पंचायत चुनावों पर रणनीतिक चुप्पी

राजनीति मीडिया का प्राइम एजेंडा है। भारत में भी यदि मीडिया की बात की जाए तो यहां भी सबसे अधिक स्थान राजनीति और उससे संबंधित विषयों को ही मिलता है। इसमें भी यदि कहीं चुनाव हो रहे हों या चुनावों का दौर चल रहा हो तो इससे अच्छा मुद्दा तो मीडिया के लिए अन्य कोई है ही नहीं। चुनावों की कवरेज के लिए तो किसी भी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय मुद्दे को ताक पर रख दिया जात है। राजनीति के बाद कुछ और विषय भी आते हैं, जिनसे संबंधित सूचनाओं एवं समाचारों के इंतजार में मीडिया हमेशा रहता है। मीडिया का ऐसा ही एक पसंदीदा विषय है जम्मू-कश्मीर। जम्मू-कश्मीर से संबंधित किसी भी समाचार को मीडिया राष्ट्रीय विमर्श बनाने से पीछे नहीं हटता। चाहे मुद्दा राजनीतिक हो या गैर-राजनीतिक, यदि जम्मू-कश्मीर से संबंधित है तो मीडिया उसे किसी न किसी निष्कर्ष तक पहुंचाने के प्रयास में रहता है। हाल ही के दिनों में जम्मू-कश्मीर और राजनीति से संबंधित अनेक विषय मीडिया विमर्श का हिस्सा रहे। राजनीति की बात की जाए तो पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव, जिसमें भी प्रमुखता से तीन पर ही ध्यान दिया गया। वहीं जम्मू-कश्मीर में सेना द्वारा आतंकियों के खात्मे के लिए चलाया जा रहा ऑपरेशन ऑलआउट, धुरविरोधी र्पािर्टयां पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस द्वारा राज्य में सरकार बनाने के प्रयास, राज्यपाल द्वारा विधान सभा को भंग करना और आतंकियों के बचाव में आने वाले पत्थरबाजों पर सुरक्षा बलों की कार्यवाही जैसे विषय ही मीडिया की नजरों में आ सके।

इन सबके बीच, इसी दौरान एक ऐसा अद्भुत घटनाक्रम भी घट रहा था जो चुनाव, राजनीति और जम्मू-कश्मीर तीनों से संबंधित था, लेकिन न जाने किस योजनावश मीडिया के मुद्दों और चर्चाओं से गायब रहा। वह था पिछले दो महीनों में जम्मू-कश्मीर में हुए नगर पालिका और पंचायत चुनाव। राज्य में हुए यह चुनाव स्वयं ही एक नए विमर्श को जन्म देने वाले हैं, जो कि मीडिया जाने-अनजाने में देश को समझाने और बताने में विफल रही। अब यह विफलता अज्ञानता के कारण रही या किसी सोची-समझी रणनीति के तहत इस पर विचार करना चाहिए। क्योंकि यदि मीडिया इन चुनावों, उनके महत्व को चर्चा का विषय बना देती, तो आज तक जो भी विमर्श जम्म-कश्मीर के नाम पर इन्होंने खड़ा करने का सफल-असफल प्रयास किया था, वह ढह जाता। मीडिया भलिभांति जानती थी कि यह चुनाव जम्मू-कश्मीर राज्य और देश के लिए कितने महत्वपूर्ण चुनाव हैं और इनका महत्व पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों से ज्यादा ही था।

राज्य में नगर पालिका के चुनाव 2005 और पंचायत के चुनाव 2011 के बाद अब हो रहे थे। उससे पहले भी राज्य में यह चुनाव दशकों बाद हुए थे। राज्य में स्थानीय चुनावों का न होना या उन्हें निरंतर टालना कोई इत्तेफॉक नहीं, बल्कि सोची-समझी राजनीतिक साजिश रहा है। राज्य में दशकों से राज कर रहे राजनीतिक दल या परिवार ही इन चुनावों के पक्ष में नहीं रहे। वैसे तो देश भर में राजनीति में परिवारवाद के कईं उदाहरण मिलते हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक सत्ता प्रारंभ से ही कुछ परिवारों के हाथों में ही रही है। इनमें राज्य के दो प्रमुख राजनीतिक दल आते है, पहला शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह के परिवार की नेशनल कॉन्फ्रेंस और दूसरी मोहम्मद सईद के परिवार की पीडीपी। कांग्रेस का समर्थन पाकर दोनों परिवार की पार्टियां राज्य में सत्ता का सुख भोगते रहीं और अंततः सत्ता पाने के लिए मुफती मोहम्मद सईद के परिवार की पीडीपी को भाजपा से भी गठबंधन करना पड़ा। हालांकि यह गठबंधन कई कारणों से लम्बा नही चल सका, जिसमें से एक राज्य में स्थानीय चुनावों का न होना भी था।

इस एकाधिकार के कारण आम जनमानस की सत्ता और शासन में सहभागिता दूर-दूर तक कहीं नहीं थी। इन दोनों परिवारों को ही सर्वेसर्वा मानने की मानसिकता राज्य में विकसित की गई। यदि नगर पालिका या पंचायते राज्य में अस्तित्व में रहती तो सत्ता का विकेंद्रीकरण होता। विकास और कल्याण की योजनाओं के लिए केन्द्र से मिले धन को स्थानीय समितियां, निकाय और पंचायतों को देना पड़ता। इससे न केवल शासन अच्छे से चलता बल्कि आम जनमानस का इन परिवारों और राजनीतिक दलों को सर्वेसर्वा के रूप में स्वीकार करना मुश्किल हो जाता। इससे एक तरफ तो बिना हिसाब के मिले धन और संसाधनों को नीचे तक बांटना पड़ता और हर छोटी परेशानी के लिए आम जनमानस को इन परिवारों की ओर स्वामी की दृष्टि से नहीं देखना पड़ता। तो स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव न केवल जनता को सक्षम बनाते बल्कि शासन और सत्ता का विकेंद्रिकरण कर इन परिवारों की शक्तियों को भी क्षीण करते। साथ ही भविष्य में राज्य के आम महिला और पुरुष से इनको चुनौती भी मिल सकती थी। इसलिए परिवारों की सत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक यही था कि सत्ता और शासन केवल अपने हाथों में ही रहे और आम आदमी सत्ता और शासन से दूर ही रहे। स्थानीय निकाय एवं पंचायत चुनाव न ही केवल सत्ता का विकेंदी्रकरण करते बल्कि आम जन-मानस को भी सत्ता और शासन तक सीधा पहूंचाने का काम करते।

इसके अलावा एक और पक्ष जम्मू-कश्मीर की राजनीति और स्थानीय और पंचायत चुनावों के न होने देने से गहरा संबंध रखता है। जम्मू-कश्मीर राज्य के मूलतः तीन प्रमुख संभाग माने जाते हैं- लद्दाख, जम्मू और कश्मीर। इनमें से क्षेत्रफल में लद्दाख सबसे बड़ा है और जनसंख्या में जम्मू। लेकिन राज्य की विधानसभा में या सीधे तौर पर राज्य में राज कश्मीर से संबंधित दलों या कश्मीरी राजनेताओं का ही रहता है। जिससे जम्मू और लद्दाख संभाग की शासन और सत्ता में सहभागिता न के बराबर रहती है। स्थानीय निकाय और पंचायतें न होने की वजह से स्थिति लम्बे समय से ऐसे ही बनी हुई थी और आगे भी ऐसे ही रहती। जम्मू और लद्दाख को सत्ता और शासन से दूर रखने का यह सूनियोजित राजनीतिक षड़यंत्र था।

अब यदि हम जम्मू और लद्दाख से बाहर केवल कश्मीर की बात करें, तो वहां स्थानीय निकाय और पंचायतों के न होने से आम कश्मीरी की हालत बद से बदतर है। आम कश्मीरी न केवल सत्ता से बहुत दूर है, बल्कि अपने आप को व्यवस्था और सत्ता से ही कटा हुआ महसूस करता है। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में जिस कश्मीरी बहुलता की बात हमने की, उसमें भी आम कश्मीरी प्रतिनिधि नहीं है। यदि हम केवल कश्मीर घाटी की जनसांख्यिकी की बात करें तो वहां की जनसंख्या में 5 से 10 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो कि मूल रूप से कश्मीरी नहीं हैं। इनमें शेख, सईद, गिलानी, आदि प्रमुख जातियां हैं। सदियों पूर्व उनके पूवर्ज अरब, इरान और मध्य एशिया से कश्मीर में आए और कश्मीर पर राज किया। तब से लेकर अब तक इन 5-10 प्रतिशत बाहरी लोगों और स्थानीय कश्मीरी में किसी न किसी रूप में संघर्ष चल रहा है। अब जिस कश्मीर बहुल विधानसभा की बात हम उपर कर रहे थे, उसमें 50-60 प्रतिशत यह लोग ही हैं। यह विदेशी आज भी आम कश्मीरी को अपने से छोटा ही मानती हैं और इनपर राज करना अपना एकाधिकार समझती हैं। इस स्थिति में यदि स्थानीय निकाय, समितियां और पंचायतें अस्तित्व में आती हैं, तो आम कश्मीरी जो आज तक राजनीतिक सत्ता के चलते इनके अधिन था वह इनकी बराबरी तक न केवल पहुंच सकता है, बल्कि देर-सवेर इन्हें सत्ता से हटा इनपर राज भी सकता है। सीधे शब्दों में कहें तो जम्मू-कश्मीर में न केवल राज्य के बाहर के लोगों के अधिकार समाप्त हो जाते हैं, बल्कि राज्य में रह रहे लोग भी जाने-अनजाने अपने राजनीतिक अधिकारों से वंचित रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख तीनों संभागों के लोग राज्य की सत्ता और शासन से बिल्कुल वंचित हैं।

वर्षों से चली आ रही इस व्यवस्था को कभी न कभी तो समाप्त होना ही था। आखिर कब तक आम जनता की उपेक्षा कर राज्य में शासन किया जा सकता था। भारत की जगह कोई अन्य देश होता तो ऐसी राजनीतिक तानाशाही में गृहयुद्ध जैसे हालात बनने में भी समय नहीं लगता, लेकिल भारत के मजबूत लोकतंत्र और उस पर विश्वास करने वाली जम्मू-कश्मीर की जनता ने अंततः चुनौती दी। राज्य के राजनीतिक परिवारों के अस्तित्व और एकाधिकार को तोड़़ने वाले इन चुनावाों के पक्ष में तो यह प्रमुख पार्टीयां कभी नहीं थी, यह इस बार फिर पता लग गया। राज्यपाल द्वारा जैसे ही राज्य में स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव कराए जाने की बात कही गई, वैसे ही इन राजनीतिक दलों ने इसे अपने अस्तित्व पर चुनौती मानते हुए इन चुनावों में ही भाग लेने से मना कर दिया और राज्य के तथाकथित विशेषाधिकार से छेड़छाड़ का बहाना लगाया। अब कोई पूछे कि राज्य के आम आदमी के सत्ता और शासन में सहभागिता होने से किसके विशेषाधिकारों का हनन होता है? इन राजनीतिक परिवारों के या राज्य का? समय आने पर इसका बहुत उचित उत्तर भी राज्य की जनता ने इन राजनीतिक परिवारों को दे दिया।

राज्य की जनता को अपने परिवार की जागीर मानने वाले इन राजनीतिक परिवारों को लगा कि हम इस राज्य की दो प्रमुख पार्टियां हैं, यदि हम ही चुनावों से मना कर देंगे तो राज्यपाल चुनाव कैसे कराएंगे? इसके बावजूद भी राज्य के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने चुनाव कराने के संकल्प को वापस नहीं लिया। राज्यपाल कार्यालय की फैक्स मशीन बंद होने वाली खबर को प्रमुखता से दिखाने वाले मीडिया घरानों ने राज्यपाल की इस प्रशासनिक कुश्लता और इसके सामरिक महत्व को बताने का बिलकुल भी कष्ट नहीं किया। अंततः राज्य में नगर पालिका के चुनाव अक्तुबर माह में चार चरणों में और पंचायत चुनाव नवम्बर-दिसम्बर में नौ चरणों में कराने का निर्णय लिया गया। राज्य के प्रमुख राजनीतिक दलों के चुनावों में भाग लेने से मना करने के बाद भी राज्यपाल ने लिए चुनाव कराने का निर्णय लेना आसान काम नहीं था। एक तरफ जहां मुख्य राजनीतिक पार्टियां चुनावों का बहिष्कार कर चुकीं थी, वहीं दूसरी तरफ विभिन्न आतंकवादी संगठनों ने चुनावों में किसी भी तरह से भाग लेने वाले लोगों को जान से मारने की धमकियां तक दे दीं थी। इसी कड़ी में खुद को राज्य के प्रतिनिधि के रूप में दिखाने वाले अलगाववादी नेताओं ने भी खुले तौर पर चुनावों का बहिष्कार किया और राज्य की जनता को भी इनसे दूर रहने की धमकियां दी।

इन सबके बावजूद राज्य की जनता के खुले मन से इन चुनावों में न केवल अपना मत दिया, बल्कि लोकतंत्र के इस पर्व को मनाने का एक उत्साह राज्य की जनता में दिखा। जहां तक आतंकवादियों की धमकियों का सवाल था तो भारतीय सेना, राज्य की पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों ने एक भी आतंकवादी या कोई भी अन्य अप्रिय घटना को इन चुनावों में सफल नहीं होने दिया। अंततः राज्य में चार चरणों में नगर पालिका और नौ चरणों में पंचायत के चुनाव हुए। जिसमें नगर पालिका में 50 प्रतिशत के करीब राज्य की जनता ने मतदान किया और पंचायत चुनावों में 75 प्रतिशत के करीब लोगों ने अपना मतदान दिया। इतने बड़े स्तर पर चुनावों में मतदान यदि अन्य किसी राज्य में भी होता तो वह भी चर्चा का विषय बन सकता था। जम्मू-कश्मीर में तो यह एक नए विमर्श को जन्म देता ही है, लेकिन राजनीति और जम्मू-कश्मीर के पीछे भागने वाली मीडिया से यह विषय गायब रहा। इन चुनावों ने जम्मू-कश्मीर पर चल रहे बहुत से विमर्शों को विराम दिया है, साथ ही राज्य में चल रहे बहुत से राजनीति और सुशासन संबंधी विषयों को एक निर्णायक दिशा दी है।

 

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