फेक न्यूज का कारोबार

24 मार्च, 2020 को सरकार ने देशभर में लॉकडाउन लागू किया। मीडिया के माध्यम से अफवाहों का खेल उसी समय शुरू हो गया था। सोशल मीडिया में जहां तमाम तरह के दावे किये जाने लगे, वहीं टेलीविजन और प्रिंट मीडिया में बरती गयी असावधानी के कारण स्थिति बेकाबू हो गयी। व्हाट्सएप के माध्यम से फैलायी गयी अफवाहों के कारण नई दिल्ली के आनन्द विहार बस अड्डे पर 28 मार्च, 2020 को अचानक हजारों मजदूर पहुंच गये। वे इस गफलत में पहुंचे कि वहां से उन्हें अपने-अपने राज्य में जाने के लिए बसें मिल रही हैं। इन अफवाहों को फैलाने में आम आदमी पार्टी के कुछ नेताओं के नाम सामने आए। लॉकडाउन के दौरान हजारों लोगों के अचानक बस अड्डे पर पहुंच जाने के कारण दिल्ली पुलिस और उत्तर प्रदेश सरकार के हाथ-पांव फूल गये। जैसे-तैसे उत्तर प्रदेश सरकार ने बसों का इंतजाम करके मजदूरों को उनके गांव तक पहुंचाने का काम किया। उससे अफवाहों का बाजार अन्य राज्यों में भी गर्म हुआ और अलग-अलग स्थानों से हजारों मजदूर पैदल ही अपने अपने गांव की तरफ जाने लगे। उन्हें लेकर मीडिया ने सरकारों पर निशाने दागने प्रारंभ किये। परिणामस्वरूप, केन्द्र सरकार को श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलानी पड़ीं। उससे पहले अफवाहों के कारण 19 मई को अचानक हजारों मजदूर मुम्बई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर पहुंच गये। जिस प्रकार दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता अफवाहें फैलाने में शामिल थे उसी प्रकार खबरें आई कि मुम्बई में शिव सेना के ही कुछ लोग एक न्यूज चैनल की मदद से अफवाहें फैलाने में शामिल पाये गये।

चूंकि देशभर में तब्लीगी जमात के लोगों द्वारा कोरोना फैलाने की खबरें जोर पकड़ रही थीं, इसलिए पंजाब में 1 मई, 2020 को अफवाह फैली कि हजूर साहेब नांदेड से आए हजारों श्रद्धालु कोरोना पॉजिटिव पाये गये। कुछ श्रद्धालुओं के क्वारंटाइन सेंटरों से भाग जाने की भी खबरें आई। बाद में पता चला कि पंजाब सरकार के ही कुछ लोग इस प्रकार की झूठी खबरें फैलाकर अकाली नेताओं पर निशाना दाग रहे थे। 12 अप्रैल, 2020 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले में स्थित जहांगीराबाद गांव से बहुत ही चैंकाने वाली खबर आई। दावा किया गया कि एक महिला ने अपने पांच बच्चों को गंगा नदी में इसलिए फेंक दिया क्योंकि उसके पास उन्हें खिलाने के लिए भोजन नहीं था। प्रशांत भूषण, पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे बड़े नाम भी इस अफवाह को फैलाने में शामिल हो गये। बाद में पता चला कि महिला के घर में पर्याप्त भोजन था और उसने अपने पति से झगडे़ के बाद ऐसा कदम उठाया।

अप्रैल में फेसबुक पर एक छोटी बच्ची का फोटो वायरल हुआ। बच्ची के हाथ में पोस्टर था जिस पर लिखा था कि बच्ची कोरोना वायरस से संक्रमित है। बाद में पता चला कि वायरल हो रही फोटो काफी पुरानी थी और बच्ची को कोविड संक्रमण नहीं कैंसर था। अप्रैल में ही एक पोस्ट व्हॉट्सएप पर तेजी से वायरल हुई, जिसमें दावा किया गया कि भारत में लॉकडाउन विश्व स्वास्थ्य संगठन के लॉकडाउन प्रोटोकॉल के मुताबिक की गई है। मेसेज में कहा गया कि 20 अप्रैल से 18 मई के बीच तीसरा चरण लागू होगा। मैसेज में यह भी दावा किया गया कि डब्ल्यूएचओ ने लॉकडाउन की अवधि को चार चरणों में बांटा है। वास्तव में चार चरणों में लॉकडाउन की बात झूठी थी और यह सिर्फ लोगों में भय पैदा करने के इरादे से फैलाई गई थी। डब्ल्यूएचओ के साथ ही भारत सरकार ने भी इस मेसेज को झूठा करार दिया। उसी दौरान व्हॉट्सएप पर एक और मेसेज वायरल हुआ जिसमें दावा किया गया कि व्हॉट्सएप ग्रुप में कोरोना वायरस को लेकर कोई मजाक या जोक साझा किया गया तो कानूनी कार्रवाई की जाएगी। मैसेज में दावा किया कि मजाक या जोक साझा करने पर ग्रुप एडमिन के खिलाफ धारा 68, 140 और 188 के उल्लंघन की ही तरह कार्रवाई की जाएगी। भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) ने उसे बाद में फर्जी करार दिया।

लॉकडाउन के दौरान इटली के एक शहर की तस्वीर में ढेर सारी लाशें फैली होने का दावा करते हुए कहा गया कि कोराना के कारण इटली में भारी तबाही हो चुकी है। बाद में पता चला कि वह तस्वीर दरअसल हॉलीवुड फिल्म ‘कांटेजिनअन’ का एक दृश्य था। एक और तस्वीर वायरल हुई जिसमें जमीन पर पडे़ लोग मदद के लिए चिल्ला रहे थे। वह तस्वीर 2014 के एक आर्ट प्रोजेक्ट की थी। खबर यह भी आई कि लॉकडाउन के दौरान 498 रूपये का जियो कनेक्शन निशुल्क मिल रहा है। वह संदेश भी पूरी तरह झूठ था। एक पोस्ट में दावा किया गया कि डा. रमेश गुप्ता नाम के एक लेखक ने जंतु विज्ञान पर लिखी पुस्तक में कोरोना का इलाज होने का दावा किया। वह दावा भी पूरी तरह झूठ पाया गया। हरियाणा के गुडगांव स्थित मेदांता अस्पताल के डा. नरेश त्रेहन की ओर से दावा किया कि उन्होंने देश में आपातकाल लागू करने की अपील की है। परन्तु बाद में डा. त्रेहन ने स्वयं कहा कि उन्होंने इस प्रकार की कभी अपील नहीं की। एक पोस्ट में दावा किया गया कि कोरोना की दवा खोज ली गयी है। बाद में पता चला कि जिस पैकेट को दवा के रूप में बताया गया, वह दरअसल कोरोना जांचने की किट का पैकेट था। कुछ लोगों ने यह भी दावा किया कि कोरोना वायरस का जीवनकाल 12 घंटे होता है। जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि अभी तक स्पष्ट रूप से ऐसी कोई जानकारी नहीं आई है कि यह वायरस किसी सतह पर कितनी देर जिंदा रहता है। एक और झूठी खबर फैलायी गयी कि अस्पतालों में हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग बिस्तर तैयार किये जा रहे हैं। एक खबर भी चलायी गयी कि एक पूरा अस्पताल ही कोरोना संक्रमित हो गया है।

ऐसी खबरों की सूची बहुत लंबी है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय ने फेक न्यूज की जांच के लिए एक स्पेशल ‘फैक्टचैक’ यूनिट बनायी, जिसमें अखबार, टेलीविजन और सोशल मीडिया पर चल रही फेक न्यूज की जांच करके एक घंटे के अंदर सही जानकारी प्रसारित की जाएगी। यह प्रयोग काफी सफल रहा और पीआईबी की इस यूनिट ने सैंकडों की संख्या में ‘फेक न्यूज’ की सत्यता को परखकर लोगों को सही जानकारी दी। इसी दौरान फेसबुक ने भी फर्जी खबरों को फैलने से रोकने के लिए कुछ कदम उठाए। व्हॉट्सएप ने 7 अप्रैल को मैसेज फॉरवडिंग को सीमित कर दिया। ट्विटर ने फेक न्यूज पर 11 मई से रोक लगाना शुरू कर दिया। इन सब कदमों के बावजूद ‘फेक न्यूज’ ने मीडिया की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न खडे़ कर दिये।

‘फेक न्यूज’ पर टिप्पणी करते हुए केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहाः ‘‘यह विकृत मानसिकता और गंदी सोच का प्रतीक है। हताशा और निराशा की इतनी हद हो गयी कि लोकतंत्र में जो लोग मत से नहीं जीत सकते वे अफवाहें फैलाकर देशवासियों को संकट में डालना चाहते हैं। फेक न्यूज प्रेस की आजादी नहीं है।’’ देश में एक लाख से अधिक अखबार, 800 से अधिक न्यूज चैनल और लाखों वेबसाइट हैं। इसके अलावा देश की अधिसंख्य आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। ‘फेक न्यूज’ इन सभी माध्यमों पर पल भर में घूम जाती है। जब तक सरकारी एजेंसियां सतर्क होती हैं तब तक ऐसी खबरें पूरे विश्व में घूम चुकी होती हैं।

‘फेक न्यूज’ पर टिप्पणी करते हुए भारतीय.जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी कहते हैं, ‘‘मीडिया में जो ‘फेक न्यूज’ आ रही है उसके पीछे गैर-पत्रकारीय शक्तियां हैं। मीडिया के आवरण में दूसरे लोग इसके पीछे हैं। मीडिया में आज एक्टिविस्ट बहुत सक्रिय हुए हैं जिनका उद्देश्य पत्रकारिता नहीं, दूसरा ही कुछ होता है। इसीलिए न्यूज चैनल्स ‘व्यूज चैनल्स’ में तब्दील हो गये हैं। यह चिंता की बात है। प्रभाष जोशी कहा करते थे कि पत्रकार की ‘पॉलिटिकल लाइन’ तो हो सकती है परन्तु ‘पार्टी लाइन’ नहीं होनी चाहिए। आज कोरोना काल में मीडिया में प्रकट पक्षधरता दिख रही है। संपादकों और मीडिया मालिकों को यह तय करना पडे़गा कि मीडिया के पवित्र मंच का इस्तेमाल भावनाओं को भडकाने और राजनीतिक दुरभिसंधियों के लिए नहीं होने देना चाहिए। जिन्हें ‘एक्टिविजम’ करना है वे पत्रकारिता को नमस्कार कर दें। मीडिया का काम सत्यान्वेषण है, ‘नैरेटिव सैट’ करना नहीं। फेक न्यूज के बढ़ते उद्योग के विरुद्ध मीडिया के लोगों को ही खड़ा होना पडे़गा। अफवाहों के कारण अपनी अपार लोकप्रियता के बावजूद सोशल मीडिया भरोसा हासिल करने में विफल रहा है। इसी कारण लोग भ्रमित हैं। इसलिए आज ऐसा तंत्र खड़ा करने की जरूरत है जहां सूचनाओं का खर्च समाज उठाना शुरू करे। समाज पर आधारित मीडिया अधिक स्वतंत्र और ताकतवर होगा। मीडिया की प्रामाणिकता पर उठते सवाल बहुत चिंता की बात है।’’

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