अप्रियकर घटनाओं को एकांगी नजरिए से देखना हम भारतीयों की आदत सी बन चुकी है। हमें हमेशा इस बात को स्वीकार करने में झिझक रहती है कि गली मोहल्लांे में घट रही घटनाओं का भी एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य हो सकता है और कोई वैश्विक-काॅकस देश भर में समस्याओं की श्रृंखला खड़ी कर सकता है।
साम्यवाद के संदर्भों में तो समझ की सीमाएं हमें और भी असहज बना देती हैं। जेएनयू से लेकर एचपीयू तक अपने देश और संस्कृति को लेकर जो घृणा का भाव है, उसकी जड़ों को सैद्धांतिक स्तर पर टटोलने की कोशिशंे कम ही हुई हैं। हिंदी में तो बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान और चीन को अपने देश पर तरजीह देने की विरासत किन कारणों से पैदा हुई, सभी धर्मों को अफीम मानने वाला साम्यवाद भारत में इस्लाम और ईसाइयत का पहरेदार और हिंदुत्व के प्रति घृणा भाव से कैसे भर गया, इसकी तह तक जाने की जहमत भारतीय बुद्धिजीवियों ने कम ही उठाई है।
इस परिस्थिति में प्रसिद्ध पत्रकार संदीप देव की किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की‘ सन्नाटे को चीरने वाली भूमिका में हमारे सामने आती है। किताब भारत में घटी और घट रही घटनाओं को समझने और यथार्थ को वैश्विक नजरिए से देखने के लिए प्रेरित करती है। साम्यवाद की विविध रणनीतियों और रूपों से हमारा परिचय कराती है। पुस्तक का प्रारंभ साम्यवाद के सैद्धांतिक आधारों को टटोलने से होता है और जब सैद्धांतिकी को खंगालने का काम भारत पहुंचता है, तो उसके केंद्र में नेहरू आ जाते हैं। यद्यपि यह किताब साम्यवाद का वास्तविक स्वरूप हमारे सामने रखना चाहती है, लेकिन नेहरू की वैचारिकी और व्यक्तित्व को समझने-परखने का एक नया वैचारिक सिरा भी हमारे हाथ पकड़ा जाती है। नेहरू की वैचारिक बनावट की यात्रा पर संदर्भों के साथ जिस तरह से यह पुस्तक प्रकाश डालती है, वह आंख खोलने वाला है। मसलन फिलिप स्प्रैट का यह कथन कि ‘मैं जितना समझता था, उससे बड़े कम्युनिस्ट थे।‘
कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए साम्यवादियों ने एक रणनीति के तहत किस तरह उपयोग किया और चीन युद्ध के समय उनको किस तरह अंधेरे में रखकर धोखा दिया, वह किताब में बहुत सहज और रोचक बन जाता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य साम्यवादियों के लिए सबसे बड़ा शत्रु क्यों होता है, इसकी भी बड़ी गहराई से व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। राष्ट्र को चुनौती देने के लिए ही सन् 1919 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशन की स्थापना की गई थी। इसके जरिए कई देशों में लाल क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया था।
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता नए संदर्भ ग्रंथों तक इसकी पहुंच है। हिंदी माध्यम में आई किताबों में प्रायः वैश्विक संदर्भ स्रोतांे का अभाव ही दिखता है। लेकिन लेखक ने अपनी बात को प्रमाणिक बनाने के लिए विभिन्न स्रोंतों का उल्लेख कर इस किताब को ही महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। संदीप देव ने साम्यवादियों के लाल और खूंखार चेहरे को देखने के लिए एक खिड़की खोली है और भविष्य के शोधों के लिए एक आधार भूमि उपलब्ध कराई है। भारत में साम्यवाद को लेकर नई पीढ़ी में एक कसमसाहट दिखती है, लेकिन प्रायः वह खंडन का सशक्त वैचारिक आधार उपलब्ध न होने के कारण सही रास्ते का चुनाव नहीं कर पाती। यह किताब युवाओं को वर्तमान कसमसाहट में निजात दिला सकती है। नई पीढी का पथ-प्रदर्शक बनने की सभी संभावनाओं को यह किताब खुद में समेटे हुए है।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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