2019 का फरवरी माह भारत में अपने आप में ही एक बड़ा घटनाक्रम रहा। केवल 10 से 15 दिन के भीतर ही इतनी बड़ी घटनाएं घटित हुईं कि हर दिन समाचार जगत और उससे जुड़े लोगों के लिए अहम हो गया। घटनाक्रम इतनी तेजी से बदल रहे थे कि जनता किसी भी स्थिति का पूर्व आकलन करने में असमर्थ थी। इस घड़ी में हमेशा की तरह मीडिया की भूमिका अहम रही। मीडिया ने पल-पल के समाचार और घटनाक्रम से संबंधित विश्लेषण देश के समक्ष रखे। हर घटना का मीडिया द्वारा विश्लेषण कर अपनी सुविधा और विचार के अनुकूल पक्ष रखा गया। इन पक्षों को रखते हुए मीडिया ने नए विमर्श खड़े करने के प्रयास भी किए। उस समय देश बहुत ही भावुक दौर से गुजर रहा था और अपने आप को असहाय सा महसूस कर रहा था। जनता के भाव के साथ समन्वय स्थापित करने के लिए, ऐसे पलों में मीडिया की भूमिका अहम हो जाती है। भारतीय मीडिया भी इस दौर में एक विमर्श स्थापित करने की मनोदशा से उतरी। इस विमर्श को स्थापित करने में मीडिया और समाचार पत्रों का असली चेहरा और उनको संचालित करने वाली विचारधाराएं और सोच भी देश के सामने आ गई।
14 फरवरी, 2019 को कश्मीर के पुलवामा में केंद्रीय सुरक्षा बल के काफिले पर एक आत्मघाती हमला हुआ। इस आत्मघाती हमले में भारत के 44 जवानों ने देश की सेवा और रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी। इस आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने स्वयं ली। साथ ही जिस आतंकवादी ने इस घटना को अंजाम दिया, उसका विडियो संदेश भी जैश-ए-मोहम्मद ने जारी किया। इस संदेश का प्रारंभ वह आतंकवादी यह कहकर करता है कि ‘‘मैंने यह आत्मघाती हमला गौमूत्र पीने वाले हिंदुओं को मारने के लिए किया और जब तक यह वीडियो आप तक पहुंचेगा, तब तक मैं जन्नत में पहुंच चुका हूंगा’’। इस हमले और जैश के इस वीडियो से एक बात और सपष्ट हो गई कि पाकिस्तान और आतंकवादियों द्वारा चलाया जा रहा यह अभियान किसी प्रकार से कोई आजादी की लड़ाई नहीं है। यह विशुद्ध रूप से भारत में इस्लाम की स्थापना की लड़ाई है। इसकी पुष्टि स्वयं पाकिस्तान के नेताओं ने टीवी और वहां की संसद में भी इस आत्मघाती हमले के बाद करते हुए कहा कि यह ‘गजवा-ए-हिंद’ की लड़ाई है और जारी रहेगी।
हमला भारत पर हुआ था, भारत के सैनिकों पर हुआ था। इस हमले की पूरी योजना आतंकवाद को विदेश नीति के रूप में उपयोग करने वाले पाकिस्तान में बनाई गई। पूरा भारत इस हमले से आहत था। 44 बलिदानी जवानों के आधे-अधूरे शव जैसे-जैसे उनके प्रांतों और नगर-गांवों में पहुंचे, वैसे-वैसे भारत का खून और उबला। पूरा देश आतंकवाद के विरोध में कड़ी कार्यवाही चाहता था। लेकिन भारत का मीडिया शायद देश से भिन्न विचार रख रहा था। देश पर हुए हमले पर उसकी प्रतिक्रिया ऐसी थी मानों भारत से उनका कोई सम्बंध ही न हो। इसी दौरान हिन्दी भाषी समाचार पत्र और अंग्रेजी समाचार पत्रों के बीच का अंतर भी खुलकर सामने आया। जब भारत में अंग्रेजों का शासन था, तब अंग्रेजों ने देशी प्रेस अधिनियम 1878 लाया। इस अधिनियम के तहत भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले सभी समाचार पत्रों के प्रकाशन पर रोक लगा दी गई और केवल अंग्रेजी समाचार पत्रों को ही प्रकाशन की अनुमति मिली। अंग्रेजों का मानना था कि देशी भाषाओं के समाचार पत्र अंग्रेजी शासन के विरोध में लिखकर भारतीय जनता के मन में विरोध का भाव उत्पन्न करते हैं। उस समय अंग्रेजों को खुश करने के लिए अंग्रेजी समाचार पत्र उनकी चाटुकारिता करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।
भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी भाषाओं के समाचारों ने हमेशा ही देशहित को सबसे उपर रखा। बाद में भारत के लोकतंत्र की हत्या कर जब इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में देश में आपातकाल लगाया गया, तब भी हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं के समाचार पत्रों ने उनका खुलकर विरोध किया। एक बार फिर देश की आत्मा पर हमला करने वालों के बचाव में अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्र खुलकर आए और उन्होंने देशहित को पीछे छोड़ इंदिरा गांधी की सराहना करना प्रारंभ कर दी। परिणामस्वरूप हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों के प्रकाशन पर एक बार पुनः अंग्रेजों के बाद इंदिरा गांधी ने प्रतिबंध लगा दिया। देखते ही देखते अंग्रेजी समाचार पत्र तो उनके पैरों में ही लेट गए। इस पर लालकृष्ण आडवाणी का बहुचर्चित वाक्य ध्यान आता है, जब वह उस समय अंग्रेजी मीडिया के बारे में कहते हैं कि ‘‘उन्हें जब झुकने के लिए कहा गया, तब वो तो रेंगने ही लग पड़े।’’ हम मान सकते हैं कि पहले अंग्रेजी समाचार पत्रों को अंग्रेजों का डर था और बाद में इंदिरा गांधी का कि वह हिंदी के पत्रकारों की तरह उन्हें भी जेल में न डाल दें। लेकिन सोचने का विषय यह है कि आज कौन सी शक्तियां अंग्रेजी मीडिया को भारत और भारतीयों के भावों के विरोध में लिखने और कार्य करने में विवश कर रही हैं।
अब हम फरवरी माह में हुए घटनाक्रम के ऊपर आते हैं। भारत पर पाकिस्तान के जैश-ए-मोहम्मद नामक आतंकी संगठन ने यह कायरतापूर्ण हमला किया और भारत के अंग्रेजी समाचार पत्रों ने इस हमले की जिस प्रकार रिपोर्टिंग की, उसे देखकर कहना कठिन था कि यह भारतीय समाचारपत्र हैं या पाकिस्तानी। लगभग हर अंग्रेजी समाचारपत्र ने इस हमले को भारतीय जवानों का देश के लिए बलिदान न बताकर अंग्रेजी के ‘किल्ड’ शब्द का प्रयोग किया, जिसका अर्थ है कि भारतीय जवान ‘मारे गए’ न कि बलिदान हुए। वहीं दूसरी ओर हर हिंदी और देशी भाषी समाचारपत्रों ने इसे भारतीय जवानों का देश के लिए बलिदान बताकर भारत की भावनाओं के सम्मान में अपने विचार रखे।
हमले की जिम्मेदारी स्वयं पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने ली। हमले को अंजाम देने वाले आतंकवादी ने स्वयं कबूला कि यह हमला उसने क्यों किया। तो सोचने की बात है कि टाइम्स ऑफ इंडिया को ऐसा क्यों छापना पड़ा जो जैश-ए-मोहम्मद और पाकिस्तान ने भी नहीं कहा। भारत के बहुत से अंग्रेजी समाचारपत्रों ने पाकिस्तान की भाषा इस समय बोली, लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया तो उसे भी पार कर गया और आतंकी को स्थानीय कश्मीरी बताकर, भारत सरकार पर ठीकरा फोड़ दिया कि वह जैश-ए-मोहम्मद पर इस हमले का आरोप लगा रही है।
बाद में यह क्रम लंबा चला और अंग्रेजी समाचार पत्रों ने बहुत प्रयास किए पाकिस्तान को बचाने के, लेकिन इस हमले को इस तरह स्वीकार करके बैठना कायरता ही माना जाता। अंततः 26 फरवरी, 2019 को भारत ने अपने जवानों के बलिदान का बदला ले लिया। 1971 के युद्ध के बाद पहली बार भारत ने पाकिस्तान के अंदर घुसकर हमला किया। भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के बालाकोट में घुसकर जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी ठिकानों को धवस्त किया और जब तक पाकिस्तान कुछ सोच भी पाता, तब तक भारत अपना काम कर चुका था। बाद में पाकिस्तान के अति आधुनिक अमेरिकी एफ-16 लड़ाकू जहाज को भारतीय वायु सेना के जवान ने अति साधारण मिग जहाज से मार गिराया। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय पायलट अभिनंदन पाकिस्तान की गिरफ्त में आ गए। उसके बाद भी हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग देश के प्रति प्रेम और वफादारी के बीच का अंतर पूरी तरह से दर्शाती है। जहां हर हिन्दी समाचारपत्र ने अभिनंदन की बहादुरी को सलाम कर, उसे वापिस लाने के लिए पाकिस्तान पर और कड़ी कार्यवाही तक करने की पैरवी की, वहीं प्रत्येक अंग्रेजी समाचारपत्र ने इसे भारत की हार बता पूरे देश को डराने का काम किया। इन समाचारपत्रों की प्रतियों के चित्र इस लेख के साथ दिए गए हैं, जिसमें हम अंतर साफ तौर पर देख सकते हैं।
भारत, भारतीयों और भारतीय सुरक्षा बलों के मनोबल को तोड़ने वाले विमर्श को खड़ा करने के प्रयास अंग्रेजी मीडिया ने इस दौरान बहुत किए। हर प्रयास किया गया कि पाकिस्तान को बचाया जाए, सेना के मनोबल को तोड़ा जाए और सरकार को घेरा जाए। लेकिन वह शायद भूल गए थे कि भारत की जनता के मन में भारत है, जय जवान-जय किसान भारतीयों के लिए केवल नारा नहीं है। पाकिस्तान को जवाब देने के लिए वह भारत सरकार से कहीं अधिक उत्साहित थे। इसलिए डराकर या सरकार को घेरकर वह भारत की जनता के बीच नया विमर्श नहीं चला पाए। साथ ही संप्रेषण के लिए जिस भाषा का उपयोग वह करते हैं, वह भारतीय समाज की भाषा है ही नहीं, तो भाव और विचारों का संप्रेषण कैसे संभव होता।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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