कुछ विषय ऐसे होते हैं, जिन्हे समाचार बनाने के लिए मीडिया सदैव तत्पर रहता है। उन विषयों से संबंधित छोटी सी घटना को भी राष्ट्रीय विमर्श बनाने में मीडिया पूरा जोर लगाता है और जब वो विषय किसी चर्चा में न आ रहा हो तो स्वयं ही योजनाबद्ध तरीके से उसे चर्चा में लाने का प्रयास चलता रहता है। ऐसा ही मीडिया का एक प्रिय विषय जम्मू-कश्मीर है। जम्मू-कश्मीर को अगर थोड़े-थोड़े समय बाद न ला जाया जाए तो कुछ मीडिया घरानों और उनसे संबंधित पत्रकारों को लगता है कि वह अपने पत्रकार होने की भूमिका ठीक से नहीं निभा रहे अथवा पत्रकारीय सिद्धांतों को ताक पर रख अपने व्यवसाय के साथ अन्याय कर रहे हैं। अब जम्मू-कश्मीर को बार-बार जबरन लाकर वो अन्याय अपने पत्रकारीय सिद्धांतों से कर रहे हैं या अपने मत प्रचार के साथ यह तो भगवान ही जाने। ऐसे अनेकों पत्रकार और मीडिया घराने हमें देखने को मिल जाएंगे। लेकिन यहां हम केवल एनडीटीवी अैर उससे संबंधित पत्रकार निधी राजदान की बात करेंगे। आज से करीब ढेड वर्ष पूर्व कसौली में आयोजित खुशवंत सिंह साहित्य समारोह में पत्रकार निधी राजदान अपनी पुस्तक पर अपने विचार रख रही थी। पुस्तक पर बात रखते-रखते न जाने उन्हें अपना कौन सा संकल्प याद आया कि उन्होंने कश्मीर पर बौद्धिक देना प्रारंभ कर दिया। उस बौद्धिक में उन्होंनं कश्मीरी युवा के देश से विराग की बात कही। साथ ही एक ओर विषय उन्होंने जोर देकर रखा कि कश्मीर पर राष्ट्रीय विमर्श बिगाड़ा जा रहा है और स्थिति को और खराब कर रहा है। अगले दिन समाचार पत्रों में उनका यह बयान जोर-शोर से छपा। शायद उन्होंने कश्मीर की बात करते वक्त जैसा सोचा, वैसा ही हुआ और एक बार फिर जम्मू-कश्मीर को नकारात्मक पेश करके विमर्ष बनाने का अपना फर्ज मीडिया ने पूरा किया। पुस्तक के बारे में बताते हुए एकदम से जम्मू-कश्मीर राज्य को नकारात्मक रूप से पेश करके उन्होंने स्वयं बता दिया कि कश्मीर के बारे में राष्ट्रीय विमर्श कौन बिगाड़ रहा है।
यह घटना ढेड वर्ष पूर्व की है, लेकिन उससे पहले भी और बाद में भी कईं उदाहरण हमारे सामने आते हैं जहां बिना किसी बात के जम्मू-कश्मीर को नकारात्मक रूप से चर्चा में लाया जाता रहा है। ढेड वर्ष पूर्व की गई जम्मू-कश्मीर राज्य की चिन्ता के बाद हाल ही में निधी राजदान ने दोबारा जम्मू-कश्मीर के लिए विदेश से जबरदस्ती हल लाने के प्रयास किए। लेकिन इस बार उनको मुंह की खानी पड़ी क्योंकि कोई देश आखिर उनके मत प्रचार का हिस्सा क्यों बनेगा? 7 जनवरी 2019 को निधी राजदान ने अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया कि उन्होंने अभी नॉर्वे की प्रधानमंत्री एरना सोलबर्ग का साक्षातकार लिया और उसमें नॉर्वे की प्रधानमंत्री ने उनसे कहा कि अगर भारत-पाकिस्तान चाहे तो नॉर्वे कश्मीर के लिए मध्यस्थता करने के लिए त्यार है। लेकिन इससे पहले कि अपने संकल्प के चलते एक और विमर्श निधी राजदान और एनडीटीवी कश्मीर को खड़ा कर पाते, नॉर्वे के भारत में राजदूत ने कुछ समय के भीतर ही अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से निधी राजदान की बातों को सिरे से नकार दिया। उन्होंने निधी राजदान के ट्वीट के तुरंत बाद स्पष्ट किया कि नॉर्वे की ‘‘प्रधानमंत्री द्वारा कश्मीर के लिए मध्यस्थता की बात नहीं की गई है, जैसा कि मीडिया द्वारा रिर्पोट किया गया। नॉर्वे द्वारा न कभी मध्यस्थता की पेशकश की गई है और न ही कभी उन्हे ऐसा करने को कहा गया।’’
इस बार तो इनके मतप्रचार को प्रारंभ में ही ढेर कर दिया गया। लेकिन सोचने की बात यह है कि एनडीटीवी और निधी राजदान को नॉर्वे की प्रधानमंत्री का साक्षातकार लेते समय कश्मीर को जबरदस्ती बीच में लाने की क्या आवश्यकता पड़ गई? जब नॉर्वे की प्रधानमंत्री ने उत्तर उनके मत प्रचार के अनुरूप नहीं दिया तो उन्होंने ट्विटर से विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया। शायद उन्होंने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि उनके मत प्रचार के एजेंडे को नॉर्वे ही उधेड़ के रख देगा। वास्तव में जम्मू-कश्मीर की समस्या कोई वास्तविक समस्या न होकर ऐसे कुछ लोगों और संस्थानों की ही समस्या है। इन्हीं लोगों ने इसे खड़ा किया, नकारात्मक प्रचार करके उसे बढाया और अब इसे बनाए रखने के लिए तत्पर हैं। वास्तविकता में भले ही राज्य में सकारात्मक परिवर्तन आ रहा हो। स्थानीय कश्मीरीयों को जिहादी आतंकवादीयों द्वारा मौत के घाट उतारा जा रहा हो। आतंकवादियों को पकड़वाने और मरवाने में स्थानीय लोगों का सुरक्षा बलों को पूरी जानकारी और सहयोग दिया जा रहा हो, राज्य का युवा मुख्यधारा में जुड़ने के लिए तत्पर हो और सेना एवं अन्य सुरक्षा बलों में भर्ती होने में उत्साह दिखा रहा हो, स्थानीय निकायों और पंचायतों से आम जन-मानस की शासन में सहभागिता बड़ रही हो और राज्य में कई प्रकार से सकारात्मक वातावरण निर्माण हो रहा हो लेकिन राष्ट्रीय विमर्श में कश्मीर को नकारात्मक बनाए रखना कुछ मीडिया घरानों और पत्रकारों का षड़यंत्र है। लेकिन अब वह समय चला गया जब यह लोग जम्मू-कश्मीर को लेकर अपने मत प्रचार में सफल हो जाते थे। अब मीडिया के सैंकड़ों विकल्प उपलब्ध हैं और सोशल मीडिया में जनता खुद भी पत्रकार की भूमिका में आ गई है।
2024-04-08
2024-04-08
- बाबूराव विष्णु पराड़कर
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