न्यूजरूम में तनाव

एक अदृश्य हत्यारा दबे पांव भारतीय मीडिया न्यूजरूप में प्रवेश कर चुका है जो चुन-चुनकर पत्रकारों को निशाना बना रहा है। स्थिति गंभीर है। यदि मीडिया मालिकों, सरकारों, पत्रकार संगठनों तथा स्वयं पत्रकारों द्वारा इसे रोकने के अविलंब ठोस प्रयास नहीं हुए तो आने वाले दिनों में यह मीडिया को प्रतिभा से वंचित कर देगा
देश के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ के युवा पत्रकार तरुण सिसोदिया (37)द्वारा दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में 6 जुलाई को की गयी आत्महत्या ने देश के सम्पूर्ण पत्रकार जगत को झकझोर दिया है। इसके कुछ ही दिन बाद दिल्ली के निकट गाजियाबाद में ‘पंजाब केसरी’ के एक प्रतिनिधि पवन कुमार द्वारा भी आत्महत्या करने का मामला सामने आया। इन दोनों ही पत्रकारों को मैं व्यक्तिगत रूप से गत करीब एक दशक से जानता था। दोनों ही होनहार, युवा और जुझारू पत्रकार थे और दोनों की आत्महत्या का कारण भी एक ही है-नौकरी छूटने के कारण उत्पन्न तनाव। ‘दैनिक भास्कर’ ने फरवरी में तरुण को नौकरी से निकालने का नोटिस दिया था। पवन की भी नौकरी चली गयी थी। उस तनाव के चलते दोनों इतने अधिक मानसिक अवसाद में चले गये कि आत्महत्या जैसा गलत कदम उठा लिया।
सम्पूर्ण समाज की समस्याओं को उजागर करने वाले पत्रकारों द्वारा आत्महत्या की खबरें भले ही मुख्यधारा के मीडिया में खबर न बनी हों, परन्तु इन दोनों ही घटनाओं ने समाचार पत्रों के न्यूजरूम में पनप रहे एक गंभीर खतरे की भयावहता को उजागर कर दिया है। वैसे मीडिया मालिकों की ओर से इसे गंभीरता से लेने की खबर अभी कहीं से नहीं मिली है, परन्तु कुछ पत्रकार संगठनों ने इस मुद्दे पर देशभर के पत्रकारों में जागरूकता अभियान चला दिया है। दिल्ली पत्रकार संघ के अध्यक्ष एवं ‘पीटीआई’ के वरिष्ठ पत्रकार मनोहर सिंह ने इस मुद्दे पर कई वेबिनार किये और अपने सदस्यों को तनावमुक्ति के गुरू सीखने के लिए वे सतत प्रेरित कर रहे हैं।
भारतीय मीडिया न्यूजरूम में गत पांच वर्षों में तनाव एक गंभीर समस्या के रूप में उभरा है। वर्ष 2014 में जब मैंने अपना पीएच.डी शोधकार्य प्रारंभ किया तो न्यूजरूम में कार्यरत पत्रकारों से बात करने के बाद यह एक गंभीर समस्या के रूप में उभरकर सामने आया। इस संबंध में जब मैंने और गहन अध्ययन किया तो पता चला कि पश्चिमी देशों के न्यूजरूम में यह समस्या एक दशक पहले महसूस की गयी थी और ‘बिजनेस इनसाइडर’ सहित विश्व के कई बड़े मीडिया संस्थानों द्वारा अपने पत्रकारों को ‘रिलेक्स’ रखने के लिए अनेक उपाय करने प्रारंभ किये गये थे। तभी से मैं भारतीय मीडियाकर्मियों को इस गंभीर खतरे के प्रति आगाह करता आ रहा हूं। बातचीत में हर पत्रकार बढ़ते तनाव और उससे उत्पन्न बीमारियों की बात करता है, परन्तु किसी भी मीडिया संस्थान में पत्रकारों के तनाव को कम करने के लिए कुछ नहीं हुआ।
वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय (कोटा, राजस्थान)में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के संयोजक प्रो. सुबोध कुमार के सान्निध्य में मैंने जून 2014 में भारतीय मीडिया न्यूजरूम पर अध्ययन प्रारंभ किया। अध्ययन के दौरान न्यूजरूम में कार्यरत 82 प्रतिशत से अधिक पत्रकारों ने तनाव को एक प्रमुख समस्या बताया। उस अध्ययन में बढ़ते तनाव के जो प्रमुख कारण पत्रकारों ने गिनाये उनमें शामिल थे-काम के अनिश्चित घंटे, सुबह समय पर ऑफिस आना तो तय लेकिन जाना कब, यह किसी को नहीं पता, कार्यदशाओं में निरंतर गिरावट, बढ़ती ठेका प्रथा के कारण नौकरी और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी समाप्त होना, सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी लाभ का न मिलना, प्रतिदिन ‘स्कूप’ न मिलने के कारण तनाव, पुरानी खबर को मसालेदार बनाकर प्रस्तुत करने के लिए नये ‘आइडेशन’, प्रतिस्पर्धी संचार माध्यमों से आगे रहने की होड, डेडलाइन का दबाव, सोशल मीडिया के कारण उत्पन्न चुनौतियां, मीडिया मालिक के बिजनेस हित, संपादक की व्यक्तिगत पसंद और नापंसद, न्यूजरूम में लोगों की छंटनी, रिपोर्टर और उपसंपादक पर बढ़ता काम का दबाव, माफिया व असामाजिक तत्वों की धमकियां, आतंकी हमलों, साम्प्रदायिक दंगों और किसी महामारी, प्राकृतिक आपदा, युद्ध आदि के कारण जान का संकट, आदि। संवाददाता ही नहीं, डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों की भी दर्जनों समस्याएं हैं जिनके कारण वे हर समय तनाव में रहते हैं। 
अध्ययन के दौरान यह भी पता चला कि पत्रकार स्वयं भी इस तनाव को कम करने के लिए कुछ तरीके अपनाते हैं। कुछ पान खाते हैं, कुछ सिगरेट और मदिरा का सेवन करते हैं तो कुछ अपने बॉस को गालियां देकर मन हल्का कर लेते हैं। कुछ आपस में अपनी समस्याओं पर चर्चा करते हैं। अध्ययन में पता चला कि पत्रकारों की कार्यदशाएं इतनी अधिक बिगड़ रही हैं कि उनके पास स्वयं का इलाज कराने का भी समय नहीं है। अपने परिवार और रिश्तेदारों की बीमारी का इलाज कराना तो दूर की बात है। कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि यदि रिश्तेदारी, पास-पड़ोस आदि में कहीं कोई मृत्यु हो जाती है तो संवदेना भी व्हाट्सएप पर ही व्यक्त करनी पड़ती है, क्योंकि व्यक्तिगत मिलने का समय नहीं है। पत्रकारों ने यह भी बताया कि नयी डिजिटल तकनीक भी किसी न किसी प्रकार से तनाव की बढ़ोतरी का कारण बनती जा रही है। ऑनलाइन पोर्टलों में एक नये तरीके की समस्या सामने आ रही है। पत्रकार पहले तो मसालेदार खबर लाए और फिर पोर्टल पर अपलोड होने के बाद उस पर अधिक से अधिक लाइक और शेयर भी सुनिश्चित करे। कुछ लोगों का तो मानधन भी इस पैटर्न पर ही निर्धारित होने लगा है। 
जून 2014 से लेकर अप्रैल 2017 तक मैंने यह अध्ययन दो चरणों में किया। अंतिम चरण में 169 पत्रकारों के सैंपल पर अध्ययन किया गया। अप्रैल 2017 में पता चला कि न्यूजरूम में काम करने वाले 30 वर्ष से अधिक आयु के 48 प्रतिशत पत्रकार किसी न किसी ऐसी समस्या से ग्रस्त थे जो उनके स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही थी। 26 प्रतिशत हड्डी की समस्या, उच्च रक्तचाप और मधुमेह से ग्रस्त थे, 27 प्रतिशत को आंख संबंधी शिकायत थी, 76 प्रतिशत कभी भी समय पर भोजन नहीं कर पाते थे। 78 प्रतिशत 12 घंटे से अधिक समय तक काम करते थे। 67 प्रतिशत ने कहा कि उनके पास स्वयं का भी इलाज कराने का समय नहीं था। 82 प्रतिशत नौकरी की गांरटी न होने के कारण चिंतित थे। इस सम्पूर्ण शोध पर आधारित मेरी पुस्तक ‘द फ्यूचर न्यूजरूम’ इसी साल जनवरी में प्रकाशित हुई है।
भारतीय मीडिया संस्थानों में भले ही तनाव को बडी चुनौती के रूप में न लिया गया हो, परन्तु अमेरिका जैसे देशों में इसे अनेक बीमारियों का प्रमुख कारण मानकर इसके निदान के लिए प्रयास 2012 के आसपास ही प्रारंभ हो गये थे। उसके बाद वहां अनेक मीडिया संस्थानों में इसकी गहरायी मापने के लिए शोध भी हुए। वर्ष 2012 में लेविसन जांच आयोग ने ‘द न्यूज ऑॅफ द वर्ल्ड’ के न्यूजरूम में काम करने वाले पत्रकारों में बढते तनाव का जिक्र किया था। इसे गंभीरता से लेते हुए ‘द हफिंगटन पोस्ट ने मई 2015 में पांच लेखों की एक श्रृंखला में इस मुद्दे को उठाया। उस स्टोरी में विस्तार से बताया गया कि पत्रकारों को भी यह नहीं मालूम कि जिन बीमारियों के वे शिकार होते जा रहे हैं उसका असली कारण तनाव है। उससे सबक लेते हुए न्यूयार्क की बिजनेस और तकनीकी न्यूज वेबसाइट ‘द बिजनेस इनसाइडर’ ने अपने कर्मचारियों को खुश रखने के लिए विशेष प्रयास करने प्रारंभ किये। उसके परिणामस्वरूप एक साल में ही कंपनी छोड़कर जाने वाले कर्मचारियों की संख्या में कमी आ गयी। अमेरिका के ‘द टाकिंग प्वाइंटस मेमो’ ने अपने ऑफिस में ‘नेप रूम’ बना दिये, जहां कोई भी कर्मचारी जब चाहे कुछ समय तक सो सकता है। इस आइडिया का शुरू में कंपनी प्रबंधन में कुछ लोगों ने विरोध किया, परन्तु छह महीने बाद ही पता चला कि ‘नेप रूम’ का इस्तेमाल करने वाले कर्मचारियों की ‘क्रिएटीविटी’ पहले की अपेक्षा बढ गयी। ‘फोर्ब्स’ ने भी अपने कर्मचारियों को 2015 में 100 डालर अतिरिक्त देने प्रारंभ कर दिये ताकि वे अपनी मनपसंद चीजें खा सकें। उसने भी ऑफिस में ‘नेप रूम’ बनाये, जिसका प्रयोग संपादक से लेकर सामान्य पत्रकार तक करते हैं। चूंकि लाभदायक सिद्ध हुआ इसलिए यह अभी भी जारी है।
भारत के मीडिया संस्थानों में पत्रकारों को तनावमुक्त रखने के लिए इस प्रकार के प्रयोगों पर चर्चा करने के लिए भी लोग तैयार नहीं हैं। यहां तो यह चर्चा प्रमुखता से होती है कि जो सुविधाएं पत्रकारों को दी जा रही हैं उनमें कटौती कैसे हो सकती है। कटौती को प्रबंधन अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाता है। हकीकत यह है कि भारतीय मीडिया न्यूजरूम में तनाव एक गंभीर समस्या बन चुका है और इस पर प्रभावी रोक लगाने के लिए सभी मीडिया संस्थानों में गंभीर और ईमानदार प्रयास किये जाने की जरूरत है। वास्तव में तो तनाव पत्रकारिता जगत की अनिवार्य बुराई है इसलिये नवोदित पत्रकारों को भी तनाव को झेलने और उस पर जीत हासिल करने का प्रशिक्षण मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों से ही दिया जाना चाहिए। अपने अध्ययन में मैंने पाया कि ’पीटीआई’ जैसी न्यूज एजेंसी में अनेक युवा पत्रकारों ने तनाव को झेल न पाने के कारण पत्रकारिता ही छोड़ दी। यदि यह ट्रेंड जारी रहा तो मीडिया की तरफ प्रतिभा आकर्षित नहीं होगी। वैसे भी ‘कैरियर कास्ट’ वेबसाइट ने पत्रकारिता की नौकरी को ‘वर्स्ट जॉब लिस्ट’ में रखा है, जिसमें वृद्धि दर तेजी से घट रही है। 2015 में वेबसाइट ने दावा किया था कि आने वाले सात वर्षों में रिपोर्टर की नौकरी में 13 प्रतिशत की गिरावट होगी। भारतीय मीडिया में यह स्थिति बनती नजर आ रही है। इसलिए अविलम्ब मीडिया संस्थानों, सरकारों, पत्रकार संगठनों आदि सभी को ठोस कदम उठाने होंगे। पत्रकारों को तनाव से जूझने के गुर सीखने होंगे। आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है। समस्या से पार पाने के तरीके खोजने होंगे। 
 

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