नया भारत और स्वच्छ भारत बनाने का लक्ष्य बॉलीवुड को स्वच्छ और नया बनाए बगैर प्राप्त नहीं किया जा सकता। असल में बॉलीवुड इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है। बॉलीवुड को स्वच्छ करना जरूरी है, तभी नया भारत बन सकता है। एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में अभिनेत्री कंगना रणौत ने बॉलीवुड की ताकत और उसमें पसरी गंदगी की तरफ संकेत करते हुए यह टिप्पणी की थी।
कई लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है। भला ‘नया भारत’ और ‘स्वच्छ भारत’ का मुंबइया सिनेमा से क्या सम्बंध हो सकता है? हमेशा ‘महत्वपूर्ण मुद्दों’ पर चर्चा करने के शौकीन कई बुद्धिजीवी पिछले दो महीनों से सोशल-मीडिया पर इस बात के लिए आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं कि सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या-हत्या प्रकरण को कुछ चैनल इतनी कवरेज क्यों दे रहे हैं? उनके लिए फिल्म और उससे जुड़े मुद्दों पर चर्चा करना वाहियात मुद्दे पर चर्चा करने जैसा है।
ये वही लोग हैं जो अन्य जगहों पर नई पीढ़ी में बढ़ती नशे की लत पर रोना रोते हैं। परिवार टूटने, सम्बंधों के बिखरने पर नोस्टैल्जिक होकर व्याख्यान देते हैं। सामाजिक-सरोकारों से युवाओं की बढ़ती दूरी पर कोसते हैं। लेकिन तनिक ठहरकर, इस बात का विश्लेषण करने की जहमत नहीं उठाते कि ऐसा क्यों हो रहा है? जिस तथाकथित नई पीढ़ी के बिगड़ने की बातें हर जगह होती हैं, वह नई चीजें सीख कहां से रही है? उसे आधुनिकता, प्रगतिशीलता, वैज्ञानिकता के नाम पर जो परोस जा रहा है, उसे वह स्वीकार कर रही है। प्रश्न यह है कि वह परोसने वाला कौन है? कौन है जो भारत की नई पीढ़ी के मन और स्वप्न को गढ़ रहा है? कौन भारतीय मन पर कुंडली मारकर बैठा हुआ है? ऐसा कौन सा प्लेटफार्म है, जो भारतीय मन और उसके स्वप्नों को निर्धारित कर रहा है?
जनसामान्य और विशेषज्ञ अलग-अलग शब्दावली और लहजे में एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नई पीढ़ी पर सबसे अधिक प्रभाव फिल्मी दुनिया का है, बॉलीवुड का है। समाजीकरण के अन्य माध्यमों का प्रभाव फिल्मी दुनिया के सामने हल्का पड़ता जा रहा है। खान-पान, रहन-सहन, जीवन के लक्ष्य, व्यवहार के मुहावरे सभी वहीं से तो आ रहे हैं। जिसके हाथों में देश की पूरी पीढ़ी हो, उस पर चर्चा करना निरर्थक विषय पर चर्चा करना कैसे हो सकता है? कंगना रणौत की टिप्पणी को इस संदर्भ में रखकर समझने की कोशिश करें तो उसके अर्थ आसानी से खुल जाते हैं।
इससे भी बड़ी बात यह कि जिस प्लेटफार्म और इंडस्ट्री के पास इतनी ताकत है, जो अपनी सम्मोहन-शक्ति के कारण सांस्कृतिक-अभिकेन्द्र बन गया है, उसको पारदर्शी, स्वच्छ और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत बनाने की जिम्मेदारी हमारी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर होनी चाहिए। युवाओं के सबसे बड़े रोल-मॉडल संवैधानिक और राष्ट्रीय मूल्यों के अनुसार काम करें, यह आवश्यक हो जाता है। इस दिशा में कार्य करना, उसके लिए परिवेश बनाना, पसरे हुए सड़ांध को दूर करने के लिए मुखर होना एक महत्तर राष्ट्रीय कर्तव्य बन जाता है। इसलिए बॉलीवुड पर बहस बहुत जरूरी हो जाती है और उसकी पारदर्शिता के लिए उठने वाली किसी भी आवाज का महत्व बढ़ जाता है।
कंगना की ही शब्दावली का इस्तेमाल करें तो बॉलीवुड कोई इंडस्ट्री नहीं बल्कि एक रैकेट की तरह कार्य करता है। हिन्दूफोबिक और राष्ट्रविरोधी मानसिकता से चलने वाले माफिया-गिरोह की तरह है। यदि बॉलीवुड के इतिहास पर नजर डालें तो इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है।
भारत में फिल्मों की शुरुआत लगभग एक सदी पहले दादा साहेब फाल्के से होती है। ऐतिहासिक साक्ष्य यह साबित करते हैं कि फिल्मी दुनिया में उनके प्रवेश का कारण भारतीय सभ्यता के उज्जवल पक्ष को लोगों के सामने रखना था। उन्हें मिशनरियों द्वारा दिखाई जा रही फिल्म ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ को देखकर पीड़ा हुई थी कि वे फिल्मी माध्यम का उपयोग मतांतरण के लिए कर रहे हैं। इसके बाद वह संकल्प लेते हैं कि फिल्म निर्माण की बारीकियों को सीखकर भारतीय कथानक और मूल्यों को आगे बढ़ाएंगे। फिल्म-निर्माण की बारीकियों के सीखने की उनके संघर्ष की एक अलग कहानी है। लेकिन उनकी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बताती है कि फिल्म निमार्ण में उनकी प्राथमिकताएं क्या थीं।
स्वतंत्रता के समय और उसके दो दशक बाद तक भारत का फिल्म जगत अपने सांस्कृतिक मूल्यों, देशज मान्यताओं और देशभक्ति से ओतप्रोत था। लेकिन इसी बीच बॉलीवुड में दो-पटकथा लेखकों सलीम-जावेद का प्रवेश होता है। और इसी के साथ शुरू होता है संवाद और कहानियों में भारतीय-समाज को वैचारिक और सभ्यतागत पूर्वाग्रहों के साथ पेश करने का सिलसिला। शोले, जंजीर, अंदाज, डॉन जैसी फिल्मों में इस पूर्वाग्रह को इतनी कुशलता के साथ गूंथा गया है कि दर्शक आसानी से इसको पकड़ नहीं पाता। समाज के कुछ वर्गों को बुरा और कुछ वर्गों को अच्छा दिखाने की परम्परा शुरु हुई। और यहीं से शुरु होता है अपनी परम्पराओं, सामाजिक-सरंचना और भारतीय यथार्थ का मखौल उड़ाने का सिलसिला, जो अब खुल्लम-खुल्ला देश का मखौल उड़ाने तक पहुंच गया है। उस समय गढ़ी गई ‘एंग्री यंगमैन’ की छवि ने भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को किस तरह प्रभावित किया, इसका विश्लेष्ण किया जाए तो वैचारिक आग्रहों को आसानी से पकड़ा जा सकता है।
नब्बे के दशक में बॉलीवुड तेजी से माफिया के शिकंजे में फंसता गया। फिल्मी-दुनिया को इंडस्ट्री का दर्जा देकर इसे रोकने की कोशिश की गई, लेकिन माफिया, ड्रग-रैकेट की घुसपैठ बॉलीवुड में इस कदर हो चुकी थी कि वह उससे ही संचालित होने लगा। मुम्बई बम धमाकों के बाद जब यहां का माफिया कराची पहुंचा तो उसके जरिए आईएसआई को बॉलीवुड में घुसपैठ करने का मौका मिल गया। उसके बाद तो जो काम संवादों में गूंथकर होता था, वह खुल्लमखुल्ला होने लगा। मिशन-कश्मीर, फना, माय नेम इज खान जैसी फिल्मों का पूरा कथानक ही इस तरह से बुना गया, जिससे पाकिस्तान का दृष्टिकोण साबित होता है।
इसी दौर में दिव्या भारती की रहस्यमय स्थितियों में मौत होती है। गुलशन-कुमार ने टी-सीरीज के जरिए देश में भक्ति-संगीत की एक नई गंगा बहाने की कोशिश की थी। पूरे देश ने उनके प्रयासों को हाथों-हाथ लिया था। बाद में उनकी नृशंस हत्या कर दी गई। उसके बाद पिछले दो-दशकों से इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। आज भी भक्ति और देशभक्ति के लिए लोगों को दशकों पूर्व के गानों से ही काम चलाना पड़ता है। आशुतोष राणा जैसे फिल्मकारों, जिनकी भाषा और दर्शन को लेकर एक स्पष्ट झुकाव था, उनके कैरियर को तबाह कर दिया गया। विवेक ओबेरॉय जैसों का कैरियर व्यक्तिगत कारणों से तबाह कर देना हाल की ही घटना है।
कंटेट के जरिए भारतीय आस्था के प्रतीकों को किस तरह से नुकसान पहुचाया जा सकता है, इसके हालिया उदाहरणों ने लोगों को सोचने पर विवश कर दिया है। पीके में भगवान शिव और गलियों की रामलीला में भगवान राम का मजाक तो खुले आम दिखता है। बजरंगी भाईजान में बंदरों के सामने झुकने या शाकाहारी खाने का जिस तरह मजाक उडाया गया है, वह बहुत बारीकी से देखने पर ही समझ में आता है। दंगल में खास मजहब के बेचने वाले मुर्गों का खाना, अंततः मांसाहार बनाने की अनभिज्ञता और कुश्ती के फाइनल के दिन प्रसाद के रूप में मिट्टी देने की घटना के जरिए किस तरह सभ्यतागत एजेंडे को आगे बढाया गया है, वह आसानी से समझ में आता है।
कंगना रणौत ने क्योंकि इस इंडस्ट्री में काम किया है, इसलिए उनके शब्दों में बॉलीवुड में काम कर रही देश-विरोधी और सभ्यता-विरोधी संरचना को समझना आवश्यक है। कंगना के अनुसार यह पूरा ढ़ांचा तीन स्तरों पर काम करता है। पहले स्तर पर महेश भट्ट जैसे लोग हैं, जो दिखने में कूल और आधुनिक लगते हैं, लेकिन फिल्में जेहादी बनाते हैं। दूसरे स्तर पर जावेद-अख्तर जैसे लोग हैं, जो स्वयं को नास्तिक बताते हैं, लेकिन उनका पूरा ध्यान इस बात पर होता है कि कौन लोग इस्लामिक सिद्धांतों के अनुसार काम करते है और कौन उसके विरोध में काम करते हैं। इसके आधार पर किसी अभिनेता को आगे बढ़ाने और रोकने की रणनीति बनाते हैं। तीसरे स्तर पर करण जौहर जैसे लोग हैं जो फिल्मों के कंटेंट को इस तरह से मोड़ते हैं, जिससे अपना देश, अपनी परम्पराएं ही खलनायक दिखने लगती हैं। गुंजन सक्सेना फिल्म में कपोल-कल्पित पितृसत्ता को दिखाने की बात हो या केसरी में सैनिकों द्वारा मस्जिद बनाने की बात, इसी तथ्य को साबित करते हैं, जबकि सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत थी।
मन पर कब्जा किसी देश के लिए सबसे भयावह स्थिति होती है। इसको लम्बे समय बरकरार रखने की इजाजत दे दी जाए तो गुलामी में आजादी और आजादी में गुलामी का भ्रम पैदा होने लगता है। इसलिए मूवी-माफिया के शिकंजे को तोड़ना जरूरी हो जाता है। यह स्थापित तथ्य है कि मूवी-माफिया की जान ड्रग में बसती है, इसके जरिए वह जहां बॉलीवुड के तंत्र को लचर बनाता है, अभिनेता-अभिनेत्रियों की कमजोरी का लाभ उठाने की स्थिति में पहुंचता है, वहीं उसे बॉलीवुड में निवेश लायक धन भी मिलता है। ड्रग के जरिए उगाही और फिल्मों में निवेश, यह एक सेट फार्मूला है।
इस स्थिति से निकलने का एक सहज और सरल उपाय अपने अनुभवों के आधार पर कंगना रणौत ने सुझाया है, वह यह है कि सभी अभिनेता, अभिनेत्री, फिल्म-डायरेक्टरर्स का किसी फिल्म शुरू करने से पहले इस बात को जानने के लिए ब्लड सैंपल लिया जाना चाहिए कि वह हार्ड ड्रग कनज्यूम करते हैं या नहीं और दूसरा उनसे यह हलफनामा लिया जाना चाहिए कि वह देश-विरोधी कंटेट औैर मानसिकता को आगे नहीं बढ़ाएंगे। जब खेलों तक में डोप टेस्ट किए जाते हैं तो पूरे देश की मानसिकता को प्रभावित करने वाले लोगों का ब्लड टेस्ट,डोप-टेस्ट क्यों नहीं होना चाहिए। आखिर किसी को भी अपने बच्चों का रोल-मॉडल बनाने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती। #drugtestforcelebrities का अभियान समय और देश की मांग है।
2024-04-08
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- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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