मनोगत

मनोगत - जुलाई, 2020  :-


पत्रकारिता को जल्दी में लिखा गया साहित्य कहने का चलन है। पत्रकार की कलम से निकले शब्दों को साहित्य की कोटि में रखना अनेक लोगों को इसलिये नहीं भाता क्योंकि उसकी उम्र बहुत कम होती है। लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं जब पत्रकार की कलम ने जिन शब्दों का संयोजन किया, वे अमर हो गये।

पत्रकार की रचना इसलिये अल्पजीवी होती है क्योंकि अधिकतर लेखन तात्कालिक और नकारात्मक घटनाओं का विवरण मात्र होता है। कुछ घंटों में अप्रासंगिक हो जाना उसकी नियति है। किन्तु जब वही पत्रकार किसी राष्ट्रीय अथवा मानवीय सरोकार के प्रश्न पर अपनी आत्मा के स्वर को शब्द देता है तो वह उतनी ही उम्र प्राप्त कर लेता है जितनी उस सरोकार की होती है।

स्वतंत्रता के पूर्व ‘प्रभा’, ‘कर्मवीर’ और ‘प्रताप’ जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों का सम्पादन करने वाले श्री माखन लाल चतुर्वेदी द्वारा 5 जुलाई 1921 को लिखी कविता “पुष्प की अभिलाषा” का आज शताब्दी दिवस है। स्वतंत्रता आन्दोलन के योद्धाओं को प्रेरणा देने वाली यह कविता सौ वर्ष बाद भी आज प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है। चतुर्वेदी ने इसे बिलासपुर केन्द्रीय जेल की बैरक नं. 9 में लिखा था जहाँ वे अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने के आरोप में बंदी थे।

उदाहरण यह बताने के लिये पर्याप्त है कि यदि देश और समाज के मिजाज को भांपते हुए उसके सरोकार पत्रकार की कलम से निकलेंगे तो दीर्घजीवी होंगे, परिणामकारी होंगे, पत्रकार को भी पहचान देंगे।

केवल पत्रकारिता ही नहीं, संवाद के जितने भी माध्यम हैं, उनके “भाषा-भावों के छन्द-बन्ध” छीज गये हैं। सृजन के बजाय शब्दों का उत्पादन हो रहा है। बाजार के कुछ यथार्थ और कुछ काल्पनिक दबावों के चलते कुंठित कलम रचनाधर्मिता से दूर हो रही है। क्या कारण हे कि आज नये शब्द और नये मुहावरे पत्रकारों द्वारा नहीं बल्कि राजनेताओं द्वारा गढ़े जा रहे हैं और पत्रकारिता उन्हें ढ़ो रही है ? क्या कारण है कि आज भी राष्ट्रीय प्रश्नों की व्याख्या के लिये दिनकर और निराला की पंक्तियां ही माध्यम बनती हैं ? क्या कारण है कि आज भी झूमते बारातियों के पाँव मेरे देश की धरती पर ही थिरक उठते हैं ?

कहीं तो कुछ छूट गया है, खो गया है। क्या समाज के सीधे प्रश्नों को संबोधित करने की क्षमता संवाद माध्यम खो चुके हैं ? क्या उनकी इच्छाशक्ति चुक गयी है ? क्या रोटी के सवाल नैतिकता पर हावी हैं ? और क्या इन सवालों से नजरें चुरा कर अंदर का पत्रकार जी सकेगा ?

इन प्रश्नों की खोज आवश्यक है और आवश्यक है मीडिया का आत्मावलोकन, जिसकी पहल के रूप में संवादसेतु आपके समक्ष अवलोकनार्थ प्रस्तुत है।


आशुतोष भटनागर