एक रोड शो के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को एक व्यक्ति थप्पड़ मार देता है। उनकी पार्टी इसे विरोधी दलों का षड्यंत्र बताती है और थप्पड़ मारने वाले व्यक्ति को दूसरे दल का कार्यकर्ता घोषित कर देती है। मामला आगे बढ़ता इससे पहले ही सोशल मीडिया पर उस व्यक्ति की छान-बीन शुरू हो जाती है और जो सच हाथ लगता है कि उससे एक प्रोपेगैंडा फैलने से पहले ही ध्वस्त हो जाता है। थोड़ी सी छानबीन के बाद यह पता चल जाता है कि वह व्यक्ति ‘आप’ से ही जुड़ा हुआ है और उसके कार्यक्रमों में शिरकत करता रहा है। सोशल मीडिया के ‘फैक्ट-चेक’ के कारण राजनीति को अपना रास्ता सुधारने का यह एक उदाहरण है।
इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ महागठबंधन ने बीएसएफ से बर्खास्त जवान तेजबहादुर यादव को उम्मीदवार बनाने की घोषणा कर बहुतों को आश्चर्य में डाल दिया। यह तर्क गढ़ने की कोशिश की गई कि सरकार सैन्य बलों की वास्तविक मांगों को अनसुना कर देती है और जो सही मुद्दे उठाता है, उसके खिलाफ तानाशाही रवैया और असहिष्णुतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाती है। तेजबहादुर यादव के जरिए राष्ट्रवाद, असहिष्णुता और अधिनायकवाद के त्रिकोण में प्रधानमंत्री को घेरने की योजना थी।
विपक्ष का एजेंडा आगे बढ़ता इससे पहले ही सोशल मीडिया के ‘फैक्ट-चेक’ ने उसकी हवा निकाल दी। पहले यह खबर आई कि तेजबहादुर यादव की फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हैं। रही-सही कसर उस वायरल वीडियो ने पूरी कर दी जिसमे तेजबहादुर यादव 50 करोड़ रूपए के एवज में प्रधानमंत्री की हत्या करवाने की बात कर रहे होते हैं। हिजबुल आतंकियों के साथ अपने संबंध होने की धौंस जमा रहा है, इसके आगे की कहानी बताने की जरूरत नहीं है।
इसी तरह चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री की एक वीडियो क्लिप वायरल करने की कोशिश की गई, जिसमें वह यह कहते हुए सुनाई पड़ रहे हैं कि ‘मैं पठान का बच्चा हूं’। उन्होंने यह बात इमरान खान को उद्धृत करते हुए कही थी। लेकिन वीडियो सुनने के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे प्रधानमंत्री स्वयं को ही, पठान का बच्चा कह रहे हैं। इस वीडियो की भी पोल खुलते देर नही लगी।
ये कुछ उदाहरण भर है, जो यह दर्शाते हैं कि चुनावी मौसम में सोशल मीडिया के कारण किस कदर राजनीतिक प्रोपेगैंडा पर रोक लगी है और उसे और राजनीतिक-प्रक्रिया को ट्रैक पर रखने की मदद मिली है। अभी तक सोशल मीडिया की प्रायः इसी संदर्भ मे चर्चा होती रही है कि यह झूठ को फैलाने का साधन बन गया है। सोशल मीडिया पर जिसके मन में जो आता है, वही लिख देता है और लोग बिना सच की पड़ताल किए पोस्ट्स को लाइक-शेयर करते रहते हैं।
कुल-मिलाकर सोशल मीडिया को झूठ का मंच साबित करने की पुरजोर कोशिश होती है, लेकिन इसी बीच चुनावी मौसम के दौरान सोशल मीडिया के फैक्ट चेक वाले रूप ने यह साबित कर दिया कि सोशल-मीडिया प्रोपेगैंडा-पॉलिटिक्स को लगभग नामुमकिन बना दिया है। झूठ की राजनीति न तो अब राजनेताओं के लिए संभव रह गई है और न ही पत्रकारों के लिए। चंद मिनटों में ही झूठ की राजनीति और झूठ की पत्रकारिता का किला सोशल मीडिया पर सक्रिय जंगजू फतह कर लेते हैं।
कारण यह है कि सोशल मीडिया ने प्रत्येक व्यक्ति को जुबान दे दी है। अब एक सामान्य सा आदमी भी बड़े से बड़े राजनेता अथवा पत्रकार द्वारा चलाए गए ‘विमर्श’ में न केवल हस्तक्षेप कर सकता है, बल्कि झूठ-सच की तरफ उसका ध्यान भी आकृष्ट करा सकता है। सच के लिए शाबाशी दे सकता है। झूठ के लिए झिड़की लगा सकता है।
आम आदमी को सोशल मीडिया ‘अभिव्यक्ति का नया आकाश’ दिया है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से जो हो-हल्ला मचा है, उसका कारण यह नही कि किसी की स्वतंत्रता छीनी गई है, बल्कि इसके पीछे टीस यह है कि अब हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक मंच मिल गया है। वह किसी से भी प्रश्न पूछ सकता है। इस नई परिघटना के कारण राजनीति और पत्रकारिता ने दशकों से चली आ रही मठाधीशी ढह गई है और मठाधीश बेचैन हो गए हैं।
सोशल मीडिया के कारण जो ‘फैक्ट चेक मैकेनिज्म’ उभरा है, उससे झूठ की सियासत पर विराम लगने की संभावनाए भी बलवती हुई है। 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों को अलग-अलग नजरिए से विश्लेषित किया ही जाएगा। इन सब विश्लेषणों के बीच देखने योग्य एक रोचक बात यह होगी कि सोशल मीडिया के कारण विकसित हुआ फैक्ट चेक मेकैनिज्म चुनावी दृष्टि से कितना कारगर हुआ है।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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