मन्दिर : शिल्प और अध्यात्म का संवाद

लंबे समय से राम मन्दिर के प्रयासों का हल पिछले दिनों लोकतांत्रिक तरीके से मिला है। उच्चतम न्यायालय ने मन्दिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त किया जो उचित एवं सत्य है। पिछले कई वर्षों से हम सुनते आ रहे हैं कि राम मन्दिर निर्माण में बहुत सारे शिल्प और वास्तु की संकल्पना एकदम स्पष्ट है, जिससे निर्माण बहुत जल्दी हो जायेगा। हमारे देश में मन्दिरों की कई शैलियां हैं। अलग-अलग देवताओं के अनुसार स्थापत्य भिन्न हो जाता है। सवाल उठता है कि इतनी विविधता अलगाव तो नहीं? नहीं। बल्कि शिल्प और स्थापत्य के उतने ही अधिक प्रकार और उतनी ही विविध विद्या संस्कारयुक्त ग्रंथ हैं। भारतीय समाज धर्म के अनुपालन, विचार-विमर्श एवं शास्त्रार्थ से सत्य को साक्षात करता हुआ सदैव गतिशील रहा है। धर्म को अधिक सहज ग्राह्य बनाया कला ने। चित्र, मूर्ति और स्थापत्य के सूक्ष्म से लेकर विशाल सृजन ने धर्म द्वारा प्रतिपादित ब्रह्म, मोक्ष, परमानन्द को जीवनरूपों में ढालकर मानव मन को कहीं अधिक सभ्य और भारतीय बनाया है। इसीलिए कला धर्म के मूल का सहगामी बना-

“विश्रान्तिर्यस्य सम्भोगे सा कला न कला मता।
लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला”।।


मन्दिर भारतीय मनस् और संस्कृति की संपूर्णतम इकाई है। यह कला और आध्यात्म का अद्भुत संगम है। यह केवल धर्म के रूढ़ प्रचलित अर्थों में नहीं है बल्कि जीवन सत्य को शिल्प-विधान में रखकर परमात्म तत्व की ओर ले जाता है। ऋषि-मुनियों के सत्य दर्शन, शास्त्रों के प्रमाण और लोक आस्था का एकत्व है मन्दिर। मन्दिर स्वयं में ज्योतिष, वास्तु, प्रतिमा विज्ञान एवं शिल्प विधान का जीता जागता स्वरूप है। उसमें रखे जाने वाले देव विग्रह प्राण प्रतिष्ठित हो नश्वरता के भय को दूर करते हैं। मंदिरों के बनावट के आधार पर उन्हें तीन मुख्य रूपों में समझा जा सकता है- नागर, द्रविड़ और बेसर शैली। नागर शैली उत्तर भारत की प्रधान शैली है। द्रविड़ दक्षिण भारत और बेसर दोनों शैलियों का सम्मिलित स्वरूप है।
नागर शैली के सबसे पुराने उदाहरण गुप्तकालीन मन्दिरों में देवगढ़ में दशावतार मन्दिर और भितरगांव का मन्दिर है। इसकी विशेषता है विशिष्ट योजना और विमान। इस शैली की बनावट में मुख्य भूमि आयताकार होती है जिसमे बीच के दोनों ओर विमान होते हैं। ‘समरांगणसूत्रधार’ में विमान पांच प्रकार के बताए गए हैं- वैराज, कैलास, पुष्पक, माणिक और त्रिविष्टप (अष्टकोण)। मंडप, गर्भ गृह से पहले बनाया जाने वाला आंगननुमा जगह है जिसके ऊपर भी शंक्वाकार संरचना हो सकती है। यदि दोनों पार्श्वों में एक-एक विमान होता है तो वह त्रिरथ कहलाता है। दो-दो विमानों वाले मध्य भाग को सप्तरथ और चार-चार विमानों वाले भाग को नवरथ कहते हैं। यह विमान मध्य भाग से लेकर मन्दिर के अंतिम ऊंचाई तक बनाए जाते हैं।
इस शैली के मंदिरों में दो भवन होते हैं। एक गर्भगृह जिसमें देवविग्रह की स्थापना होती है, दूसरा मंडप। किसी मन्दिर में एक से अधिक मंडप अर्धमंडप के रूप में होता है। गर्भगृह के ऊपर घंटाकार संरचना होती है। यह शंक्वाकार होती हुई ऊपर जाकर एक बिन्दु पर मिल जाती है, जैसे- खजुराहो का कंदरिया महादेव मन्दिर। नागर शैली के मन्दिर में कक्ष होते हैं- गर्भगृह, जगमोहन, नाट्यमन्दिर और भोगमन्दिर। भुवनेश्वर स्थित लिंगराज मन्दिर इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
द्रविड़ शैली प्रमुखतया दक्षिण भारत के मन्दिर निर्माण शैली है। इसकी प्रमुख विशेषता पिरामिडीय विमान है। इस विमान में कई मंजिल होते हैं जो छोटे होते चले जाते हैं। उत्तरोत्तर द्रविड़ मन्दिरों के विमानों के ऊपर मूर्तियों की संख्या बढ़ती चली गई। इन मन्दिर में एक आयताकार गर्भगृह, उसके चारों प्रदक्षिणा पथ, स्तम्भ पर बड़े-बड़े कक्ष और गलियारे की संरचना एवं विशालकाय गोपुरम (द्वार) होता है। इसके मुख्य मन्दिर के चार से अधिक पार्श्व होते हैं। यदि शैली में शिव मन्दिर है तो अलग से ‘नंदी मंडप’ भी होता है। इसी प्रकार विष्णु के साथ गरुड़ मंडप भी होता है। उदाहरणस्वरुप- कांची का कैलासनाथ मन्दिर।
बेसर शैली परवर्ती चालुक्यों एवं होयसलों द्वारा बनवाए गए मंदिरों में यह शैली मिलती है। सामान्यतः नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का सम्मिलित रूप है बेसर शैली। इसमें कहीं कहीं अर्धचंद्राकार संरचनाएं शिखर पर मिलती हैं। जैसे ऐहोल के दुर्गा मन्दिर, पट्टडकल के मन्दिर।
मन्दिरों में स्थापित किए जाने वाले लिंगम अथवा देवताओं के मूर्ति निर्माण का अपना-अपना प्रमाण है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र के अध्याय 35 में चित्रांकन हेतु शरीर की ऊंचाई के अनुसार पांच प्रकार के पुरुष माने गए हैं- ‘हंस, भद्र मालव्य, रुचक, शशक’। सामान्य मानव, देवता, राक्षस, किन्नर और गंधर्व की रचना हेतु सभी के भिन्न-भिन्न नाप दिए गए हैं, जो कि विशुद्ध रूप में है। जिसका वर्णन इन लेखों में अत्यधिक विस्तार करना होगा। मानसोल्लास, समरांगणसूत्रधार, मयमत अनेक ग्रंथों में देवविग्रह के अनुपात, गर्भगृह की संरचना, देवों की पीठिका का विशद् उल्लेख है। मूर्तियों एवं चित्रों में विभिन्न दैहिक मुद्राएं- शरीरमुद्रा, हस्तमुद्रा, पादमुद्रा का ज्ञान शिल्पी को आवश्यक है। निगमागम के अनुसार प्रतिमाएं तीन प्रकार की बताई गई हैं- आसीन, स्थानक (खड़ी हुई) और शयान अर्थात लेटी हुई। आसीन के तीन भाग हैं- योगासीन, भोगासीन और वीरासीन। स्थानक के भी तीन भेद- योगस्थानक, भोगस्थानक और वीरस्थानक। शास्त्रों में मन्दिरों को प्रासाद कहा गया है।
भारतीय शिल्प विद्या अत्यन्त विस्तृत, सुप्रमाणित, वास्तुयोजित और सौन्दर्यभाव से परिपूर्ण है। भूमि, जगती, पीठिका से लेकर मन्दिर के शिखर तक का विन्यास अद्भुत एवं सानुपातिक सौन्दर्य से भरा है। किंतु कहीं भी जटिल नहीं प्रतीत होता। हां शिल्पी को इन शास्त्रों का ज्ञान आवश्यक है।
आधुनिक भारत के आधुनिक कला शिक्षा की विडंबना ही है कि उसके पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रासादों की नकल भी नहीं कर सकता उनसे आगे बढ़ कर उसी शैली को बढ़ाना तो दूर की बात है। वर्तमान कला शिक्षा पूर्णतः यूरोप की पुनर्जागरण वाली मात्र मानव शरीरिकी के बनावट के अध्ययन वाली परिपाटी को पीट कर रही है। मेरा सवाल है क्या तथाकथित जितने भी आधुनिक कलाकार भारत में हैं, वे थोड़ी देर के लिए उत्तर आधुनिकता के व्यामोह से निकलकर राम मन्दिर की अभिकल्पना, ज्योतिष सम्मत वास्तु और आस्था का वह भव्यरूप बना सकते हैं जो एक पारंपरिक शिल्पी तैयार करेगा? इसमें बड़ा संशय है। शायद नहीं। हमें अपने शास्त्रों, प्रतिमा विज्ञान, शिल्प निर्माण के सर्वांगों को पढ़ना होगा और कलाशिक्षा का अनिवार्य अंग बनाना होगा तभी अजंता-एलोरा के आगे की कड़ी आरंभ होगी वरना पर्यटन तो बहुत होगा लेकिन विरासत की आस्थामय भव्यता हम इस सदी को नहीं दे पाएंगे।

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