मीडिया की परिभाषा उसके तीन कामों का जिक्र करती है, सूचना, शिक्षण एवं मनोरंजन। भले ही इस दौर के मीडिया की पैकेजिंग में सूचना और शिक्षण के तत्व कम हुए हैं और मनोरंजन का मसाला ज्यादा है। लेकिन भारत की लोककलाएं जनसंचार का वह पक्ष हैं, जो आम लोगों का उनकी बोली में मनोरंजन ही नहीं करतीं बल्कि सूचित और शिक्षित भी करती हैं। भारत में संवाद और संचार की परंपरा मानव सभ्यता के विकास के साथ चलती रही है। धार्मिक ग्रंथ, प्राचीन साहित्य से लेकर देश के कोने-कोने की लोककलाएं संवाद का सशक्त माध्यम रही हैं। ऐसा ही एक लोक काव्य है, उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र का आल्हखंड, जिसे जनसामान्य में आल्हा के नाम से जाना जाता है और इसके गवैये अल्हैत कहलाते हैं।
जनसंचार के माध्यम भले ही आज रेडियो, टीवी, अखबार, इंटरनेट और तमाम तकनीकें हों, लेकिन जब ये न थीं, जब गूगल बाबा न थे तो निश्चित तौर पर ऐसी लोक परंपराएं ही आम जन के लिए ज्ञान का स्रोत थीं। आल्हा काव्य एक तरफ भारतीय लोक का रसपूर्ण मनोरंजन करता है तो दूसरी तरफ जीवन के कठिन पहलुओं को लेकर सहजता से शिक्षित भी करता है। राजा का दायित्व जनता के प्रति क्या हो, सेना किस प्रकार एकजुट हो, पारिवारिक संबंधों की गरिमा क्या रहे और समाज के प्रति सरोकर क्या हों, जीवन के ऐसे तमाम पक्षों पर आल्हखंड सुरुचिपूर्ण शिक्षण देता है।
आल्हा का कोई एक विधिवत ग्रंथ नहीं है, जैसा रामचरितमानस के साथ है। इसके बावजूद एक बड़े हिंदी क्षेत्र में इसकी लोकप्रियता को रामचरितमानस के बाद दूसरे स्थान पर रखा जा सकता है। जगनिक द्वारा रचित 'आल्हखंड' अप्राप्य है। फिर भी लोककंठ में सैकड़ों वर्षों तक यह ऐसा बसा रहा कि 1865 में फर्रुखाबाद के कलेक्टर रहे अंग्रेज अधिकारी चार्ल्स इलियट ने इसका संकलन कराया। इसके बाद भी कई छिटपुट प्रयास हुए हैं, लेकिन अर्थ सहित पूरा 'आल्हखंड' प्रकाशित नहीं हो सका है। यह अवधी-बुंदेली मिश्रित शैली में है और सिर्फ काव्य रूप में ही है।
1,000 साल से लोककंठ में मौजूद
आल्हा का भले ही कोई निश्चित ग्रंथ या भाषा टीका नहीं है, लेकिन लोगों के जेहन में यह इतना गहरे उतरा है कि पीढ़ियों रिसते हुए 1,000 साल का सफर तय कर चुका है। बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, रुहेली, ब्रज, बघेली, कौरवी और मैथिली समेत लगभग पूरी हिंदी पट्टी में वीर रस के इस अनुपम काव्य की गहरी मान्यता है। हर बोली के अल्हैत यानी आल्हा गाने वाले अपनी शैली में ढाल कर वीररस से लोगों को सराबोर करते हैं। आल्हा के पाठ को पंवाड़ा कहा जाता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार में इसका लोकजीवन पर ऐसा प्रभाव है कि तमाम लोकोक्तियां और कहावतें लोगों को आल्हा से मिलती हैं।
आल्हा सुन विश्व युद्ध में लड़ने गए थे सैनिक
हिंदी क्षेत्र के लोकमानस में आल्हा कितने गहरे उतरा है और इसका संचार पक्ष कितना सशक्त है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1914-18 और 1939-45 के पहले और दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने सैनिकों में उत्साह भरने के लिए छावनियों में इसके कार्यक्रम आयोजित कराए। यही नहीं लंबे समय तक पुलिस की पासिंग आउट परेड में भी जवानों में वीरता और कर्तव्यपरायणता के लिए आल्हा सुनाया जाता रहा।
अंग्रेजों ने कराया कई खंडों का अनुवाद
भले ही आल्हा हिंदी क्षेत्र की अमूल्य धरोहर है, लेकिन विदेशी विद्वानों ने स्वदेशी लेखकों से पहले ही इस पर काम शुरू कर दिया था। हिंदी के प्रसिद्ध ब्रिटिश मूल के इतिहास लेखक ग्रियर्सन ने आल्हा की लोकप्रियता को देखते हुए इसके कई खंडों का अंग्रेजी में अनुवाद कराया था। इनमें 'मारू फ्यूड' यानी 'माड़ो की लड़ाई' और 'नाइन लैख चेन' यानी 'नौलखा हार की लड़ाई' जैसे खंड विशेषतौर पर उल्लेखनीय हैं। यही नहीं अमेरिकी रिसर्चर डॉ. केरिन शोमर ने तो आल्हा की यशोगाथा की तुलना में यूरोप में ओजस्वी कवि होमर द्वारा रचित इलियड और ओडिसी के समकक्ष स्थान दिया है। ग्रियर्सन द्वारा 'ब्रह्म का विवाह' खंड का अंग्रेजी अनुवाद 'द ले ऑफ ब्रह्मज मैरिज: एन एपिसोड ऑफ द आल्हखंड' आज भी उपलब्ध है। ग्रियर्सन ने इसकी भूमिका में लिखा है कि पटना से लेकर दिल्ली तक आल्हा से अधिक कोई भी कहानी जनमानस में लोकप्रिय नहीं है।
गांवों की चौपारों से निकल यूट्यूब तक पहुंचा आल्हा
आल्हा मूल रूप से बुंदेलखंड की धरोहर है, लेकिन हिंदी पट्टी के हर क्षेत्र ने इसे अपनी शैली में ही इस तरह से अपना लिया है कि यह लोकजीवन का अंग बन गया है। आम मान्यता है कि गंगा दशहरा से लेकर दशहरे तक यानी बरसात के मौसम में इसका गायन किया जाता है। इसके लिए कहा भी जाता है कि-
'भरी दुपहरी सरवन गाइय, सोरठ गाइये आधी रात।
आल्हा पंवाड़ा वा दिन गाइय, जा दिन झड़ी लगे बरसात।'
गायन की एक नई शैली बना आल्हा
बदले सामाजिक जीवन में लोगों की बढ़ती व्यस्तता और ग्रामीण जीवन पर असर के चलते गांवों की चौपारों में अब इनका आयोजन इक्के-दुक्के ही होता है, लेकिन तकनीक के युग में यह मोबाइल और यूट्यूब तक भी अपनी पहुंच बना चुका है। संगीत के क्षेत्र में भी आल्हा की शैली का इन दिनों जमकर इस्तेमाल हो रहा है। कई भजनों से लेकर फिल्म 'मंगल पांडे' के गीत 'मंगल-मंगल' में भी इसकी शैली का इस्तेमाल किया गया है।
जीवन के गूढ़ रहस्यों को सरल शब्दों में समझाते हैं अल्हैत
आल्हा की शैली और शब्दों की यह विशेषता है कि इसे आम लोग भी बेहद आसानी से समझ लेते हैं और रस लेते हैं। यही नहीं बेहद सरल शैली में आल्हा गाने वाले यानी अल्हैत पंवाड़े के बीच में ही जीवन के कई गूढ़ पहलुओं को सरल शब्दों में सामने रखते हैं। जैसे-
'राम बनइहैं तो बन जइहैं, बिगरी बात बनत बन जाय।'
यह पंक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में ईश्वर पर भरोसा बनाए रखने की सीख देती है।
कर्तव्य पर डटे रहने का संदेश देते हुए अल्हैत कहता है-
'पांव पिछारे हम न धरिहैं, चाहे प्राण रहैं कि जायें।'
पुत्र के समर्थ होने से माता-पिता को किस प्रकार सहारा मिलता है। इस पर आल्हा की यह एक पंक्ति सार्थकता से अपनी बात कहती है-
'जिनके लड़िका समरथ हुइगे, उनका कौन पड़ी परवाह'
स्वामी तथा मित्र के लिए कुर्बानी दे देना सहज मानवीय गुण बताए गए हैं-
'जहां पसीना गिरै तुम्हारा, तंह दै देऊं रक्त की धार'
अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है-
'जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।'
सामाजिक समरसता का संदेश देते अल्हैत
आल्हा और ऊदल का स्तुतिगान भले ही योद्धा के तौर पर किया गया है, लेकिन जातियों से परे समूचे समाज के लिए आल्हा का नायक होना शायद इसलिए भी संभव हो पाया है क्योंकि वे शिवाजी सरीखे समावेशी सेनापति थे। जैसे महाराष्ट्र समेत देश भर में हिंदवी साम्राज्य की स्थापना के चलते जननायक बने शिवाजी के राज्य और सेना में सभी वर्गों को महत्व था, वैसी ही नीति महाबलि आल्हा की भी थी। 'आल्ह खंड' के मुताबिक, उनकी सेना में लला तमोली, धनुवा तेली, रूपन बारी, चंदर बढ़ई, हल्ला, देबा पेडित जैसे लोग सेना के मार्गदर्शक थे। आल्हखंड की पंक्तियां इसका प्रमाण हैं, जो सामाजिक समरसता का संदेश देती हैं-
'मदन गड़रिया धन्ना गूलर आगे बढ़े वीर सुलखान,
रूपन बारी खुनखुन तेली इनके आगे बचे न प्रान।
लला तमोली धनुवां तेली रन में कबहुं न मानी हार,
भगे सिपाही गढ़ माड़ौ के अपनी छोड़-छोड़ तलवार।।'
बुंदेली कवि जगनिक ने 'आल्ह खंड' की रचना कर भारतीय समाज को उस दौर में वीरता की गाथा सुनाई, जब देश चहुंओर विदेशी आक्रमण झेल रहा था। जगनिक की इस काव्य रचना का यही असर था कि विश्व युद्ध की छावनियों से निकल समर में उतरने के लिए इसने सैनिकों का हौसला बढ़ाया। आज भी यह काव्य वीरता, जीवटता, सामाजिक समरसता और मानवीय गुणों का संदेश देता है। भारत के वाचाल समाज में लोककलाओं के महत्व को आल्ह खंड के अध्ययन से बखूबी समझा जा सकता है।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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