वास्तविक शत्रु, शस्त्र और मोर्चे की पहचान पर ही किसी संघर्ष का परिणाम सबसे अधिक निर्भर करता है। संघर्षों के दौरान बहुत से अन्य कारक भी परिणाम को प्रभावित करते हैं, लेकिन यदि कोई पक्ष शत्रु में मित्र और मित्र में शत्रु देखने के भ्रम का शिकार हो जाए या शत्रुता को लेकर ऊहापोह की स्थिति में आ जाए तो उस पक्ष का पराजित होना तय है। यह मनोदशा आत्मघात सरीखी स्थिति को जन्म देती है। इसी तरह संघर्ष के दौरान शत्रु पक्ष की रणनीति को मूर्त रूप देने वाले मोर्चों और प्रभावी हथियारों की पहचान भी अहम रणनीतिक जिम्मेदारी होती है। मोर्चे के महत्व के अनुरूप शक्ति के समानुपातिक सदुपयोग की कला सजगता से ही आती है।
दुर्भाग्यवश, सभ्यतागत-संघर्ष की वर्तमान विश्वव्यवस्था में हिंदू-धर्म शत्रु, शस्त्र और मोर्चों को लेकर भ्रम की स्थिति में है। अंतिम पैगंबर की अवधारणा पर आधारित पंथों की एकमात्र सत्य होने के दुराग्रह के कारण हिंदू धर्म की समावेशी प्रकृति को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है। एक तरफ यह कट्टरता है कि जो हमसे इतर है, वह झूठ है और उसे रहने का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ सभी पंथों को एक ही पलडे़ पर तोलने की अतिशय उदारता। यह विरोधाभासी स्थिति हिंदू-धर्म के समक्ष पिछले हजार सालों से चुनौतियां पैदा कर रही है और यह दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है।
सूचनात्मक-संकल्पनात्मक स्तर पर लड़े जा रहे वर्तमान सभ्यतागत-संघर्ष में मीडिया-अकादमिक जगत केंद्रीय भूमिका में हैं। मीडिया और अकादमिक का गठजोड़ सबसे घातक हथियार है और संघर्ष का बड़ा मोर्चा भी। इस मोर्चे पर हिन्दू धर्म की दयनीय उपस्थिति उसे कुव्याख्याओं के लिए सुभेद्य बना देती है। मीडिया और अकादमिक जगत में हिंदू धर्म की कुव्याख्याओं की पीड़ा से उपजी किताब है रीआर्मिंग-हिंदुइज्म। नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि यह कोई उत्तेजक और आक्रामक किताब है, लेकिन इसकी अंतर्वस्तु बताती है कि सबसे प्रभावी हथियार से लैस होने और सबसे निर्णायक मोर्चे पर डटने की भारतीयों से की गई अपील है।
लेखक इस मूल मान्यता को लेकर आगे बढ़ता है कि शोध, सूचना और संवाद कभी हिंदू धर्म की मूल शक्ति रहे हैं, पिछली कुछ शताब्दियों में यह परम्परा क्षीण हुई है। किताब के पहले हिस्से में उन सभी अकादमिक मिथकों की पहचान की गई है, जिनके जरिए हिंदू धर्म पर हमला किया जाता है मसलन-आर्य-आक्रमण का मिथक, वैदिक-हिंसा का मिथक, वैकल्पिक इतिहास का मिथक। दूसरे हिस्से में सनातन दर्शन के विविध आयामों को स्पर्श किया गया है और निष्कर्ष भारत की नियति, जगत गुरु के रूप में उसकी भूमिका को रेखांकित किया गया है।
लेखक इस तथ्य को मजबूती से स्थापित करता है कि हिंदू-धर्म के खिलाफ प्रतिस्पर्धी पक्ष आपस में हाथ मिलाकर आक्रमण करते हैं। इस्लाम और ईसाइयत एकजुट होकर हमला करते हैं, यूरोप और अमेरिका में वाम और दक्षिण मिलकर हिन्दू धर्म को निशाना बनाते हैं। रीआर्मिंग हिंदुइज्म इस बात से हमें सचेत करती है कि भारतीय सभ्यता पर हमलों को व्यक्तिगत पूर्वाग्रह मानने के प्रति सचेत करती है।‘ सबसे पहले हमें इस सच को स्वीकार करना चाहिए कि हिंदूफोबिया व्यक्तिगत पूर्वाग्रह नहीं है। यह एक बड़ी और गहरी राजनीतिक सच्चाई से उपजी अकादमिक रचना है। ( पृष्ठ 31)
पुस्तक की एक प्रमुख खूबी इसका संस्कृतिमय और संस्कृतमय होना है। किताब का पहले भाग का नाम देश-काल दोष है। पहले अध्याय का नाम अकादमिक माया सभा है। अंग्रेजी किताब में संस्कृत शब्दों और भारतीय संकल्पनाओं का विनियोग किताब को अलहदा बनाता है। इससे भी बड़ी बात भारतीय मानस पर किताब में स्थान-स्थान पर की गई अंतःदृष्टिपूर्ण की गई टिप्पणियां हैं। रामायण, महाभारत और पुराण हमारे लिए भूतकाल से संबंधित किताबें नहीं हैं, बल्कि शाश्वत, जीवंत सांस्कृतिक संसाधन हैं। ( पृष्ठ 144) अवतारों के जीवन में घटित त्याग-तपस्या को रेखांकित करने की शैली बहुत अनूठी है-राम और कृष्ण, महानतम, सर्वाधिक लोकप्रिय अवतार हैं। दोनों को वनवास झेलना पड़ा। एक को राज्याभिषेक से ठीक पहले और दूसरे को जन्म लेते ही। ( पृष्ठ 156)। इसी तरह भारतीयों की देव-विविधता संबंधी संकल्पना की लेखक अलग ही धरातल पर आकर्षक किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि मीडिया के अध्यापन से जुड़े एक प्रोफेसर ने भारतीय मीडिया की सभ्यतागत संघर्ष में भूमिका को इस किताब के जरिए रेखांकित किया है। साथ ही भारतीय दृष्टि से वैश्विक अकादमिक-मीडिया के गठजोड़ का मूल्यांकन किया है। अन्यथा अभी तक तो पश्चिमी मीडिया को आदर्श मानकर उसकी शब्दावली और नैरेटिव्स के अनुकरण का ही चलन रहा है। हां, कहीं-कहीं पर यह जरूर लगता है कि नई संकल्पनाओं को गढ़ने के बाद उनका उतनी गहराई से विश्लेषण नहीं किया गया है, जितना अपेक्षित है।
पुस्तक एक नया भारतीय परिप्रेक्ष्य रचने और समझने में सहायक है। पुस्तक का हिंदी संस्करण किताब को उसके लक्षित समूह तक पहुंचाने में सहायक होगा ही, भारत में चल रहे विमर्शों में कुछ नए सकारात्मक आयाम जोड़ने के लिए भी आवश्यक है।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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