्थान के बलुआ पत्थर से तराशा गया यह मंदिर नागर शैली में बनाया गया है ।

नागर शैली मंदिर निर्माण की एक महत्त्वपूर्ण शैली है जो उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित है । इसके निर्माण में लार्सन एंड टुब्रो एवं रखरखाव में टाटा कंसल्टिंग कंपनी ने कार्य किया है । मंदिर निर्माण में 14 मीटर मोटे रोल काम्पैक्ट कंक्रीट को कई परतों में बनाया गया है जिस तरह प्रकृति में पत्थर का निर्माण होता है उसी प्रकार नीचे कई परतों किया गया है ।  मंदिर को नमी से बचाने के लिए 21 फुट मोटा ग्रेनाइट पत्थर का चबूतरा बनाया गया है । यह तीन मंजिल की भूकंपरोधी संरचना होगी जिसकी अनुमानित आयु लगभग 2500 वर्ष होगी । मंदिर की लंबाई 360 फुट, चौड़ाई 235 फुट और शिखर तक ऊंचाई 161 फुट रखा गया है । नागर शैली के निर्माण में प्रवेश से गर्भगृह तक कई स्थान होते हैं । राममंदिर में पांच मण्डप बनाए गए हैं यथा – नृत्य मंडप, रंग मंडप, सभा मंडप, प्रार्थना मंडप, और कीर्तन मंडप । मंडपों के ऊपर शिखर का निर्माण किया गया है । निर्माण की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें जोड़ के लिए गारे – सीमेंट का प्रयोग नहीं किया गया है क्योंकि इनकी उम्र कम होती है । इसमें ऐसे किसी सामग्री का प्रयोग नहीं किया गया है जिसकी आयु हजार वर्ष से कम हो । पत्थरों को एक – दूसरे से छिद्रबंध द्वारा जोड़ा गया है, अर्थात् एक पत्थर को दूसरे पत्थर में छेद करके उसे बराबर बिठाकर फिट किया जाता है जिससे उनमें जोड़ प्रतीत नहीं होता । दूसरी विधि में पत्थरों को तांबे की प्लेटों द्वारा जोड़ने का उपयोग किया गया है । स्तम्भों – तोरणों की भव्यता और उनमें किया गया आलेखन अत्यंत सौंदर्यपूर्ण है । रामलला के गर्भगृह की छटा निराली है ।

गर्भगृह की दीवारें और छत सुन्दर आलंकारिक आलेखनों से सज्जित हैं । कमल दल के अलंकरणों एवं छत पत्थरों के चक्राकार पद्म सुशोभित है । आलेखनों में अजंता सी लयात्मकता एवं कोमलता का अनुसरण किया गया है । विग्रह निर्माण में गंडकी नदी से प्राप्त शालिग्राम शिला का उप्रयोग किया गया है, जिसकी कार्बन डेटिंग छह करोड़ वर्ष पुरानी ठहरती है । रामलला की मूर्ति कृष्णशिला में बनाई गई है जो कर्नाटक के खदान से प्राप्त हुई है, जिसे मैसूर के कलासाधक अरुण योगीराज ने गढ़ा । इस स्थानक मूर्ति का प्रथम रेखांकन काशी के मूर्धन्य चित्रकार सुनील कुमार विश्वकर्मा ने तैयार किया था । अनुपम छवि सौन्दर्य एवं सौम्य – स्मित मुस्कान लिए रामलला को करोडों अन्तरतम् की अतृप्त स्पृहा से बनाया गया है ।

श्रद्धा, समर्पण एवं अहोभाव से कृष्णशिला में निर्मित रामलला की प्राणप्रतिष्ठा होते ही उनकी मुद्राएं पहले ( कलाकारके सिरजते समय ) की अपेक्षा कही अधिक दैदीप्यमान व आध्यात्मिक आवर्त से सम्पन्न हो उठी । जिसे देखकर मूर्तिकार अरुण योगीराज ने स्वयं कहा कि सचमुच यह मेरे द्वारा रचित नहीं है। भगवान ने निमित्त बनाकर मुझसे अपना रुप बनवा लिया । दुबारा यही आभा मैं नहीं रच सकता । यह सच है  गर्भगृह में प्रवेश से पहले वह एक कलाकृति थी और प्राणप्रतिष्ठा होने के बाद कलाकृति जीवंत स्वरूप में बदल गई । कला का मर्म ही ऐसा है  जब तक वह कलाकार के हाथों में होती है तब तक वह किसी माध्यम में रचित आश्चर्यपूर्ण कृति होती है क्योंकि वहां अपनेपन की भावासक्ति होती है कि यह मेरे द्वारा रचित है परन्तु जैसे ही उसे लोक में पूजित स्थान मिलता है,  फिर वह कृति नहीं रह जाती बल्कि कृति से परे, भूत – भविष्य – वर्तमान की अनगिन इच्छाओं के सौन्दर्य रुप धरे, सब नयनों का अपना ही रंग उसमें दिखने लगता है । लोक हृदय का स्पंदन उसमें गूंजने लगता है । कलाकार का अपना कुछ नहीं रह जाता । वह रिक्त हो जाता है जैसे नाटक में भूमिका निभाने के बाद पात्र सामान्य स्थिति में, गहराई में कहीं मौन में समा जाता है। वह साक्षीभाव से अकेला हो जाता है । मं

दिर निर्माण में कार्यरत शिल्पकार, इंजीनियर एवं मजदूरों ने बड़े मन से कार्य किया है । मंदिर के आरंभ में सीढ़ियों के दोनों ओर सिंह, गज, गरुड़ और हनुमान जी की सुन्दर मूर्तयोकी स्थापना की गई है । स्तम्भों पर अलंकरण के अलावा देवी-देवताओं को उत्कीर्ण किया गया है । इनकी मुद्राएं लयात्मक हैं । हाथ – पैर एवं अंगुलियों के अंकन में लोच है । आकृतियों का सरल रेखांकन जिसमें लय एवं गति हो, यह मुख्य विशेषताएं हैं भारतीय कला की । मंदिर केवल शिल्प के ही केन्द्र नहीं होते वरन् कला के सभी अंगों – नृत्य, संगीत, वास्तु, ज्योतिष और साहित्य के भी केन्द्र होते हैं । वास्तविक रूप से मंदिर का होना भारतीयता के जीवित रहने का प्रमाण है भारतीयता जीवंत विचार है और जीवंतता के स्रोत श्रीराम हैं । जिसकी निर्मिति जनआस्था के ज्वार से होती है वह कृति लोकपर्व का उद्गम हो जाती है । वहां लोकमंगल की भावना का उद्घोष होता रहता है । अयोध्या के राममंदिर में प्रतिदिन लाखों लोगों के दर्शन की लालसा इसका प्रमाण है ।

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