जीवन में किसी भी वस्तु को पाने का, प्रथम भोक्ता होने का जो मानवीय गौरव क्षण है, उसे हम सब जीना चाहते हैं। प्रथम होने की स्वाभाविक लालसा हमें तुष्ट करती है चाहे वह किसी भी रुप में हो।कलाओं के आस्वादन में भी यही भाव निहित रहता है। व्यक्ति कलाओं के साथ रसानुभूति में सबसे पहले 'मैं' की ही तुष्टि पाता है। वह अनुभव करता है कि वह अनुभूति उसके साथ है और पहला है। यह भाव-विभाव कला और प्रेक्षक के मध्य होता है। यही आनंद हमें सिनेमा देखने पर भी महसूस होता है। सिनेमा यदि किसी स्थापित कला के निकटस्थ है तो वो है नाट्य कला।
दोनों विधाओं में मुख्य है अभिनय। जीवन का दूसरा नाम अभिनय ही तो है। प्रतिरुपों का व्यापार। नाट्य और सिनेमा की तुलना से हम इसकी आधुनिकता, समकालीनता और कलामूल्यों को समझ पायेंगे। फिल्में निर्जीव मशीनी आँखों से देखा गया आधुनिक मनुष्य का स्वप्न है।इसका संसार अनूठा है। यह सामने जितना सच दिखता है उसकी प्रक्रिया में उतना ही हस्तक्षेप होता है। इसमें मुख्य रुप से होता तो अभिनय ही है, परन्तु वातावरण, परिप्रेक्ष्य रचने हेतु, अभिनय को काफी हद तक काट-छाँट कर नियंत्रित किया जाता है। नाटकों में दैहिक क्रियाकलाप, अंग संचालन का एकबारगी प्रस्तुति और साधारणीकरण की अनुभूति होती है। रंगमंच, नेपथ्य, प्रकाश, यवनिका(परदा)और रंगभूमि का उचित माप इत्यादि अभिनय की परिधि को अनुशासित करते हैं। इस दायरे में भाव-संचार सीधे दर्शक और अभिनेता के बीच होता है। अभिनय, संगीत, ध्वनि का प्रथम भोक्ता दर्शक होता है। जबकि फिल्में दर्शक और अभिनय के मध्य सीधी प्रक्रिया न होकर, अलग-अलग एकाकी होती हैं। कई-कई बार दुहराते हुए रिकार्ड किये गये अभिनय के बीच की ही कोई कड़ी, तकनीकी मदद से जोड़ कर, अभिनय का आभासी रुप हमें परदे पर देखने को मिलता है। उसमें भी कितनी मिलावट की जाती है कल्पनाओं की एकरुपता साधने के लिए।
फिल्म की कला सामूहिक अवदान और तकनीक पर आधारित है। इसमें अभिनय खण्ड-खण्ड रुप में घटित होता है जिसे तकनीक द्वारा जोड़कर आभासीय कल्पना का सृजन किया जाता है। दूसरे अर्थों में यह बासी अभिनय है जिसे तकनीकी छौंक-बघार के साथ सजावटी ध्वनियों में प्रस्तुत किया जाता है। फिल्में कथा को सजीव वातावरण में दिखाती हैं अतः उसका प्रभाव बढ़ जाता है।फिल्म देखते हुए आप उसकी गिरफ्त में होते हैं। हालाँकि किसी कृति की पकड़ में होना उसकी सफलता मानी जाती है परन्तु यहाँ मामला दूसरा है। मामला संवेदना के स्तर को क्रियान्वित करने का है। उदाहरणार्थ यदि आप चित्र देखते हैं तो चित्रकार की कल्पना के प्रथम आधार रंगों-रेखाओं लाघव-तीव्रता और कटाव को सीधे-सीधे अनुभव करते हैं। नाटकों में भी दैहिक अनुभूति दर्शक और अभिनय के मध्य होता है जहाँ गहराई में संवेद्य घटित होता है। यहाँ रचनाकार और प्रेक्षक के बीच सीधा संवाद होता है। यहाँ दर्शक, अभिनेता और अभिनय एक ही तल पर स्पंदित होते हैं। तीनों एक साथ एक ही समय में प्रवहमान होते हैं। उस क्षण की अनुभूति पवित्र एवं एको$हं की होती है। इसमें रिवाइन्ड नहीं होता। जबकि फिल्म विधा अभिनय कला को प्राथमिक स्तर पर ही छू पाती है जिससे संवेदना का प्राथमिक रुप ही बना रहता है। इसमें अभिनेता और अभिनय कई समयान्तरालों में घटित होता है। अभिनेता जिस चरित्र को दैहिक रुप में कथा को जीता है वह एक धरातल पर नहीं होता। जिस दर्शक के लिए वो नायकत्व को जीता है वो किसी दूसरे समयबोध में उससे जुड़ते हैं तिस पर भी आभासीय रुप में। दर्शकों के स्पंदित क्षणों में, उस रससिक्त समय में अभिनेता अपने अभिनय से कब का उतर चुका होता है।
वो कोई अन्य जीवन जी रहा होता है इसलिए नायकत्व का कोई भी आदर्श, भाव, मूल्य न तो अभिनेता को प्रभावित करता है न तो स्थायी रूप से दर्शकों को। दर्शकों को मिलती है केवल आक्रामक कल्पनाशीलता। फिल्म देखनेवाला व्यक्ति कल्पना की आक्रामक तीव्रता से ग्रस्त भाव या बोझिल अवस्था का आभास लेकर लौटता है। प्रेक्षक को प्रतीत भले न हो लेकिन फिल्म देखने के दौरान वो एकांगी क्षण को जी रहा होता है क्योंकि सामने न कोई अभिनेता, न ही वास्तविक मानवीय ध्वनि है। उसका अपना स्पंदन उद् भूत हुये बिना, तीव्रता से बदलते दृश्यों की परतों तले तकनीक के जाल में स्वयं को छोड़ के गिर सा जाता है और जब फिल्म देख कर हटता है तो सबसे तेज-तर्रार क्षण उत्प्रेरक की भांति उसके अन्दर धँस जाते हैं। इसे ही लोग सिनेमा का प्रभाव मानते हैं।
सिनेमा का विकास फोटोग्राफी तकनीक से हुआ है। आधुनिक समय में फोटोग्राफी से चलचित्रों में आते हुये तमाम तकनीकी संभावनाओं के कारण जनमानस को इस माध्यम ने सबसे अधिक प्रभावित किया है। अभिनय की साम्यता के आधार पर नाट्य और फिल्मों की बात की जाती है। कथा, पात्र, साजसज्जा, अभिनेयता और आनन्दानुभूति में दोनों विधाएँ एक सी प्रतीत होती हैं लेकिन दोनों में सूक्ष्म से लेकर बाह्यावरण तक काफी अंतर है। मूलतः नाटकों में उपस्थित दर्शक स्वयं कथा को घटित होते हुए देख रहे होते हैं। उसमें घटित घटना के प्रत्यक्ष साक्षी होते हैं तथा फिल्में किसी और (निर्देशक और कैमरा) के आँखों से देखे हुए अभिनय के सम्पादित अंश ही हम देखते हैं। जबकि नाटकों में घटना या अभिनय को बीच में सम्पादित नहीं किया जा सकता। नाट्यविधा में नायक, नायिका को देखता है। उन दोनों के भाव-व्यापारों को दर्शक निश्चित दूरी से देखता है। फिर उन भावों को अपनी कल्पना में भी साथ-साथ रुपायित करता है।
वहीं फिल्मों में नायक नायिका को नहीं देखता बल्कि वह तो कैमरे को आतुर होकर देखता है। हिरोइन हीरो को देखकर भावातुर नहीं होती, वह भी लेन्स की ओर ही देखती है। और उस लेंस के पीछे होती है किसी निर्देशक की आँखें। उस हिरोइन के भावविह्वल चेहरे पर हीरो की प्रेमल आँखें नहीं होती बल्कि निर्जीव कैमरे का जू$म परिप्रेक्ष्य होता है जो पूरे परदे पर बड़ा करके दिखाई देता है और दर्शकों को भ्रम होता है कि हीरो देख रहा है जबकि निर्देशक ये नियोजित करता है कि किस चीज को कितना दिखाना है। अतः हम किसी और की आँखों की देखी हुयी दृश्य-कथा को अपना देखा मानते हैं। यह गढ़ा गया भ्रम है जिसे हम अपना मानते हैं क्योंकि इसमें प्रेक्षक प्रत्यक्ष अभिनय का साक्षी नहीं होता, वह अपना दिमाग नहीं लगाता।
जो वस्तु, घटना स्क्रीन पर जितनी अधिक, चमकदार और बार-बार दिखाई पड़ती है दर्शक मन उसी के पक्ष में हो जाता है।तकनीक का प्रयोग कोई गलत धारणा नहीं है। समयानुसार कोई भी कला नवीनता लाने हेतु प्रयोगों से गुजरती है। यहाँ तकनीक का कोई दोष नहीं। फिल्में तकनीकी प्रयोगों से अधिक आश्चर्यजनक बनती हैं लेकिन तकनीक कलामूल्यों पर हावी हो जाय यह ठीक नहीं है। रसानुभूति की मौलिकता को ही भ्रमित कर देना कलात्मक अपराध है क्योंकि यह विधा ललित कला के सभी अंगों से मिलकर निर्मित होती है।
समष्टि की कल्पना पर तकनीक द्वारा किसी की व्यक्तिगत कल्पना सत्य बनकर व्याप्त होने लगे, तो कला का दुरुपयोग है जैसा कि हम फिल्मों में देखते हैं। चूँकि सिनेमा में तकनीक द्वारा सामान्य मानव की क्षमता को कई गुना अधिक, अतिशयोक्ति को सत्य बनाकर दिखाया जा सकता है इसलिए इसमें हस्तक्षेप की संभावना अधिक रहती है। हस्तक्षेप वृत्ति का नकारात्मक प्रभाव इसलिए ठीक नहीं है कि इस विधा का संचरण,इसकी पहुँच कुछ ही समय में लाखों लोगों तक होती है और इसे कितनी ही बार दोहराया जा सकता है जिससे जनमन में वह बात पैठ जाती है। कविता की अतिशयोक्ति श्रोता अपनी कल्पना की क्षमतानुसार गढ़ता है, संगीत, नृत्य, कला आदि मूल विधाएँ श्रोता-रसिकों को समानान्तर अपनी-अपनी कल्पनाएँ सृजित करने में योगदान करती हैं। प्रेक्षक, कलाकार के सापेक्ष कला का सहारा लेकर अपनी वायवीय दुनिया रचता है और स्वानुभूति को प्राप्त होता है परन्तु फिल्में, फिल्मकार की कल्पना का आरोपण करती हैं।
सभी दर्शक एकरुपता में ही जीते हैं, एक सी कल्पना में बहते हैं जो सामने परदे पर दिखाई पड़ता है। तकनीक द्वारा सृजित कल्पना, अतिशयोक्ति के वैयक्तिक भाव पैदा करती है। इसमें सामूहिक सुमंगल का अभाव रहता है।
जिन कलाओं में यंत्र और तकनीक का उपयोग अधिक किया जाता है वे कलाएँ, कला के मूलभाव को खो देती हैं। वैसे भी सिनेमा अपने मूलस्वरुप में कोई कला नहीं थी। यह तो यंत्रों के उद्विकास और प्रयोग करते-करते प्रदर्शन की कला बन गई। यांत्रिक सहयोग के बिना इसका अस्तित्व नहीं है बल्कि यह चित्रकला, नाट्य, साहित्य, संगीत से उधार लेकर संयोजित प्रयास है। ललित कलाओं के विभिन्न अंगों का, उसकी अनुभूतिगम्यता का उचित समावेश करके चलता-फिरता अनुभव दिखाया जाता है। इससे रससिद्धांत की प्रेरणा बेमानी है। रसानुभव, दर्शक का साधारणीकरण सहज मानवीय स्वभाव है। कोई भी घटना जो वह सुनता है, देखता है तो उसका चित्र मन में बनने लगता है। भाव साधारणीकरण की समानता के आधार पर सिनेमा को भारतीय सौंदर्यशास्त्र से सीधे नहीं जोड़ सकते।
कथाएँ जिस समाज की उपज होती हैं उस समाज के जीवन दर्शन को धारण किये रहती हैं। लोगों की इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, जीवनस्वप्न जिन रीति-नीति और धार्मिक विश्वासों में साँस लेती है वही वहाँ के काव्य-कहानियों में मिलता है। फोटोग्राफी फिल्मों से भी पहले, व्यक्ति और कथाओं का दर्शन हमारे यहाँ चित्र-मूर्ति में प्रचुर मात्रा में मिलता है। जब फिल्मों का विकास हुआ, उसमें कहानियों के चरित्रों को जीने के लिए जिस आइकनोग्राफी का सहारा लिया गया वे सब साहित्य और चित्र-मूर्ति से लिये गये।
आप पाश्चात्य हालीवुड की फिल्में देखेंगे तो उसमें शारीरिक सौष्ठव, मजबूत कद-काठी, गर्दन को किसी एक ओर झुकते हुये देखने के भावों में आपको यूरोपीय पुनर्जागरणकालीन चित्रकार-मूर्तिकारों के बनाये संयोजन का प्रतिरुप मिलेगा जैसे विंची, माईकलएंजलो, रोदां तिशियन के कला संयोजन। उनकी फिल्मों की पृष्ठभूमि में, रंग, वातावरण और समय में पाश्चात्य रोमांसवादी,यथार्थवादी कला की प्रेरणा है। इंगमार बर्गमैन, माईकलएंजलो एन्टोनियो, तारकोवस्की से लेकर अनेक फिल्मकारों से लेकर आज तक की कला व व्यावसायिक फिल्मों तक सबमें(गहरे समुद्री हरे, सीपिया रंग या कहीं एकदम चटख रंगों का टोन) कथा विकास, चरित्रों का द्वंद्व यूरोपीय मिथक और होमर के महाकाव्य का प्रभाव लिए हुए हैं। ग्रीक देवताओं की गठी काया एवं चेहरे पर उम्र की स्पष्ट छाया, फिल्मी चरित्र में वैसे ही उतरते हैं जैसे वे लिखे गए हैं। भारत में भी फिल्मों का आरंभ सतयुग की कथा 'राजा हरिश्चन्द्र' से हुआ। भारतीय सिनेमा की आरम्भिक प्रवृत्तियाँ देखेंगे तो आप पायेंगे कि उन फिल्मों में आइकनोग्राफी, हमारी कलाधरोहरों से लेने का प्रयास किया गया। अलंकरण, नृत्य, हाव-भाव वातावरण में अजंता-एलोरा के शिल्पों से प्रेरणा ली गयी। काव्य उपमानों में प्रकृति के भाव आरोपण का नायिका के मनोद्वेग चित्रित करने का प्रयास फिल्मों में मिलता है। नायक को आदर्शों से प्रेरित, धीर, उदात्त गढ़ने की छवि हमारे महाकाव्यों से ली गयी थी लेकिन अस्सी के दशक से नायकों का मुहावरा बुरे लोगों की छवि में बदल दिया गया। धीरे-धीरे नवीनता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति का चित्रण आधुनिकता के नाम पर होने लगा। फिल्मी कला का पैमाना टिकट बिक्री के रिकार्ड पर टिक गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अभिनय कला देह भोगकी लिप्सा का प्रदर्शन मात्र रह गयी। यहाँ कथा सरित्सागर, पंचतंत्र, रामायण-महाभारत की कमी नहीं थी लेकिन बिना बिल्ला नं. 786 लगाये भारत की कथित धर्मनिरपेक्षता का पता कैसे चलता? केवल भारतीय नाम ढ़ोता हीरो, इस देश का रह गया बाकी वातावरण, कहानियों की कहन, रंग-योजना सब हालीवुड की नकल हो गया। हिंदी बालीवुड इस रोग से अधिक ग्रस्त है जबकि दक्षिण भारतीय फिल्में कई मायने में भारतीय संस्कृति को अपेक्षाकृत गौरवभाव से दिखाती हैं। बहुत संभव है कि इसका कारण फिल्म माध्यम का क्रमिक विकास ही पश्चिमी देशों में होना हो। उपकरण उनके, कथा हमारी। आँखें उनकी, दृश्य हमारे। फिर वास्तविक वस्तुस्थिति की संभावना ही कैसे पैदा हो।
गति, 'टोनल वैल्यू', सेटिंग्स, आदि उन्होनें अपनी आवश्यकतानुसार विकसित किया जिसमें सिर घुसाकर हम अपनी बात कहना चाहते हैं। ये कैसे संभव है? जहाँ भारतीय संस्कृति-परंपरा, मूल्य-बोध, दिखाई पड़ जाता है वो "बाहुबली"(2015,2017) बन जाती है वरना छिछली प्यार-व्यार वाली लटकन-झटकनबन के रह जाती है।
यह देश कलाचिंतन की उर्वर भूमि रही है। यहाँ कला की अवधारणा ब्रह्मानंद सहोदर से जुड़ी हुई है। पुरुषार्थ चतुष्टय से होकर कलाओं की विश्रांति आनन्द में विलीन हो जाती है। आचार्य-चिंतकों ने कला के प्रथम भोक्ता दर्शकों को माना है अतः जनमन के आनन्द प्राप्ति में कला, कलाकार एवं कलाउपकरण माध्यम भर हैं। यहाँ देखनेवाला, रसिकहृदय है, विचक्षण है, वो सर्वोपरि है। सदैव दर्शक के सत् आनन्द की प्रतिष्ठा की जाती है। इसलिए नाट्यपरंपरा में नान्दीपाठ का विधान है, काव्य में मंगलाचरण होता ही है। फिल्मी कला में पैसा लगाने वाला(प्रोड्यूसर)और निर्देशक होता है जिसे दर्शकों से पैसे भी ऐंठने हैं।
शुल्क लेकर आनन्द कैसे दिया जा सकता है? पैसे खर्च करके सुखानुभूति कैसे पायी जा सकती है जबकि उसी पैसे के लिए हाड़तोड़ मेहनत की गई हो? आधुनिक फिल्में मनोरंजन का दोहन करती हैं, मनःशोधन तो दूर की बात है।कला माध्यम की तकनीक का विचारों पर सूक्ष्मता से असर पड़ता है अतः तकनीकों का प्रयोग भारतीय चिति के निरुपण में हो तभी, इस यंत्राधारित कला का भारतीय रुपक खड़ा होगा। भारतीय विषयों एवं दर्शन की जटिलताओं के फिल्मांकन, चित्रांकन समस्याओं की खोज में स्वतः नई तकनीक विकसित कर सकते हैं। पहले अपने विषयों के प्रति अध्ययन तो हो कथावस्तु, कहन, और चरित्र निर्मिति स्वयं आकार लेने लगेगी। हम ऐसे मुहावरे, कलाउपकरण की कल्पना कर सकते हैं जिसमें औपनिषदिक रोचकता और पौराणिक दिक् काल (टाइम एण्ड स्पेस) को मनोरंजक तरीके से कह सकें।-लेखक कला-विश्लेषक हैं।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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