भारत के वाचाल समाज ने हमेशा ही दुनिया के तमाम संकटों में एक नई दृष्टि के साथ समाधान की बात कही है। भारत में यह काम हमेशा ही लोकसंवाद के माध्यमों ने किया है। कोरोना के इस संकट में भी भारत के लोक कलाकारों ने आगे बढ़कर संदेश देने का काम किया है। अल्हैतों का आल्हा, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समाज में प्रचलित रागनियां और भोजपुरी लोकगीतों समेत तमाम लोककलाओं से जुड़े कलाकारों ने कोरोना से निपटने के संदेश को पिरोकर जन-जन तक पहुंचाया है। महाकाल में आस्था रखने वाले समाज ने कोरोना के चलते पैनिक में आने की बजाय सावधानी, नियमों के पालन और मुसीबत में फंसे लोगों की मदद का संदेश देने का काम किया। आल्हा के लोकगायकों ने भी कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिए सहज और अर्थपूर्ण शब्दों में समाज को प्रेरित किया है। बुंदेलखंड के वीर योद्धाओं आल्हा और ऊदल की वीरता के बखान करने वाले काव्य आल्हखंड की तर्ज पर बने इन गीतों ने जनता को उनकी ही बोली में कोरोना के प्रति जागरूक किया है। ऐसे ही एक गीत में आल्हा की लोकगायिका संजो बघेल कोरोना से बचाव के लिए प्रेरित करते हुए कहती हैं- लगी है किसकी है मोटी हाय, झेल रही है दुनिया बीमारी, शहर वुहान से पहुंची आय, लाखों दीन्हें प्राण गंवाय। सभी लोग संयम अपनाय, हाथों को अच्छे से धोना, रहें सभी से दूरी बनाय, मुंह पर मास्क बांधकर रखना। रहना घर संकल्प बनाय, इन बातों का पालन करना, देंगे हम बीमारी को हराय, लॉकडाउन में घर ही रहना। कोरोना के इस संकट में भोजपुरी गीतों ने भी अपने सुरीले अंदाज में कोरोना के पैनिक से बचाते हुए लोगों को सहज भाव के साथ घर रहने और नियमों के पालन के लिए प्रेरित किया। भले ही बीते कुछ सालों में भोजपुरी के साथ भड़कीले गीतों को कुछ गायकों ने चस्पा करने की कोशिश की है, लेकिन इस दौर में पलायन के दर्द, कोरोना के मर्ज और नियमों को मानने के फर्ज को भोजपुरी गीतों ने बेहद रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। जे घर ही में प्रेम लगाई पिया, ओकर पजरा कोरोना न आई पिया। घर ही में समय बिताईं, हमार पिया रोड पर न जाईं... कोरोना पर भइल बा कड़ाई, हमार पिया बाहरा न जाईं, बचब आप अउर परिवार बच जाई, कुछ जिम्मेदारी लीहै का चाही। बार-बार हाथ सबुनियाईं, हमार पिया रोड पर न जाईं.... पुलिस घूम-घूम बात समझावै, डॉक्टर एहि के दवाई समझावै, कोरोना पर भइल बा कड़ाई हमार पिया रोड पर न जाईं। भोजपुरी के लोकप्रिय कलाकार भरत शर्मा ने अपने सुरीले अंदाज में इस गीत को पेश किया है। ऐसा ही एक गीत भोजपुरी गीत है, गइले कमाए उ तो दिल्ली ए सखी, लॉकडाउन में सइयां फंस गइले। इस गीत में लेखक ने एक साथ कोरोना के संकट, प्रेम और लॉकडाउन के नियमों को पिरोने का काम किया है। एक ऐसे दौर में जब हम अपनी लोकभा और लोककलाओं से दूर होते जा रहे हैं, तब इस तरह के गीतों ने यूट्यूब से लेकर फेसबुक तक न्यू मीडिया के तमाम माध्यमों में ख्याति हासिल की है। हरियाणवी के लोकगायक शैन्की गोस्वामी ने भी रैप की नई विधा के अंदाज में कोरोना के लॉकडाउन को लेकर बेहद रोचक गीत प्रस्तुत किया है। भारत की उत्सवधर्मिता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने इस गीत को जिस शैली में पेश किया है, उससे न सिर्फ कोरोना को लेकर संदेश मिलता है बल्कि समाज का सात्विक मनोरंजन भी होता है। प्रेमी और प्रेयसी के बीच संवाद को कोरोना और लॉकडाउन से जोड़ते हुए उन्होंने बेहद ही सहज ढंग से रोचक गीत प्रस्तुत किया है। जिसके बोल इस प्रकार हैं- लॉकडाउन होया मेरा गाम सुण लै, लगता न गेड़ा लाडो तेरे शहर का। बात मेरी मान रखियो तू भी ध्यान, घर आगे गेड़ा लागे पीसीआर का। पड़ी है मुसीबत जो टल जावैगी, राखना पड़ेगा लाडो ध्यान खुद का। हाथ नहीं मिलाना, मेंटेन रखो गैप, वर्ल्ड वार होया तीसरा मैदान युद्ध का। शैन्की गोस्वामी के इस गीत को यूट्यूब पर अब तक करीब 2.5 करोड़ लोग सुन चुके हैं। भले ही किसी कला को मापने के लिए व्यूअरशिप ही एकमात्र पैमाना नहीं हो सकती, लेकिन आंकड़ों के इस दौर में महामारी पर बने गीत को इतनी लोकप्रियता मिलना मायने जरूर रखता है। स्थान की सीमा को देखते हुए तमाम ऐसे हर प्रयास का उल्लेख यहां नहीं किया जा सकता, लेकिन कोरोना के संकट में लोकसंवाद के माध्यमों ने एक बार फिर साबित किया है कि कोई भी संदेश व्यक्ति अपनी मौलिक भाषा में ही सहजता के साथ समझ पाता है। भाषाविज्ञानियों ने भी अपने तमाम अध्ययनों में कहा है कि लोकभाषाओं में संवाद तमाम विवादों के हल का कारण बन सकता है। कोरोना काल में भी हमें यह देखने को मिलता है कि जो काम अंग्रेजी अखबारों के लंबे अग्रलेख, टीवी चैनलों की अंतहीन उबाऊ बहसें नहीं कर पाई, उसे सहजता के साथ लोक गीतों ने किया है। कोरोना जैसी महामारी के चलते जहां एक तरफ दुनिया खौफ के साये में जी रही है, वहां भारत में इस पर गीतों का सृजन होना बताता है कि भारत का उत्सवधर्मी समाज किस तरह से संकटों में भी अपनी राह बनाता है। यह सब इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह काम उस समाज ने जीवटता के साथ किया है, जिसका वैश्विक मीडिया ने हमेशा गरीबों के आंकड़े के तौर पर ही चित्रण किया है। उस समाज ने यह साबित किया है कि वह किस तरह सहजता से कड़े नियमों का पालन कर सकता है और संसाधनों की परवाह न कर हौसले के साथ कोरोना जैसे अदृश्य दुश्मन के मुकाबिल भी खड़ा रह सकता है। भारत के समाज में लिखित इतिहास का प्रभाव भले ही बड़ा अकादमिक महत्व रखता है, लेकिन आम लोगों के जीवन की बात करें तो अब भी भारतीय समाज मौखिक तौर पर हासिल परंपराओं का पालन कर रहा है। कोरोना के इस संकट में भारत के लोक ने साबित किया है कि संवाद के असल मायने आज भी उनके लिए बहुत बदले नहीं हैं।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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