मंथन का महोत्सव कुम्भ

जल की धाराएं तो हर बार हिमालय से निकल कर सागर में मिल जाती हैं लेकिन परम्परा की धाराएं कई बार समुद्र से निकलकर कर हिमालय तक पहुंच जाती हैं। परम्पराओं में चतुर्दिक चलने का सामर्थ्य होता है और ढलान हर बार इनके मार्ग का निर्धारण नहीं करता। परम्पराओं की इसी सामर्थ्य और प्रकृति से देश में एकता के सांस्कृतिक सूत्र निर्मित होते हैं। समुद्र मंथन की कथा परम्पराओं के चहुंओर बढ़ने के इस सामर्थ्य का उदाहरण है। एक ऐसी कथा जिसके केन्द्र में समुद्र है लेकिन उसकी उपस्थिति और प्रभाव अखिल भारतीय है। इस कथा की मथनी का सहयोग लेकर आज भी आम भारतीय अपना धर्मपथ निर्धारित करने की कोशिश करता है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि सबसे अधिक परम्पराओं का सृजन इस कथा ने ही किया है, शिव के जलाभिषेक की परम्परा हो या कुंभ स्नान की परम्परा और सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण से सम्बंधित परम्पराएं, सबके केन्द्र में समुद्र मंथन है। इससे भी अधिक आश्चर्य का विषय यह है कि समुद्र-मंथन से जुड़ी परम्पराएं अब भी जीवंत बनी हुई हैं, भारतीय संस्कृति के कुछ निश्चित संदेशों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सम्प्रेषित कर रही हैं। आखिर समुद्र मंथन की कथा भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों की अभिव्यक्ति की महाकथा क्यों बन गई है ? मंथन की इस कथा ने अपने भीतर कौन से संदेश संजोए हुए हैं? इससे भी बड़ी प्रश्न यह कि भले ही समुद्र-मंथन निकली परम्पराएं अब भी जीवंत बनी हुई हों, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में इस कथा में निहित संदेशों की कोई प्रासंगिकता बची भी है या नहीं। ये सारे प्रश्न एक पुनर्मंथन करने को विवश करते हैं।
समुद्र
-मंथन की कथा के केन्द्र में मंथन है। मंथन ही इस कथा का सबसे बड़ा मूल्य भी है। प्रायः मंथन का यह मूल्य कुछ आदर्शों को स्थापित करने की इच्छा से उपजता है लेकिन कोरे आदर्शों के जरिए आगे नहीं बढ़ता। यह यथार्थ की सटीक समझ के आधार पर आदर्शों को स्थापित करने की प्रक्रिया है। कथा तो यही संदेश देती है। समुद्र-मंथन की योजना देवों के पराजित होने के बाद बनाई जाती है, और देवों को पराजित करने वाले असुरों को सहभागी बनाकर बनाई जाती है। शत्रु को सहभागी बनाने का कारण क्या है ? ऐसा नहीं था कि असुरों का मन बदल गया था। उन्हें अमृत प्राप्त करने की योजना का हिस्सा बनाने के अपने जोखिम थे लेकिन यथार्थ यह था कि उनकी शक्ति को नकारकर, उन्हें सहभागी बनाए बिना समुद्र मंथन नहीं किया जा सकता था। देवता अक्षम थे और अकेले समुद्र- मंथन करना उनके सामर्थ्य के बाहर था। उनको सहभागी बनाना यथार्थ की स्वीकृति थी। समुद्र-मंथन का सबसे बड़ा संदेश यथार्थ की स्वीकृति ही है। आपको प्रिय हो या अप्रिय, यथार्थ को स्वीकार किए बगैर सच और सफलता की तरह आगे नहीं बढ़ जा सकता। यथार्थ का सामना करने का साहस आदर्श गढ़ने, पाने की मूलभूत शर्त है।
यह कथा बताती है कि मंथन एक बहुआयामी और जटिल प्रक्रिया है। इतनी जटिल की कई बार विरोधाभासी प्रतीत होती है। लेकिन जो सत्य के लिए, धर्म के लिए विरोधाभासों को साध सके, विरोधियों को साथ ले सके, वही मंथन कर पाने में सक्षम होता है। मंथन का आदर्श शिव है और यथार्थ शक्ति है। देवता मंथन के लिए अपने अहंकार को त्यागकर असुरों से संवाद करते हैं, उनसे समुद्र मंथन में सहभागी होने का निवेदन करते हैं, तो इसका कारण बड़े लक्ष्य के प्रति उनकी सजगता है। मंथन की कथा का दूसरा प्रमुख संदेश यही है। अहंकार का कद कभी भी लक्ष्य से बड़ा नहीं होना चाहिए। पूरी तरह सजग रहते हुए सभी शक्ति
-केन्द्रों का सम्मान करना, उनसे संवाद करना, सहभागी बनाना यही मंथन है। संवाद रचने या सहभागिता सुनिश्चित करने का आशय नहीं होता सजगता छोड़ दी जाए। लक्ष्य और शत्रु के प्रति सजगता मंथन की पूर्व शर्त है। समुद्र-मंथन में भी यह सजगता दिखती है। अमृत को लेकर मनमोहिनी रूप करने का प्रकरण यह साबित करता है कि निर्णायक क्षणों में देवपक्ष अपने लक्ष्य को लेकर सजग है।
मंथन भविष्य के अनिश्चय को स्वीकार करने का साहस है। यह मनमाने, मनमाफिक निष्कर्षों पर पहुंचने और उन पर विश्वास करने से हमें रोकती है। मंथन-जो है, उससे संवाद है और जो होना चाहिए, उसकी आकांक्षा है। और यथार्थ तो परिवर्तनशील है। वह कब, कौन सा रूप धरकर हमारे सामने खड़ा हो जाए, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। इसलिए भविष्य का अनिश्चय स्वीकार कर अपने मार्ग पर आगे बढ़ना यह मंथन का तीसरा संदेश बन जाता है। मंथन की प्रारंभिक स्थिति में कोई भी पक्ष यही नहीं जानता कि समुद्र-मंथन क्या परिणाम लेकर आएगा। लेकिन देवपक्ष इस बात को लेकर स्पष्ट है कि इसे टाला नहीं जा सकता। मार्ग में हलाहल विष है और अंत में अमृत का कुंभ भी। भविष्य के इस अनिश्चित स्वरूप को स्वीकार करने का साहस होने पर मंथन की घटना जन्म लेती है।
समुद्र-मंथन की यह कथा हमें इस बात के लिए भी आश्वस्त करती है कि यदि हम भविष्य का अनिश्चय स्वीकार कर आगे बढ़ते हैं तो अंतिम परिणाम अच्छा ही होता है, अंत में अमृत-कुंभ ही प्राप्त होता है। अंतिम निष्कर्ष सत्यमेव जयते ही है। यह इस कथा से मिलने वाला सम्बल है। सत्य में अनुरक्ति और उसकी विजय में विश्वास यह भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य है, समुद्र-मंथन भी इस मूल्य को पोषित करता है।
कुंभ को मंथन के इन संदेशों के परिप्रेक्ष्य में ही ठीक ढंग ढंग से समझा जा सकता है। कुंभ महोत्सव का मंथन की इस कथा से गहरा सम्बंध हैं। कुभ मंथन की देन है और यह मंथन की परम्परा को आगे बढ़ाने का आयोजन भी। कुंभ को मंथन का महोत्सव बनाकर ही अमृत की कुछ बूंदे प्राप्त देश-समाज के लिए प्राप्त की जा सकती हैं। मंथन का महोत्सव बनने की स्थिति में कुंभ संघर्ष-समाधान का सबसे प्रभावी और बड़ा उपकरण बन सकता है और संघर्षों से निजात खोजती दुनिया के लिए कुंभ की यह भूमिका अमृत की किसी बूंद से कम नहीं होगी।
कुंभ संघर्ष-समाधान की सनातन परम्परा है और संघर्षों के समाधाना की संभावनाएं अब भी इसमें बची हुई है। अपने-अपने हिस्से के सच को अंतिम सच मान लेना बहुत स्वाभाविक है। यदि टुकड़ों में बंटे सच एक दूसरे से संवाद न करें तो वृहदतर सच अपरिचित रह जाता है, बड़ी संभावनाएं आकार नहीं ले पातीं।यह स्थिति ही अतिवादिता को जन्म देती है। अपनी सीमाओं का भान न रहने पर सच का हर टुकड़ा, दूसरे के खिलाफ जिहाद छेड़ देने पर आमादा हो जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। अतिवादित और संवादहीनता की वर्तमान दौर में कुंभ जैसे आयोजनों के मूलभाव को पुर्नजीवित किया जाना बहुत आवश्यक हो जाता है क्योंकि कुंभ व्यवस्थागत घटकों के बीच संवाद का एक वृहद पारंपरिक प्लेटफार्म रहा है।
भारतीय संस्कृति संवाद से ही सत्य के उपलब्ध होने की बात कहती है। आप अध्यात्म के सूत्रों को पहचान करना चाहते हैं अथवा एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं, इसके लिए संवाद से बढ़कर कोई मानवीय और समग्र तरीका नहीं हो सकता। संवाद की अवधारणा के आधार पर ही लोकतांत्रिक मूल्य पनपते हैं और सहिष्णु लोकमानस भी बनता है। किसी भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों की पहचान और समाधान के लिए अधिकतम् सुझाव, संवाद की प्रक्रिया के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। संवाद की अतिशय महत्ता को ध्यान में रखकर ही शायद इसे धार्मिक पवित्रता की परिधि में प्रस्तुत किया जाता है। किसी के मत को खत्म करने के लिए शस्त्र उठाने की परंपरा हमारे यहां कभी भी नहीं रही। कुंभ, संवाद की इस परम्परा का सांस्थानिक स्वरूप है।
अमृत और अमरता का भी कुंभ से गहरा संबंध है। साधारणतया अमृत से एक ऐसे पदार्थ का आशय निकाला जाता है,जिसको ग्रहण करने के बाद हम कालवाह्य हो जाते हैं,कालातीत हो जाते हैं,काल के गुणधर्म से परे हो जाते हैं। अस्तित्व का विस्तार त्रिकाल में हो जाता है। लेकिन यह अमृत और अमरत्व की बहुत रूढ़ व्याख्या है। रूपांतरण की प्रक्रिया के जरिए अपने अस्तित्व को बनाए रखना भी एक प्रकार का अमरत्व है। भारतीय संस्कृति का अमरत्व कुछ इसी प्रकार का है। सामयिक परिवर्तनों को आत्मसात करने की प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति का कलेवर बदल जाता है,लेकिन उसके मूलाधार नहीं बदलते। वह नितनवीन होने के साथ भी चिरपुरातन भी बनी रहती है। नितनवीन और चिरपुरातन के बीच संतुलन बिंदुओं की खोज और उनको साधने की प्रक्रिया में कुंभ जैसे आयोजनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। आज जब हम परिवर्तनों के अंधड़ में जी रहे हैं तब इस संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज अपेक्षाकृत अधिक आवश्यक हो गई है। यदि हम कुंभ को व्यवस्थागत संवाद के प्लेटफार्म के मूलस्वरूप में स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित रूप से संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज भी कर लेंगे। ऐसा करना अपनी सांस्कृतिक धारा को अक्षय बनाए रखने के लिए जरूरी है।
कुंभ जैसे वृहत्तर आयोजन के जरिए मंथन के मूल्य और संवार की संस्कृति को पुनर्स्थापित किया जा सकता है। यदि ऐसा हो सके तो हम निश्चित रूप से सनातन को पोषित करने की स्थिति में होंगे क्योंकि सनातन को अमरता की बूंदे मंथन के मूल्य और संवाद की संस्कृति से ही मिलती रही हैं।

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