मनोगत

मनोगत - अगस्त, 2020 :-  :-


बहुप्रतीक्षित शिक्षा नीति का आगमन हो चुका है। पिछली नीति 34 वर्ष पूर्व आयी थी और आज तक भी अपने लक्ष्य पूरे नहीं कर सकी। इस बीच दुनियाँ के तौर-तरीके बदल गये और देश की जरूरतें भी। वर्तमान नीति को आकार लेने में भी छः वर्ष लगे। अनेक व्यावहारिक और राजनैतिक अड़चनें आती रहीं और समय खिंचता रहा। घोषणा के साथ ही संकेत मिलने लगे हैं कि हर मामले में विरोध पर आमादा विरोधी दल गुण-दोष के आधार पर इसका मूल्यांकन नहीं बल्कि सरकार पर हमला करने के हथियार के रूप में इसका उपयोग करेंगे।

नयी नीति को लागू करने और उससे अपेक्षित परिणाम पाने में वर्षों लगेंगे। किन्तु उस पर आलोचना के तीर साधे जाने लगे हैं। वर्ष 2035 तक उच्च शिक्षा में नामांकन दर 50 प्रतिशत तक पहुंचाने का लक्ष्य नयी नीति में रखा गया है। सीधा अर्थ है कि बड़ी जनसंख्या नयी नीति से अप्रभावित रहने वाली है। लेकिन इस अप्रभावित रहने वाली जनसंख्या को भी जल्द ही इसकी कमियों की जानकारी पहुंच जायेगी।  सामाजिक सरोकारों के लबादे में यह जानकारी सोशल मीडिया के पंखों पर तिरती हुई पहुंचेगी।

जरूरी नहीं कि सामान्य नागरिकों तक जो जानकारी पहुंचे वह सच ही हो। यह भी हो सकता है कि वह अनुमान पर आधारित अर्धसत्य हो अथवा सफेद झूठ हो। जहाँ से यह सूचना प्रवाह प्रारंभ होगा वहाँ जानकारी पूरी होगी, उस जानकारी का रणनीतिक उपयोग किया जायेगा। लेकिन सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म का उपयोग करते हुए वह क्या-क्या रूप लेगी, यह कहना कठिन है।

लोकतंत्र में सूचना का प्रसार महत्वपूर्ण है। लोगों के सूचना पाने के अधिकार को सीमित करने का विचार ही अलोकतांत्रिक है। लेकिन सूचना के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है वह तथ्य और सत्य की कसौटी पर खरा हो यह सुनिश्चित करना जरूरी है। सूचना के नाम पर कुछ भी प्रसारित कर दिया जाय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उसकी पड़ताल भी न की जाय, यह अंततः लोकतंत्र को ही कमजोर करेगा।

सूचना पाने का अधिकार वस्तुतः सत्य जानने का अधिकार है। इसकी आड़ में राजनैतिक अथवा राष्ट्रविरोधी अभियानों का संचालन यदि हो रहा है तो यह जाँच का विषय होना ही चाहिये। जम्मू कश्मीर अथवा नक्सलवाद से जुड़े अनेक मामलों को हमने भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के चलते नकारात्मक विमर्श बनते देखा है। ऐसे समय में तत्कालीन सरकारों के अनिर्णय की स्थिति में फंसे रहने और अकादमिक विश्व और विषय विशेषज्ञों के सब-कुछ जानते-बूझते भी चुप्पी साधे रहने के कारण यह झूठ स्थापित ही नहीं हुआ, जनता की धारणाओं में पैठ गया।

ऐसी घटनाओं पर सजग प्रतिक्रिया और त्वरित कार्रवाई की जरूरत है। लेकिन वह भी किसी की मनमानी पर निर्भर नहीं हो सकती। इसके लिये भी  प्रभावी नीति के निर्माण की आवश्यकता है। नीति निर्माण के लिये विमर्श जरूरी है। इस विमर्श में सभी संबंधित पक्षों की सहभागिता अपेक्षित है। लेकिन यह आवश्यकता है कि अब देश में एक सूचना नीति भी बने जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करे और यह अभिव्यक्ति तथ्यों से परे न हो। शिक्षा नीति आने वाले दशकों में प्रभावी होगी लेकिन सूचना नीति के अभाव में उसके प्रभावी होने से पहले ही काफी विषवमन हो चुकेगा। संभव है कि विषाक्त वातावरण में उपजे वृक्ष के फल अपेक्षित स्वाद और ऊर्जा न दे सकें।   


आशुतोष भटनागर