सी.आनंद

राष्ट्रीय संवाद का प्रतीक ‘श्रीराम ध्वज’

प्रतीक एवं चिन्ह अनंत काल से संवाद के बेहद महत्वपूर्ण माध्यम रहे हैं। लिखित या मौखिक संदेश बहुत बार इतने उपयोगी साबित नहीं होते, जितनी तीव्रता और परिपूर्णता से प्रतीक संवाद करते हैं। लिखित या मौखिक संदेश को भेजने और फिर उसे समझने में कईं प्रकार के अवरोधक होते हैं। भेजने वाला जिस मानसिकता और पृष्ठभूमि से उसे संपादित करता है, जरूरी नहीं प्राप्तकर्ता उसी दृष्टि से संदेश को ग्रहण करे। वहीं बात करें प्रतीकों या चिन्हों की तो इनके माध्यम से जो संदेश जाता है, लगभग पूरा समाज उसे एकरूप से ही आत्मसात करता है।

प्रतीकों में सर्वाधित महत्वपूर्ण यदि कोई वस्तु है तो वह निसंदेह ध्वज या पताका है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो ध्वज हमेशा से ही धर्म, यश, कीर्ति, विजय, सकारात्मक ऊर्जा, पहचान और शौर्य का द्योतक रहा है। काल और परिस्थिति के अनुरूप विभिन्न ध्वजों के उपयोग के उदाहरण हमें मिलते हैं। हिन्दू धर्म में घरों पर ध्वज लगाने की परंपरा पुरानी है। किसी भी शुभ और मांगलिक कार्य के दौरान या फिर त्योहारों में घर पर ध्वज लगाया जाता है। राजध्वज, संप्रदायों के ध्वज, किसी विशेष समुदाय, संस्था या गतिविधि से संबंधित ध्वज।

वहीं युद्ध-काल या रणभूमि में झंडों का विशेष रूप से प्रयोग होता है। यह झंडे संकेत के द्वारा सूचना देते हैं। महाभारत युद्ध में प्रत्येक योद्धा का अलग ध्वज था। सिख साम्राज्य की स्थापना करने वाले महाराजा रंजीत सिंह के युद्ध ध्वज में अंकित ‘देवी चण्डी, वीर हनुमान और भैरौ’ के चित्र शत्रु सेना को कंपित करने के साथ-साथ अपनी सेना में वीरता का संचार करते थे। ऐसे प्रत्येक ध्वज अपने-अपने समाज से एक ठोस प्रतीक के रूप में संवाद करते आए हैं और करते रहेंगे।

22 जनवरी, 2024 को अयोध्या में श्रीराम मंदिर में भगवान के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर ने पूरा देश को राम रंग में सराबोर कर दिया। इस दौरान देश का हर परिवार, संस्था और प्रतिष्ठान राम काज और राम उत्सव में सम्मिलित होने के लिए उत्साहित रहा। राम कथा का पठन-श्रवण, घरों की सजावट, भजन, कलश यात्राएं, प्रसाद वितरण, दीप प्रजवल्लन, कीर्तन, सोशल मीडिया के संदेश सरिखे अनेकों माध्यमों से पूरा देश राम धुन में मग्न रहा। हर कोई अपनी सुविधा, समझ और सामर्थ्य अनुसार राम संवाद कर रहा था। इस पूरे प्रकरण में एक और बहुत महत्वपूर्ण प्रतीक था जिससे पूरे समाज ने राममयी एकात्मता का संदेश दिया, वह था ‘श्रीराम ध्वज’।

इस दौरान हर घर, चौराहा, संस्थान, प्रतिष्ठान, बाजार, वाहन, वन, पर्वत, नदियां, धाम और लगभग हर स्थान पर समाज ने श्रीराम ध्वज स्थापित किया। श्रीराम ध्वज की ऐसी धूम थी कि दुकानों के साथ-साथ एमाजॉन और फिल्पकार्ट जैसे ऑनलाइन बाजारों में भी इसकी बिक्री हो रही थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि ध्वज कोई संस्था या संगठन नहीं अपितु स्वयं समाज के लोग बाजार से खरीदकर इन्हें अपने घरों और दुकानों की छतों पर लगा रहे थे। एक समय ऐसा भी आया जब लोगों को श्रीराम ध्वज बाजार में और ऑनलाइन तक मिलना बंद हो गया। पूरा भारत ‘श्रीराम ध्वज’ से सुशोभित दिखा।

वाल्मीकि रामायण में एक कथन आता है ‘एष वै सुमहान् श्रीमान् विटपी सम्प्रकाशते। विराजत्य् उद्गत स्कन्धः कोविदार ध्वजो रथे।’ जिसके अनुसार जब भरत श्रीराम से अयोध्या वापस लौटने की प्रार्थना के लिए चित्रकूट गये थे, तब उनके रथ पर कोविदार पेड़ ध्वजा पर अंकित था। भारद्वाज आश्रम में विश्राम कर रहे भगवान राम शोर सुनकर लक्ष्मण से देखने को कहते हैं। सेना के रथ पर लगे ध्वज को देख लक्ष्मण समझ गए कि सेना अयोध्या की है।

जिस प्रकार अयोध्या के राजध्वज से उस समय संकेत मिला कि यह अयोध्या की सेना है, वैसे ही राम ध्वज ने पूरे विश्व को संदेश दिया कि यह श्रीराम का राष्ट्र है। श्रीराम ध्वज के माध्यम से पूरे देश और समाज ने जो संदेश दिया उसे एक सुसंगत राष्ट्रीय संवाद के रूप में ही देखना चाहिए। एक ऐसा संवाद जिसमें बिना शब्दों और आधुनिक मीडिया के सहयोग के पूरा देश सम्मिलित हुआ और विश्व को राष्ट्रीय एकात्मता और परायणता का संदेश दिया।

मौसम-समाचार का नया हथियार

सूचनाएं हमेशा से हथियार के रूप में काम करती रही हैं, इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। समाचार भी हथियारों की तरह उपयोग में लाए जाते रहे हैं, इसके भी अनेक उदाहरण मिलते हैं, लेकिन पहली बार दुनिया में मौसम समाचार ने हथियार के रूप में काम किया है । मौसम समाचार को भारत ने पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए और जम्मू-कश्मीर के गिलगित-बाल्तीस्तान के हिस्से पर अपने नैसर्गिक दावे के लिए उपयोग किया है और यह काफी प्रभावी सिद्ध हुआ है।

भारतीय मौसम विभाग द्वारा 7 मई को अपने मौसम पूर्वानुमानों में पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के मुजफ्फराबाद जिले एवं पाकिस्तान अधिक्रांत लद्दाख क्षेत्र के गिलगित, बाल्टिस्तान को भी शामिल किया गया। तब से प्रतिदिन डीडी न्यूज अपने मौसम की रिपोर्ट कार्यक्रम में इन क्षेत्रों के तापमान को भी निरंतर दिखा रहा है। समाचार चैनलों द्वारा दिखाए जाने वाला यह मौसम पूर्वानुमान केवल गिलगित, बाल्टिस्तान एवं मुजफराबाद का तापमान नहीं दिखा रहा है, बल्कि भारत के वर्तमान मौसम का भी इससे साफ पता चल रहा है।

 

यह क्षेत्र भारत के संविधान और पूर्ववर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुसार भी भारत का अभिन्न एवं अविभाज्य अंग है। भारत से अंग्रेजी शासन समाप्त होने के समय महाराजा हरि सिंह के भारत प्रेम और पाकिस्तान में अधिमिलन न करने की प्रत्याशा के चलते पाकिस्तान ने राज्य पर हमला किया और जबरन कुछ हिस्सा कब्जा लिया, जो आज भी अवैध रूप से उसके अधीन है। अपने इस क्षेत्र को वापस लेने का विचार भारत के मन में काफी समय से है।

इस हेतु 22 फरवरी 1994 में भारत की संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर एक संकल्प लिया। वह संकल्प था पूर्ववर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर का जो क्षेत्र पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है, उसे आजाद करा पुनः भारत में मिलाना। इसका अर्थ है आज के केंद्र शासित राज्य जम्मू-कश्मीर का मुजफ्फराबाद जिला एवं केंद्र शासित लद्दाख के गिलगित एवं बाल्टिस्तान क्षेत्र को पाकिस्तान के अवैध कब्जे से स्वतंत्र करा पुनः भारत में मिलाना। भारत की संसद का यह संकल्प पूरे भारत का संकल्प था।

 

लेकिन इतने वर्षों में इस क्षेत्र को पुनः भारत में या भारत के चित में लाने के लिए कोई ठोस कदम भारत द्वारा नहीं उठाए गए। साथ ही भारत की मीडिया ने भी इस क्षेत्र को अपनी रिपोर्टिंग से दूर ही रखा। जिस कारण भारतीय मानस से यह क्षेत्र एक तरह से लुप्त हो गया था। पाकिस्तान के अवैध कब्जे में जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख का एक बड़ा हिस्सा है, इसका तो थोड़ा आभास हमें था, लेकिन वह कहां है, कैसा है और किस क्षेत्र में है इसकी जानकारी बहुत कम थी। किसी भी संकल्प को पूर्ण करने के लिए उसके बारे में बार-बार सोचना और उसे अपने चित में सदैव जीवित रखना आवश्यक है। भले ही उसे पाने में सैंकड़ों वर्ष लग जाएं, पर चित्त में वह निरंतर रहना चाहिए।

 

आज बहुत वर्षों बाद भारतीय मौसम विभाग ने इस क्षेत्र को भारत के मौसम पूर्वानुमान में सम्मिलित करके भारतीय मानस में इसे पुनः जीवित कर दिया है। अब इसे चेतन रखने का कार्य भारतीय मीडिया ही कर सकता है, जो कई कारणों से लम्बे समय से इस क्षेत्र को भूला बैठा है। डीडी न्यूज द्वारा रोजाना इस क्षेत्र के तापमान को निरंतर दिखाना इस चेतना को सजीव रखने का कार्य कर रहा है।

 

यह मौसम पूर्वानुमान भारत के बदलते मौसम की ओर संकेत कर रहा है। भारत अपने क्षेत्र को पुनः वापिस लेने के लिए संकल्पित है और यह मौसम पूर्वानुमान उस संकल्प को और दृढ़ कर रहा है।

 

 

व्यक्त नहीं कर पाई ‘संजु’

लम्बे समय के बाद काई ऐसी फिल्म आई जिसका लोग उत्सुक्ता से इंतजार कर रहे थे। इंतजार के दो कारण थे- एक तो राजकुमार हिरानी जैसे दिग्गज निर्देशक लम्बे अंतराल के बाद कोई फिल्म लेके आ रहे थे और दूसरा कारण जिसने सबको बांधे रखा वह फिल्म की थीम था। बालीवुड के खलनायक कहे जाने वाले संजय दत्त या संजु बाबा के जीवन पर बनी इस फिल्म से सबको बहुत अपेक्षाएं थी। अपेक्षाएं इस लिए थी कि संजय दत्त वैसे ही देश के एक बहुत बड़े वर्ग के चहिते रहे हैं और साथ ही उनका जीवन बड़े उतार-चढाव और विवादों से जुड़ा रहा है। ऐसे में ज़ाहिर था कि राजकुमार हिरानी संजु बाबा के अच्छे मित्र होने के नाते दुनिया के सामने उनकी सच्चाई या जीवन की दास्तां लाना चाहते थे। इसी कारण उन्होंने इतने बड़े स्तर पर इस फिल्म का निर्माण करने की सोची और बॉलीवुड के श्रेष्ठ अभिनेताओं और कलाकारों को इसके लिए चुना। लेकिन जो संदेश राजकुमार हिरानी देना चाहते थे, उससे वह पूरी तरह चूकते नज़र आए। संजय दत्त को पूरी फिल्म में मिडिया और व्यवस्था एवं संस्थाओं का शिकार बताने के प्रयास में उन्होंने  इसे बायोपिक के स्थान पर अभिनत प्रचार बनाकर अपनी योग्यताओं पर सवाल खड़े कर दिए।

इससे पूर्व भी विश्व भर में अनेक विवादित एवं बड़ी हस्तियों के जीवन पर कामयाब फिलमें बनीं हैं। उनकी कामयाबी के पिछे एक ही कारण रहा कि उनमें पक्षपात पूर्ण प्रचार की झलकियां कम और व्यक्ति के जीवन की असल झलकियां देखने को ज्यादा मिलती हैं। राजकुमार हिरानी ऐसा करने में नाकामयाब रहे, जिस कारण न ही फिल्म बॉक्स ऑफिस में कोई बहुत कमाल कर पाई और न ही संजु बाबा की छवि को अच्छा बनाने में कोई मदद कर पाई। बल्कि संजय दत्त के जीवन को और संद्धिग्द और छवि को नकारात्मक बनाने का काम इस फिल्म ने किया। जिस उत्सुक्ता से संजु बाबा को निर्दोश बताने का प्रयास इस फिल्म में किया गया उसने शक के दायरे को और बढ़ाने का काम किया।

एक और बात इस बायोपिक से सामने आई कि यह बायोपिक होने की बजाए संजय दत्त के जीवन का कुछ चुना हुआ हिस्सा था। जिसमें संजय दत्त के जीवन के बहुत से पहलू सामने लाने के प्रयास में कई असहज पहलू या सत्य छोड़ दिए गए। जवानी में किस तरह संजु बाबा नशे की लत में पड़ गए और फिर कैसे उनके पिता सुनिल दत्त ने हर संभव प्रयास करके अपने बेटे को उससे बाहर निकाला। कैसे नशे की लत्त के कारण उनकी गर्लफ्रेंड रूबी तक उनसे छूट गई। इन सब प्रकरणों को बड़ा-चड़ाकर दिखाने के लिए फिल्मी रूप दिया गया। लेकिन इस सबके बीच उनकी पहली पत्नी और बड़ी बेटी का जिक्र पूरी फिल्म में कहीं नज़र नहीं आया। ऐसे ही जीवन के कईं असहज पहलुओं को बड़ी बारीकि से इस बायोपिक में जगह नहीं मिली।

वहीं अगर फिल्म के स्टारकास्ट की बात करें तो केवल उसने ही जनता को बांधे रखा। कहानी और कंसेपट से ज्यादा दम स्टारकास्ट में था, जिसके कारण फिल्म थोड़ी चल सकी। सबसे पहले बात करें तो फिल्म के हीरो रंबीर कपूर की परफॉरमेंस लाजवाब थी। 1980 से 2015 तक के संजय दत्त का रोल अदा करके रंबीर कपूर ने एक बार फिर अपनी ऐकटिंग का लोहा मनवाया। संजय दत्त के किरदार को रंबीर कपूर ने इतना बखूबी निभाया कि कईं जगह वास्तव में भ्रम हुआ कि रंबीर कपूर हैं या संजय दत्त। उनकी मां के रोल में भी मनीषा कोयराला और पत्नी के रोल में दिया मिर्जा ने सादा और अच्छा अभिनय किया। दत्त साहब का अभिनय परेश रावल ने किया तो पर वह इतना अपील कर नहीं पाए।

क्ंसेपचुयलाईज़ेश्न और कहानी बताने में भी राजकुमार हिरानी अपने नाम के साथ इंसाफ नहीं कर पाए। बालीवुड को बड़ी बलाक्बस्टर्स देने वाले राजू हिरानी अपने चहिते हिरो की बायोपिक के साथ इनसाफ नहीं का पाए। संजय दत्त के विवादित और व्यसनों में उलझे जीवन को अति गलोरिफाई करने के चक्करों में राजकुमार हिरानी ने अपने करियर की नयुंतम कृति पेश की। व्यसनों में उलझे संजु बाबा के जीवन को जहां गलोरिफाई किया गया वहीं मुंबई बलास्ट और संजय दत्त के पास से बरामद हुई एके-56 का सारा ठीकरा मीडिया के सर फोड़ कर राजकुमार हिरानी ने अपनी बायोपिक को और नुकसान पहुंचाया। इसे कहने में कोई दोराए नही होगी कि जो संदेश वो इस बायोपिक के जरिए देना चाहते थे, उसमें पूरी तरह विफल रहे। विशेषज्ञ हो या आम आदमी, उनकी बात किसी के गले नहीं उतरी।

सांस्कृतिक सीमाओं के बोध की वापसी

भारत और भारत की नैसर्गिक सीमाओं की जानकारी इस भू खंड और विश्व के अन्य क्षेत्रों में निवास करने वाले जन-मानस को लम्बे समय से है। भारत में ज्ञान की उपासना कर रहे विद्वान हों, कला के क्षेत्र में कार्य कर रहे कलाकार, राजनीतिज्ञ, साधू-संन्यासी और विशेषकर राज कर रहे शासक एवं सम्राट, सभी में भारत की सांस्कृतिक एवं नैसर्गिक सीमाओं की असंदिग्ध समझ थी और वे इसके प्रति सजग भी थे।

भारत के अन्दर की राजनीतिक सीमाएं बदलती गई, परंतु सांस्कृतिक सीमाएं ज्यों का त्यों ही रहीं। राज-सत्ताएं बदलीं, दर्शन बदले, नए पंथ-संप्रदाय आए, लेकिन यहां रहने वाले लोगों का राष्ट्रबोध ज्यों का त्यों रहा। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम हर क्षेत्र की कुछ विशेषताएं रहीं। इन सभी विविदताओं के बावजूद सांस्कृतिक एकता के चलते राष्ट्रीय एकात्मता का भाव प्रवाहित रहा। इसी लिए जब बाहरी आक्रमण हुए, तब जो भूभाग आक्रांताओं के कब्जे में आए उसे किसी विशेष प्रांत पर हमला न मानकर, शासकों और महात्माओं ने भारत पर हमला माना। सांस्कृतिक सीमाओं का बोध होने की वजह से आक्रांताओं से सुदूर के हिस्सों को मुक्त करने के लिए निरंतर संघर्ष होते रहे। इसी कड़ी में उदाहरण के तौर पर कश्मीर के राजा सम्राट ललितादित्य ने भारत की नैसर्गिक सीमाओं को स्वतंत्र कराने के लिए अभियान चलाया था।

तत्पश्चात गुरु नानक देव की वाणी में बाबर के हमले के बारे में कहा गया ‘‘खूरासान खसमाना किया हिंदूस्तान डराइआ, आपै दोसू न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ।’’ बाबर द्वारा किए गए हमले को गुरु नानक देव ने हिन्दुस्तान पर हमला बताकर, उसकी क्रूरता और लूट का संपूर्ण वर्णन किया। बाद में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सम्राट ललितादित्य की भांति पुनः भारत की नैसर्गिक सीमाओं से आक्रांताओं को खदेड़ा।

भारत का मुकुट कहा जाने वाले कश्मीर में सम्राट ललितादित्य जैसे महान राजाओं का शासन रहा। इस दौरान भारत के बड़े क्षेत्र का शासन लम्बे समय तक कश्मीर से चला। इसी कश्मीर में तंत्र, शिक्षा और दर्शन के महान स्थल और विद्वानों ने जन्म लिया। जिसमें शारदा पीठ भारत में ज्ञान अर्जन की भूमि के रूप में स्थापित हुई। आचार्य अभिनवगुप्त जैसे विद्वानों ने इस भूमि पर ज्ञान की साधना की। इसी प्रकार अर्थ और व्यवसाय के लिहाज से भी यह क्षेत्र भारत की मजबूती का कारण रहा। रेशम मार्ग के नाम से प्रसिद्ध विश्व का व्यवसाय मार्ग इसी क्षेत्र के लद्दाख से होके निकलता था।

समय के साथ विदेशी आक्रान्ताओं के हमले भारत ने सहे, जिसका सबसे अधिक प्रभाव इसी क्षेत्र पर पड़ा। जो भी आक्रमण भारत में हुए वह इसी उत्तर-पश्चिमी दिशा से हुए। सम्राट ललितादित्य के समय एवं उसके उपरांत बनाए गये मंदिर और धर्म स्थलों को विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा ध्वस्त किया गया। विदेशी संस्कृति एवं सभ्यता का आगमन इस क्षेत्र में सबसे पहले हुआ। भारत का उत्तर-पश्चिमि क्षेत्र का भूखंड विदेशों से साथ लगे होने के कारण जमीन के रास्ते से आक्रांताओं के हमलों का शिकार बना। इसी वजह से इसी क्षेत्र से हमले हुए और इस हमलों को समय-समय पर केवल उस भूखंड पर नही अपितु भारत पर ही हमला माना गया। दक्षिण, पूर्व और पश्चिम समुद्र से गिरे रहने के कारण इस क्षेत्र से कम हमले हुए और उत्तर एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्र तिब्बत से लगता था, जिसका भारत से कोई सांस्कृतिक और सभ्यतागत संघर्ष नहीं था।

सम्राट ललितादित्य के बाद पुनः भारत की नैसर्गिक सीमाओं तक आक्रमण कर विदेशी आक्रान्ताओं को भगाने का कम महाराजा रणजीत सिंह ने किया। तदोपरांत महाराजा गुलाब सिंह ने राज्य की सत्ता संभाली और सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर राज्य अस्तित्व में आया। महाराजा गुलाब सिंह के सेनापति जोरावर सिंह ने तिब्बत तक का क्षेत्र विदेशी राज से मुक्त करवा, पुनः वहां भारतीय राज की स्थापना की। भारत की नैसर्गिक सीमाओं के प्रति जागरूक राजाओं और शासकों ने निरंतर आक्रान्ताओं को वहां से खदेड़ा और भारत को सुरक्षित रखा। अंग्रजी शासन से भारत की स्वतंत्रता के समय जम्मू-कश्मीर का शासन डोगरा राजा महाराजा हरी सिंह के पास था। महाराजा हरी सिंह भारतीय शासक थे, जिनकी भारत भक्ति से अंग्रेज भली भांति परिचित थे। भारत को छोड़ते समय अंग्रेज कभी नहीं चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत में रहे।

जिस राज्य ने भारत के ज्ञान, दर्शन, कलाओं और कुशल शासकों को जन्म दिया, उसका भारत से अलग होना उस राज्य की ही हत्या होती। साथ ही जम्मू-कश्मीर का शासन भारतीय राजा के अधीन होने की वजह से अंग्रेज उसका निर्णय नहीं कर सकते थे। राज्य के विलय का निर्णय केवल जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरी सिंह को करना था। जैसा कि विदित था, माउंटबेटन और जिन्ना के निरंतर दबाव और पंडित जवाहरलाल नेहरु की अज्ञानता के बावजूद महाराजा हरी सिंह ने राज्य को पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बनने दिया। अंततः 21 अक्तूबर 1947 को राज्य पर जबरन कब्जा करने के लिए पाकिस्तान द्वारा हमला किया गया। 26 अक्तूबर 1947 को महाराजा हरी सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर राज्य का पूर्ण विलय भारत में कर दिया।

विलय उपरांत जवाहरलाल नेहरु के दबाव के चलते महाराजा हरी सिंह को राज्य कि बागडोर नेहरु के मित्र शेख मुहम्मद अब्दुल्लाह को सौंपनी पड़ी। भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर राज्य को पाकिस्तानी कब्जे से छुड़ा रही थी कि अंग्रेजों द्वारा एक और खेल खेला गया और एक बार पुनः पंडित नेहरु का उपयोग भारत के हितों के विरुद्ध किया गया। 31 दिसम्बर 1947 को माउंटबेटन ने नेहरु को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में जम्मू-कश्मीर को ले जाने के लिए मना लिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने भी पाकिस्तान के इस हमले को भारत पर हमला मान उसका क्षेत्र खाली करने का निर्णय सुनाया, लेकिन संघर्ष विराम की घोषणा से दोनों देशों की सेनाएं जहाँ थीं, वहीं रह गयीं।

जम्मू-कश्मीर से महाराजा हरी सिंह का शासन खत्म हो गया था और भारत में जिनका शासन था उन्हें भारत की सांस्कृतिक सीमाएँ तो दूर, भारत का ही बहुत अल्प ज्ञान था। विदेशों से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर, विदेशी मुल्यों और तत्कालिक वैश्विक ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें पढ़ कर आये लोग अब भारत चला रहे थे। इसी कारण माऊंटबेटन के बहकावे पर बड़ी आसानी से भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में चला गया और जम्मू-कश्मीर का आधे से ज्यादा हिस्सा पाकिस्तान के अवैध कब्जे में ज्यों का त्यों रहा। जम्मू-कश्मीर का सामरिक महत्व न समझते हुए और भारत की सांस्कृतिक सीमाओं का बोध न होने के कारण से भविष्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा भारत ने मोल ले लिया।

अब पुनः भारत का उत्तर-पश्चिम विदेशी कब्जे में आ गया और भारत का पश्चिमि क्षेत्रों से सड़क मार्ग कट गया। इसके बाद एक ओर बड़ा खतरा सुरक्षा की दृष्टि से भारत पर मंडराने लगा। भारत की सांस्कृतिक सीमाओं के सामरिक महत्व से अनभिज्ञ भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू पुनः एक बार इस खतरे को नजरअंदाज कर विश्व शांति स्थापित करने के उद्देश्य में लगे रहे। यह खतरा था चीन का तिब्बत की ओर बढ़ने का। बहुत लोगों के आगाह करने के बावजूद पंडित जी ने इसे नजरअंदाज कर विश्व शांति पर ज्यादा जोर दिया। अंततः चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर इसपर कब्जा कर लिया। अब जिस उत्तर और उत्तर-पूर्वी समाओं से भारत को कभी खतरा नहीं था, वह भी हो गया।

अब से पहले चीन के साथ भारत का कोई सीमा विवाद नहीं था, क्योंकि भारत से चीन की सीमा लगती ही नहीं थी। पंडित जी को पुनः सरदार पटेल समेत चीन के भारत पर संभावित हमले को लेकर कई लोगों ने चेताया। लेकिन पंडित जी चीन को खतरा मानने को त्यार ही नहीं थे। अंततः पंडित नेहरू का यह भ्रम भी टूटा और 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। भारत का उत्तर-पूर्व और उत्तर का बहुत हिस्सा चीन के कब्जे में आ गया और पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान ने चीन को उपहार के रूप में दे दिया। जिसके बाद चीन ने भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र को सीमा विवाद में उलझाए रखा। तदोपरांत भारत की सुरक्षा को लेकर जितने भी खतरे हुए या भारत के जितने भी युद्ध हुए वह इन्हीं सीमाओं को लेकर हुए। भारत को इसके बाद जितने भी खतरे हुए या संकट आए तो उसका मुख्य कारण भारत की सांस्कृतिक सीमाओं से अनभिज्ञ रहने वाले राजनेताओं के हाथ में भारत की सत्ता होना ही था।

भारत की सुरक्षा को हुए खतरे के अलावा यदि जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति की भी बात करें, तो वह भी दयनीय ही रही। पंडित नेहरू के अत्याधिक विश्वास और समर्थन होने की वजह से शेख अब्दुल्ला ने राज्य में अपनी सुविधा से शासन चलाना शुरु कर दिया और देखते ही देखते राज्य के बहाने अपने लिए विशेष व्यवस्थाएं और सुविधाएं जुटाना प्रारंभ कर दी। माऊंटबेटन के बाद शेख अब्दुल्ला ने पंडित नेहरू को जम्मू-कश्मीर को लेकर अपने हिसाब से चलाना शुरु कर दिया। एक बार दोबारा देश की संप्रभुता और राज्य के सामरिक महत्व को नजरअंदाज कर शेख के दबाव के चलते जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 और 1954 में राष्ट्रपति के आदेश द्वारा अनुच्छेद 35ए लाया गया। जहां पहले भारत की सांस्कृतिक सीमाओं के प्रति सजग शासकों ने देश की अखंडता के लिए बाहरी ताकतों को भी घुटने पर लाते रहे, वहीं पंडित नेहरू शेख अब्दुल्ला के दबाव के आगे भी टिक न सके।

समय के साथ दिल्ली में पंडित नेहरू के परिवार या उसकी मदद से सरकारे बनती गई और जम्मू-कश्मीर में शेख परिवार या उसकी मदद से सरकारें बनती गई। पाकिस्तान और चीन का खतरा यूं ही बरकार रहा। भारत द्वारा कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं की गई। वहीं राज्य में अनुच्छेद 370 और 35ए की वजह से राज्य के विकास और वहां के जनता के कल्याण के रास्ते रुक गए। कश्मीर में बैठे अलगाववादी, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार डराते रहे और दिल्ली घुटने टेकता रही। भारत की सदियों पुरानी सामरिक बुद्धि और शक्ति पाकिस्तान और चीन का खतरा तो क्या कश्मीर के चंद परिवारों के आगे भी असहाय सी हो गई। अनुच्छेद 370, 35ए पर चर्चा तो दूर, कश्मीर के कुछ परिवारों की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य जम्मू-कश्मीर को लेकर करना नामुमकिन सा लगने लगा।

अंग्रेजों के जाने के बाद एक लम्बे काल तक भारत की सत्ता उन लोगों के हाथ में रही जिन्हे भारत की सांस्कृतिक सीमाओं का बौध नहीं था। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव भारत के लिए एक उम्मीद लेकर आया। भाजपा चुनाव जीती और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने। किसी ने इसे भारत में पुनः भारत का शासन के रूप में बताया और किसी ने भारत की वास्तविक स्वतंत्रता। लेकिन भारत में पुनः भारतीय शासन आने की पहली शर्त थी, भारत की सांस्कृतिक सीमाओं का बोध रखने वाला शासक। नरेंद्र मोदी ने देश की सत्ता संभालते ही जम्मू-कश्मीर को लेकर ऐसे कदम उठाए जिसकी आशा तो भारत सदियों से रखता था, पर उम्मीद बहुत कम।

जम्मू-कश्मीर के सामरिक महत्व को समझते हुए सर्वप्रथम राज्य में तैनात भारत की सेनाओं को घाटी से आतंकवाद के खात्मे और पाकिस्तान से मुकाबले के लिए बिल्कुल स्वतंत्र छोड़ दिया गया। घाटी में वर्षों से सक्रिय कईं आतंकियों का इस बीच भारतीय सेनाओं द्वारा सफाया किया गया। बीच में मुफ्ती परिवार की पीडीपी के साथ भाजपा ने सरकार भी बनाई, पर वैचारिक और राज्य के सामरिक विषयों पर समझौता होते देख दो वर्ष बाद सरकार से समर्थन वापस ले लिया। जो भारत आज से पूर्व जम्मू-कश्मीर की बात पर ही हतबल हो जाता था, उसने अब भारत और वैश्विक मंचों पर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर वापिस लेने की बात करना शुरु कर दी। हर मंच से भारत द्वारा अधिकारिक रूप में कहा जाने लगा कि भारत और पाकिस्तान के बीच अब जम्मू-कश्मीर को लेकर कोई विषय बचा है, तो वह पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर है।

पाकिस्तान द्वारा पूर्व की भांति ही आंतकवादियों को भेज सुरक्षा बलों पर हमले कराना और घाटी में अशांति फैलाने का वो खेल वैसे ही जारी रहा। पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा उड़ी में भारतीय सुरक्षा बलों पर हमला और पुलवामा में केंद्रीय सुरक्षा बल पर हुए हमलों का जो उत्तर भारत द्वारा दिया गया, उसका अनुमान पाकिस्तान तो क्या, शायद भारत को भी नहीं होगा। पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल स्ट्राईक और बालाकोट में आतंकी ठिकानों पर किए हवाई हमले, अपने पूराने रूप में लौट रहे नए भारत की पहचान थी। सम्राट ललितादित्य और महाराजा रेजीत सिंह द्वारा किया गया कार्य हजारों वर्षों बाद दोहराया गया। भारत ने शत्रु और आक्रांताओं की सीमा के अंदर घुरकर उसका सर्वनाश किया।

तिब्बत पर हुए हमले को जिस तरह से पंडित नेहरू द्वारा नकारा गया, जिसका दंश भारत आज तक भुगत रहा है। उसके विपरीत डोकलाम में चीनी सेना से सीधी टक्कर लेकर भारत ने चीन के भी होश उड़ा दिए और अंततः चीन को पहली दफा पीछे हटना पड़ा। वहीं जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में टैंक और लड़ाकू जहाज उतार कर वहां भी चीनी घुसपैठ को बंद किया गया। अब भारत सामरिक दृष्टि से वही कर रहा था जो उसकी अखंडता के लिए सही था। शेख अब्दुल्ला के दबावों से हार मान जाने वाला भारतीय शासन अब विश्व के बड़े दबावों के नीचे दबने से भी मना कर चुका था। भारत की सामरिक दृष्टि और रणनीति तो अब समझ में आ गई थी। लेकिन जम्मू-कश्मीर के अंदर परिस्थियां अभी भी बहुत हद तक वैसी ही थी।

कश्मीर में बैठे अलगावादी, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार का अहंकार अब भी बरकार था। वह अभी भी आश्वस्त थे कि भारत को वह जब चाहें विशेष राज्य का ढकोसला रच के डरा-धमका सकते हैं। यही कारण था कि अब्दुल्ला और मुफती परिवार का अहंकार इतना बढ़ गया कि वह यह तक कहने लगे कि अनुच्छेद 370, 35ए को छेड़ोगे तो राज्य तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा,, राज्य भारत से अलग हो जाएगा, मोदी दो बार तो क्या दस बार भी प्रधानमंत्री बन जाए तो भी अनुच्छेद 370 और 35ए नहीं हटा सकता, आदि।

अंततः 5 अगस्त 2019 का वह स्वर्णिम दिन, जिसका इंतजार भारत को सदियों से था। प्रधानमंत्री नरेंद्र के नेतृत्व में भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 के एक को छोड़ सब प्रावधान और 35ए हटा दिए गए और राज्य का पुनर्गठन कर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख दो केंद्र शासित राज्य बना दिए गए। दो केंद्र शासित राज्यों के मानचित्र ने भारत के सांस्कृतिक सीमाओं के बोध का मानचित्र स्पष्ट कर दिया। केंद्र शासित राज्य जम्मू-कश्मीर के मानचित्र में बिना किसी नियंत्रन रेखा के, पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के हिस्से के जिलों को स्पष्ट दर्शा कर भारत ने अपनी भविषय की रणनीति भी स्पष्ट की। वहीं केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के मानचित्र में भी पाक और चीन अधिक्रांत लद्दाख को पूर्णता बिना किया नियंत्रन रेखा या वास्तविक नियंत्रन रेखा के भारत का हिस्सा बताकर स्पष्ट संदेश दिया। इस दिन भारत की जीत हुई। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि भारत का शासन सदियों बाद भारत की सांस्कृतिक सीमाओं का बोध के प्रति सजग शासक के हाथों में था।

 

पंचायत चुनावों पर रणनीतिक चुप्पी

राजनीति मीडिया का प्राइम एजेंडा है। भारत में भी यदि मीडिया की बात की जाए तो यहां भी सबसे अधिक स्थान राजनीति और उससे संबंधित विषयों को ही मिलता है। इसमें भी यदि कहीं चुनाव हो रहे हों या चुनावों का दौर चल रहा हो तो इससे अच्छा मुद्दा तो मीडिया के लिए अन्य कोई है ही नहीं। चुनावों की कवरेज के लिए तो किसी भी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय मुद्दे को ताक पर रख दिया जात है। राजनीति के बाद कुछ और विषय भी आते हैं, जिनसे संबंधित सूचनाओं एवं समाचारों के इंतजार में मीडिया हमेशा रहता है। मीडिया का ऐसा ही एक पसंदीदा विषय है जम्मू-कश्मीर। जम्मू-कश्मीर से संबंधित किसी भी समाचार को मीडिया राष्ट्रीय विमर्श बनाने से पीछे नहीं हटता। चाहे मुद्दा राजनीतिक हो या गैर-राजनीतिक, यदि जम्मू-कश्मीर से संबंधित है तो मीडिया उसे किसी न किसी निष्कर्ष तक पहुंचाने के प्रयास में रहता है। हाल ही के दिनों में जम्मू-कश्मीर और राजनीति से संबंधित अनेक विषय मीडिया विमर्श का हिस्सा रहे। राजनीति की बात की जाए तो पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव, जिसमें भी प्रमुखता से तीन पर ही ध्यान दिया गया। वहीं जम्मू-कश्मीर में सेना द्वारा आतंकियों के खात्मे के लिए चलाया जा रहा ऑपरेशन ऑलआउट, धुरविरोधी र्पािर्टयां पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस द्वारा राज्य में सरकार बनाने के प्रयास, राज्यपाल द्वारा विधान सभा को भंग करना और आतंकियों के बचाव में आने वाले पत्थरबाजों पर सुरक्षा बलों की कार्यवाही जैसे विषय ही मीडिया की नजरों में आ सके।

इन सबके बीच, इसी दौरान एक ऐसा अद्भुत घटनाक्रम भी घट रहा था जो चुनाव, राजनीति और जम्मू-कश्मीर तीनों से संबंधित था, लेकिन न जाने किस योजनावश मीडिया के मुद्दों और चर्चाओं से गायब रहा। वह था पिछले दो महीनों में जम्मू-कश्मीर में हुए नगर पालिका और पंचायत चुनाव। राज्य में हुए यह चुनाव स्वयं ही एक नए विमर्श को जन्म देने वाले हैं, जो कि मीडिया जाने-अनजाने में देश को समझाने और बताने में विफल रही। अब यह विफलता अज्ञानता के कारण रही या किसी सोची-समझी रणनीति के तहत इस पर विचार करना चाहिए। क्योंकि यदि मीडिया इन चुनावों, उनके महत्व को चर्चा का विषय बना देती, तो आज तक जो भी विमर्श जम्म-कश्मीर के नाम पर इन्होंने खड़ा करने का सफल-असफल प्रयास किया था, वह ढह जाता। मीडिया भलिभांति जानती थी कि यह चुनाव जम्मू-कश्मीर राज्य और देश के लिए कितने महत्वपूर्ण चुनाव हैं और इनका महत्व पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों से ज्यादा ही था।

राज्य में नगर पालिका के चुनाव 2005 और पंचायत के चुनाव 2011 के बाद अब हो रहे थे। उससे पहले भी राज्य में यह चुनाव दशकों बाद हुए थे। राज्य में स्थानीय चुनावों का न होना या उन्हें निरंतर टालना कोई इत्तेफॉक नहीं, बल्कि सोची-समझी राजनीतिक साजिश रहा है। राज्य में दशकों से राज कर रहे राजनीतिक दल या परिवार ही इन चुनावों के पक्ष में नहीं रहे। वैसे तो देश भर में राजनीति में परिवारवाद के कईं उदाहरण मिलते हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक सत्ता प्रारंभ से ही कुछ परिवारों के हाथों में ही रही है। इनमें राज्य के दो प्रमुख राजनीतिक दल आते है, पहला शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह के परिवार की नेशनल कॉन्फ्रेंस और दूसरी मोहम्मद सईद के परिवार की पीडीपी। कांग्रेस का समर्थन पाकर दोनों परिवार की पार्टियां राज्य में सत्ता का सुख भोगते रहीं और अंततः सत्ता पाने के लिए मुफती मोहम्मद सईद के परिवार की पीडीपी को भाजपा से भी गठबंधन करना पड़ा। हालांकि यह गठबंधन कई कारणों से लम्बा नही चल सका, जिसमें से एक राज्य में स्थानीय चुनावों का न होना भी था।

इस एकाधिकार के कारण आम जनमानस की सत्ता और शासन में सहभागिता दूर-दूर तक कहीं नहीं थी। इन दोनों परिवारों को ही सर्वेसर्वा मानने की मानसिकता राज्य में विकसित की गई। यदि नगर पालिका या पंचायते राज्य में अस्तित्व में रहती तो सत्ता का विकेंद्रीकरण होता। विकास और कल्याण की योजनाओं के लिए केन्द्र से मिले धन को स्थानीय समितियां, निकाय और पंचायतों को देना पड़ता। इससे न केवल शासन अच्छे से चलता बल्कि आम जनमानस का इन परिवारों और राजनीतिक दलों को सर्वेसर्वा के रूप में स्वीकार करना मुश्किल हो जाता। इससे एक तरफ तो बिना हिसाब के मिले धन और संसाधनों को नीचे तक बांटना पड़ता और हर छोटी परेशानी के लिए आम जनमानस को इन परिवारों की ओर स्वामी की दृष्टि से नहीं देखना पड़ता। तो स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव न केवल जनता को सक्षम बनाते बल्कि शासन और सत्ता का विकेंद्रिकरण कर इन परिवारों की शक्तियों को भी क्षीण करते। साथ ही भविष्य में राज्य के आम महिला और पुरुष से इनको चुनौती भी मिल सकती थी। इसलिए परिवारों की सत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक यही था कि सत्ता और शासन केवल अपने हाथों में ही रहे और आम आदमी सत्ता और शासन से दूर ही रहे। स्थानीय निकाय एवं पंचायत चुनाव न ही केवल सत्ता का विकेंदी्रकरण करते बल्कि आम जन-मानस को भी सत्ता और शासन तक सीधा पहूंचाने का काम करते।

इसके अलावा एक और पक्ष जम्मू-कश्मीर की राजनीति और स्थानीय और पंचायत चुनावों के न होने देने से गहरा संबंध रखता है। जम्मू-कश्मीर राज्य के मूलतः तीन प्रमुख संभाग माने जाते हैं- लद्दाख, जम्मू और कश्मीर। इनमें से क्षेत्रफल में लद्दाख सबसे बड़ा है और जनसंख्या में जम्मू। लेकिन राज्य की विधानसभा में या सीधे तौर पर राज्य में राज कश्मीर से संबंधित दलों या कश्मीरी राजनेताओं का ही रहता है। जिससे जम्मू और लद्दाख संभाग की शासन और सत्ता में सहभागिता न के बराबर रहती है। स्थानीय निकाय और पंचायतें न होने की वजह से स्थिति लम्बे समय से ऐसे ही बनी हुई थी और आगे भी ऐसे ही रहती। जम्मू और लद्दाख को सत्ता और शासन से दूर रखने का यह सूनियोजित राजनीतिक षड़यंत्र था।

अब यदि हम जम्मू और लद्दाख से बाहर केवल कश्मीर की बात करें, तो वहां स्थानीय निकाय और पंचायतों के न होने से आम कश्मीरी की हालत बद से बदतर है। आम कश्मीरी न केवल सत्ता से बहुत दूर है, बल्कि अपने आप को व्यवस्था और सत्ता से ही कटा हुआ महसूस करता है। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में जिस कश्मीरी बहुलता की बात हमने की, उसमें भी आम कश्मीरी प्रतिनिधि नहीं है। यदि हम केवल कश्मीर घाटी की जनसांख्यिकी की बात करें तो वहां की जनसंख्या में 5 से 10 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो कि मूल रूप से कश्मीरी नहीं हैं। इनमें शेख, सईद, गिलानी, आदि प्रमुख जातियां हैं। सदियों पूर्व उनके पूवर्ज अरब, इरान और मध्य एशिया से कश्मीर में आए और कश्मीर पर राज किया। तब से लेकर अब तक इन 5-10 प्रतिशत बाहरी लोगों और स्थानीय कश्मीरी में किसी न किसी रूप में संघर्ष चल रहा है। अब जिस कश्मीर बहुल विधानसभा की बात हम उपर कर रहे थे, उसमें 50-60 प्रतिशत यह लोग ही हैं। यह विदेशी आज भी आम कश्मीरी को अपने से छोटा ही मानती हैं और इनपर राज करना अपना एकाधिकार समझती हैं। इस स्थिति में यदि स्थानीय निकाय, समितियां और पंचायतें अस्तित्व में आती हैं, तो आम कश्मीरी जो आज तक राजनीतिक सत्ता के चलते इनके अधिन था वह इनकी बराबरी तक न केवल पहुंच सकता है, बल्कि देर-सवेर इन्हें सत्ता से हटा इनपर राज भी सकता है। सीधे शब्दों में कहें तो जम्मू-कश्मीर में न केवल राज्य के बाहर के लोगों के अधिकार समाप्त हो जाते हैं, बल्कि राज्य में रह रहे लोग भी जाने-अनजाने अपने राजनीतिक अधिकारों से वंचित रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख तीनों संभागों के लोग राज्य की सत्ता और शासन से बिल्कुल वंचित हैं।

वर्षों से चली आ रही इस व्यवस्था को कभी न कभी तो समाप्त होना ही था। आखिर कब तक आम जनता की उपेक्षा कर राज्य में शासन किया जा सकता था। भारत की जगह कोई अन्य देश होता तो ऐसी राजनीतिक तानाशाही में गृहयुद्ध जैसे हालात बनने में भी समय नहीं लगता, लेकिल भारत के मजबूत लोकतंत्र और उस पर विश्वास करने वाली जम्मू-कश्मीर की जनता ने अंततः चुनौती दी। राज्य के राजनीतिक परिवारों के अस्तित्व और एकाधिकार को तोड़़ने वाले इन चुनावाों के पक्ष में तो यह प्रमुख पार्टीयां कभी नहीं थी, यह इस बार फिर पता लग गया। राज्यपाल द्वारा जैसे ही राज्य में स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव कराए जाने की बात कही गई, वैसे ही इन राजनीतिक दलों ने इसे अपने अस्तित्व पर चुनौती मानते हुए इन चुनावों में ही भाग लेने से मना कर दिया और राज्य के तथाकथित विशेषाधिकार से छेड़छाड़ का बहाना लगाया। अब कोई पूछे कि राज्य के आम आदमी के सत्ता और शासन में सहभागिता होने से किसके विशेषाधिकारों का हनन होता है? इन राजनीतिक परिवारों के या राज्य का? समय आने पर इसका बहुत उचित उत्तर भी राज्य की जनता ने इन राजनीतिक परिवारों को दे दिया।

राज्य की जनता को अपने परिवार की जागीर मानने वाले इन राजनीतिक परिवारों को लगा कि हम इस राज्य की दो प्रमुख पार्टियां हैं, यदि हम ही चुनावों से मना कर देंगे तो राज्यपाल चुनाव कैसे कराएंगे? इसके बावजूद भी राज्य के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने चुनाव कराने के संकल्प को वापस नहीं लिया। राज्यपाल कार्यालय की फैक्स मशीन बंद होने वाली खबर को प्रमुखता से दिखाने वाले मीडिया घरानों ने राज्यपाल की इस प्रशासनिक कुश्लता और इसके सामरिक महत्व को बताने का बिलकुल भी कष्ट नहीं किया। अंततः राज्य में नगर पालिका के चुनाव अक्तुबर माह में चार चरणों में और पंचायत चुनाव नवम्बर-दिसम्बर में नौ चरणों में कराने का निर्णय लिया गया। राज्य के प्रमुख राजनीतिक दलों के चुनावों में भाग लेने से मना करने के बाद भी राज्यपाल ने लिए चुनाव कराने का निर्णय लेना आसान काम नहीं था। एक तरफ जहां मुख्य राजनीतिक पार्टियां चुनावों का बहिष्कार कर चुकीं थी, वहीं दूसरी तरफ विभिन्न आतंकवादी संगठनों ने चुनावों में किसी भी तरह से भाग लेने वाले लोगों को जान से मारने की धमकियां तक दे दीं थी। इसी कड़ी में खुद को राज्य के प्रतिनिधि के रूप में दिखाने वाले अलगाववादी नेताओं ने भी खुले तौर पर चुनावों का बहिष्कार किया और राज्य की जनता को भी इनसे दूर रहने की धमकियां दी।

इन सबके बावजूद राज्य की जनता के खुले मन से इन चुनावों में न केवल अपना मत दिया, बल्कि लोकतंत्र के इस पर्व को मनाने का एक उत्साह राज्य की जनता में दिखा। जहां तक आतंकवादियों की धमकियों का सवाल था तो भारतीय सेना, राज्य की पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों ने एक भी आतंकवादी या कोई भी अन्य अप्रिय घटना को इन चुनावों में सफल नहीं होने दिया। अंततः राज्य में चार चरणों में नगर पालिका और नौ चरणों में पंचायत के चुनाव हुए। जिसमें नगर पालिका में 50 प्रतिशत के करीब राज्य की जनता ने मतदान किया और पंचायत चुनावों में 75 प्रतिशत के करीब लोगों ने अपना मतदान दिया। इतने बड़े स्तर पर चुनावों में मतदान यदि अन्य किसी राज्य में भी होता तो वह भी चर्चा का विषय बन सकता था। जम्मू-कश्मीर में तो यह एक नए विमर्श को जन्म देता ही है, लेकिन राजनीति और जम्मू-कश्मीर के पीछे भागने वाली मीडिया से यह विषय गायब रहा। इन चुनावों ने जम्मू-कश्मीर पर चल रहे बहुत से विमर्शों को विराम दिया है, साथ ही राज्य में चल रहे बहुत से राजनीति और सुशासन संबंधी विषयों को एक निर्णायक दिशा दी है।

 

मीडिया का जम्मू-कश्मीर संकल्प और मत प्रचार

कुछ विषय ऐसे होते हैं, जिन्हे समाचार बनाने के लिए मीडिया सदैव तत्पर रहता है। उन विषयों से संबंधित छोटी सी घटना को भी राष्ट्रीय विमर्श बनाने में मीडिया पूरा जोर लगाता है और जब वो विषय किसी चर्चा में न आ रहा हो तो स्वयं ही योजनाबद्ध तरीके से उसे चर्चा में लाने का प्रयास चलता रहता है। ऐसा ही मीडिया का एक प्रिय विषय जम्मू-कश्मीर है। जम्मू-कश्मीर को अगर थोड़े-थोड़े समय बाद न ला जाया जाए तो कुछ मीडिया घरानों और उनसे संबंधित पत्रकारों को लगता है कि वह अपने पत्रकार होने की भूमिका ठीक से नहीं निभा रहे अथवा पत्रकारीय सिद्धांतों को ताक पर रख अपने व्यवसाय के साथ अन्याय कर रहे हैं। अब जम्मू-कश्मीर को बार-बार जबरन लाकर वो अन्याय अपने पत्रकारीय सिद्धांतों से कर रहे हैं या अपने मत प्रचार के साथ यह तो भगवान ही जाने। ऐसे अनेकों पत्रकार और मीडिया घराने हमें देखने को मिल जाएंगे। लेकिन यहां हम केवल एनडीटीवी अैर उससे संबंधित पत्रकार निधी राजदान की बात करेंगे। आज से करीब ढेड वर्ष पूर्व कसौली में आयोजित खुशवंत सिंह साहित्य समारोह में पत्रकार निधी राजदान अपनी पुस्तक पर अपने विचार रख रही थी। पुस्तक पर बात रखते-रखते न जाने उन्हें अपना कौन सा संकल्प याद आया कि उन्होंने कश्मीर पर बौद्धिक देना प्रारंभ कर दिया। उस बौद्धिक में उन्होंनं कश्मीरी युवा के देश से विराग की बात कही। साथ ही एक ओर विषय उन्होंने जोर देकर रखा कि कश्मीर पर राष्ट्रीय विमर्श बिगाड़ा जा रहा है और स्थिति को और खराब कर रहा है। अगले दिन समाचार पत्रों में उनका यह बयान जोर-शोर से छपा। शायद उन्होंने कश्मीर की बात करते वक्त जैसा सोचा, वैसा ही हुआ और एक बार फिर जम्मू-कश्मीर को नकारात्मक पेश करके विमर्ष बनाने का अपना फर्ज मीडिया ने पूरा किया। पुस्तक के बारे में बताते हुए एकदम से जम्मू-कश्मीर राज्य को नकारात्मक रूप से पेश करके उन्होंने स्वयं बता दिया कि कश्मीर के बारे में राष्ट्रीय विमर्श कौन बिगाड़ रहा है।

यह घटना ढेड वर्ष पूर्व की है, लेकिन उससे पहले भी और बाद में भी कईं उदाहरण हमारे सामने आते हैं जहां बिना किसी बात के जम्मू-कश्मीर को नकारात्मक रूप से चर्चा में लाया जाता रहा है। ढेड वर्ष पूर्व की गई जम्मू-कश्मीर राज्य की चिन्ता के बाद हाल ही में निधी राजदान ने दोबारा जम्मू-कश्मीर के लिए विदेश से जबरदस्ती हल लाने के प्रयास किए। लेकिन इस बार उनको मुंह की खानी पड़ी क्योंकि कोई देश आखिर उनके मत प्रचार का हिस्सा क्यों बनेगा? 7 जनवरी 2019 को निधी राजदान ने अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया कि उन्होंने अभी नॉर्वे की प्रधानमंत्री एरना सोलबर्ग का साक्षातकार लिया और उसमें नॉर्वे की प्रधानमंत्री ने उनसे कहा कि अगर भारत-पाकिस्तान चाहे तो नॉर्वे कश्मीर के लिए मध्यस्थता करने के लिए त्यार है। लेकिन इससे पहले कि अपने संकल्प के चलते एक और विमर्श निधी राजदान और एनडीटीवी कश्मीर को खड़ा कर पाते, नॉर्वे के भारत में राजदूत ने कुछ समय के भीतर ही अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से निधी राजदान की बातों को सिरे से नकार दिया। उन्होंने निधी राजदान के ट्वीट के तुरंत बाद स्पष्ट किया कि नॉर्वे की ‘‘प्रधानमंत्री द्वारा कश्मीर के लिए मध्यस्थता की बात नहीं की गई है, जैसा कि मीडिया द्वारा रिर्पोट किया गया। नॉर्वे द्वारा न कभी मध्यस्थता की पेशकश की गई है और न ही कभी उन्हे ऐसा करने को कहा गया।’’

इस बार तो इनके मतप्रचार को प्रारंभ में ही ढेर कर दिया गया। लेकिन सोचने की बात यह है कि एनडीटीवी और निधी राजदान को नॉर्वे की प्रधानमंत्री का साक्षातकार लेते समय कश्मीर को जबरदस्ती बीच में लाने की क्या आवश्यकता पड़ गई? जब नॉर्वे की प्रधानमंत्री ने उत्तर उनके मत प्रचार के अनुरूप नहीं दिया तो उन्होंने ट्विटर से विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया। शायद उन्होंने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि उनके मत प्रचार के एजेंडे को नॉर्वे ही उधेड़ के रख देगा। वास्तव में जम्मू-कश्मीर की समस्या कोई वास्तविक समस्या न होकर ऐसे कुछ लोगों और संस्थानों की ही समस्या है। इन्हीं लोगों ने इसे खड़ा किया, नकारात्मक प्रचार करके उसे बढाया और अब इसे बनाए रखने के लिए तत्पर हैं। वास्तविकता में भले ही राज्य में सकारात्मक परिवर्तन आ रहा हो। स्थानीय कश्मीरीयों को जिहादी आतंकवादीयों द्वारा मौत के घाट उतारा जा रहा हो। आतंकवादियों को पकड़वाने और मरवाने में स्थानीय लोगों का सुरक्षा बलों को पूरी जानकारी और सहयोग दिया जा रहा हो, राज्य का युवा मुख्यधारा में जुड़ने के लिए तत्पर हो और सेना एवं अन्य सुरक्षा बलों में भर्ती होने में उत्साह दिखा रहा हो, स्थानीय निकायों और पंचायतों से आम जन-मानस की शासन में सहभागिता बड़ रही हो और राज्य में कई प्रकार से सकारात्मक वातावरण निर्माण हो रहा हो लेकिन राष्ट्रीय विमर्श में कश्मीर को नकारात्मक बनाए रखना कुछ मीडिया घरानों और पत्रकारों का षड़यंत्र है। लेकिन अब वह समय चला गया जब यह लोग जम्मू-कश्मीर को लेकर अपने मत प्रचार में सफल हो जाते थे। अब मीडिया के सैंकड़ों विकल्प उपलब्ध हैं और सोशल मीडिया में जनता खुद भी पत्रकार की भूमिका में आ गई है।

 

कठुआ के कठघरे मीडिया और मानवाधिकार

चार लोगों के विरोध प्रदर्शन को पूरे देश का मुद्दा बनाने की भारतीय मीडिया की कला दुनिया के हैरतअंगेज कारनामों में से एक है। प्रायः ऐसे विरोध प्रदर्शनों का चुनाव सम्प्रदाय और जाति के आधार पर और मानवाधिकार का बहाना बनाकर किया जाता है। ऐसा हैरतअंगेज कारनामा करने वाले मीडिया के वर्ग की दाल अब पहले जैसी गल नहीं रही। फिर इस गिरोह की तरफ से प्रयास तो जारी ही हैं। दाल न गलने के बहुत से कारण हैं, जिसमें सबसे पहला तो यह है कि सच को अभिव्यक्त करने के लिए अब कई ऐसे प्लेटफार्म हैं, जहां जनता अपना नजरिया रख सकती है और दूसरा बौद्धिकतावाद के शिकार ये लोग सारा एजेंडा ही उस भाषा में सेट करते हैं, जो समाज की है ही नहीं। इसलिए विदेशी मीडिया, संयुक्त राष्ट्र इनके एजेंडे का समर्थन करने वाले कुछ देश तो इनकी बात समझ लेते हैं, लेकिन जिस मोहल्ले की घटना का उदाहरण देकर यह अपना मतप्रचार करते हैं, उस मोहल्ले के लोग ही उसे समझ नहीं पाते।

जम्मू के कठुआ-प्रकरण में जिस तरह झूठ परोसा गया और अब सच का जो स्वरूप सामने आ रहा है, वह मीडिया और मानवाधिकारवादियों की सच्चाई को समझने का आइना बन सकता है। बच्ची का नाम और संप्रदाय सामने आते ही इस पूरे गिरोह को अपना एजेंडा सेट करने और मतप्रचार करने के लिए जैसा मनचाह मुद्दा मिल गया था। दिल्ली से बॉलीवुड तक और विदेशों में बैठे इस गिरोह के लोगों ने इस पूरी घटना को एकदम से एक नया एंगल दे दिया और मीडिया को साथ लेकर पूरे विश्व में चीख-चीख कर बताया गया कि भारत में एक मंदिर में आठ साल की मुस्लिम बच्ची से कई दिनों तक हिंदुओं द्वारा बलात्कार किया गया और अंत में उसे मार दिया गया। बॉलीवुड में तो यह तक प्रचार कर दिया कि देवीस्थान में बच्ची से बलात्कार। मैं हिन्दुस्तान हूं और मैं शर्मिंदा हूं। देखते ही देखते जो आंदोलन स्थानीय लोग महीनों से कर रहे थे उसे एकदम से तीन माह बाद देश के अन्य हिस्सों से मानवाधिकार और न्याय के देवताओं ने आकर हाईजैक कर लिया और जम्मू से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक यह गिरोह प्रचार-प्रसार में लग गया। इस बार भी देश में फैल रही असहिष्णुता से लड़ने के लिए मानवाधिकार और न्याय के देवताओं को उतारा गया। जिनमें बच्ची को न्याय दिलाने के लिए वकील के तौर पर उतरी जम्मू की ही दीपिका सिंह रजावत और साथ ही उनके कुछ साथी जिनमें अधिवक्ता तालिब हुसैन और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पूर्व अध्यक्ष शेहला राशिद ने पीड़ित परिवार को आर्थिक मदद पहुंचाने के लिए अपनी सक्रियता दिखाई।

बाद में इस पूरे घटनाक्रम और बलात्कार की बातों पर भी बहुत से प्रश्न चिन्ह उठने लगे, जिससे यह गिरोह एक बार फिर भाग खड़ा हुआ। इनमें सबसे पहले हम बात करेंगे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की क्रांतिकारी नेता शेहला रशीद की, जिसने इस बच्ची के परिवार को आर्थिक सहायता देने का काम अपने कंधों पर लिया था। शेहला का कहना था कि वह पीड़ित परिवार को केस लड़ने के लिए और अन्य आवश्यकताओं के लिए देश-विदेश से पैसे जुटांएगी। अंततः वह अपनी जेएनयू वाली जुबान पर खरी उतरी, उन्होंने देश-विदेश से उस बच्ची का नाम ले लेकर बहुत सारा धन इकट्ठा किया। धन इकट्ठा करके उन्होंने सार्वजनिक तौर पर पूरे देश को खुद बताया कि उन्होंने बच्ची के परिवार के लिए 40 लाख रुपए जुटा लिए हैं।

यह 40 लाख भी उन्होंने खुद बताए हैं, असल रकम कितनी होगी अल्लाह जाने। आज 10 महीने से ज्यादा हो गए, उस परिवार को इन क्रांतिकारियों से एक कौड़ी तक नसीब नही हुई। आसिफा के परिवार को केस लड़ने के लिए रोज पठानकोट जाने के लिए अंततः अपने मवेशी बेचने पड़े। और शेहला रशीद से जब ट्विटर पर देशवासियों द्वारा पैसे का हिसाब पूछा गया तो उन्होंने अपना ट्विटर अकाउंट ही डिलीट कर दिया।

इस कड़ी में दूसरा नाम आता है अधिवक्ता तालिब हुसैन का, जो आसिफा के खिलाफ हुए अन्याय के लिए बलात्कारियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाना चाहते थे। देश की मीडिया ने बाकी मानवाधिकार और न्याय के देवताओं की तरह इन्हे भी हीरो के रूप में प्रस्तुत किया। कुछ महीनों बाद दो महिलाओं ने तालिब हुसैन के खिलाफ ही बलात्कार की शिकायत दर्ज कराई, जो केस उन पर चल रहा है। साथ ही घरेलू हिंसा और दहेज के लिए अपनी पत्नी को जान के मारने के प्रयास के मामले में भी वह अभियुक्त हैं।

इसी कड़ी में अंत में नाम आता है अधिवक्ता दीपिका रजावत का। जिनके इर्द-गिर्द यह पूरा खेल चला। मीडिया ने दीपिका रजावत को आसिफा के लिए न्याय का चेहरा बना के देश-विदेश में पेश किया। दीपिका राजावत इस पूरे घटनाक्रम में हीरो बनकर उतरी और आसिफा का नाम लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में तो क्या कनाडा और संयुक्त राष्ट्र तक पहुंच गई। इसी महीने जिस दीपिका को न्याय की देवी बनाकर देश-विदेश में मीडिया द्वारा पेश किया गया। उसी को केस से बाहर निकालने की मांग स्वयं आसिफा के पिता ने कोर्ट में की और अंततः दीपिका रजावत को आसिफा के घर वालों ने केस लड़ने से मना कर उसे बाहर निकाल दिया। इसका कारण भी आसिफा के पिता ने बताया। उनके अनुसार इस केस में अब तक 110 सुनवाईयां हो चुकी हैं और दीपिका रजावत उनमें से केवल दो सुनवाईयों में ही आईं हैं।

आसिफा के परिवार द्वारा केस से बाहर निकाले जाने के बाद जब दीपिका से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, मैंने इस केस के लिए इन लोगों से कोई पैसे चार्ज नहीं किए। मेरे और भी क्लाईंट्स हैं, जिनके मैं केस लड़ रही हूं जिनसे मैंने पैसे लिए हैं, जिनकी वजह से मेरी डिग्नीफाईड लाईफ ऐश्योर्ड रहती है, मैं उनके लिए प्रतिबद्ध हूं, इसलिए आसिफा का केस लड़ने के लिए मेरे पास समय नहीं है कि मैं रोज पठानकोट जाऊं। मुझे लगता नहीं कि दीपिका रजावत के शब्दों की समीक्षा या उस पर टिप्पणी करने की हमें कोई आवश्यकता है। उन्होंने अपना चरित्र और सोच खुद ही बता दी है। अब जिस आसिफा के केस को लड़ने के लिए उनके पास समय नहीं है क्योंकि वह जिनसे पैसे लिए हैं उनके प्रति प्रतिबद्ध हैं उस आसिफा के नाम पर किस तरह उन्होंने पिछले 6-7 महीनों में पूरे देश और विदेश का भ्रमण किया और मानवता और न्याय पर बड़े.बड़े मंचों पर भाषण दे कई पुरस्कार बटोरे इस पर जरा नजर डाल लें।

1-24 अप्रैल 2018, ऑफ द कफ विद दीपिका सिंह रजावतः टॉक शो विद शेखर गुप्ता मुम्बई।

यह कार्यक्रम शेखर गुप्ता और बरखा दत्त द्वारा चलाए गए डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म द प्रिंट द्वारा मुम्बई में आयोजित किया गया। आसिफा के लिए पठानकोट न पहुंच पाने वाली दीपिका आसिफा के नाम पर उस शो के लिए मुम्बई पहुंच गई और शेखर गुप्ता के साथ मानवता और न्याय पर लंबी चर्चा की।

2-9 मई 2018 हिन्दुस्तान पटना डायलॉग, पटना टॉक

यह कार्यक्रम हिन्दुस्तान मीडिया चैनल द्वारा बिहार से चलाया गया और दीपिका मानवता पर बौद्धिक देने उस कार्यक्रम के लिए जम्मू से बिहार गई। इस कार्यक्रम के दौरान बार-बार एक लाईन स्क्रीन पर चलाई जा रही थी, मददगार मन ने बना दिया वकील

3-12 जून 2018

आसिफा के नाम पर दीपिका को मुम्बई में आईएमसी लेडीज विंग वुमन ऑफ द ईयर अवार्ड से सम्मानित किया गया।

4-17 जून 2018

मुम्बई में वुमन ऑफ द ईयर से सम्मानित हाने के बाद दीपिका 5 दिन बाद केरल में वुमन ऑफ द सेंचुरी अवार्ड इन सेल्यूट सक्सेस 2018’ लेने पहुंची।

5-23 जून 2018

कनाडा के सरे ब्रिटिश कोलंबिया में ह्युमैनिटेरियन अवार्ड 2018 से नवाजा गया और मानवता पर चर्चा भी की गई।

6-12-13 जुलाई 2018

दो दिवसीय मनोरमा न्यूज कन्क्लेव, कोची में दीपिका मानवता और न्याय पर अपनी बात रखने और चर्चा करने के लिए उपस्थित रहीं।

7-10 अगस्त

इस दिन असहिष्णुता के विरोध में चल रहे कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया के प्रदर्शन में दीपिका ने दिल्ली में खूब नारे लगाए।

8-11 अगस्त 2018

इसके अगले दिन कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया, कैंपेन के कार्यक्रम में दीपिका कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर के साथ मुख्य अतिथि के रूप में रहीं और वहां मौजूद जनता को देश में फैल रही असहिष्णुता से अवगत कराया।

9-25 अगस्त 2018

आसिफा को असल न्याय दिलाने के लिए पठानकोट जाने का समय नहीं था। लेकिन दिल्ली के संसद मार्ग में विरोध कर रहे अपने गिरोह जो इस बार किसी अन्य बैनर और नाम तले संघर्ष कर रहा था, को संबोधित करने दोबारा दिल्ली पहुंची।

10-4 सितम्बर 2018

दिल्ली के संसद मार्ग में वृंदा करात के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति के अच्छे दिनों के लिए हो रहे में प्रदर्शन में संघर्ष करने पहुंची।

11-18-22 सितम्बर 2018

संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार सत्र के लिए जेनेवा पहुंची और मानवता और न्याय पर अपने शब्द रखे।

12-15 अक्तूबर 2018

बलात्कार के आरोप में फंसे अपने मानवतावादी और न्यायवादी मित्र तालिब हुसैन का केस लड़ने पहुंची।

13-21 अक्तूबर 2018

अब मानवता न्याय और मानवाधिकार की बात आए और मदर टेरेसा का नाम ना आए ऐसा संभव हो नहीं सकता। इस दिन हॉर्मनी फाऊंडेशन द्वारा मदर टेरेसा मेमोरियल अवार्ड फॉर सोशल जस्टिस 2018, द्वारा दीपिका को उनकी बहादुरी और सेवा के लिए नवाजा गया।

14-27-29 अक्तूबर 2018

वोग क्रूसेडर ऑफ द ईयर अवार्ड के लिए दीपिका फिर मुम्बई गई और अपने साहस का परिचय देते हुए लोगों को मानवता के गुर सिखाए।

इन सबके अलावा और बहुत सी छोटी-मोटी जगहों पर दीपिका रजावत ने आसिफा का नाम ले लेकर और भाषण देकर खूब नाम और धन कमाया। जम्मू बार ऐसोसिएशन ने जहां दीपिका और उनके गिरोह के एजेंडे को पहले से भांपते हुए उनसे किनारा कियाए वहीं पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर की बार ऐसोसिएशन ने दीपिका को इस बहादुरी के लिए उनको अपने बार की मानद सदस्यता प्रदान की। जिसकी चिट्ठी उसके सचिव मियां सुलतान महमूद ने खुद हस्ताक्षर कर के उन्हें भेजी। जो दीपिका मीडिया के कैमरों के सामने आसिफा को न्याय दिलाने के लिए आंदोलित रही और उस बच्ची की मौत पर दुनिया भर में घूम कर भाषण देतीं रही और अवार्ड इकट्ठे करती रही। वह उस बच्ची को जहां असल न्याय मिलना है उस कोर्ट में केवल 110 में 2 सुनवाईयों में उपस्थित हुई। आसिफा को कोर्ट में न्याय दिलाने के लिए जहां उनके पास समय का अभाव है और रोज पठानकोट जाना संभव नहीं है। वही दीपिका रजावत आसिफा के नाम पर अवार्ड लेने और मानवता और न्याय पर भाषण देने जेनेवा, कनाडा और देश भर में घूम आई। जस्टिस कैंपेन की नायिका कैंपेनिंग पर ही ध्यान देती रही क्योंकि जस्टिस तो कभी एजेंडा था ही नहीं। पीड़िता के परिवार को बीच में छोड़कर वह अपना अभियान चलाती रही।

आसिफा के नाम पर अवार्डस और भाषणों का यह सिलसिला अभी और लम्बा चल सकता था, लेकिन न्याय की आस में बैठे आसिफा के पिता ने स्वयं ही दीपिका राजावत को बाहर निकाल दिया। आसिफा के लिए दीपिका की लगन और महनत मीडिया के अलावा न ही आसिफा के परिवार को दिखाई दी और न ही देश को। वहीं दूसरी ओर बच्ची को न्याय दिलाने के लिए रोज सुनवाई मे आने वाले अधिवक्ता केण्के पूरी मुबीन फारुकी, पंकज तीवारी, विशाल शर्मा, पंकज कालिया, जोगिंद्र सिंह गिल, करणजीत सिंह, सौरभ ओहरी, वरुण चिब और हरविंदर सिंह का नाम कहीं मीडिया में नहीं आया क्योंकि न तो वह उस गिरोह का हिस्सा हैं और न ही किसी बच्ची की मौत पर देश-विदेश में अपना एजेंडा चलाते। जानकारी के लिए यह सभी अधिवक्ता हर रोज 30 से 250 किमी. तक की यात्रा करके रोज पठानकोट आते हैं आसिफा के लिए और मीडिया द्वारा स्थापित न्याय और मानवता की देवी देश के अन्य राज्यों, कनाडा और संयुक्त राष्ट्र तो जा सकती हैं पर जम्मू से डेढ घंटे की यात्रा वाला पठानकोट बहुत दूर है।

अब जब आसिफा के परिवार द्वारा दीपिका को केस से बाहर का रास्ता दिखाया गया तो उन्होंने बौखलाहट में ट्विटर पर लोगों द्वारा सवाल पूछे जाने पर आसिफा के परिवार को ही कटघड़े में खड़ा कर दिया और जो भी उनके विरोध में लिख रहा है, उसे अवमानना के केस से धमकाने में लगी हुई हैं। इस घटनाक्रम को देखकर हाल ही में एयर इंडिया की फ्लाईट में शराब के लिए एक आईरिश महिला द्वारा स्टाफ को धमकाने और गाली-गलोच करने की घटना याद आ गई। उन मोहतरमा का भी यही कहना था कि वह अंर्तराष्ट्रीय मानवाधिकार अधिवक्ता है और लोगों के मानवाधिकारों के लिए लड़ती हैं। तुम तुच्छ लोग मुझे शराब देने से मना कैसे कर रहे हो, अब यह तो भगवान ही जाने यह सब मानवाधिकार और न्याय के देवता कौन से मानवों के लिए लड़ रहे हैं और साधारण मानव के प्रश्न पूछे जाने पर या आइना दिखने पर क्रोधित हो धमकाने की मुद्रा में क्यों आ जाते हैं। भारतीय मीडिया और विदेशी मीडिया द्वारा नैतिकता की शिखर पर स्थापित की जाने वाली अधिवक्ता दीपिका रजावत को भी ठीक उसी तरह हीरो बना कर पेश किया गया जिसकी चर्चा हमनें प्रारंभ में ही की थी। लेकिन बात अंततः वहीं खत्म हुई जहां से हमने शुरुआत की थी कि समाज को सबसे अच्छे से समझने का दावा करने वाला यह पूरा वर्ग और मीडिया समाज से पूरी तरह कटा हुआ है। यह एक बार फिर साबित हो गया कि इनकी मुहीम और मतप्रचार के एजेंडे ऐसे ही पिटते रहेंगें क्योंकि यह पब्लिक है यह सब जानती है।

समाप्त हो गए डराने धमकाने के विशेषाधिकार

भारत सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को जम्मू कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370, 35ए हटा दिए और साथ ही राज्य का पूनर्गठन कर इसे दो केंद्र शासित राज्यों में बांट दिया, एक लद्दाख और दूसरा विधान सभा के साथ जम्मू-कश्मीर। सर्वप्रथम तो इस कदम के लिए देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का जितना अभिनंदन किया जाए कम है। यह ऐतिहासिक कदम उठाने का साहस 70 वर्षों में कोई नहीं कर पाया और न ही कोई अन्य ही कर पाता। इस कदम के परिणाम क्या होंगे इससे पहले एक बार इसपे चर्चा कर लें कि अनुच्छेद 370, 35ए जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेषाधिकार देते थे या किसी और को?
अनुच्छेद 370, 1949 में विशेष परिस्थियों के चलते जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए भारत के संविधान में डाला गया। यह वैसे ही एक अनुच्छेद था जैसा भारतीय संविधान का कोई अन्य अनुच्छेद। यह अस्थायी अनुच्छेद राज्य को कोई विशेष अधिकार नहीं देता था। इस अस्थायी अनुच्छेद की आड़ में 1954 में राष्ट्रपति के आदेश द्वारा एक नया अनुच्छेद 35ए भारत के संविधान में जोड़ दिया गया। अनुच्छेद 35ए असंवैधानिक तरीके से बिना कभी संसद में पेश किए संविधान में जोड़ा गया। इसे देश से छुपाने के लिए संविधान के मुख्य भाग में अनुच्छेद 35 के बाद डालने के बजाए परिशिष्ट में डाला गया। अनुच्छेद 35ए राज्य की विधानसभा को शक्ति देता था कि वह राज्य के स्थायी निवासी निर्धारित कर उनके लिए विशेष प्रावधान कर सकती है। यह राज्य के स्थाई निवासीयों के अलावा राज्य में या देश में रह रहे सभी अन्य भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन करता था।
विशेष व्यवस्थाएं स्थायी निवासियों के लिए थी पर फिर भी राज्य किसी भी प्रकार से भारत से भिन्न नहीं था और न ही कोई विशेष राज्य था। लेकिन राज्य में कांग्रेस के साथ 70 वर्षों के राज कर रहे दो राजनीतिक परिवारों (अब्दुल्ला और मुफ्ती) और मुट्ठीभर अलगाववादियों ने इसके दम पर भारत को डराना और धमकाना शुरु कर दिया। उन्होंने भारत को 70 साल धमकाया कि हम भारत से अलग हैं, हमारा ऐहसान मानों कि हम आपके साथ हैं, हमारी हर इच्छा पूरी करो, हमारी हर मांग पर घुटने टेको, हमें राज्य का प्रतिनिधि मान बड़े-बड़े मंच दो और यदि हमें छेड़ा या कुछ भी हमारी इच्छा के बगैर किया तो हम अलग हो जाएंगे। अपने परिवार और धंधे चलाए रखने के लिए यही प्रचार किया कि अनुच्छेद 370 और 35ए को छेड़ना तो दूर, उसकी बात भी की तो हम बारूद्ध उठा लेंगें, राज्य में तिरंगा झंडा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा। फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर ने तो यहां तक कह दिया कि अनुच्छेद 370 हटाओगे तो इंशाअल्लाह हम अलग हो जाएंगे और अपना अलग प्रधानमंत्री लाएंगे।
अनुच्छेद 370, 35ए या जम्मू-कश्मीर राज्य विशेष नहीं थे, बस इसके नाम पर धमकाने वाले यह परिवार और अलगाववादी खुद को विशेष मानने लगे थे। अनुच्छेद 370, 35ए खत्म होने से राज्य के किसी व्यक्ति के विशेषाधिकार समाप्त नहीं हुए न वो अलग हुए। केवल इन परिवारों और अलगाववादियों के विशेषाधिकार खत्म हो गए, यह राज्य और देश में अलत-थलग पड़ गए। अब ऐसे कुछ 50-100 लोग तिरंगा झंडा न भी उठाएं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। राज्य के कोई विशेषाधिकार थे ही नहीं जिनको खत्म करना था, बस यह कुछ लोग थे जो 70 साल भारत को धमकाकर स्वयं को विशेष मान बैठे थे, इनके अहंकार को चुर करना था और यह अनुच्छेद 370, 35ए को हटाए बिना और लद्दाख को इनके चंगुल से छुड़ाए बिना संभव नहीं था।
लद्दाख की 1947 से ही मांग थी कि उसे कश्मीर से अलग किया जाए और केंद्र शासित राज्य बनाया जाए। 1947 में पाकिस्तान के आक्रमण के समय से ही लद्दाख की जनता भारत के साथ खड़ी रही और दुश्मन का डटकर सामना किया। जम्मू देशभक्तों और राष्ट्रवादियों से भरा हुआ है, वहां हमेशा से ही राष्ट्रवाद हावी रहा और कोई भारत विरोधी हरकत करना तो दूर वहां ऐसा करने की कोई सोचता भी नहीं सकता था। कश्मीर के अलगाववादियों ने स्वयं आज तक कभी जम्मू आने का साहस नहीं किया। वह या तो श्रीनगर में बोलते थे या दिल्ली में। जम्मू और लद्दाख में उनका प्रभाव तो दूर वह कभी आने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए। दोनों राजनीतिक परिवार भी जम्मू में आकर देश भक्त बन जाते थे और कभी कोई भारत विरोधी बात नहीं करते थे। फारूक अब्दुल्ला तो कईं बार वैष्णों देवी का भक्त बनकर जागरण में नाच भी लिया करते थे। लेकिन कश्मीर में पहुंचते ही इन सबके स्वर आजादी के आस-पास ही रहते थे। जम्मू और लद्दाख को तो इन्होंने छला ही, पर सबसे ज्यादा शोषण इन्होंने किसी का किया वह कश्मीरी ही था।
कश्मीर में दो प्रकार के लोग हैं- एक सईद, अब्दुल्ला, गिलानी जो कि मूल कश्मीरी नहीं है और दूसरा आम कश्मीरी। यह लोग भारत के बाहर से आक्रमण कर कश्मीर पर राज करने की मंशा से आए थे। कश्मीर में यह लोग हमेशा अपने को आम कश्मीरी से उपर समझते थे और इपनर राज कर इनसे गुलामों की तरह व्यवहार करते थे। तभी आज तक किसी भी आम कश्मीरी को मुख्यधारा में इन्होंने नहीं आने दिया। कोई भी मूल कश्मीरी मुख्यधारा में ढूंढने से नहीं मिलेगा। कश्मीरी सदियों से ही इनसे संघर्ष कर रहा है और इनकी दास्ता सह रहा है। इन लोगों ने कश्मीरी से हमेशा दोयम दर्जे का व्यवहार किया और अपने बच्चे विदेशों में भेज कर कश्मीर के बच्चों के हाथ में पत्थर पकड़वा दिए। अनुच्छेद 370 और 35ए के नाम पर गलत कहानियां गढ़ कर उन्हें अपने जाल में फसाए रखा।
आज सही मायने में लद्दाख, जम्मू और कश्मीर आजाद हुए है इन अवसरवादियों और अलगाववादियों के चंगुल से। अनुच्छेद 370, 35ए हटने और राज्य के पूनर्गठन के बाद अब कोई भी क्षेत्र या व्यक्ति स्वयं को ठगा हुआ महसूस नहीं करेगा। पूरे क्षेत्र का सर्वांगीण विकास होगा और भारत के अन्य राज्यों में मिल रही सारी सुविधाओं से अब यहां का निवासी भी वंचित नही रहेगा। स्वयं को सदियों से अलग मानने वाला तबका अब ठेकेदारों के चंगुल से आजाद होकर मुख्यधारा से जुड़ेगा। भ्रष्टाचार से त्रस्त जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की जनता इमानदार, पारदर्शी और सहयोगी प्रशासन देखेगी। कुल मिलाकर यह कदम लद्दाख और जम्मू-कश्मीर के लिए बड़े बदलाव लाएगा और इतिहास के इस बड़े घटनाक्रम के हम साक्षी बन रहे हैं।

राजनीतिक परिवारों से सही प्रश्न पूछने का समय

चुनाव पूरे देश में कहीं भी हो रहे हों, उनमें गाहे-बगाहे जम्मू-कश्मीर की चर्चा हो ही जाती है। 2019 में हो रहे लोकसभा चुनाव में भी जम्मू-कश्मीर से जुड़े मुद्दे मीडिया में अपना स्थान बना ही रहे हैं। इन चुनावों में जम्मू-कश्मीर पर राजनीतिक बयानबाजी, विमर्श और उस पर मीडिया के दृष्टिकोण का विश्लेषण आवश्यक है। इससे न केवल राजनीतिक दलों और उनसे संबंधित लोगों के दृष्टिकोण का पता चलता है, बल्कि मीडिया इस विमर्श को किस ओर ले जाने का प्रयास कर रहा है, इसका आंकलन भी हम कर सकते हैं। जम्मू-कश्मीर में पिछले 70 वर्षों से कश्मीर केंद्रित राजनीतिक दलों और उनके करीबी लोगों की ही सरकारें रही हैं। वैसे तो राज्य के तीन संभाग हैं जम्मू, कश्मीर और लद्दाख, लेकिन सत्ता हमेशा से ही कश्मीर केंद्रित दलों के पास ही रही है। इसका कारण भी यही है कि अन्य दो संभागों जम्मू और लद्दाख से कोई मजबूत राजनीतिक दल खड़ा ही नहीं हो पाया।
हालांकि 1947 में कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस को टक्कर देने के लिए जम्मू में प्रजा परिषद अस्तित्व में आई थी। प्रजा परिषद की शक्ति और स्वरूप को देखकर शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी ने सारे सरकारी एवं गैर सरकारी तंत्रों का उपयोग करके उसे समाप्त करने का काम किया। राज्य में पहले चुनावों में प्रजा परिषद के सारे नामांकन रद्द करके शेख की नेशनल कॉंन्फ्रेंस को निर्विरोध ही चुनाव जीत गई। उसके बाद शेख ने किसी अन्य दल को राज्य में खड़ा ही नहीं होने दिया और कांग्रेस के सहयोग से राज्य में निर्विरोध राज किया।
समय के साथ दिल्ली की कांग्रेस सरकार को भी अहसास हुआ कि कश्मीर में नेशनल कॉंन्फ्रेंस और शेख के रूप में उन्होंने भस्मासुर को जन्म दिया है। जो समय के साथ भारत विरोधी राग अलापने लगा था और निर्विरोध शासक होने के कारण भारत को ब्लैकमेल कर अपने सारे काम कुशलता से कराने लगा था। फिर कांग्रेस ने राज्य में एक और राजनीतिक दल खड़ा किया जो कि पुनः कश्मीर घाटी से ही था। मुफ्ती मुहम्मद सईद की पीडीपी यह नया राजनीतिक दल था, जो शेख की एनसी को चुनौती देने के लिए खड़ा किया गया था। मीडिया और कांग्रेस के सहयोग या लाचारी से जम्मू-कश्मीर में कश्मीर केंद्रित दल और अलगाववादी इतने प्रभावशाली और ताकतवर हो गए कि देश-विदेश में राज्य का पूरा विमर्श उन्होंने खड़ा किया। पूरा देश और विश्व जम्मू-कश्मीर के बारे में वही सुनता और पढ़ता था जो मुफ्ती परिवार की पीडीपी, शेख अब्दुल्ला परिवार की एनसी और अलगाववादी बोलते थे। राजनीतिक प्रतिनिधित्व न होने की वजह से जम्मू और लद्दाख तो जबरदस्ती इस विमर्श का हिस्सा बनते गए। इन दोनों परिवारों ने कश्मीर में भी किसी आम कश्मीरी को राजनीति में नहीं आने दिया, तो जम्मू और लद्दाख तो दूर की बात थे। राज्य के विकास के लिए जो भी संसाधन एवं धन राज्य को दिल्ली से मिलता था, वह भी सीधा इन परिवारों और अलगाववादियों के पास जाता था और कुछ हिस्सा कश्मीर को मिल जाता था। जम्मू और लद्दाख यहां भी भाग्यहीन रहे। उनके द्वारा अपने स्थानों से चुने हुए प्रतिनिधि भी अपने कश्मीरी हुकमरानों के अधीन थे। 2014 में पहली बार राज्य में यह कश्मीरी आधिपत्य हिला, जब लोकसभा चुनाव में पहली बार राज्य की आधी सीटें यानि की कश्मीर की तीन सीटें छोड़कर जम्मू और लद्दाख की तीनों सीटें भाजपा को मिली। इन चुनावों में अब्दुल्ला परिवार की एनसी और कांग्रेस को राज्य की जनता ने पूरी तरह से नकार दिया। उसके बाद प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में भी जम्मू संभाग ने भाजपा और कश्मीर ने मुफ्ती परिवार की पीडीपी को चुना। केंद्र के साथ-साथ अब भाजपा राज्य में भी गठबंधन के साथ सरकार में आ गई। पहली बार राज्य में एनसी, पीडीपी और कांग्रेस की जड़ें और कश्मीर का आधिपत्य हिला।
गत पांच वर्षों में राज्य में तीनों संभागों को बराबर संसाधन मिले। पहली बार संसाधनों और संस्थानों के आवंटन में जम्मू और लद्दाख को कश्मीर से ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं मिला। देश को तोड़ने का सपना देखने वाले अलगाववादियों को राज्य का प्रतिनिधि मानने से ही इन्कार कर दिया गया। पांच वर्षों में न ही उनसे कोई बात की गई और न ही उन्हे कोई मंच दिया गया। कश्मीर घाटी में आतंकवाद परोसने वाले पाकिस्तान से आतंकवाद रोकने की बात तक करने से मना कर दिया गया और जम्मू-कश्मीर से संबंधित कोई बात यदि हागी तो वह पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर को लेकर होगी, ऐसा स्पष्ट संदेश दिया गया। सुरक्षा बलों द्वारा आतंकियों का सफाया और घाटी से पत्थरबाजों का गायब हो जाना बहुत कुछ बताता है। कुल मिलाकर कश्मीर केंद्रित राजनीतिक दलों, अलगाववादियों और मीडिया द्वारा इतने वर्षों में जो विमर्श खड़ा किया गया, वह अब डगमगाने लगा है।
अस्तित्व के इस खतरे को भांपते हुए, राज्य में एक-दूसरे के धुर विरोधी दल एक साथ आ गए हैं। जम्मू लोकसभा सीट से भाजपा के विरोध में राज्य के दो प्रमुख दलों एनसी और पीडीपी ने अपना प्रत्याशी ही नहीं उतारा और दोनों दल कांग्रेस का समर्थन कर रहे हैं। वहीं बाकी क्षेत्रों में भी कांग्रेस और एनसी मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं और अपनी सुविधा अनुसार जहां आवश्यक है, वहां पीडीपी का भी अंदर खाते समर्थन करने से नहीं चूक रहे। इन सभी दलों की बौखलाहट एक ही है कि केवल पांच वर्षों में ही इतने वर्षों का खड़ा किया विमर्श ढह गया। यदि एक बार और सत्ता से चूक गए तो अस्तित्व ही खत्म न हो जाए। विशेष राज्य होने का झूठा प्रपंच रच के इतने वर्ष यह दल दिल्ली को ठगते रहे और अपने जेब भरते रहे। देश की मीडिया ने भी कभी विशेष राज्य होने के इनके झूठे दावे को खारिज करना तो दूर प्रश्न भी नहीं किया। इस बार पुनः मीडिया की भूमिका बहुत नकारात्मक रही।
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जब इस बार एनसी के उमर अब्दुल्ला, उनके पिता फारुक अब्दुल्ला द्वारा और पीडीपी की महबूबा मुफ्ती द्वारा यह बयान दिए गए की यदि राज्य से अनुच्छेद 35ए और 370 हटा दिया गया तो कोई तिरंगा उठाने वाला नहीं बचेगा, पूरे राज्य में आग लग जाएगी, राज्य भारत से अलग हो जाएगा। तब किसी जिम्मेदार मीडिया ने उनके इन दावों के आधार को लेकर प्रश्न नहीं किया। आखिर 35ए और 370 के राज्य के भारत से अधिमिलन से क्या संबंध है? राज्य का भारत में अधिमिलन महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर 1947 को किया। अनुच्छेद 370, 1949 में आया और 35ए राष्ट्रपति के आदेश के द्वारा भारत के संविधान में 1954 में एक नया अनुच्छेद जोड़ दिया गया। तो इन दोनों का राज्य के अधिमिलन से क्या संबंध, यह साधारण सा प्रश्न भी मीडिया इन परिवारों से नहीं पूछ पाई। जहां तक रही राज्य में आग लगने और तिरंगा न उठाने वाली बात, तो मीडिया को पूछना चाहिए था कि राज्य में जम्मू और लद्दाख में कौन आपके इस विचार का समर्थन करता है? हां बात कश्मीर की तो वहां भी अलगाववादी विचार का समर्थन करने वाले लोग अब ढूंढने पर ही मिलते हैं, तो आप आग किससे लगवाना चाहते हैं?

कवरेज में भाषायी कुटिलता

2019 का फरवरी माह भारत में अपने आप में ही एक बड़ा घटनाक्रम रहा। केवल 10 से 15 दिन के भीतर ही इतनी बड़ी घटनाएं घटित हुईं कि हर दिन समाचार जगत और उससे जुड़े लोगों के लिए अहम हो गया। घटनाक्रम इतनी तेजी से बदल रहे थे कि जनता किसी भी स्थिति का पूर्व आकलन करने में असमर्थ थी। इस घड़ी में हमेशा की तरह मीडिया की भूमिका अहम रही। मीडिया ने पल-पल के समाचार और घटनाक्रम से संबंधित विश्लेषण देश के समक्ष रखे। हर घटना का मीडिया द्वारा विश्लेषण कर अपनी सुविधा और विचार के अनुकूल पक्ष रखा गया। इन पक्षों को रखते हुए मीडिया ने नए विमर्श खड़े करने के प्रयास भी किए। उस समय देश बहुत ही भावुक दौर से गुजर रहा था और अपने आप को असहाय सा महसूस कर रहा था। जनता के भाव के साथ समन्वय स्थापित करने के लिए, ऐसे पलों में मीडिया की भूमिका अहम हो जाती है। भारतीय मीडिया भी इस दौर में एक विमर्श स्थापित करने की मनोदशा से उतरी। इस विमर्श को स्थापित करने में मीडिया और समाचार पत्रों का असली चेहरा और उनको संचालित करने वाली विचारधाराएं और सोच भी देश के सामने आ गई।
14 फरवरी, 2019 को कश्मीर के पुलवामा में केंद्रीय सुरक्षा बल के काफिले पर एक आत्मघाती हमला हुआ। इस आत्मघाती हमले में भारत के 44 जवानों ने देश की सेवा और रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी। इस आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने स्वयं ली। साथ ही जिस आतंकवादी ने इस घटना को अंजाम दिया, उसका विडियो संदेश भी जैश-ए-मोहम्मद ने जारी किया। इस संदेश का प्रारंभ वह आतंकवादी यह कहकर करता है कि ‘‘मैंने यह आत्मघाती हमला गौमूत्र पीने वाले हिंदुओं को मारने के लिए किया और जब तक यह वीडियो आप तक पहुंचेगा, तब तक मैं जन्नत में पहुंच चुका हूंगा’’। इस हमले और जैश के इस वीडियो से एक बात और सपष्ट हो गई कि पाकिस्तान और आतंकवादियों द्वारा चलाया जा रहा यह अभियान किसी प्रकार से कोई आजादी की लड़ाई नहीं है। यह विशुद्ध रूप से भारत में इस्लाम की स्थापना की लड़ाई है। इसकी पुष्टि स्वयं पाकिस्तान के नेताओं ने टीवी और वहां की संसद में भी इस आत्मघाती हमले के बाद करते हुए कहा कि यह ‘गजवा-ए-हिंद’ की लड़ाई है और जारी रहेगी।
हमला भारत पर हुआ था, भारत के सैनिकों पर हुआ था। इस हमले की पूरी योजना आतंकवाद को विदेश नीति के रूप में उपयोग करने वाले पाकिस्तान में बनाई गई। पूरा भारत इस हमले से आहत था। 44 बलिदानी जवानों के आधे-अधूरे शव जैसे-जैसे उनके प्रांतों और नगर-गांवों में पहुंचे, वैसे-वैसे भारत का खून और उबला। पूरा देश आतंकवाद के विरोध में कड़ी कार्यवाही चाहता था। लेकिन भारत का मीडिया शायद देश से भिन्न विचार रख रहा था। देश पर हुए हमले पर उसकी प्रतिक्रिया ऐसी थी मानों भारत से उनका कोई सम्बंध ही न हो। इसी दौरान हिन्दी भाषी समाचार पत्र और अंग्रेजी समाचार पत्रों के बीच का अंतर भी खुलकर सामने आया। जब भारत में अंग्रेजों का शासन था, तब अंग्रेजों ने देशी प्रेस अधिनियम 1878 लाया। इस अधिनियम के तहत भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले सभी समाचार पत्रों के प्रकाशन पर रोक लगा दी गई और केवल अंग्रेजी समाचार पत्रों को ही प्रकाशन की अनुमति मिली। अंग्रेजों का मानना था कि देशी भाषाओं के समाचार पत्र अंग्रेजी शासन के विरोध में लिखकर भारतीय जनता के मन में विरोध का भाव उत्पन्न करते हैं। उस समय अंग्रेजों को खुश करने के लिए अंग्रेजी समाचार पत्र उनकी चाटुकारिता करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।
 

भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी भाषाओं के समाचारों ने हमेशा ही देशहित को सबसे उपर रखा। बाद में भारत के लोकतंत्र की हत्या कर जब इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में देश में आपातकाल लगाया गया, तब भी हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं के समाचार पत्रों ने उनका खुलकर विरोध किया। एक बार फिर देश की आत्मा पर हमला करने वालों के बचाव में अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्र खुलकर आए और उन्होंने देशहित को पीछे छोड़ इंदिरा गांधी की सराहना करना प्रारंभ कर दी। परिणामस्वरूप हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों के प्रकाशन पर एक बार पुनः अंग्रेजों के बाद इंदिरा गांधी ने प्रतिबंध लगा दिया। देखते ही देखते अंग्रेजी समाचार पत्र तो उनके पैरों में ही लेट गए। इस पर लालकृष्ण आडवाणी का बहुचर्चित वाक्य ध्यान आता है, जब वह उस समय अंग्रेजी मीडिया के बारे में कहते हैं कि ‘‘उन्हें जब झुकने के लिए कहा गया, तब वो तो रेंगने ही लग पड़े।’’ हम मान सकते हैं कि पहले अंग्रेजी समाचार पत्रों को अंग्रेजों का डर था और बाद में इंदिरा गांधी का कि वह हिंदी के पत्रकारों की तरह उन्हें भी जेल में न डाल दें। लेकिन सोचने का विषय यह है कि आज कौन सी शक्तियां अंग्रेजी मीडिया को भारत और भारतीयों के भावों के विरोध में लिखने और कार्य करने में विवश कर रही हैं।
अब हम फरवरी माह में हुए घटनाक्रम के ऊपर आते हैं। भारत पर पाकिस्तान के जैश-ए-मोहम्मद नामक आतंकी संगठन ने यह कायरतापूर्ण हमला किया और भारत के अंग्रेजी समाचार पत्रों ने इस हमले की जिस प्रकार रिपोर्टिंग की, उसे देखकर कहना कठिन था कि यह भारतीय समाचारपत्र हैं या पाकिस्तानी। लगभग हर अंग्रेजी समाचारपत्र ने इस हमले को भारतीय जवानों का देश के लिए बलिदान न बताकर अंग्रेजी के ‘किल्ड’ शब्द का प्रयोग किया, जिसका अर्थ है कि भारतीय जवान ‘मारे गए’ न कि बलिदान हुए। वहीं दूसरी ओर हर हिंदी और देशी भाषी समाचारपत्रों ने इसे भारतीय जवानों का देश के लिए बलिदान बताकर भारत की भावनाओं के सम्मान में अपने विचार रखे।

हमले की जिम्मेदारी स्वयं पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने ली। हमले को अंजाम देने वाले आतंकवादी ने स्वयं कबूला कि यह हमला उसने क्यों किया। तो सोचने की बात है कि टाइम्स ऑफ इंडिया को ऐसा क्यों छापना पड़ा जो जैश-ए-मोहम्मद और पाकिस्तान ने भी नहीं कहा। भारत के बहुत से अंग्रेजी समाचारपत्रों ने पाकिस्तान की भाषा इस समय बोली, लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया तो उसे भी पार कर गया और आतंकी को स्थानीय कश्मीरी बताकर, भारत सरकार पर ठीकरा फोड़ दिया कि वह जैश-ए-मोहम्मद पर इस हमले का आरोप लगा रही है।
बाद में यह क्रम लंबा चला और अंग्रेजी समाचार पत्रों ने बहुत प्रयास किए पाकिस्तान को बचाने के, लेकिन इस हमले को इस तरह स्वीकार करके बैठना कायरता ही माना जाता। अंततः 26 फरवरी, 2019 को भारत ने अपने जवानों के बलिदान का बदला ले लिया। 1971 के युद्ध के बाद पहली बार भारत ने पाकिस्तान के अंदर घुसकर हमला किया। भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के बालाकोट में घुसकर जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी ठिकानों को धवस्त किया और जब तक पाकिस्तान कुछ सोच भी पाता, तब तक भारत अपना काम कर चुका था। बाद में पाकिस्तान के अति आधुनिक अमेरिकी एफ-16 लड़ाकू जहाज को भारतीय वायु सेना के जवान ने अति साधारण मिग जहाज से मार गिराया। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय पायलट अभिनंदन पाकिस्तान की गिरफ्त में आ गए। उसके बाद भी हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग देश के प्रति प्रेम और वफादारी के बीच का अंतर पूरी तरह से दर्शाती है। जहां हर हिन्दी समाचारपत्र ने अभिनंदन की बहादुरी को सलाम कर, उसे वापिस लाने के लिए पाकिस्तान पर और कड़ी कार्यवाही तक करने की पैरवी की, वहीं प्रत्येक अंग्रेजी समाचारपत्र ने इसे भारत की हार बता पूरे देश को डराने का काम किया। इन समाचारपत्रों की प्रतियों के चित्र इस लेख के साथ दिए गए हैं, जिसमें हम अंतर साफ तौर पर देख सकते हैं।
भारत, भारतीयों और भारतीय सुरक्षा बलों के मनोबल को तोड़ने वाले विमर्श को खड़ा करने के प्रयास अंग्रेजी मीडिया ने इस दौरान बहुत किए। हर प्रयास किया गया कि पाकिस्तान को बचाया जाए, सेना के मनोबल को तोड़ा जाए और सरकार को घेरा जाए। लेकिन वह शायद भूल गए थे कि भारत की जनता के मन में भारत है, जय जवान-जय किसान भारतीयों के लिए केवल नारा नहीं है। पाकिस्तान को जवाब देने के लिए वह भारत सरकार से कहीं अधिक उत्साहित थे। इसलिए डराकर या सरकार को घेरकर वह भारत की जनता के बीच नया विमर्श नहीं चला पाए। साथ ही संप्रेषण के लिए जिस भाषा का उपयोग वह करते हैं, वह भारतीय समाज की भाषा है ही नहीं, तो भाव और विचारों का संप्रेषण कैसे संभव होता।