मनोगत

मनोगत - जून, 2020  :-


कोरोना का संकट दुनियां में बड़े बदलाव लेकर आया है। आंख मूंदे और मुठ्ठियां भींचे अंधाधुंध दौड़ रहे लोग यकायक ठहर गये। अब वे भौचक होकर सोच रहे हैं कि दौड़े बहुत, लेकिन पहुंचे कहीं नहीं। अपना परिवेश छोड़ आये। नये में ढ़ल नहीं सके। जहां हैं वहां होना न उन्हें मंजूर है और न उन्हें जिनके बीच वे आज हैं।

पत्रकारिता में भी ऐसी ही अंधी दौड़ चल रही थी। इस दौड़ में पत्रकारीय मूल्यों पर समझौता किया। खबरों के नाम पर क्या नहीं दिखाया। भूत-प्रेत, चुड़ैल, स्वर्ग की सीढ़ी, रावण का सिंहासन, टूटते-बिखरते, कलंकित होते रिश्ते और न जाने क्या-क्या। अंततः पता चला कि टीआरपी अभी भी रामायण और महाभारत में है। छोटे और बड़े पर्दे पर इतना अंधेरा परोसने के बाद भी कथित ‘जेनएक्स’ और ‘मिलेनियल्स’ रामराज्य के आकर्षण में झूल रहे हैं। फिर यह दो दशकों की अंधी दौड़ आखिर क्या थी? किसके लिये थी?

22 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान पर कोरोना योद्धाओं के लिये तालियां बजायी गयीं। खिड़की और रेलिंग से लटके लोगों ने जिनके लिये तालियां बजायीं उनमें मीडियाकर्मी भी शामिल थे, लेकिन जब अपने कर्तव्य की पूर्ति करते हुए वे संक्रमित होने लगे तो उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था। छोटे अखबारों और पत्रिकाओं में काम करने वाले पत्रकारों की स्थिति तो उन दिहाड़ी मजदूरों से भी गयी-बीती थी जिनके लिये न नौकरी थी और न ‘मनरेगा’।

‘मिशनरी’ पत्रकार मोदी की नाकामयाबी का ढ़िंढ़ोरा पीटते सूनी सड़कों पर बढ़ चले। रास्ते में पैदल अपने घरों की ओर कदम बढ़ा रहे गरीबों की मजबूरी उनके फोकस में थी। उनके अनुसार यह गरीब क्रूर बाजार और बर्बर शहरी मानसिकता के शिकार नहीं बल्कि मोदी के नाकारापन के प्रतीक हैं। यह लोग बाजार या शहरी मानसिकता, जिसने इनके दम पर करोड़ों-अरबों कमाये और महीने भर के लॉकडाउन में उनको पेटभर रोटी देने से हाथ खड़े कर दिये, को इसका आरोपी  नहीं ठहरा सकते क्योंकि वे खुद इसका हिस्सा हैं। इनके अपने संस्थानों में काम कर रहे जूनियर पत्रकार और स्टिंगर भी इसी तरह सड़कों पर हैं । एन.यू.जे. के कार्यालय पर कोरोना जांच, दवाइयों और राशन किट के लिये गुहार लगाने वाले नवोदित पत्रकार इन ‘एक्टिविस्ट’ पत्रकारों की संवेदना जीत पाने में असफल रहे।

यह साबित होना बाकी है कि कोविड 19 वायरस फैला या जान-बूझ कर फैलाया गया, लेकिन यह तो सिद्ध ही है कि इसके विकराल रूप धारण करने के पीछे चीन की भूमिका नकारी नहीं जा सकती, जिसने पहले इसकी गंभीरता को छिपाने की कोशिश की और फिर अपने यहां इससे मरने वालों का आंकड़ा भी छिपाया। किन्तु दिल्ली में मीडिया में मौजूद उसके मददगार ऐसी परिस्थिति में भी उसके बचाव के लिये सामने आये। इसके पीछे दबाव था या प्रलोभन, अथवा वे सिर्फ मोदी विरोध के लिये चीन का समर्थन कर रहे हैं, इसकी पड़ताल जरूरी है।


आशुतोष भटनागर