सच्चाई की मीडिया-लिंचिंग

भारतीय मीडिया में यकायक सम्प्रदाय सबसे बड़ा ‘समाचार-मूल्य’ बन गया है। समाचार के चयन और महत्व का निर्धारण धड़ल्ले से साम्प्रदायिक आधार पर हो रहा है। किसी एक सम्प्रदाय से जुड़ी घटना मानवता का मुद्दा बन जाती है, सच की लड़ाई बन जाती है, अत्याचार की कहानी बन जाती है। लेकिन  किसी अन्य सम्प्रदाय से जुड़ी वैसी ही घटना खबर बनने के लिए तरस जाती है, मीडिया भयानक चुप्पी साध लेता है।

अपराधी को कानून के कठघरे में लाए बिना यदि भीड़ न्याय करने में उतारू हो जाए तो मॉब लिंचिग होती है। यदि सच का सुविधा और स्वार्थ के अनुसार किया चुनाव किया जाने लगे तो मीडिया लिंचिंग हो जाती है। एक में व्यक्ति की मौत होती है, दूसरे में सच दम तोड़ता है। हाल ही में जब पालघर में दो साधुओं की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई या असम में सब्जी बेचने वाले सनातन डेका मॉब लिचिंग का शिकार बने तो उनकी पहचान के साथ जिस तरह से खिलवाड़ किया गया, उससे मीडिया की साम्प्रदायिक आधार पर कवरेज करने का प्रश्न फिर से चर्चा का विषय बना। पालघर में तो साधुओं को मीडिया ने शुरुआती दौर में चोर बता दिया।

यदि पीछे भी नजर डालें तो इतिहास की सर्वाधिक अमानवीय, क्रूर और वीभत्स मॉब लिंचिंग की घटना मधु चिंदक्की की हत्या को माना जा सकता है। 22 फरवरी 2018 को जनजातीय समाज से ताल्लुक रखने वाले मधु चिंदक्की की हत्या कुछ मुट्ठी चावल चुराने के आरोप में कर दी गई थी। 27 वर्षीय मधु को बांधकर भीड़ ने इतनी बुरी तरह पीटा कि अस्पताल जाते समय उनकी मौत हो गई। अमानवीयता की हद यह थी कि कुछ लोग पिटाई के दौरान मानसिक रूप से विकलांग मधु के साथ सेल्फी ले रहे थे। मॉब लिंचिंग की इस घटना को एक समुदाय विशेष के द्वारा अंजाम दिया गया था। चार्जशीट के अनुसार एम. हुसैन, पी.सम्सुद्दीन, वी. नजीब, के सिद्दीक, और पी. अबूबकर मुख्य अभियुक्तों की सूची में शामिल हैं। मीडिया में मॉब लिंचिग के दौर पंथ और सम्प्रदाय ढूंढने की जो व्यग्रता रहती है, वह भीड़ द्वारा मधु चिंदक्की की हत्या मामले से पूरी तरह गायब है।

18 मई 2019को मथुरा के चौक बाजार में दुकानदार भारत यादव की एक भीड़ पीट-पीटकर हत्या कर देती है। उनका गुनाह केवल इतना था कि उन्होंने अपनी दुकान पर लस्सी पीने वाले कुछ लोगों से उसकी कीमत मांग ली थी। भारत यादव की उम्र 26 वर्ष थी। भारत यादव के भाई पंकज यादव हनीफ और शाहरुख को इस घटना के लिए दोषी ठहराते हैं। उनके अनुसार एक बुर्के वाली औरत ने भी भीड़ को उकसाया। पंकज के अनुसार भीड़ उनके भाई को काफिर कह-कह कर पीट रही थी। इस घटना पर मीडिया ने आपराधिक मौन धारण कर लिया। हिन्दी के अखबारों में तो यह इस घटना की थोड़ी बहुत कवरेज हुई भी। अंग्रेजी अखबारो से यह खबर लगभग पूरी तरह से गायब रही। इक्का-दुक्का अखबारों ने कवर किया भी तो वह बताने से अधिक छिपाने के अंदाज में किया।

11 मई 2019 को दिल्ली के बसई दारापुर में ध्रुव त्यागी के ऊपर इसलिए पत्थर बरसाए गए, पीटा गया और अंततः चाकुओं से गोद कर हत्या कर दी क्योंकि क्योंकि उन्होंने अपनी आंखों के सामने अपनी बेटी के साथ हो रही छेड़खानी का विरोध किया था। इस घटना में अपने पिता को बचाने आया अनमोल त्यागी भी बुरी तरह जख्मी हो गया।

इन तीन मामलों को मीडिया के पूर्वाग्रह और साम्प्रदायिक दृष्टिकोण को समझने के लिए केस स्टडी के रूप में लिया जा सकता है। इन सभी मामलों में मीडिया ने समुदाय का नाम नहीं लिया। इन्हें कानून और व्यवस्था का मामला माना। और ‘कथित’ शब्द का इस हद तक प्रयोग किया गया कि घटना की वास्तविकता के बारे में संदेह पैदा होने लगे।

तर्क यह दिया जा सकता है कि मीडिया नैतिकता के लिहाज से यह ठीक है। हां, इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। लेकिन जब तस्वीर का दूसरा पहलू देखते हैं कि तो आसानी से यह समझ में आ जाता है कि मामला इतना सीधा नहीं है। यदि आज एक सामान्य आदमी मीडिया लिंचिंग के मामलों को रिकॉल करने की कोशिश करता है तो उसे तीन घटनाएं याद आती है मोहम्मद अखलाक, पहलू खान और तबरेज अंसारी। आप दिमाग पर जोर देंगे तो यह तथ्य भी उभरेगी कि इन तीनों मामलों की छवि इस कदर आपके दिमाग में गढ़ी गई है मानो यह कानून व्यवस्था का मसला न हो। एक हिंसक, क्रूर और बहुसंख्यक समुदाय का एक अल्पसंख्यक और समुदाय पर किया गया हमला है।

इसका कारण बहुत स्पष्ट है मीडिया में इन घटनाओं की कवरेज कानून-व्यवस्था के प्रश्न के रूप में नहीं हुई। बल्कि एक बर्बर और बलवान समुदाय द्वारा शांतिप्रिय और निर्बल समुदाय पर हमले के रूप में की गई। इन हत्याओं का उपयोग राजनीतिक और सभ्यतागत आख्यान गढ़ने के लिए या उन्हें मजबूत बनाने के लिए किया गया। भारतीय मीडिया के लिए हिंदुओं पर हुए हमले व्यक्तिगत हो जाते हैं, कानून-व्यवस्था का प्रश्न बन जाते हैं, शांति-अपील के फुटनोट उनके साथ नत्थी कर दिए जाते हैं। मुसलमानों पर होने वाले हमले सामुदायिक हो जाते हैं, साम्प्रदायिक हो जाते हैं और उसमें आक्रोश को हवा-पानी दिया जाता है।

इससे भी आगे जाने वाला पूर्वाग्रह यह है कि मीडिया एक समुदाय के आरोपों को बिना छान-बीन के ही अंतिम मान ले रहा है और उन्हें प्रचारित-प्रसारित कर रहा है। गुरुग्राम में एक व्यक्ति ने यह आरोप लगाए कि दूसरे लोगों ने पीटा, टोपी उतरवायी, जय श्रीराम के नारे लगवाए। मीडिया ने इस खबर को हाथोंहाथ लिया। हैदराबाद से भी जबरन जय श्रीराम के नारे लगवाने की खबर आई, खबर पूरी तरह फर्जी पाई गई। पश्चिम बंगाल में एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम से जयश्रीराम के नारे पर लगवा रहा था। पेश ऐसे किया गया मानो हिन्दू मुसलमानों से जय श्रीराम के नारे लगवा रहे हों।

दूसरी तरफ हिन्दुओं से जुड़ी हुई पुख्ता खबरों को भी या तो कवर नहीं किया जाता है या शीर्षक में सम्बोधन लगाकर उन्हें संदेहास्पद बना दिया जाता है। केरल में महिला पुलिस कर्मी को दूसरे समुदाय के पुलिसकर्मी ने जिंदा जला दिया। कुछ अखबारों ने शीर्षक में इसे मानसिक असंतुलन से जोड़कर प्रस्तुत किया। दिल्ली में एक दुकान पर समुदाय विशेष के अपराधी ने तोड़-फोड़ किया, इस घटना को ऐसे पेश किया गया मानो दिल्लीवासी ने किसी मुंबईवासी से पर हमला कर दिया हो।

इस नई प्रवृत्ति के कारण भारतीय मीडिया की रही-सही विश्वसनीयता भी खत्म हो रही है। यह समाज में वैमनस्य और घृणा के नए बीज भी बो रही है। दिल्ली के चावड़ी बाजार के गली दुर्गा मन्दिर पर हुए हमले के तमाम कारणों में से एक कारण यह भी था कि वहां पर एक समुदाय विशेष के व्यक्ति की मॉब लिंचिंग का अफवाह उड़ी। एक समुदाय ने इस अफवाह का उपयोग मन्दिर पर हमला करने के लिए किया।

मॉब लिंचिग की झूठी और एकतरफा खबरें घृणा के व्यापार को आधार प्रदान कर रही है। मॉब लिंचिंग कानून व्यवस्था का प्रश्न है और इससे निपटा ही जाना चाहिए। लेकिन सच की जिस तरह से मीडिया लिंचिंग  की जा रही है, वह तो देश की सामूहिक चेतना के साथ खिलवाड़ है। उसे कैसे रोका जाए। सच के पक्ष में खड़े होकर, सच को मुखर करके ही ऐसा किया जा सकता है। मीडिया-लिंचिंग अभी शैशवास्था में है, यही इसके प्रतिकार का उचित समय है। अन्यथा झूठ का बाजार और अफवाहबाजी का तंत्र निर्णायक भूमिका में आ जाएंगे।

Comments

Please Login to Submit Your Comment