त्रिवेणी प्रसाद तिवारी

इतिहास और वर्तमान के भ्रमों की यात्रा है... सार्थ

सार्थ : एस. एल. भैरप्पा का कन्नड़ भाषा में रचित सुप्रसिद्ध उपन्यास है। भारत के मध्यकालीन सामाजिक ऊहापोह, विचलन, विभिन्न मत-मतान्तरों का यथार्थ चित्रण है। उपन्यास का कालखण्ड सातवीं-आठवीं शताब्दी का भारत है। उस समय वैदिक धर्म का प्रभाव और उसका अनुपालन सीमित, संशयग्रस्त हो चला था। बौद्ध मत को राजकीय संरक्षण में प्रमुख मान्यता मिल रही थी। वृहत्तर भारत के पश्चिमोत्तर प्रांत सिंध की ओर से अरबों ने तलवार, हिंसा के बल पर इस्लाम को फैलाना शुरु कर दिया था। निराशा का वातावरण फैलने लगा था।
नैराश्य की इससे बड़ी पराकाष्ठा और क्या हो सकती है कि पाठक को उपन्यास के पहले ही पृष्ठ पर यह पता चले कि वह नायक जिससे पाठक का अभी परिचय नहीं हुआ हो, उसकी पत्नी उसे छोड़कर किसी राजा से सम्बन्ध बना लेती है और उस अनुचित सम्बन्ध से एक पुत्र भी हो जाता है। विषाद, सामाजिक बहिष्कार, अपयश,कुल की बदनामी को सोचती नायक की माँ की मृत्यु हो चुकी हो और दूर कहीं नायक को मृत्यु का समाचार मिले। पाठक किस प्रकार उस नागभट्ट में अपने नायक  को देखेगा? लगभग उपन्यास के अंत तक बदले की भावना से ग्रस्त और प्रेम से वंचित नायक नागभट्ट वासना में फिसलता, मोह में गिरता-पड़ता, अवगुंठन में जीता आगे बढ़ता है। बौद्ध मत, वामाचार, योग के रास्ते पकड़ता-छोड़ता भगवान कृष्ण के जीवन चरित को अभिनीत करके पुनः स्वधर्म की और लौटता है। इसका कथानक प्रथम पुरुष में है। नायक की आँखों से कहानी घटित होती है। मध्यकालीन भारत की स्थिति का सूक्ष्म चित्रण मिलता है सार्थ में। बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार,उसके ऐश्वर्य के सामने वैदिक धर्म किस प्रकार अपनी निष्ठा और नियम खोता जा रहा है? उस समय का नालंदा विश्वविद्यालय भी बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा, उसके उन्नयन के लिए ही प्रतिबद्ध था। फिर भी समाज में  वेद, उपनिषद,राम-कृष्ण आदि के चरित्र इतने गहरे थे कि सनातन का उच्छेदन आसान नहीं था। 
बहुत बारीकी से भैरप्पा जी ने उपन्यास के माध्यम से यह भी बताया कि किस प्रकार 'आचार्य वज्रपाद' जैसे बौद्ध गुरु ने आम जनता पर प्रभाव डालने के लिए वैदिक-पौराणिक चरित्र के गठन, मुद्राएँ, देवप्रतिमा विज्ञान के लक्षणों को बोधिसत्व की प्रतिकृति के साथ जोड़कर, बलपूर्वक चित्रण करवाया, जोकि आज भी हमें स्पष्ट दिखाई देता है जैसे भगवान विष्णु के सदृश अवलोकितेश्वर, शिव के सदृश मंजुश्री और दुर्गा के सदृश  तारा का विग्रह निर्माण।

लगभग तीन सौ पृष्ठों तक फैली यह कृति जीवन के सभी पक्षों को छूती है। नागभट्ट और नटी चन्द्रिका के बीच प्रेम की धारा कथा को सरस बनाती है। नागभट्ट प्रेम करके भी हठ से चन्द्रिका को पाना चाहता है दूसरी ओर चन्द्रिका, जो संगीत की साधिका है, जो अपने जीवन में कितनी ही विसंगतियों, वासनाओं के खड्ड से निकलकर ध्यान मार्ग पर चल पड़ी है, केवल शुद्ध, सात्विक प्रेम करना चाहती है नागभट्ट से,दाम्पत्य जीवन नहीं। वह गणिका नहीं है।सार्थ के चन्द्रिका से बहुत कुछ समानता मिलती है आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' की निपुणिका (निउनिया)से। निपुणिका भी अपने प्रणय की बात कभी भी बाणभट्ट से प्रत्यक्ष नहीं कहती। बाणभट्ट(सूत्रधार की भूमिका में) के प्रथम नाटक मंचन से ही बाण के प्रति प्रेम लिए, तमाम अवरोधों के बाद बाण के  नाटक में प्रेम दग्ध हृदया का अभिनय करते हुए सचमुच मंच पर ही अपनी आहुति दे देती है। वहीं सार्थ की नायिका अपने नागभट्ट को पतन से उठाने के लिए निषिद्ध तंत्राचार की योनि पूजा को भी स्वीकार करती है। उसका त्याग बहुत बड़ा है। राष्ट्र को जगाने के लिए अरब म्लेच्छों के कब्जे वाले पश्चिमोत्तर भाग मूलस्थान में नागभट्ट-चन्द्रिका दोनों नाटक खेलते हैं। दोनों पकड़ लिये जाते हैं। उन पर अत्याचार होता है। उससारा म्लेच्छों द्वारा पाशविक व्यवहार, बलात्कार और उस पिशाचवृत्ति का बीज न चाहते हुए अपने गर्भ में धारण करती है।नागभट्ट भी उसकी पवित्रता को स्वीकारता है क्योंकि वह स्वयं वासना मुक्त हो भारती देवी के एक वाक्य में उसे बोध होता है-- "गृहस्थाश्रम और वैवाहिक जीवन एक व्रत है। भावना को व्रत के नियम के अनुकूल ढ़ालना उत्तम व्रत ही नहीं बल्कि यह कर्ममार्ग का मूल तत्व है।"

इसमें ऐतिहासिक चरित्र आदि गुरू शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र और उनकी पत्नी भारती देवी भी हैं। हालाँकि आज भी कतिपय विद्वान शंकराचार्य का समय ईसा पूर्व  लगभग दूसरी शती मानते हैं परन्तु उपन्यासकार ने इनका समय आठवीं शती मानकर रचना की है।  मंडन मिश्र-भारती देवी और शंकराचार्य  का शास्त्रार्थ कहीं भी बोझिल नहीं करता बल्कि तत्कालीन समय के विश्रृंखल समाज और देशकाल, गृहस्थ और सन्यास को एक सुनिश्चित दिशा देते हुए ज्ञानमार्ग की प्रतिस्थापना होती है। आगे देश को बहुत कुछ सहना था, मंदिर-स्थापत्य-वैदिक-बौद्ध आदि सब पर म्लेच्छों का प्रहार होना था। बचाने लायक केवल सात्विक गृहस्थ धर्म ही था शायद इसीलिए भैरप्पा जी ने गृहस्थ होने और वीर्यवान संतति को जन्म देने के महागुरू के आशीर्वाद के साथ ही अपनी लेखनी को रोक दिया।

नारी चरित्र की दृष्टि से इस कृति में दो प्रमुख पात्र हैं, प्रथम भैरप्पा जी की सृजित 'चन्द्रिका' और दूसरी ऐतिहासिक चरित्र 'भारती देवी'। चन्द्रिका पूरे उपन्यास में कलाआराधिका होते हुए, योग को साधते हुए प्रेम को सात्विक भाव में पाने का प्रयत्न करती है।विकट परिस्थितियों में शीलभंग होने के बाद भी ध्यानयोग से स्वयं को परिशुद्ध कर अद्भुत् धैर्य रख कर भविष्य गृहस्थयोग की ओर उन्मुख होती है जिसमें नायक नागभट्ट की भी प्रत्याशा होती है। तथाकथित प्रगतिशीलता के चलताऊ पुरुष अहंकार से दूर स्वीकार्य भाव सृजित कर लेखक नायकत्व को स्थापित करता है। दूसरी ओर भारती देवी अपने ज्ञान-कौशल से प्रखर शंकराचार्य को भी शास्त्रार्थ में अतिरिक्त समय माँगने पर विवश कर देती है। थोड़े ही पन्नों पर भारती देवी का चरित्र आया है परन्तु उनका संवाद न केवल उस समय बल्कि आज भी प्रेम और परिवार की मर्यादा और कर्तव्य को पुर्नस्थापित करता है।
नायक निर्बन्ध, उद्दाम, शारीरिक आकर्षण को प्रेम का उद्गम लक्ष्य करके, बार-बार प्रश्न पूछ कर मानो आज के युवाओं को समाधान देता है।
मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ में हारने के बाद, सन्यास लेने के निर्णय पर बिना विचलित हुए निष्ठापूर्वक गृहस्थधर्म के पालन की प्रतिबद्धता, उनका त्याग सन्यास से कहीं ऊँचा सिद्ध कर देती हैं।  उनसे प्रेरणा लेकर ही नायक गृहस्थ की महत्ता को समझता हुआ चन्द्रिका के साथ भविष्य खोजता है।
तत्कालीन भारत की अनेक समस्याओं से जूझते निराश समय की परिणति लेखक दो तरह से करता है। सैद्धांतिक स्तर पर शंकराचार्य के ज्ञानमार्ग की प्रतिष्ठा द्वारा सनातन की प्रतिष्ठा और कर्ममार्गी भारती देवी की सात्विक गृहस्थ व्रत द्वारा परिवार की प्रतिष्ठा। मानों लेखक स्वयं नागभट्ट के रुप में विसंगतियों के बीच रास्ता खोजने निकला है तभी तो सारी कथा नायकमुख द्वारा आगे बढ़ती है।  कथानक घटना दर घटना इस तरह आगे बढ़ती है कि आप इसे पूरा करही चैन लेते हैं।
तत्कालीन मध्ययुग की लड़ाईयों और धर्मभीरुता की वृत्ति के चलते किस तरह से भारत को भविष्य में इस्लामिक आक्रमण से आक्रांत होना है,इसका स्पष्ट चित्रण सार्थ में मिलता है। प्रतिहार सैनिक मजबूत एवं संख्या में भी अधिक होने के बावजूद मूलस्थान को अरब आक्रांता से छुड़ाने के लिए मात्र इसलिए नहीं लड़ते कि म्लेच्छों ने यह बात फैला दी थी कि यदि प्रतिहार सेना आक्रमण करती है तो मार्तण्ड मंदिर नष्ट कर दिया जायेगा। "कहीं मेरे कारण मंदिर न टूट जाय.." यह सोच कर बिना अन्य कोई रणनीति बनाये जीता हुआ मोर्चा छोड़कर दूसरी ओर चली जाती है। इस तरहकितनी ही लड़ाईयाँ भारत हारा है इतिहास में।
सार्थ,  धर्म, प्रेम और परिवार की कहानी है जिसमें नायक प्रेम को शरीर में खोजते हुए, धर्मच्युत होकर देशकाल के संकीर्ण धार्मिक व्यामोह में फँसता हुआ, आसमानी किताबों के रहनुमाओं के घृणित अमानवीय अत्याचारों से निकलकर पुनः सदगृहस्थ की ओर बढ़कर सनातन मूल्यों की प्राप्ति करता है।
 

फिल्मों का कलामूल्य

जीवन में किसी भी वस्तु को पाने का, प्रथम भोक्ता होने का जो मानवीय गौरव क्षण है, उसे हम सब जीना चाहते हैं। प्रथम होने की स्वाभाविक लालसा हमें तुष्ट करती है चाहे वह किसी भी रुप में हो।कलाओं के आस्वादन में भी यही भाव निहित रहता है। व्यक्ति कलाओं के साथ रसानुभूति में सबसे पहले 'मैं' की ही तुष्टि पाता है। वह अनुभव करता है कि वह अनुभूति उसके साथ है और पहला है। यह भाव-विभाव कला और प्रेक्षक के मध्य होता है।  यही आनंद हमें सिनेमा देखने पर भी महसूस होता है। सिनेमा यदि किसी स्थापित कला के निकटस्थ है तो वो है नाट्य कला। 
दोनों विधाओं में मुख्य है अभिनय। जीवन का दूसरा नाम अभिनय ही तो है। प्रतिरुपों का व्यापार। नाट्य और सिनेमा की तुलना से हम इसकी आधुनिकता, समकालीनता और कलामूल्यों को समझ पायेंगे। फिल्में निर्जीव मशीनी आँखों से देखा गया आधुनिक मनुष्य का स्वप्न है।इसका संसार अनूठा है। यह सामने जितना सच दिखता है उसकी प्रक्रिया में उतना ही हस्तक्षेप होता है। इसमें मुख्य रुप से होता तो अभिनय ही है, परन्तु वातावरण, परिप्रेक्ष्य रचने हेतु, अभिनय को काफी हद तक काट-छाँट कर नियंत्रित किया जाता है। नाटकों में दैहिक क्रियाकलाप, अंग संचालन का एकबारगी प्रस्तुति और साधारणीकरण की अनुभूति होती है। रंगमंच, नेपथ्य, प्रकाश, यवनिका(परदा)और रंगभूमि का उचित माप इत्यादि अभिनय की परिधि को अनुशासित करते हैं। इस दायरे में भाव-संचार सीधे दर्शक और अभिनेता के बीच होता है। अभिनय, संगीत, ध्वनि का प्रथम भोक्ता दर्शक होता है। जबकि फिल्में दर्शक और अभिनय के मध्य सीधी प्रक्रिया न होकर, अलग-अलग एकाकी होती हैं। कई-कई बार दुहराते हुए रिकार्ड किये गये अभिनय के बीच की ही कोई कड़ी, तकनीकी मदद से जोड़ कर, अभिनय का आभासी रुप हमें परदे पर देखने को मिलता है। उसमें भी कितनी मिलावट की जाती है कल्पनाओं की एकरुपता साधने के लिए।
फिल्म की कला सामूहिक अवदान और तकनीक पर आधारित है। इसमें अभिनय खण्ड-खण्ड रुप में घटित होता है जिसे तकनीक द्वारा जोड़कर आभासीय कल्पना का सृजन किया जाता है। दूसरे अर्थों में यह बासी अभिनय है जिसे तकनीकी छौंक-बघार के साथ सजावटी ध्वनियों में प्रस्तुत किया जाता है। फिल्में कथा को सजीव वातावरण में दिखाती हैं अतः उसका प्रभाव बढ़ जाता है।फिल्म देखते हुए आप उसकी गिरफ्त में होते हैं। हालाँकि किसी कृति की पकड़ में होना उसकी सफलता मानी जाती है परन्तु यहाँ मामला दूसरा है। मामला संवेदना के स्तर को क्रियान्वित करने का है। उदाहरणार्थ यदि आप चित्र देखते हैं तो चित्रकार की कल्पना के प्रथम आधार रंगों-रेखाओं लाघव-तीव्रता और कटाव को सीधे-सीधे अनुभव करते हैं। नाटकों में भी दैहिक अनुभूति दर्शक और अभिनय के मध्य होता है जहाँ गहराई में संवेद्य घटित होता है। यहाँ रचनाकार और प्रेक्षक के बीच सीधा संवाद होता है। यहाँ दर्शक, अभिनेता और अभिनय एक ही तल पर स्पंदित होते हैं। तीनों एक साथ एक ही समय में प्रवहमान होते हैं। उस क्षण की अनुभूति पवित्र एवं एको$हं की होती है। इसमें रिवाइन्ड नहीं होता। जबकि फिल्म विधा अभिनय कला को प्राथमिक स्तर पर ही छू पाती है जिससे संवेदना का प्राथमिक रुप ही बना रहता है। इसमें अभिनेता और अभिनय कई समयान्तरालों में घटित होता है। अभिनेता जिस चरित्र को दैहिक रुप में कथा को जीता है वह एक धरातल पर नहीं होता। जिस दर्शक के लिए वो नायकत्व को जीता है वो किसी दूसरे समयबोध में उससे जुड़ते हैं तिस पर भी आभासीय रुप में। दर्शकों के स्पंदित क्षणों में, उस रससिक्त समय में अभिनेता अपने अभिनय से कब का उतर चुका होता है। 
वो कोई अन्य जीवन जी रहा होता है इसलिए नायकत्व का कोई भी आदर्श, भाव, मूल्य न तो अभिनेता को प्रभावित करता है न तो स्थायी रूप से दर्शकों को। दर्शकों को मिलती है केवल आक्रामक कल्पनाशीलता। फिल्म देखनेवाला व्यक्ति कल्पना की आक्रामक तीव्रता से ग्रस्त भाव या बोझिल अवस्था का आभास लेकर लौटता है। प्रेक्षक को प्रतीत भले न हो लेकिन फिल्म देखने के दौरान वो एकांगी क्षण को जी रहा होता है क्योंकि सामने न कोई अभिनेता, न ही वास्तविक मानवीय ध्वनि है। उसका अपना स्पंदन उद् भूत हुये बिना, तीव्रता से बदलते दृश्यों की परतों तले तकनीक के जाल में स्वयं को छोड़ के गिर सा जाता है और जब फिल्म देख कर हटता है तो सबसे तेज-तर्रार क्षण उत्प्रेरक की भांति उसके अन्दर धँस जाते हैं। इसे ही लोग सिनेमा का प्रभाव मानते हैं।
सिनेमा का विकास फोटोग्राफी तकनीक से हुआ है।  आधुनिक समय में फोटोग्राफी से चलचित्रों में आते हुये तमाम तकनीकी संभावनाओं के कारण जनमानस को इस माध्यम ने सबसे अधिक प्रभावित किया है। अभिनय की साम्यता के आधार पर नाट्य और फिल्मों की बात की जाती है। कथा, पात्र, साजसज्जा, अभिनेयता और आनन्दानुभूति में दोनों विधाएँ एक सी प्रतीत होती हैं लेकिन दोनों में सूक्ष्म से लेकर बाह्यावरण तक काफी अंतर है। मूलतः नाटकों में उपस्थित दर्शक स्वयं कथा को घटित होते हुए देख रहे होते हैं। उसमें घटित घटना के प्रत्यक्ष साक्षी होते हैं तथा फिल्में किसी और (निर्देशक और कैमरा) के आँखों से देखे हुए अभिनय के  सम्पादित अंश ही हम देखते हैं। जबकि नाटकों में घटना या अभिनय को बीच में सम्पादित नहीं किया जा सकता। नाट्यविधा में नायक, नायिका को देखता है। उन दोनों के भाव-व्यापारों को दर्शक निश्चित दूरी से देखता है। फिर उन भावों को अपनी कल्पना में भी साथ-साथ रुपायित करता है। 
वहीं फिल्मों में नायक नायिका को नहीं देखता बल्कि वह तो कैमरे को आतुर होकर देखता है। हिरोइन हीरो को देखकर भावातुर नहीं होती, वह भी लेन्स की ओर ही देखती है। और उस लेंस के पीछे होती है किसी निर्देशक की आँखें। उस हिरोइन के भावविह्वल चेहरे पर हीरो की प्रेमल आँखें नहीं होती बल्कि निर्जीव कैमरे का जू$म परिप्रेक्ष्य होता है जो पूरे परदे पर बड़ा करके दिखाई देता है और दर्शकों को भ्रम होता है कि हीरो देख रहा है जबकि निर्देशक ये नियोजित करता है कि किस चीज को कितना दिखाना है। अतः हम किसी और की आँखों की देखी हुयी दृश्य-कथा को अपना देखा मानते हैं। यह गढ़ा गया भ्रम है जिसे हम अपना मानते हैं क्योंकि इसमें प्रेक्षक प्रत्यक्ष अभिनय का साक्षी नहीं होता, वह अपना दिमाग नहीं लगाता। 
जो वस्तु, घटना स्क्रीन पर जितनी अधिक, चमकदार और बार-बार दिखाई पड़ती है दर्शक मन उसी के पक्ष में हो जाता है।तकनीक का प्रयोग कोई गलत धारणा नहीं है। समयानुसार कोई भी कला नवीनता लाने हेतु प्रयोगों से गुजरती है। यहाँ तकनीक का कोई दोष नहीं। फिल्में तकनीकी प्रयोगों से अधिक आश्चर्यजनक बनती हैं लेकिन तकनीक कलामूल्यों पर हावी हो जाय यह ठीक नहीं है। रसानुभूति  की मौलिकता को ही भ्रमित कर देना कलात्मक अपराध है क्योंकि यह विधा ललित कला के सभी अंगों से मिलकर निर्मित होती है। 
समष्टि की कल्पना पर तकनीक द्वारा किसी की व्यक्तिगत कल्पना सत्य बनकर व्याप्त होने लगे, तो कला का दुरुपयोग है जैसा कि हम फिल्मों में देखते हैं। चूँकि सिनेमा में तकनीक द्वारा सामान्य मानव की क्षमता को कई गुना अधिक, अतिशयोक्ति को सत्य बनाकर दिखाया जा सकता है इसलिए इसमें हस्तक्षेप की संभावना अधिक रहती है। हस्तक्षेप वृत्ति का नकारात्मक प्रभाव इसलिए ठीक नहीं है कि इस विधा का संचरण,इसकी पहुँच कुछ ही समय में लाखों लोगों तक होती है और इसे कितनी ही बार दोहराया जा सकता है जिससे जनमन में वह बात पैठ जाती है। कविता की अतिशयोक्ति श्रोता अपनी कल्पना की क्षमतानुसार गढ़ता है, संगीत, नृत्य, कला आदि मूल विधाएँ  श्रोता-रसिकों को समानान्तर अपनी-अपनी कल्पनाएँ सृजित करने में योगदान करती हैं। प्रेक्षक, कलाकार के सापेक्ष कला का सहारा लेकर अपनी वायवीय दुनिया रचता है और स्वानुभूति को प्राप्त होता है परन्तु फिल्में, फिल्मकार की कल्पना का आरोपण करती हैं। 
सभी दर्शक एकरुपता में ही जीते हैं, एक सी कल्पना में बहते हैं जो सामने परदे पर दिखाई पड़ता है। तकनीक द्वारा सृजित कल्पना, अतिशयोक्ति के वैयक्तिक भाव पैदा करती है। इसमें सामूहिक सुमंगल का अभाव रहता है।
जिन कलाओं में यंत्र और तकनीक का उपयोग अधिक किया जाता है वे कलाएँ, कला के मूलभाव को खो देती हैं। वैसे भी सिनेमा अपने मूलस्वरुप में कोई कला नहीं थी। यह तो यंत्रों के उद्विकास और प्रयोग करते-करते प्रदर्शन की कला बन गई। यांत्रिक सहयोग के बिना इसका अस्तित्व नहीं है बल्कि यह चित्रकला, नाट्य, साहित्य, संगीत से उधार लेकर संयोजित प्रयास है। ललित कलाओं के विभिन्न अंगों का, उसकी अनुभूतिगम्यता का उचित समावेश करके चलता-फिरता अनुभव दिखाया जाता है।  इससे रससिद्धांत की प्रेरणा बेमानी है। रसानुभव, दर्शक का साधारणीकरण सहज मानवीय स्वभाव है। कोई भी घटना जो वह सुनता है, देखता है तो उसका चित्र मन में बनने लगता है। भाव साधारणीकरण की समानता के आधार पर सिनेमा को भारतीय सौंदर्यशास्त्र से सीधे नहीं जोड़ सकते।
कथाएँ जिस समाज की उपज होती हैं उस समाज के जीवन दर्शन को धारण किये रहती हैं। लोगों की इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, जीवनस्वप्न जिन रीति-नीति और धार्मिक विश्वासों में साँस लेती है वही वहाँ के काव्य-कहानियों में मिलता है। फोटोग्राफी फिल्मों से भी पहले, व्यक्ति और कथाओं का दर्शन हमारे यहाँ चित्र-मूर्ति में  प्रचुर मात्रा में मिलता है। जब फिल्मों का विकास हुआ, उसमें कहानियों के चरित्रों को जीने के लिए जिस आइकनोग्राफी का सहारा लिया गया वे सब साहित्य और चित्र-मूर्ति से लिये गये। 
आप पाश्चात्य हालीवुड की फिल्में देखेंगे तो उसमें शारीरिक सौष्ठव, मजबूत कद-काठी, गर्दन को किसी एक ओर झुकते हुये देखने के भावों में आपको यूरोपीय पुनर्जागरणकालीन चित्रकार-मूर्तिकारों के बनाये संयोजन का प्रतिरुप मिलेगा जैसे विंची, माईकलएंजलो, रोदां तिशियन के कला संयोजन। उनकी फिल्मों की पृष्ठभूमि में, रंग, वातावरण और समय में पाश्चात्य रोमांसवादी,यथार्थवादी कला की प्रेरणा है। इंगमार बर्गमैन, माईकलएंजलो एन्टोनियो, तारकोवस्की से लेकर अनेक फिल्मकारों से लेकर आज तक की कला व व्यावसायिक फिल्मों तक सबमें(गहरे समुद्री हरे, सीपिया रंग या कहीं एकदम चटख रंगों का टोन) कथा विकास, चरित्रों का द्वंद्व यूरोपीय मिथक और होमर के महाकाव्य का प्रभाव लिए हुए हैं। ग्रीक देवताओं की गठी काया एवं चेहरे पर उम्र की स्पष्ट छाया, फिल्मी चरित्र में वैसे ही उतरते हैं जैसे वे लिखे गए हैं। भारत में भी फिल्मों का आरंभ सतयुग की कथा 'राजा हरिश्चन्द्र' से हुआ। भारतीय सिनेमा की आरम्भिक प्रवृत्तियाँ देखेंगे तो आप पायेंगे कि उन फिल्मों में आइकनोग्राफी, हमारी कलाधरोहरों से लेने का प्रयास किया गया। अलंकरण, नृत्य, हाव-भाव वातावरण में अजंता-एलोरा के शिल्पों से प्रेरणा ली गयी। काव्य उपमानों में प्रकृति के भाव आरोपण का नायिका के मनोद्वेग चित्रित करने का प्रयास फिल्मों में मिलता है। नायक को आदर्शों से प्रेरित, धीर, उदात्त गढ़ने की छवि हमारे महाकाव्यों से ली गयी थी लेकिन अस्सी के दशक से  नायकों का मुहावरा बुरे लोगों की छवि में बदल दिया गया। धीरे-धीरे नवीनता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति का चित्रण आधुनिकता के नाम पर होने लगा।  फिल्मी कला का पैमाना टिकट बिक्री के रिकार्ड पर टिक गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अभिनय कला देह भोगकी लिप्सा का प्रदर्शन मात्र रह गयी।  यहाँ कथा सरित्सागर, पंचतंत्र, रामायण-महाभारत की कमी नहीं थी लेकिन बिना बिल्ला नं. 786 लगाये भारत की कथित धर्मनिरपेक्षता का पता कैसे चलता? केवल भारतीय नाम ढ़ोता हीरो, इस देश का रह गया बाकी वातावरण, कहानियों की कहन, रंग-योजना सब हालीवुड की नकल हो गया। हिंदी बालीवुड इस रोग से अधिक ग्रस्त है जबकि दक्षिण भारतीय फिल्में कई मायने में भारतीय संस्कृति को  अपेक्षाकृत गौरवभाव से दिखाती हैं। बहुत संभव है कि इसका कारण फिल्म माध्यम का क्रमिक विकास ही पश्चिमी देशों में होना हो। उपकरण उनके, कथा हमारी। आँखें उनकी, दृश्य हमारे। फिर वास्तविक वस्तुस्थिति की संभावना ही कैसे पैदा हो। 
गति, 'टोनल वैल्यू', सेटिंग्स, आदि उन्होनें अपनी आवश्यकतानुसार विकसित किया जिसमें सिर घुसाकर हम अपनी बात कहना चाहते हैं। ये कैसे संभव है? जहाँ भारतीय संस्कृति-परंपरा, मूल्य-बोध, दिखाई पड़ जाता है वो "बाहुबली"(2015,2017) बन जाती है वरना छिछली प्यार-व्यार वाली लटकन-झटकनबन के रह जाती है।
यह देश कलाचिंतन की  उर्वर भूमि रही है। यहाँ कला की अवधारणा ब्रह्मानंद सहोदर से जुड़ी हुई है। पुरुषार्थ चतुष्टय से होकर कलाओं की विश्रांति आनन्द में विलीन हो जाती है। आचार्य-चिंतकों ने कला के प्रथम भोक्ता दर्शकों को माना है अतः जनमन के आनन्द प्राप्ति में कला, कलाकार एवं कलाउपकरण माध्यम भर हैं। यहाँ देखनेवाला, रसिकहृदय है, विचक्षण है, वो सर्वोपरि है। सदैव दर्शक के सत् आनन्द की प्रतिष्ठा की जाती है। इसलिए नाट्यपरंपरा में नान्दीपाठ का विधान है, काव्य में मंगलाचरण होता ही है। फिल्मी कला में पैसा लगाने वाला(प्रोड्यूसर)और निर्देशक होता है जिसे दर्शकों से पैसे भी ऐंठने हैं।
शुल्क लेकर आनन्द कैसे दिया जा सकता है? पैसे खर्च करके सुखानुभूति कैसे पायी जा सकती है जबकि उसी पैसे के लिए हाड़तोड़ मेहनत की गई हो? आधुनिक फिल्में मनोरंजन का दोहन करती हैं, मनःशोधन तो दूर की बात है।कला माध्यम की तकनीक का विचारों पर सूक्ष्मता से असर पड़ता है अतः तकनीकों का प्रयोग भारतीय चिति के निरुपण में हो तभी, इस यंत्राधारित कला का भारतीय रुपक खड़ा होगा। भारतीय विषयों एवं दर्शन की जटिलताओं के फिल्मांकन, चित्रांकन समस्याओं की खोज में स्वतः नई तकनीक विकसित कर सकते हैं। पहले अपने विषयों के प्रति अध्ययन तो हो  कथावस्तु, कहन, और चरित्र निर्मिति स्वयं आकार लेने लगेगी। हम ऐसे मुहावरे, कलाउपकरण की कल्पना कर सकते हैं जिसमें औपनिषदिक रोचकता और पौराणिक दिक् काल (टाइम एण्ड स्पेस) को मनोरंजक तरीके से कह सकें।-लेखक कला-विश्लेषक हैं।
 

भारतीय कला में स्वातंत्र्य चेतना

कलाएँ व्यक्ति में स्वातंत्र्य चेतना का विकास करती हैं। चेतना के बिंब अलग-अलग माध्यमों में अभिव्यक्त होते हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जब तिलक, गोखले, सावरकर, गांधी और अनेक क्रांतिकारी अपनी आहुतियाँ दे रहे थे उस समय कला साधना करने वाले कलाकार भी पीछे नहीं रहे। तत्कालीन विभिन्न कलाकारों ने भारतीय विषयों एवं परिवेश को अपनी रचनाओं में उतारा। कई पौराणिक विषयों को चित्रित करने वाले प्रथम कलाकार राजा रवि वर्मा ने पाश्चात्य तकनीक में स्व की अनुभूति करायी।
तैल रंग तकनीक में देवी-देवताओं के चित्रों ने भाषाओं की दीवारों को लाँघते हुए सम्पूर्ण भारत के जनमानस को आस्थावान बनाया। उस समय अधिक से अधिक चित्रों को छापने और लोगों तक पहुचाने हेतु जर्मनी से लिथोग्राफ मशीन मंगवायी गयी। ये चित्र पाश्चात्य मास्टर्स कलाकारों की तुलना में भले ही कमतर ठहरते हों लेकिन देवी-देवताओं के चित्रों ने भारत के शहरों से लेकर गाँव-देहात तक लोगों के अन्दर कहीं न कहीं भारतीय अस्मिता को लेकर विमर्श का आन्तरिक वातावरण निर्मित किया। हाँ इन चित्रों के उत्पादन में पैसे बनाने का भाव भी जरुर रहा होगा परन्तु केवल अर्थलाभ ही रहा, ऐसा नहीं था। 
इन चित्रों ने आम जन के दैव योग विश्वास को मजबूत किया। यही विश्वास आगे चलकर लोकगीतों में गाँधी, जवाहर या क्रांतिकारियों को देवता रुप में उद्धारक बन देश में अवतार के उदाहरण रुप में मिलता है। भारतीय प्राणधारा उसकी आस्था है। वह आस्था भारत माता के रूप में, 'ईशावास्यमिदम् सर्वम्', या 'आत्मवत सर्वभूतेषू' के रूप में सर्वदा मानस में प्रवाहित होती रही जिसने अहिंसक आन्दोलन की पीठिका निर्मित की। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों ने सुनियोजित ढंग से, अधिकाधिक प्रहार भारतीय संस्कृति, उसके आस्था के केन्द्र देवरुपों पर की। आम जनहृदय को रुप उपासना के साथ शक्ति संकलन का कोई आधार चाहिए था जो प्रथमतः राजा रवि वर्मा के चित्रों में प्रतीत हुआ। 
दूसरा सबसे बड़ा प्रभाव पैदा किया बंगाल में टैगोर परिवार ने। रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत जहाँ आध्यात्मिकता को पुनः स्वर दे रहे थे वहीं अवनीन्द्रनाथ टैगोर भारतीय स्वाभिमान को कला में खोज रहे थे। उन्होंने वागेश्वरी शिल्प प्रबंधावली में भारतीय षडंग की पुनः सरल व्याख्या की। वाश तकनीक में कोमल भावप्रवणता और स्वदेशी मूल्यों की अभिव्यक्ति को कागज पर उतारा। वे अजंता की चित्रशैली से गहरे प्रभावित थे फिर भी उन्होंने उसकी सीधी नकल नहीं की बल्कि चित्रों में भाव और सरसता को उतारने के लिए वाश तकनीक(जल द्वारा)को उपयुक्त माना। यह भावसौम्यता रवि वर्मा के यहाँ नहीं थी। पहली बार भारतमाता की कल्पना को अवनीन्द्रनाथ ने चित्र में उतारा। गेरुआ वस्त्र, चार हाथ जिसके हाथों में क्रमशः माला, धान की बाली, पुस्तक और वस्त्र लिये हुये पैरों के नीचे श्वेत कमल है। चेहरे भारतीय यथार्थ को दर्शाते हैं।
उन्होने भारतीय भावबोध जगाने वाले विषयों को चित्रित किया। आगे चलकर उनके शिष्यों नन्दलाल बोस, क्षितिन्द्रनाथ मजूमदार, असित कुमार हाल्दार, मुकुल डे, शारदा उकील और उसके मनीषी डे ने स्वदेशी भाव, राष्ट्रीयता के स्वर को अपनी कला में स्थान दिया।  इसे बंगाल स्कूल के नाम से जाना गया।
जब गाँधीजी की स्वदेशी से प्रेरणा लेकर लोग स्वतंत्रता आंदोलन में नये भारत की कल्पना कर रहे थे उस समय बंगाल स्कूल के कलाकार भारतीय छवियों को ग्रामीण भारत और उसकी आस्था-आध्यात्मिकता को अपने रंगों-रेखाओं में समाहित कर तत्कालीन अंग्रेज विद्वानों और पाश्चत्य कला जगत के समानांतर भारतीय कला मेधा का स्वरुप रच रहे थे। नन्दलाल बोस द्वारा दांडी मार्च(1930ई.) विषय पर  लिनो कट माध्यम से श्वेत-श्याम रंग में बनाया चित्र बहुत प्रसिद्ध हुआ। यह चित्र गाँधी जी की संकल्पशक्ति और आगे चलती कृषकाय की महान यात्रा को दर्शाती है।  1938 ई.में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में नन्दलाल बोस एवं उनके शिष्यों द्वारा चित्रित पंडाल आज भी कलाकार की स्वातंत्र्य चेतना का परिचायक है। नन्दलाल के चित्रों में अजंता की लयात्मकता और अद्भुत् रेखांकन मिलता है।  उनके शिष्यों की भी सुदीर्घ परम्परा रही जिन्होंने भारतीयता के स्वर को नव्यता प्रदान की।
देशकाल और समकालीन परिस्थितियाँ रचनाकारों पर अपना प्रभाव डालती हैं। तत्कालीन व्यथाओं को गढ़ने हेतु उसी समय में ही रुप-प्रतिरुप गढ़ने पड़ते हैं। यह कलाकार का अपना विवेक-धर्म  है कि वह अपने मुहावरे का रुप साम्य किस तरह खोजता है। यदि उसकी जड़ें-अनुभव समाज की गहराई तक हैं तो यथार्थ का विरल रुप देखने को मिलता है परन्तु यदि केवल यथार्थ ही एकमात्र आन्दोलन बन जाय और आँखों से दिखने वाली घटनाएँ या दृश्य मात्र ही सत्य बन जायें तो कलाकार एकांगी होता जाता है। 
देश के स्वतंत्र होने के बाद कला क्षेत्र में बंगाल स्कूल के पुराना होने और कुछ नये यथार्थ रचने की खोज में मुम्बई में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना होती है जिसमें एफ. एन. सूजा, एम. एफ. हुसैन, आरा, अकबर पदमसी, सैय्यद हैदर रजा, बाकरे, गाडे प्रमुख थे। इन कलाकारों ने पाश्चात्य कला आंदोलनों की तरह भारत में राष्ट्रीयता के स्वर को हटाकर वैयक्तिक अभिव्यक्ति को प्रमुखता दी। हुसैन और सूजा अपनी कलाकृतियों के चलते विवाद में रहे। फ्रांसिस न्यूटन सूजा ने नग्न कामुक आलिंगन, संभोग को वीभत्सता और अमानवीयता तथा आपराधिक भाव में चित्रित किया। घोड़े की तीव्रता चित्रित करने वाले हुसैन ने ज्ञानदेवी सरस्वती की नग्न आकृति बनायी। यहीं से विवादित होकर प्रसिद्ध होने का नया फार्मूला कला जगत में निकल कर आया। जिसे आगे कई कलाकारों ने अपनाया। 
चिन्तन और विमर्श की बात यह है कि ऐसा बनाया क्यों गया? पूर्व में जब राजा रवि वर्मा सरस्वती की कल्पना को चित्रित करते हैं तो वो जनमानस में पूज्य बन जाती है, जब अवनीन्द्र नाथ भारतमाता बनाते हैं तो करोड़ों भारतवासियों के लिए श्रद्धा बन जाती हैं । उसके बाद वीणावादिनी रेखारुप में नग्न बनायी जाती हैं। कुछ नया यथार्थ स्थापित किया जाता है। इस देश का जनमानस अपनी आस्था प्रतीकों के रूप में सुरक्षित रखता है। ये प्रतीक किसी भी स्वरुप के साथ रख देने पर आदर्श का मूर्तिमान रुप पुनः उपस्थित हो जाता है जैसे रामलीला में राम की भूमिका निभाने वाला व्यक्ति साल दर साल बदल जाता है लेकिन धनुष, तूणीर और गेरुआ धारण करके अन्य व्यक्ति राम को उपस्थित कर देता है। भारतीय जनमानस उस रुप को पाकर आनंदित हो जाता है। ये कौन सा सत्यान्वेषी यथार्थ है जो प्रतीकों के मर्म को साधने की बजाय केवल वैयक्तिक रुप से मात्र किसी क्षण की आवेशीय कल्पना को त्वरित बना देने को कलाकार की स्वातंत्र्य अभिव्यक्ति मानता है। 
हुसैन ने उस आस्था को केवल महिला और वीणा के रुप में संकुचित दृष्टि से देखा । खजुराहो की कामरत मूर्तियाँ जो अलग ही भाव रचती हैं वहीं सूजा के कामरत मिथुन चित्र आपराधिक-वीभत्स वृत्तिपूर्ण मात्र निजी कड़वाहट ही बताते हैं। तथाकथित प्रगतिशीलता की रफ्तार में भारतीय कलाधारा अपनी स्वातंत्र्य चेतना  में अंतर्निहित संगच्छध्वं संवदध्वं के भाव से नीचे उतरकर कुंठित और  व्यक्तिनिष्ठ हो जाती है। आज भी भौतिक चकाचौंध और करोड़ रुपये में बिकने की लालसा ने कला की स्वतंत्रता के विमर्श को दिशाहीन कर दिया है। समष्टि की अभिव्यक्ति गायब है। राष्ट्रीयता का विषय  कलाकारों के 'कन्टम्पररी' (तथाकथित समकालीनता) होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। राष्ट्रीयभाव का स्वाभाविक अंकन करने की बजाय कुछ कलाकार केवल ऐतिहासिक धरोहरों को  चित्रित करके ही  राष्ट्रीय कलाकार का दर्जा पा लेना चाहते हैं। धरोहरों को आत्मसात करके वर्तमान के साथ चिन्तन के फलस्वरुप नवीन प्रयोग किये जायें जैसे अवनीन्द्रनाथ जैसे अनेक शिल्पियों ने किया, तो भारतीय कला जगत में स्वदेशी कला के नये युग का सूत्रपात होगा।
 

दृश्य परंपरा और इतिहास

कलाएं अपने समय, अपने समाज की मुखर दस्तावेज होती हैं। विधि, माध्यम, रुप-स्वरुप और निर्माण के पीछे संस्कृति के प्रवाह को समेटे कलाएं किसी सभ्यता का सच्चा इतिहास व्यक्त करती हैं। कोई भी शिल्प अपने समय की कारीगरी, वास्तुकौशल और मेधाशक्ति को रूप मानकर इतिहास के प्रचलित अर्थों से अलग समानांतर व्याख्या करता है। जिस प्रकार शब्द स्वयं में परंपरा और विचारों को समाहित किये रहते हैं उसी प्रकार कलाओं में रचनाविधान के प्रतीकों और रूपों में तत्कालीन समय का मुहावरा गढ़ा गया होता है। उसको बिना लिखित इतिहास के समझना अपनी जड़ों को जानना है। वर्तमान में लिखित इतिहास प्रमाण के रुप में रेखांकित किया जाता है। भारत के संदर्भ में समय को लिखित ब्यौरे के रूप में रखना छोटे दायरे में रखना है।

हमारे देश में ज्ञान, विचार की दो परंपराएं रही हैं– एक श्रुति परंपरा, दूसरी दृश्य परंपरा। मौखिक रूप से कंठस्थ किया हुआ शास्त्र, नीति, निष्ठा, पीढ़ियों तक पहुंचता रहा। शास्त्रीयचिंतन, पाठ, दर्शन के अतिरिक्त नृत्य, नाट्य, चित्र-मूर्ति, वास्तु आदि दृश्य परंपरा में आते हैं। नृत्य, नाट्य, भाव, भंगिमाओं और अंगसंचालन की विशेष क्रियाएं हैं। सामयिक जीवन की प्रतिकृति और जीवनमूल्यों की संस्कृति को धारण किये हुए नाट्य-नृत्य की धारा आज भी प्रवाहित है। ये गतिशील और तुरंत असर डालने वाली विधा है और समाज का व्यक्ति ही स्वयं माध्यम है परन्तु चित्र-मूर्ति इत्यादि अपने स्थूल माध्यमों के कारण जीवनदर्शन को विशिष्ट मुद्राओं से उद्घाटित करता है। समय के थपेड़ों के बीच संस्कृति प्रवाह अक्षुण्ण रखता है। हो सकता है उस स्थान विशेष का समाज राजनीतिक विवशताओं के चलते अपने धार्मिक विश्वासों, आस्थाओं को बदल ले परन्तु कलाएं किसी आदेशों से, दबावों में अचानक नहीं बदलती, वह अपने मूल अभिव्यक्ति को रचती हुई चलती है। उन्ही रूप, निर्माण प्रक्रिया का रिवर्स अध्ययन करके हम उस समय को पुनः समझ सकते हैं। भारत के अलावा अन्य देशों, अफगानिस्तान, कम्बोडिया, इंडोनेशिया में उत्खनन में पाये जाने वाले शिवलिंग, बौद्ध मूर्तियां मंदिर भारत की दृश्य परंपरा का ही अंग है। यह लिखित इतिहास चर्या से शिल्पकला आगे का जीवंत इतिहास है। वैदिक समय सत्यचिंतन और विचारों के शास्त्रार्थ का काल था। उस समय वाक् और ध्वनियों पर अधिक चिंतन-मनन हुआ। जीवन की सामान्य गतिविधियों को निष्ठापूर्वक जीना कलारूप ही था परन्तु रूप गढ़ना विशिष्ट बोध था। इसीलिए उस समय आराध्यों के कुछ आकार ही बने।

दृश्य कलाएं सभ्यताओं का ऐतिहासिक चरित्र हैं। मंदिर स्थापत्य, दर्शन, कौशल का साभ्यतिक इतिहास है। इस दृष्टि से भारत के इतिहास को समझा तो गया लेकिन अतीत के गौरव की तरह। जबकि जिस आइकनोग्राफी में महान शिल्प रचे गए वह इस देश की श्रुतिपरंपरा का ही स्वरुप है। आधुनिक कमजर्फ नजरों ने केवल मिथुनमूर्तियां देखीं और अपनी स्वेच्छाचारिता की व्याख्या कर मात्र पर्यटन की वस्तु बना दिया। मूर्तियों के शरीर पर पत्थरों पर उकेरा गया महीन आवरण नहीं देखा, जंघाएं देख लीं। बाहरी परिप्रेक्ष्य से होते हुए अन्दर ध्यान और मुक्ति के साधन आराध्य की अवधारणा नहीं समझी।

भारतीय संदर्भ में कलाएं केवल कौशल और मनोरंजन ही नहीं है बल्कि वह हमारे ज्ञान, वैचारिकी की दृश्य विधा हैं। अतः आराध्य मूर्ति केवल विशिष्ट ही नहीं है। वह शास्त्रीय विधान से बनाई गई प्राणछन्दस्वरुप है। शिल्प-वास्तु की संकल्पना, ज्यामितीय आकलन, गणितीय माप और अलग-अलग शिल्प गढ़ने के उचित प्रमाण, भाव के कारण लिखित इतिहासों से कहीं आगे है। ये शिल्पीय संकल्पनाएं रूढ़ नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि कोई एक किताब ऊपर से आ गई, अब केवल उसके अनुसार ही चलना है। जबकि कालान्तर में विभिन्न विद्वानों ने शिल्पीय कल्पनाओं और शास्त्रीयता की पुनर्व्याख्या भी की है। यह हमारा सौभाग्य है कि संस्कृत में कई ग्रंथ आज हमारे पास सुरक्षित हैं जिसमें शिल्प, वास्तु, कुआं, घर, मंदिर, देव-प्रतिमा इत्यादि के निर्माण की विस्तृत  व्याख्या  है।

कालक्रमानुसार विभिन्न क्षेत्र की भाषाएं बदल गई हैं। पहनावा, खान-पान और लोकरीतियाँ भी अलग हैं लेकिन कलानिर्माण की मूल संकल्पनाएं सभी जगह एक ही हैं। उनकी चिंतनधारा के केन्द्र में सनातनधर्म के जीवनमूल्य ही अलग-अलग रंगों में बिखरते रहे। लोकानुरुप उनका स्वरुप और भी सरल हुआ। बड़े स्थापत्य भले न हुए हों लेकिन खिलौने, मातृ-देवियों की निर्मिति में तत्कालीन समय की कारीगरी और कौशल स्वतंत्र रूप से दिखाई पड़ता है। खिलौने के रुप में डौलिया कर बनाये जाने वाले चेहरे, उनको पहनाया गया वस्त्र, सिरछत्र, तरह-तरह के जूड़े की शैली या फिर छोटे कद, गठीले बदन की यक्षमूर्तियों से उस समय के समाज के बारे में स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है।

कलाएं जीवंत होती हैं उनमें इतिहास के लक्षण मौजूद रहते हैं। किसी सभ्यता के बारे में उत्खनन में मिली मूर्ति, दैनिक कलात्मक वस्तुएं और स्थापत्य से जानकारी प्राप्त होती है। कला और इतिहास का अर्न्तसंबंध गहरा है। हम दोनों को अलग रख कर संभ्रम की स्थिति में हो सकते हैं। भारत की प्राचीनता का काल इतने पीछे तक है कि पश्चिमी इतिहास की दृष्टि सनातन संस्कृति के अजस्र प्रवाह को स्वीकार ही नहीं कर सकता। तो क्या हम किसी इन्तजार में उपेक्षित बैठे रहें? इसके लिए आकलन के एक नियम सभी पर लागू नहीं हो सकते। अब तक हम दूसरों की दृष्टि से देखे गये, लिखे गये भारत को पढ़ा-समझा है। जिससे कई संशय बने रह जाते हैं। जो भी शास्त्र सुरक्षित हैं या तो उन्हें प्रमाण मानें या पाश्चात्य कसौटी पर अपनी संस्कृति को परखें। यह द्वन्द्व कला क्षेत्र में अत्यधिक है।

आजकल आधुनिकता के नाम पर अथवा नया करने के फेर में प्रयोगों का नितान्त आत्मकेन्द्रित रवैया दिखाई पड़ता है, कलाकारों में। हर कोई नया‘वाद’ ‘इज्म’ ही गढ़ रहा है। चित्र-मूर्ति क्षेत्र के दिग्गज कलाकार निरी भौतिक दृष्टि रखकर किन्हीं आकारों को ही उलट-पलट रहे हैं। भारत की सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति अवरुद्ध है। जो शिल्प स्थापत्य बचे हुए हैं वे पुराने के नाम पर दर्शनीय हैं, केवल पठनीय नहीं। जबकि सारी विदेशी तकनीकें, विद्वान और कला-पारखी हमारे मन्दिर स्थापत्य की कारीगरी के डी.एन.ए. टेस्ट में लगी हुई  हैं। वे जानते हैं कहीं भारतीय चेतना अपने प्राचीन गौरव को जान न ले इसीलिए विदेशी हिस्ट्री चैनल एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर निर्माण की अद्भुत क्षमता को किसी एलियन से जोड़ता है। वो संभावना व्यक्त करता है कि कोई एलियन बनाकर चले गए।  वरना कठोर ज्वालामुखी से बने चट्टानी पहाड़ो को काटकर इतना बड़ा स्थापत्य समूह बनाना उस समय असंभव था। इस प्रकार की संशय संभावना हमारी परिकल्पनाओं को रोक देती है, हमें कमजोर बना देती है। ऐसी संशयात्मक व्याख्याएं विश्वास पर सवाल खड़े करने की भावना पैदा करती है जिससे भारत के लोगों को अपने गौरव का भान न हो कि हम उन पूर्वजों की ही कड़ी हैं जो इतनी महान कलाक्षमताओं के पुरुषार्थ से भरे थे। यह संशय संभावना हमारी विराट कलाक्षमताओं को कुंदकर उसे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा में बदल देती है।

इतिहास की इस तरह की अधूरी दृष्टि को और बड़ा करना होगा। हमें कलाओं के जरिए केवल संस्कृति का गुणगान ही नहीं बल्कि तकनीकों, माध्यमों के द्वारा तत्कालीन समाज की कारीगरी और कला मनीषियों के चिंतन को देखना पड़ेगा। तकनीक और कौशल क्या आज के विशालकाय उद्योगों के मानक नहीं हैं? कौशल में चिंतन के इतने विराट परिप्रेक्ष्य को भारत की इतिहास दृष्टि बनाना चाहिए। इस कौशल आधारित गौरव-भाव से भारत को सामूहिक चेतना को आधुनिक समय के वृहद् शिल्प निर्माण के लिए खड़ा किया जा सकता है। सहस्राब्दियों से खड़े ये अद्भुत मंदिर स्थापत्य वास्तविक भारत को जानने के समय यंत्र हैं, जिसके द्वारा समाज और प्रकृति की सार्थक व्याख्या की जा सकती है।

होना मेरे मैं सा

जैसे ही किसी जनसामान्य को पता चलता है आप एक कलाकार हैं, आप किसी को चित्रित कर सकते हैं तो वह व्यक्ति विस्मय और कुतूहल से भरकर पूछ बैठता है- मेरा चित्र बना लोगे? कलाकार तनिक मुस्कान के साथ कहता है- हां, बन जाएगा। इस पर वह आंखों में आश्चर्य भरकर विश्वास जमाते हुए कहता है- मेरा फोटो? मेरा मतलब एकदम ऐसा ही मेरा चेहरा बना देंगे। कलाकार के हां में सिर हिलाते ही वह विनीत भाव में आश्चर्य से जड़ हो जाता है। उसकी आंखें सोचने लगती हैं उसका अपना ही रूप कैसा होगा? जिसे वह आईने में देखा करता है। किसी प्रतिबिंब जैसा होगा या उसके अपने जैसा होगा?  उसकी अपनी मनोछवि जिसे केवल अंतर की आंखें ही देख सकती हैं। क्या ऐसा रूप कलाकार बनाता है? वास्तव में कलाकार चंचल मन छवियों का चितेरा होता है। चित्रकर्म के विषय में भारतीय शिल्पग्रंथों में ‘दर्पणे प्रतिबिंबवत्’ अर्थात दर्पण में प्रतिबिंब की तरह चित्रित करने को सादृश्य कहा गया है। छवि गढ़ते समय जिस आकार को ध्यान रखकर अथवा सामने देकर चित्रकार जो बनाता है, धीरे-धीरे उस वस्तु-रूप की आत्मा में वह प्रवेश कर जाता है क्योंकि रचनाकारों में परकाया प्रवेश की शक्ति होती है। वह सामने वाले की आंखों में तिरकर हृदयस्थ भावों को छूकर वापस अपने मनोभावों में ढ़ालकर रूप गढ़ता है। 

 

स्वयं को छोड़कर जगत के सभी पदार्थ ‘अन्य’ हैं। अन्य में ‘स्व’ के सहारे भावों का आरोपण करके स्वरचना होती है। स्व के बोध की प्रतीति अन्य के रूपों में होती है। अतः कलाकार की यात्रा अन्य के रूप साधना के माध्यम से स्व का ही विस्तार है। किंतु जगत में अन्य सभी पदार्थों तत्वों के अपने गुण-धर्म विशेष्टताएं होती हैं। चित्रण में चित्रित वस्तु के गुण-भाव-रंग उसी के प्राकृतिक अवस्था में हो यह कलाकार के लिए पहली चुनौती होती है। हू-ब-हू या उस जैसा ही स्पंदित रूप गढ़ पाना भारतीय कला षडंग में ‘सादृश्य’ कहलाता है। यहां सादृश्य विधान ही जन सामान्य में आश्चर्य के भाव पैदा करता है। सादृश्य या सदृश अर्थात वैसा ही दिखना जैसा आपने देखा अथवा जैसा आपने सोचा। सादृश्य सबसे कठिन स्वाध्याय है, कलायात्रा का। किसी एक ही रूप, आकार, रंग की साधना चित्रण जीवन पर्यंत की असीमित सामग्री होती है। प्रकृति में विद्यमान अनगिनत रूप, बदलता स्वरूप कला साधना के कई छोर हैं जिसमें कोई रंग को लेकर चलता है, कोई देहयष्टि की भंगिमाएं ही चित्रित करता रह जाता है तो किसी का पूरा जीवन पुष्प बनाते-बनाते चुक जाता है, तो कहीं कोई बेडौल से अनगढ़ पत्थरों की अनबूझ मूकता पर ही  मूर्ति शिल्पों की श्रृंखला बनाकर अपना अलग मार्ग बना ले जाता है। क्योंकि यह संसार रूप-भाव ही है, जहां आकार ज्ञान हमारे चक्षु सीमा हैं। किसी के जैसा होते हुए या किसी के जैसा बनाते हुए सादृश्य गढ़ते-गढ़ते ये आंखें रूप पर ही तिरती रहती हैं।

 

किसी वस्तु के चित्रण में दो मुख्य बातों का ध्यान रखना पड़ता है- आकार और सतह की बुनावट। आकार एक आवरण रेखा है। किसी वस्तु की सत्य प्रतीति सतह की बुनावट से होती है। प्रकृति में उपस्थित सभी चीजों को आंखें उसकी विशिष्ट संरचनाओं से पहचानती हैं। कोई वस्तु खुरदुरी है, कोई चिकनी। इस चिकने-खुरदुरेपन की भी कई कोटियां हैं। जैसे संगमरमर की सतह, ग्रेनाइट पत्थर की सतह और चुनार बलुआ पत्थर की सतह की बुनावट। सभी पत्थर घिसने पर चिकने होंगे लेकिन सतह की संरचनाओं की भिन्नता से उसकी ओप (चमक) भिन्न-भिन्न होगी। इस तरह असंख्य रूप असंख्य संरचनाएं। कला में आकारिकी की संरचना का महत्वपूर्ण उपकरण है सादृश्यता।

 

सादृश्यता व्यापक अवधारणा वाला शब्द है। यह केवल सतह की बुनावट की कारीगरी मात्र नहीं है। यह कारीगरी तो केवल रूप-साम्य का आश्चर्य भर है। भारतीय कला अवधारणा में इसका प्रयोग गुण-भाव के अनुसार किया गया है। इसीलिए हमारे यहां आराध्य के चेहरे, शरीर में सौम्यता, लालित्य जैसे गुण-भाव को प्रतिस्थापित किया गया है। सौम्यता एक  गुण-भाव है। इसको दर्शाने के लिए कोई एक मानवी चेहरा आदर्श नहीं बनाया गया बल्कि एक ऐसा रूप हो जो सौम्यता के समस्त भाव लक्षणों का समन्वित रूप हो। हमारे यहां सृजित आराध्य का सादृश्य किसी एक के जैसा नहीं होता बल्कि कुछ-कुछ सबके जैसा होता है। उदाहरण स्वरूप भगवान विष्णु के सौम्यता, नटराज की भंगिमाए या बुद्ध का मुखमंडल। यह किसी सामान्य की सामूहिक अपेक्षाओं का भाव है। वहीं आप पाश्चात्य पौराणिक देवताओं की प्रतिमा- अपोलो, ऐथेना आदि को देखिए। इन प्रतिमाओं के मुखमंडल किसी सामान्य जन की मुखाकृति का हु-ब-हू चित्रण लगता है।

 

भारतीय पक्ष भाव की सादृश्यता महत्वपूर्ण मानता है और वहीं पाश्चात्य सौन्दर्य दृष्टि में आकार और सतह की यथार्थ बुनावट होती है। अर्थात आंखों से जैसा दिखता है, उतनी ही मात्रा में रंग, प्रकाश और समय दिखाया जाता है जबकि भारतीय कला में आंतरिक पक्ष का विशेष प्रकटीकरण है। सत्व, रज, तम के विशेष गुण-भाव और उनको व्यक्त करती विशिष्ट मुद्राएं बिल्कुल भिन्न सौंदर्य दृष्टि की मांग करती हैं। यहां तात्पर्य यह नहीं है कि पाश्चात्य कला में भाव नहीं है बल्कि वहां सादृश्यता शुद्ध मानवी रूप में संयोजित है। जैसे फ्रेंच कलाकार रेम्ब्रां के व्यक्ति चित्र। उन चित्रों में चित्रित चेहरे मूल व्यक्तियों से कहीं अधिक सुंदर प्रतीत होते हैं। चित्र में चित्रित वस्तु व्यक्ति की सहज पहचान हो और उस वस्तु व्यक्ति के अंदर चल रही संवेदनाओं-भावों का भी उसी अनुपात में चित्रण होना चाहिए।

 

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र अध्याय में सादृश्य को चित्र का महत्वपूर्ण अंग कहा गया है- ‘चित्रे सादृश्यकरणं  प्रधानं परिकीर्तितम्’

दृश्य कलाओं (चित्र-मूर्ति-स्थापत्य) में सादृश्य की प्रमाशक्ति का होना जरूरी है। सादृश्यता तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य पैदा करती है। इस परिप्रेक्ष्य को पढ़ने में कलाकार की मेधा जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण है माध्यम के साथ बर्ताव। अलग-अलग माध्यमों यथा- काष्ठ, मिट्टी, पत्थर, कांस्य, फाइबर और भित्ति चित्र,कैनवास पेपर इत्यादि में रूपांकन करते समय इनका प्रयोग और प्रकृति दोनों का ज्ञान होना आवश्यक है। वस्तुतः सादृश्य एक स्वाध्याय है, निरंतर साधना है दृष्टिकोण का। चूंकि कलाएं चाक्षुष होती हैं। अतः देखने की तुलनात्मक दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न भाव प्रकट करता है। भाव अदृश्य होता है किंतु अपनी भंगिमाओं से उसका पता चलता है। सही मायने में वही कला लोगों के मानस में उतर पाती है जिसमें मनोभावों का सशक्त चित्रण हो। जैसे महान कलाकार नंदलाल बोस द्वारा बनाई गई गांधी जी पर एक रेखांकन है जिसमें केवल पीछे की ओर से लाठी लिए गांधीजी का एक रेखांकन में उनका व्यक्तित्व उतर आया है। बहुत कम रेखाओं में गांधीत्व को साध लेना यही कलाकार की सादृश्य साधना है।

 

किसी रूपाकार का एकाग्र मन इतना अभ्यास कर लेता है कि उस वस्तु आकार के सरल रेखांकन का मुहावरा बना लेता है। वह शैली बन जाती है, उसकी पहचान बन जाती है। इसी तरह जामिनी राय ने कालीघाट के पटचित्रों की शैली को अपनी कला में ढालकर भारतीय कला जगत को लोक शैली का नया मुहावरा प्रदान किया।

 

प्रकृति में चेतन तत्व की अनुभूति कलाकार को अधिक संवेदनशील बनाता है। संवेदनशीलता किसी प्रतिकृति के निर्माण में जीवंतता का सृजन करता है। आकार का अभ्यास उसका अनुपात स्वाध्यायपूर्वक सीखा जा सकता है, परंतु बाह्याकार को चित्रित करना ही अभीष्ठ नहीं होता। उसमें प्राणछन्द होना चाहिए। केवल बाह्याकार की चित्रण क्षमता ही नहीं बल्कि भावों की आंतरिक सादृश्य की भी अनुभूति होनी चाहिए। जिसकी संवेदना जितनी गहरी होती है, मानव से इतर प्रकृति के हर वस्तु में उसकी यात्रा उतनी ही गहरी होती है, इसलिए वह पाता है, अजंता, वाघ(गुफा चित्र) के चित्र, इसलिए वह बना पाता है पत्थरों में बुद्ध की करुणामयी आभा। इसलिए वह खींंच पाता है लयात्मक रेखाओं में नंदलाल बोस की ‘वीणा-वादिनी’। तभी तो विश्व में पिकासो की ‘गुएर्निका’ और भारत के महान मंदिरों का भव्य शिल्प आकार ले पाता है।

मन्दिर : शिल्प और अध्यात्म का संवाद

लंबे समय से राम मन्दिर के प्रयासों का हल पिछले दिनों लोकतांत्रिक तरीके से मिला है। उच्चतम न्यायालय ने मन्दिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त किया जो उचित एवं सत्य है। पिछले कई वर्षों से हम सुनते आ रहे हैं कि राम मन्दिर निर्माण में बहुत सारे शिल्प और वास्तु की संकल्पना एकदम स्पष्ट है, जिससे निर्माण बहुत जल्दी हो जायेगा। हमारे देश में मन्दिरों की कई शैलियां हैं। अलग-अलग देवताओं के अनुसार स्थापत्य भिन्न हो जाता है। सवाल उठता है कि इतनी विविधता अलगाव तो नहीं? नहीं। बल्कि शिल्प और स्थापत्य के उतने ही अधिक प्रकार और उतनी ही विविध विद्या संस्कारयुक्त ग्रंथ हैं। भारतीय समाज धर्म के अनुपालन, विचार-विमर्श एवं शास्त्रार्थ से सत्य को साक्षात करता हुआ सदैव गतिशील रहा है। धर्म को अधिक सहज ग्राह्य बनाया कला ने। चित्र, मूर्ति और स्थापत्य के सूक्ष्म से लेकर विशाल सृजन ने धर्म द्वारा प्रतिपादित ब्रह्म, मोक्ष, परमानन्द को जीवनरूपों में ढालकर मानव मन को कहीं अधिक सभ्य और भारतीय बनाया है। इसीलिए कला धर्म के मूल का सहगामी बना-

“विश्रान्तिर्यस्य सम्भोगे सा कला न कला मता।
लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला”।।


मन्दिर भारतीय मनस् और संस्कृति की संपूर्णतम इकाई है। यह कला और आध्यात्म का अद्भुत संगम है। यह केवल धर्म के रूढ़ प्रचलित अर्थों में नहीं है बल्कि जीवन सत्य को शिल्प-विधान में रखकर परमात्म तत्व की ओर ले जाता है। ऋषि-मुनियों के सत्य दर्शन, शास्त्रों के प्रमाण और लोक आस्था का एकत्व है मन्दिर। मन्दिर स्वयं में ज्योतिष, वास्तु, प्रतिमा विज्ञान एवं शिल्प विधान का जीता जागता स्वरूप है। उसमें रखे जाने वाले देव विग्रह प्राण प्रतिष्ठित हो नश्वरता के भय को दूर करते हैं। मंदिरों के बनावट के आधार पर उन्हें तीन मुख्य रूपों में समझा जा सकता है- नागर, द्रविड़ और बेसर शैली। नागर शैली उत्तर भारत की प्रधान शैली है। द्रविड़ दक्षिण भारत और बेसर दोनों शैलियों का सम्मिलित स्वरूप है।
नागर शैली के सबसे पुराने उदाहरण गुप्तकालीन मन्दिरों में देवगढ़ में दशावतार मन्दिर और भितरगांव का मन्दिर है। इसकी विशेषता है विशिष्ट योजना और विमान। इस शैली की बनावट में मुख्य भूमि आयताकार होती है जिसमे बीच के दोनों ओर विमान होते हैं। ‘समरांगणसूत्रधार’ में विमान पांच प्रकार के बताए गए हैं- वैराज, कैलास, पुष्पक, माणिक और त्रिविष्टप (अष्टकोण)। मंडप, गर्भ गृह से पहले बनाया जाने वाला आंगननुमा जगह है जिसके ऊपर भी शंक्वाकार संरचना हो सकती है। यदि दोनों पार्श्वों में एक-एक विमान होता है तो वह त्रिरथ कहलाता है। दो-दो विमानों वाले मध्य भाग को सप्तरथ और चार-चार विमानों वाले भाग को नवरथ कहते हैं। यह विमान मध्य भाग से लेकर मन्दिर के अंतिम ऊंचाई तक बनाए जाते हैं।
इस शैली के मंदिरों में दो भवन होते हैं। एक गर्भगृह जिसमें देवविग्रह की स्थापना होती है, दूसरा मंडप। किसी मन्दिर में एक से अधिक मंडप अर्धमंडप के रूप में होता है। गर्भगृह के ऊपर घंटाकार संरचना होती है। यह शंक्वाकार होती हुई ऊपर जाकर एक बिन्दु पर मिल जाती है, जैसे- खजुराहो का कंदरिया महादेव मन्दिर। नागर शैली के मन्दिर में कक्ष होते हैं- गर्भगृह, जगमोहन, नाट्यमन्दिर और भोगमन्दिर। भुवनेश्वर स्थित लिंगराज मन्दिर इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
द्रविड़ शैली प्रमुखतया दक्षिण भारत के मन्दिर निर्माण शैली है। इसकी प्रमुख विशेषता पिरामिडीय विमान है। इस विमान में कई मंजिल होते हैं जो छोटे होते चले जाते हैं। उत्तरोत्तर द्रविड़ मन्दिरों के विमानों के ऊपर मूर्तियों की संख्या बढ़ती चली गई। इन मन्दिर में एक आयताकार गर्भगृह, उसके चारों प्रदक्षिणा पथ, स्तम्भ पर बड़े-बड़े कक्ष और गलियारे की संरचना एवं विशालकाय गोपुरम (द्वार) होता है। इसके मुख्य मन्दिर के चार से अधिक पार्श्व होते हैं। यदि शैली में शिव मन्दिर है तो अलग से ‘नंदी मंडप’ भी होता है। इसी प्रकार विष्णु के साथ गरुड़ मंडप भी होता है। उदाहरणस्वरुप- कांची का कैलासनाथ मन्दिर।
बेसर शैली परवर्ती चालुक्यों एवं होयसलों द्वारा बनवाए गए मंदिरों में यह शैली मिलती है। सामान्यतः नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का सम्मिलित रूप है बेसर शैली। इसमें कहीं कहीं अर्धचंद्राकार संरचनाएं शिखर पर मिलती हैं। जैसे ऐहोल के दुर्गा मन्दिर, पट्टडकल के मन्दिर।
मन्दिरों में स्थापित किए जाने वाले लिंगम अथवा देवताओं के मूर्ति निर्माण का अपना-अपना प्रमाण है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र के अध्याय 35 में चित्रांकन हेतु शरीर की ऊंचाई के अनुसार पांच प्रकार के पुरुष माने गए हैं- ‘हंस, भद्र मालव्य, रुचक, शशक’। सामान्य मानव, देवता, राक्षस, किन्नर और गंधर्व की रचना हेतु सभी के भिन्न-भिन्न नाप दिए गए हैं, जो कि विशुद्ध रूप में है। जिसका वर्णन इन लेखों में अत्यधिक विस्तार करना होगा। मानसोल्लास, समरांगणसूत्रधार, मयमत अनेक ग्रंथों में देवविग्रह के अनुपात, गर्भगृह की संरचना, देवों की पीठिका का विशद् उल्लेख है। मूर्तियों एवं चित्रों में विभिन्न दैहिक मुद्राएं- शरीरमुद्रा, हस्तमुद्रा, पादमुद्रा का ज्ञान शिल्पी को आवश्यक है। निगमागम के अनुसार प्रतिमाएं तीन प्रकार की बताई गई हैं- आसीन, स्थानक (खड़ी हुई) और शयान अर्थात लेटी हुई। आसीन के तीन भाग हैं- योगासीन, भोगासीन और वीरासीन। स्थानक के भी तीन भेद- योगस्थानक, भोगस्थानक और वीरस्थानक। शास्त्रों में मन्दिरों को प्रासाद कहा गया है।
भारतीय शिल्प विद्या अत्यन्त विस्तृत, सुप्रमाणित, वास्तुयोजित और सौन्दर्यभाव से परिपूर्ण है। भूमि, जगती, पीठिका से लेकर मन्दिर के शिखर तक का विन्यास अद्भुत एवं सानुपातिक सौन्दर्य से भरा है। किंतु कहीं भी जटिल नहीं प्रतीत होता। हां शिल्पी को इन शास्त्रों का ज्ञान आवश्यक है।
आधुनिक भारत के आधुनिक कला शिक्षा की विडंबना ही है कि उसके पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रासादों की नकल भी नहीं कर सकता उनसे आगे बढ़ कर उसी शैली को बढ़ाना तो दूर की बात है। वर्तमान कला शिक्षा पूर्णतः यूरोप की पुनर्जागरण वाली मात्र मानव शरीरिकी के बनावट के अध्ययन वाली परिपाटी को पीट कर रही है। मेरा सवाल है क्या तथाकथित जितने भी आधुनिक कलाकार भारत में हैं, वे थोड़ी देर के लिए उत्तर आधुनिकता के व्यामोह से निकलकर राम मन्दिर की अभिकल्पना, ज्योतिष सम्मत वास्तु और आस्था का वह भव्यरूप बना सकते हैं जो एक पारंपरिक शिल्पी तैयार करेगा? इसमें बड़ा संशय है। शायद नहीं। हमें अपने शास्त्रों, प्रतिमा विज्ञान, शिल्प निर्माण के सर्वांगों को पढ़ना होगा और कलाशिक्षा का अनिवार्य अंग बनाना होगा तभी अजंता-एलोरा के आगे की कड़ी आरंभ होगी वरना पर्यटन तो बहुत होगा लेकिन विरासत की आस्थामय भव्यता हम इस सदी को नहीं दे पाएंगे।

कला और कुम्भ में संवाद का समय

कलाएं मानव मन की वृत्तियों का परिष्कार करती हैं। कला केवल रंग या मिट्टी ही नहीं होती बल्कि हाथों से कुछ बनाना या विचार को सम्यक रूप से प्रकट करना कला के रूपों में आता है। भारतीय मानस में प्राचीन काल से केवल चित्रकारी या मूर्तिनिर्माण ही कला की पहचान नहीं रही बल्कि अन्य किसी भी विधा में पटु होना, प्रवीण होना कला की ही संज्ञा मानी जाती थी। आजकल अंग्रेजी चलन में जिस ‘स्मार्ट नेस’ या ‘शॉर्पनेस’ कहकर भंवें चढ़ाकर ‘वॉव’ किया जाता है इस कवायद को भी हम कला कह सकते हैं। यदि कोई बच्चा बड़ी सफाई से दूसरे बच्चे के खिलौने को अपना बताने लगता है तो लोग हँसकर कहते हैं ये तो बड़ा कलाकार है। खाट में सुतली की विशेष तरीके से की गई बुनाई को देखकर लोग कह उठते है वाह! क्या कलाकारी है। किसी भी गढ़ाई-बुनाई या रचने में उपयोगिता के कारण उसका प्रभाव कम या ज्यादा हो सकता है परन्तु बनाने के आनन्द में कोई असर नहीं पड़ता। रचने की संवेदना और उसकी संवाद प्रक्रिया कृति की महत्ता स्थापित करती है। कृतियों में उसकी परंपराएं देशकाल और जीवन का स्पंदन होना चाहिए। जहां जीवन है वहां संवाद है। संवाद होगा तो नया परिवेश आकार लेता है। इस परिवेश को माध्यमों में पुर्नरचित करना कला बन जाती है। जीवन व्यापक अर्थों में परंपराओं में ढ़लता रहता है धर्म के अवयवों को लेकर। विशाल धर्मप्राण समूह का जनसंवाद किसी कुम्भ में पूरा होता है। व्यापक तौर पर यह समष्टि बन जाता है और प्रति व्यक्ति के लिए परंपरा से एकालाप।
भारतीय कलादर्शन के सम्बन्ध में पूर्व में जितने भी शिल्प शास्त्रीय ग्रंथ मिलते हैं उनके अनुशीलन से ज्ञात होता है कि हर तरह की कार्य-कुशलता ‘कला’ है। विशिष्ट कुशलताओं में चित्रकला (आलेख्य) को सर्वोपरि माना गया। उसके अभ्यास, निरूपण की विधियाँ भी युगानुरूप अवधारणा से युक्त हैं । संस्कृत साहित्य में वर्णित पात्र, उनकी अभिरूचि, प्रदर्शन, प्रवृतियाँ वहीं हैं जो कामसूत्र अथवा अन्य शिल्प ग्रंथों में कला प्रमाण रूप में बताये गए हैं। भारतीय जीवन दर्शन अंकन की परंपरा टूटती है, इस्लामी आक्रमण से। सल्तनत काल में हमारी वैचारिक संस्थाएँ (मंदिर, गुरूकुल) नष्ट किए जाते हैं जो समाज और सत्ता दोनों के लिए नीति, कला, शास्त्रार्थ के केन्द्र थे। मुगलों के समय पुनः कला को प्रश्रय देने की कोशिश होती है तो कला अभिरूचि के नाम पर उनके पास क्या थे?केवल हाशिये की फूल-पत्ती के अंलकरण। आपको ज्ञात होना चाहिए कि इस्लाम में चित्र बनाना हराम है। क्योंकि चित्र, अल्लाह की बराबरी मानी जाएगी जो कि गुस्ताखी होगी। तो इतनी मात्रा में मुगल पेंटिंग कैसे बनी? मुगल काल के बड़े सिद्धहस्त कलाकारों में नाम आता है- दसवन्त, बसावन, मिस्कीन गोवर्धन, केसूदास, मनोहर, जगन्नाथ इत्यादि। बाद में चित्रकारों की परंपरा में सीखकर कुछ नाम आते हैं- मंसूर, मुशफिक, शीराजी।
मुगल चित्रों में हाशिए और उसके सजावटी अलंकरण की खूबी भी ईरानी प्रभाव से निर्मित हुई मानी जाती है। केवल फूल-पत्ती वाली हाशिए की कला कितनी कमनीय हो सकती थी? तो अन्य किस्से-कहानियाँ भीरचे जिनमें पंचतंत्र, महाभारतका फारसी अनुवाद भी था। दरबारी चित्र जरूर बने परन्तु धीरे-धीरे भारतीय लोक की भाव-धारा जो राधा-कृष्ण के प्रेम में बहती रही थी, चित्रांकन की मुख्य धारा में पुनः आ गयी। राजस्थानी चित्रकला (बूंदी, कोटा, किशनगढ़ शैली), पहाड़ी चित्रकला (कांगड़ा, बसोहली, मंडी, चम्बा शैली) में जीवन अपनी विशिष्ट अंकन मेंशैलीबद्ध हो नये कलेवर में दिखायी पड़ती है। भारतीय जीवन दर्शन अद्भुत है। यह अद्भुत दृष्टि दो महान चरित्र में मिलता है, जो स्थूल रूप में जीवन धारण कर वास्तविक मनुज होने की पराकाष्ठा दिखायी। एक लोकोत्तर राम दूजे कठोर नियमों का समयानुसार संधान करते श्रीकृष्ण। इनके आदर्शों के लम्बे अन्तराल के पश्चात हमारे समाज में जो विकृतियां फैली उनको पुनः शोधन कर नया आधार भूमि प्रदान करते हैं भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध।
आप देख सकते हैं कि कला में ज्यादातर प्रेम का ही अंकन हुआ राधा-कृष्ण को आलम्बन बनाकर। संसार में किसी भी कला में संगीत को चित्रित नहीं किया गया है परन्तु राजस्थानी शैली में रागों पर आधारित ‘रागमाला’ बनायी गई। अद्भुत सम्मिलन है संगीत और कला का। विशेष मौसम, प्रहर में गाये जाने वाले रागों को प्रकृति के आलम्बन से, रंगो के चयन, ब्रशों से महीन छाया पैदा कर चित्रित किया गया है। यह बताता है कि उस समय भी कलाकार केवल छवियों का चितेरा नहीं था बल्कि नगर, पुर, लोक आदि में जो संगीत बह रहा था उससे कटा हुआ नहीं था।
‘बारहमासा’ जिसमें बारहों महीने की विशेषताओं से युक्त मौसमी एवं मानवी प्रवृतियों जो कवियों के लिए चुनौतीपूर्ण थी उसे कलाकारों ने भी सुन्दरतम अंकित किया। परिवेश और उसका सहजीवन, उससे उपजी परंपराएँ यह किसी समाज की अपनी स्वाभाविक गति का निर्माण करती हैं। यह स्वभाव ही जीवन बोध है जो गुणों के रूप में सभ्य होने का अनिवार्य प्रमाण बन जाती है। समाज की स्वाभाविक गति पूरे साल भर चलते-चलते एक जगह ठहरती है वहीं कुछ भावमय वृतियां परंपराएं बन जाती हैं। ये आचारमय परंपराएं उत्सव का रूप ले लेती हैं। यही उत्सव तो कलाओं को जन्म देती है। उल्लासमय कोलाहल देती हैं, कोई धुन पैदा करती है। कलाएं समाज एवं व्यक्ति के बीच समय का संवाद करती हैं। इस महती संवादधारा का महत्वपूर्ण पड़ाव है- कुम्भ। राग-विराग, प्राप्ति व परेशानी के चकरघिन्नी से निकलकर अमृतमयी गंगा रेती पर निवास व करोड़ों डुबकी एक साथ। एक जीवन से विरागी-संन्यासी, दूसरा ‘गृह कारण नाना जंजाला’ में गृहस्थ। दो महनीय वृत्ति एक साथ होते हैं त्रिवेणी पर। अद्भुत संयोग जो सनातन समाज ने तय किये हैं। हमारा धर्म मात्र कठोर नियमावलियों में ही नही है यह तो ‘मनाते चलो’ की धारा में बहती हुई रूप बना लेती है। जिसमें साधु-सन्यासी, बाल-वृद्ध, छोटे-बड़े सभी की कामनाओं को साधे एक जगह खड़े हो, गंगा की अजस्र धारा में अपने-अपने कंठों से एक गीत गाना एक अद्भुत उत्सवी परंपरा को चलाता है, यही कुम्भ है।
असंख्य सिरों का धारा में डुबकी लगाना, जुड़ी हुई दसों उंगलियों से टपकती बूंदों में होठों से कल्याण की कामना प्रवाहित होती है। क्या यह कला का रूप नहीं है? देश के कोने-कोने से आया हर व्यक्ति जो श्वास-श्वास में मंगलमयी बुदबुदाहट लिए अजस्र स्रोतस्विनी को निहारता रहता है... यह एक पटचित्र ही तो है जिसे किसी कलाकार ने कैनवस पर बनाया तो नहीं लेकिन असंख्य चित्र हर क्षण घटित होते रहते हैं। वर्ष की इकाई में घटने वाली कुम्भ जीवन को रच देता है, माँज देता है। परन्तु इस संवादमय अनूठी घटना को कलाओं ने कितना रचा है? लोक ने तो बहुत रचा, गीतों में, मंगलकामनाओं में, मनौती में। हमारी चाक्षुष कलाएं थोड़ी कृपण रह गई। आजादी के प्रयत्न के साथ ही कला में भी भारतीय स्वरूप की ओर हम बढ़े थे लेकिन बीच में बाहरी लोगों के करतब देखने उनके बाजारों में घूम गये।
लोककलाओं का बंटवारा करके उसे ग्रामीणों-अनपढ़ों और आदिवासियों के हुनर पे छोड़ दिया और हम हैट-बूट तान के ‘मॉडल-स्टडी’ करने लगे बंद कमरों में। करोड़ों मनों-हृदयों की इतनी बड़ी सहज आस्था, सहज सम्मिलन आज तक किसी चित्रकार-मूर्तिकार की कला साधना का विषय नहीं बना ?आश्चर्य है। जीवन के सहज उच्छलन-स्पंदन का राग, रंगों में क्यों न ढ़ला? जबकि हमनें ‘रागमाला’ चित्रित किये हैं। रूप रचने वाले आँखों से इतना बड़ा जनसमूह आज भी ओझल क्यों है जबकि बहुत से आधुनिक प्रसिद्ध कलाकारों ने ‘मेडोना एण्ड चाइल्ड’ को बड़े मन से रचा।
धर्म के स्वरूप का इतना बड़ा चिन्तन-आयोजन-भाव, आजादी पश्चात नामी कला-जादूगरों को क्यों प्रभावित नहीं किया जबकि वे ईसा मसीह के क्रॉस पर लटकाए जाने वाले चित्र बनाकर आँसुओँ से भर गये। तथाकथित समकालीन कलाकारों में आज भी भारतीय लोक स्पंदन की समझ का घोर अभाव है। अधिक हुआ तो शहरों की भीड़-भाड़, ट्रैफिक, मेट्रो या मकानों के डिब्बे ही रख रहे हैं... उलट-पलट रहे हैं... पेड़ों की तरफ भी मुड़े हैं परन्तु नन्दलाल बोस, रामकिंकर बैज, के.जी. सुब्रह्मण्यम जैसी त्यागमयी साधना का अभाव है। उपरोक्त सवालों के घेरे में ऐसा नहीं है कि अन्य भारतीय विषय चित्रित ही नहीं किये गये लेकिन ज्यादातर कलाकार या तो स्वकेन्द्रित हो गये या पश्चिमी तकनीकों के मुरीद। वे शहरों तक सीमित रह गये। वे शहर जो खुद भी न्यूयार्क, लन्दन और हांगकांग हो जाने का सपना देखते हैं। दृष्टि में लोक की समझ गाँव नामक झोपड़ी या स्त्री के शरीर सौष्ठव तक ही सीमित रह गया। लोक शहर का विपरीत होना ही नहीं है। भीड़-भाड़ नैराश्य का ठीक उल्टा निर्णय एकाकी होना मात्र नही है। यह तो एक चेतन दृष्टि है जो उधार से नहीं मिलता। हिन्दी साहित्य की प्रगतिवादी धारा में व्यक्त- मिलों, ट्रेनों और ऑफिसो से निकलती समयबद्ध नौकरीपेशा भीड़ की नैराश्य मानसिकता का आरोप कुंभ पर भी मढ़ दिया गया भीड़ मानकर। जबकि कला तो दृष्टि की भाषा है। कलाकारों ने अपनी आंखों से लोकोत्सव नहीं देखा। उन्होने समझा कला केवल कलाकार, कूँची और कैनवस में ही है जिसे वो अपनी व्यक्तिगत वैचारिकता से गढ़ता है। कलाकार भूल गया कि वह तो मात्र चितेरा है। उसे रचना है जो बाहरघटित हो रहा है ... जो ध्वनिमय प्रकृति है... वह जो हर-हर करता बढ़ता समाज है।
किन्तु अफसोस। रेखाएं विचारों में फंस गयी। रंग राजनीति का चेहरा बन गयी और कलाकार करोड़ी क्रांति का दुलरूआ, तो नजर कहां से पैदा हो। जिस अगम्य को तत्व रूप में समझते-समझाते, चिंतन-विमर्श करते हुये कितने ही शास्त्र रच-रचा गये। सनातन धारा बन गयी। उसको गढ़ते हुए कितनी ही कलाकार पीढ़ी ने स्थूल माध्यमों में प्राण-छन्द पैदा किये। क्या किसी ने यक्ष-यक्षिणियाँ देखे थे? कुबेर? या विद्याधर- विद्याधरी? क्या सारे देवी-देवताओं को सामने बिठाकर ‘मॉडल-स्टडी’ किया गया था? या मन्दिर पहले कहीं देखे गये थे? नहीं। जब देखे नहीं गये थे तो स्वरूप कैसे बना? धर्मानुप्राणित लोक चेतना ने अनगढ़ रूप रचे थे, दीक्षित कलाकारों ने शास्त्रीय आधार प्रदान किया। सारे रूप-विधान, वास्तु, तत्व दर्शन के ही रूप निरूपण हैं। अपने शास्त्रों के बोध का मानक स्वरूप निर्धारित किया गया बिना दूसरों से तुलना किये। किसी श्रेष्ठता बोध की स्थापना हेतु नहीं अपितु जिस चिंतन बीज तक भारतीय मनीषा पहुंची थी उस परा को संवाद की लय देने के लिए पूर्व की कलाओं ने रूप संधान किया।
‘लीयते परमानंदेययात्मा सा परा कला’ आग्रह यही है कि प्राचीन का केवल गुणगान ही न हो बल्कि उसकी रचना प्रक्रिया और विचारों को रूप में ढ़ालने की सिद्ध तकनीक पर भी ध्यान हो। प्राचीनता मात्र संग्रहित ही न हो अपितु उसका पुर्नसंधान भी हो। दर्शन, विचारों को रूपायित करना बोरियत और पुरानेपन के एहसास से भर सकता है इसलिए कला को विनोदपूर्ण एवं मनोरंजक होना आवश्यक है, अन्यथा कलाकार वैचारिकता से बोझिल हो जायेगा। इसके लिए लोकरंजक होना पड़ेगा। उन लोगों के बीच जाना होगा जो जीवन की तात्कालिक पूर्ति हेतु जरूरत भर की तकनीक स्वयं निर्माण कर लेता है। ये उसकी कलाकारी है जिसे बेचा नहीं जाता उपलब्ध कराया जाता है। जीवन की कम से कम सुविधाओं में रहकर प्राकृतिक नियति के स्वाध्याय से हमें लोक की चित्त, धारणा समझने में सहायता मिल सकती है। गैलरी कल्चर तो फिरनी है जो ऊपर-नीचे फिराती रहेगी। करोड़ी होना माया है।‘माया महाठगिनी हम जानी’ बिकाऊ संस्कृति में कला मात्र दिखाऊ हो जाती है। व्यक्तिगत बाजीगरी का रूतबा बन जाती है। व्यक्ति केवल अपने आप में संपूर्ण नही हो सकता उसे समष्टि में घुलना होगा। जीवन व्यापक अर्थों में परंपराओं में ढ़लता रहता है, धर्म के अवयवों को लेकर। इन सबका मिलान है- कुंभ।
पूर्णता के घट में सब तिरोहित करना है। भागीरथी में डुबकी के बाद बरौनियों से झरती बूंदों के बीच खुलता संसार देखो। गहरे हरे रंग की ठहरी गति, बलुई धवलता का तेज बहाव एकमेक होती हुयी कैनवस की सीमा के पार निकल गई है। हवाओं के अन्तराल में केसरिया का तेज स्ट्रोक लगा है। असंख्य सिरों के परिप्रेक्ष्य में नाद की एक अमूर्त सी आकृति दिखायी देती है परन्तु पूरी तरह बन नहीं पाती। फिर कोशिश.. रंग की धार.. लेकिन छूट जाता है कुछ। इस क्रम में कितनी चीजें सृजित हो जाती हैं फिर भी समग्र मूर्तिमान स्वरूप पूर्णत्व का, कुंभ का आना अभी बाकी है।

भाव का अंतःसंवाद

किसी चित्र अथवा मूर्ति को देखते हुए हमारे ऊपर सबसे ज्यादा प्रभाव किस चीज का पड़ता है? उकेरे गये रूपाकारों में उसका यथार्थ अथवा रंग? दर्शक पर सबसे ज्यादा प्रभाव उस कृति में व्यक्त भाव का पड़ता है जो हमें अपनी ओर आकर्षित करता है। आप आकारों का अभ्यास कर सकते हैं, माध्यमों में तकनीक सीख सकते हैं लेकिन कृति की आत्मा उसका भाव है। यह अमूर्त होता है। इसे पढ़ा नहीं जाता बल्कि स्वयं होना होता है। यह तत्व सरल है, स्वयं में अनुभूत करने पर। यह मालूम पड़ता है स्वचिंतन से और घटित होता रहता है। यह इन्द्रिय जनित है, परन्तु कठिन होता जाता है व्यक्त करने में, मुश्किल हो जाता है किसी रूप के साथ ढ़ालने पर, जीवन-पर्यंत की तपस्या हो जाती है जो स्वयं घटित हुआ था। क्योंकि यह भाव है, अमूर्त है, एक तरंग है जो प्रतीत होती है परन्तु देख नहीं सकते। देख भी सकते हैं तो किन्ही समय दशाओं में जैसे दुःख का नाम आते ही आप गिरते हुए अश्रु या कराहता मुखमण्डल महसूस करते हैं।
इन्द्रियों की अंतः संचालिका वृत्ति भाव ही है। पूरे जीवन क्रम में भावों की ही निष्पति होती है। चूंकि कला अभिव्यक्ति है जीवन की अतः जीवन के लक्षणों की पुनरावृत्ति होती है। यह कलाकार की साधना का अहम बिंदु है। हमारे जीवनचर्या में, लोक में सबसे पहले भाव की ही प्रतिष्ठा की गई है। बहुत साधारण अर्थों में जीवन का मर्म समझा दिया जाता है कि जैसा भाव होगा वैसी प्राप्ति, अर्थात जो बनाना चाहते हो, जैसा गढ़ना चाहते हैं वह बाहर नहीं है बल्कि वह आपके भीतर ही है। कलाकार जो भी गढ़ता है, उसका रचना संसार उसके अंदर के भावों का विस्तार होता है। यहां एक भ्रम खड़ा होगा आपके सामने यदि उसका रचना संसार केवल उसका अपना है तो यह कितना सच है? क्योंकि उसके अन्दर का मनोभाव भी तो प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है। यहां परिवर्तन का कारण प्रकृति भी है। तो इतने रूपों के रच जाने के बाद भी भाव, अछोर सागर की भांति अथाह रह जाता है। यदि हम अपने भावानुसार ही कृतियों को देखते है तब तो और भी उलझन है क्योंकि हम ही हम को देखते हैं तो वह कहां देखा जो रचनाकार ने देखा-

जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी।

कला के षडंग सिद्धांत में भाव बहुत व्यापक अवधारणा है। यह मनोविज्ञान का सूक्ष्म विषय हो सकता है परन्तु भारतीय कला दर्शन में बहुत गहरे अर्थ रखता है। षडंग सिद्धांत में यह तीसरे सोपान पर आता है। रूपभेद और प्रमाण के बाद। इस स्तर पर वह अपने ही मनोभावों का परीक्षण करता रहता है। बहुत ही तटस्थ होकर प्रकृति के कार्य-व्यापार, प्राणियों के व्यवहार को देखता है। प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न होती मानसिक क्रियाओं को गुनता रहता है। प्रकृतिस्थ हो स्वयं के विचार-अवसाद, प्रेम, आदि को बाहरी रूपों में संधान की कोशिश करता है। यह प्रक्रिया निहायत ही निजी होती है। इसी कारण कलाकार किसी विशेष वैचारिकी में बँध कर नहीं रहता। उसके भावों का सच्चा प्रतिरूप जहां प्रतीत होता है वहां कुछ रचने लगता है। अलग अर्थों में उसका जीवन भावों का रूप संधान हो जाता है। जब वो भाव ही माया प्रकृति हो तो कितना कठिन हो जाता है इस मानवी शरीर से किसी शारीरिकी, किसी रूपाकार में उस अमूर्त, अव्यक्त को बांधना। वह तो सुन्दर है, रमणीय है किंतु क्षण-क्षण में नवीनता धारण करता है- ‘क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताः’
कला में यह साध्य विषय है। आकारादि का अभ्यास एक तरह से कंकाल है और भाव उसका प्राण है। किसी चित्र में अंकित विषय-वस्तु ही नहीं चलते बल्कि उस चित्रित रूपाकारों में जीवन के सारे गतिमान लक्षण होते हैं। उनकी मुद्राएं किन्ही प्रकारों में ही संयोजित रहती हैं। उन आकारों की विशिष्ट मुद्राएं विशेष भावों का वहन करती हैं। इसी क्रम में रचनाकार अपनी कल्पनाओं से नए भावों की संरचना करता है। उदाहरणस्वरूप आधुनिक कला में विशिष्ट भाव मुद्रा के निरूपण का अद्भुत शक्तिशाली चित्रण मिलता है तैयब मेहता की कृति ‘महिषासुरमर्दिनी’ में। इसमे देवी को चित्रित किये जाने की वो परंपरागत छवि नहीं है ना ही उस रूप में महिषासुर ही है लेकिन सर्वथा अलग तरह का भाव-बोध इस चित्र में दिखायी पडता है। यह कलाकार की अपनी निजी यात्रा है उस रूप में भाव प्राप्ति का। इस चित्र में देवी का जनमानस में बसा आराध्य स्वरूप नहीं है बल्कि रेखाओं का कोणीय संयोजन है आकार में। सपाट रंगों से आकृति उभरती है। देवी की मुखाकृति बड़ी ही सपाट है किन्तु दो लाइनों में त्रिनेत्र, आंखे तथा हाथों में एक पतला तीर जो लाइन के तेज स्ट्रोक में है जिसमें तीक्ष्णता है। नीचे महिष की उलटी आँँखेंं और बगल से उठा एक हाथ रोकता हुआ जो यथार्थ शरीर रूप में नहीं है। पूरे चित्र में भावों के नये आयाम बनते हैं वरना तो यह वो आराध्य स्वरूप नहीं है जो आम जनमानस पूजता है। साधारणतया भारतीय जनआस्था अधिक बुद्धि के फेर में नहीं पड़ती। वह तो कोई माटी का माधो बना के रीझ पड़ता है। नदी से लाये गोल अण्डाकार पत्थर को कपड़े में लपेट कर सुला देता है, चन्दन आदि से पूजित शालिग्राम बना देता है। उसके लिए भाव प्रधान है-

‘न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्’।।


-आचार्य चाणक्य
अर्थात ईश्वर न काष्ठ (लकड़ी) में है, न पत्थर में और न ही मिट्टी में अथवा मूर्ति में। वह केवल भाव में रहता है। अतः भाव ही मुख्य है।
यहाँँ सवाल उठता है यदि लोकमानस इतना सहज है कि वो केवल भाव देखता है तो नवबोध से रची किसी कृति में अपने आराध्य को देखकर असहज क्यों हो जाता है? जैसे एम. एफ. हुसैन के चित्र सरस्वती पर लोग क्यों बिफर पड़े? आमजन आस्था के स्वरूप पर चिढ़ क्यों जाता है? क्योंकि किसी रूपाकार को आराध्य बनने में केवल आकार-प्रकार या मुद्राएं ही नहीं होती है बल्कि भावों की शुद्ध साधना है जो लम्बे चिन्तन और रूप साधना का प्रतिफल होता है। इसका सुन्दर उदाहरण बुद्ध प्रतिमा निर्माण में दिखाई पड़ता है। वर्तमान में जो रूप सारनाथ म्यूजियम में संरक्षित मूर्ति में हमें मिलता है, उसे प्राप्त होने में कितने ही कलाकारों की पीढ़ियाँँ तिरोहित हो गई उस भाव सत्व को रूप में ढ़ालते-ढ़ालते, समय के इतने अन्तराल के बाद वो रूप मिला जो धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में पाया जाता है। अब उस रूप को चीवररहित नग्न की तरह प्रस्तुत किया जाए तो क्या यह आधुनिक बोध है?
भारतीय संदर्भ में केवल कला ही साध्य नहीं होती बल्कि उससे कहीं ज्यादा कसौटी कलाकार की होती है। उसका जीवन अनुक्रम होता है क्योंकि शरीर ही साधन है, कृति के प्रतिफलन का। इन्द्रियों के भाव-विभाव ही आपके चिन्तन की दिशा-दशा और दृष्टिबोध तय करते हैं। इसलिए हमारे यहां सर्जक होना इसी जीवन में होते हुए अलग आयाम पर होना होता है। यदि आयाम की शुचिता को वह धारण नहीं करता तो कितने ही सुन्दर चित्र बना ले, रूप गढ़ ले वह लोकमानस में स्थान नहीं पा सकता, वो तथाकथित आधुनिक कलाकार बन सकता है, करोड़ में बिक कर किसी की शोभा बन सकता है अथवा म्यूजियम में सज कर इतिहास की किताब में आ सकता है किन्तु भारतीय मनस में कोहबर की तरह, गौर-गणेश या शिव की पिण्डी की तरह सहज रूप बन पैठ नहीं सकता। यहां महत्व पूर्ण साध्य है भावों की शुद्ध प्राप्ति। अन्ततः किसी कला को लोक का हो जाना चाहिए। किसी म्यूजियम का होके हमेशा बड़ेपन के ऐंठ से क्यों भरा होना चाहिए? कलाकार के निजी हाथों से निकलकर समाज भूमि का हो जाना चाहिए।
संस्कृत के महाकवि भास के नाटक‘दूतवाक्यम’ में एक प्रसंग में वह लिखते हैं कि दुर्योधन ‘द्रोपदी चीरहरण’ का चित्र देखते हुए उसके भाव और रंगों की प्रशंसा करता है, ‘अहो!भावोपपन्नता' अहो! अस्य वर्णाढ़यता'। लगभग दूसरी शती रचित इस कृति से उस समय भी भाव के महत्व का पता चलता है। यह तत्व किसी भी रचना का मूल है। किसी घटना या दृश्य देखकर मन में कुछ उमड़ने-घुमड़ने लगता है, कहीं से कोई शब्द जुड़ जाता है, कोई आकार खींचते हैं तो सुदूर बचपन की देखी हुई आकृतियां उभरने लगती हैं। विह्वल क्षणों में गुनगुना उठते हैं। यह सब जो एकाएक घटित हो जाता है, भाव ही तो है जो बहने लगता है। भावों के सहज उच्छलन ने ही तो वाल्मिकि को आदिकवि बना दिया-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः
यत्क्रौंंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।


सम्पूर्ण प्राणिजगत भावनाओं के बन्धन में बंधा हुआ है। क्या भावों के कई रूप हैं?क्या इन्हे बांटा जा सकता है? भाव अप्रत्यक्ष हवा सी है। जो सब में है लेकिन दिखाई नहीं पडता। तमाम स्वरूपों में दृष्टिगत होता है। भावविहीन कुछ भी नहीं हो सकता। यह बहुत जटिल है। परिभाषाएँँ और भेद बनाए जा सकते हैं परन्तु यह खुद में महसूस होता है। कला क्षेत्र में प्रायः दो धाराओं में भाव निष्पति देखी जा सकती है, आकृतिमूलक और आकृतिविहीन ।आकृतिमूलक विधान में हमारे चारों ओर घटित होने वाले जीवनसंदर्भों की ही पुर्नरचना होती है। उसमें रियलिस्टिक, हाइपर रियलिस्टिक, फोटो रियलिस्टिक होता है अर्थात हू-ब-हू वास्तविक या वस्तुगत चित्रण। कई कलाकार रूपों को वास्तविकता में रखते हैं जिन्हे आप आसानी से पहचान सकते हैं। आकृतिविहीन चित्रण में विविध रंगों, रेखाओं, आकार के बहुस्तरीय आयाम रचते हुए अपने भावों को उद्घाटित करते हैं। इस तरह की रचनाओं में समाकृति नहीं होती। आस-पास की देखी जानी हुई रूप, विघटित अथवा कई आकारों का एक-दूसरे में घुलता हुआ कई स्तर बनती है जो बिल्कुल अलग मनोभाव की सृष्टि करता है।
आकृतिमूलक या आकारविहीनता दोनों रूप का एक अभ्यास है। रेखांकन की विशेषज्ञता है। भाव दोनों के मूल में है। जिस तरह शरीर में श्वांस होना जीवित होने का प्रमाण है उसी तरह चित्र, मूर्ति में अंकन ऐसा हो जैसे वह सांस ले रहा हो, ‘सश्वास इव यच्चित्रम’। भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में सभी रसों के मूल में भाव की ही व्यंजना की है। मनुष्य भावों का पुतला है, हर क्षण, हर परिस्थिति में उसके अन्दर विचारों के चित्र बनते-बिगड़ते रहते हैं। आशा-निराशा, प्राप्ति-विछोह, उद्वेग, किलक-पुलक, प्रेम-घृणा आदि की असंख्य मनः स्थितियों को बिना रूपाकारों के व्यक्त करना असंभव है। रेखा, रंग, रूप, आकार ये सब साधन है, शरीर है भावों को व्यक्त करने का। भारतीय कला चिन्तन में प्राचीन काल से ही सरल भावांकन पर विशेष बल दिया गया है। अजंता-एलोरा या बाघ बादामी गुफा चित्र हों या लोक में विवाहादि, पूजन पर रचे जाने वाले या कोहवर, माण्डना, अल्पना या रंगोली अथवा बंगाल के कालीघाट के पटचित्र जिसका प्रभाव लेकर जामिनी रॉय ने अद्भुत चित्र रचे, सभी में भावपरकता सर्वोपरि है।
कोई सृजन, उसके देशकाल, चिन्तन परिवेश, उसके जीवन दर्शन के फलस्वरूप आकार ग्रहण करता है। इस नजरिये से भारत का जीवन चिन्तन आंतरिक से प्रकृति की ओर उद्घाटित करने का संधान है। यह खोज नित्य नवीन चुनौती के साथ हर व्यक्ति के सामने होता है। इसी संधान क्रम में हमारे देश में एक जीवन परम्परा का निर्माण हुआ। यह परंपरा बराबर प्रेरणा देती है, स्वयं से संवाद की। क्षेत्र चाहे कोई भी हो कला, साहित्य, वास्तु, संगीत, शिक्षा आदि। संवाद के इस क्रम में कलारूपों का निर्माण अधिक प्रभावी हो जाता है क्योंकि यह देखने की विशेष दृष्टि पैदा करता है भाषा से परे।
आधुनिकता के नाम पर चाहे ‘वाद’ के स्तर बना लें, चाहे कितने ही पढ़ने के तमगे टांक दिए जाएँँ लेकिन सवाल हर समय से और संवाद से युगानुरूप नए रूपों की सृष्टि का बोध पैदा होता है। ऐसे ही कलाबोध का रसग्राही समाज रूपाकारों को गढ़ता है। अब जबकि समाज बहुत हद तक व्यक्तिगत हो चला है, ऐसी जीवन परम्परा में व्यक्ति के सहयोग की जगह तकनीक ने ले ली है इसीलिए आज के कला परिदृश्य में आपको कलाकार पहले दिखेगा। उसकी अभिव्यक्ति में तकनीक की प्रधानता दिखेगी। भाव तो आपको स्वयं खोजना पड़ेगा। सृजित कलारूपों में जहां सर्व का होना चाहिए वहां कलाकार का अपना निजीपन अधिक होता जा रहा है।
व्यक्ति और समष्टि का द्वन्द्व पहले से रहा है। यह द्वन्द्व बहुत हद तक पश्चिम का रहा है जो आज हमें अधिक महसूस हो रहा है, जबकि भारतीय परिप्रेक्ष्य कभी इतने सीमित द्वन्द्व में नहीं रहा है। यहां तो अंंतर से प्रकृति की, जीव से ब्रह्म की यात्रा का सुचिन्तित सम्यक पथ है। यहां द्वन्द्व नहीं केवल साधना पथ है। सही-गलत का वाद नहीं बल्कि सत्-असत् का संवाद, विचार-विमर्श और शास्त्रार्थ है जो लोक जीवन परम्परा में अपनी-अपनी अहम् छोड़ तिरोहित हो जाता है। ऐसे ही लोकोत्तर भाव को समाज ग्रहण करता है, उसके रूपाकार को अपना बना लेता है। कला कलाकार को मुक्त कर देती है, उसके ही रूप बन्धन से।

भारतीय कला में प्रमाशक्ति या कला की प्रमाशक्ति

हाल ही में संसार की सबसे ऊँची मूर्ति सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा का अनावरण हमने देखा। विशाल एवं भव्य कला का उत्कृष्ट नमूना। इतनी बडी मूर्ति में भी पटेल जी के व्यक्तित्व की गहराई, गरिमा और स्थूल शरीर की भँगिमा, चेहरे की शिकन में जरा भी अन्तर नहीं आया है।बल्कि यह मूर्ति उनके सम्पूर्ण जीवन की आभा और लोहत्व को कुछ अधिक ही निखारती है। आपको आश्चर्य होगा कि मूर्ति इतनी बड़ी होने के बावजूद भी चरित्रांकन में लेशमात्र भी अंतर नहीं है। आदमकद मूर्ति रचना, फिर भी आनुपातिक रूप से एक उदाहरण रूप में सामने होता है लेकिन आकृति की माप यदि कई गुना बढ़ गयी तो इतना सटीक अंकन कैसे संभव है। केवल सटीक ही नही बल्कि उस व्यक्तित्व का प्राण गढ़ना, यह कलाकार के लिए अत्यंत साधना का प्रतिफल होता है।
केवल अनुपातानुसार विस्तार कर देने से आकृति में एक प्रकार की कठोरता बढ़ती है। सामान्य दृष्टि में किसी वस्तु को हम जितना देख पाते हैं उससे कई गुना विस्तारित रुप देखने के लिए आँखों का दृष्टि-पथ विशाल हो जाता है, ऐसे में रूप-भावकाबोध बनाये रखने हेतु कलाकार की अन्तर्निहित शक्ति उसे ठीक-ठीकदिशा देती है। वह है प्रमा । प्रमाकिसी भी रूप, वस्तु या कल्पना का यथार्य भूमि पर स्थूल आकलन है। यतीन्द्रमतदीपिका में प्रमा का लक्षण देते हुये कहा गया है- यथावस्थित व्यवहारानुगुणं ज्ञानं प्रमा।अर्थात् जिस रूप में वस्तु विद्यमान है उसी रूप में उसकी अनुभूति प्रमा कहलाती है। प्रमाशक्ति प्रत्येक जीव में होता है चाहे वह पशु-पक्षी हो या मानव। यहाँ तक कि कुछ ही दिन का पैदा हुआ गाय का बच्चा छोटी सी नाली के उपर से कूदकर पार हो जाता है। उछलकर पार हो जाने का निश्चित अनुमान लगाना उसके अन्दर की प्रमा शक्ति ही है। कला में, चित्रांकन में, यह शक्ति विशेष संदर्भ में प्रयोग होती है। प्रमा शक्ति कलाकार की वह अदभुत क्षमता है जिससे वह दर्शक को आश्चर्य चकित कर देता है। किसी वस्तु के सूक्ष्म अंकन, हू-ब-हू चित्रण में, सजीव मूर्तिमान कर देने में, देखकर भ्रम पैदा कर देने में यह शक्ति ही कार्य करती है। इस क्षमता के आधार पर ही सूक्ष्म को विराटतम् में और विराटतम् को छोटे रूप में दिखाया जाता है।
भारतीय जीवन दर्शन में, विद्वत् परम्परा में, सामान्य आचार-व्यवस्था में, अमूमन दो धारा रही है। एक लोकधारा दूसरी शास्त्रीय। लोक और शास्त्र सदैव एक दूसरे को कहीं प्रभावित, कहीं समानांतर तो कहीं आपस में समाविष्ट होते रहे हैं। भारतीय कलाधारा में द्वितीय महत्वपूर्ण सोपान है- प्रमाण किसी वस्तु या सुन्दरता की पुर्नसृजन हेतु प्रमाण अर्थात माप उसकी आकारिकी का ज्ञान होना परमावश्यक है। प्रथमतया हम अपनी आँखों से देखकर तुलनात्मक रुप से आकलन कर लेते हैं परन्तु मात्र इतने से रुपसिद्धि नही होने वाला। रुपाकारों की सत्यता और उसका सही-सही बोध बिना प्रमाण ज्ञान के नहीं हो सकता। कला रचना के विभिन्न आयामों की दिशा में हमारी भारतीय मेधा अत्यंत समृद्ध रही है। अनेकानेक विद्वान और उनके ग्रंथों से हमारा कलाविषयक मार्ग प्रशस्त एवं आलोकित हैं।
यथाचित्रसूत्र(विष्णुधर्मोत्तरपुराण)मानसोल्लास,शुक्रनीतिसार, उज्जवलनीलमणि, संमराङगणसूत्रधार, वृहत्संहिताआदि।
कला में माप, प्रमाणादि विचार में स्वतंत्रतापूर्वक लोक और शास्त्रीय धाराएँ निर्बाध चलती रही हैं। लोक में व्याप्त कलादृष्टि में प्रमाशक्ति अदभुत रुप में विद्यमान है परन्तु प्रमाण, अनुपात का अपना अनोखा ढंग है। इसका सबसे सुंदर उदाहरण लोक में बनने वाले मिट्टी के शिल्प व खिलौने हैं। बंगाल के विष्णुपुर व तमिलनाडु में बनने वाले मिट्टी की मूर्ति में स्वतः एक अनुपात है। विष्णुपुर में स्थानीय मिट्टी में अदभुत रचना की गई है। मंदिरों का निर्माण एंव उसमें रचित भावमय आकृतियाँ जिनमें उस कलाकार के हाथों के रचाव का सौष्ठव दिखाई पड़ता है। तमिलनाडु के लोक कलाकारों द्वारा बनाया जानेवाला घोड़े की विशालतम आकृतियाँ, यथार्थ में बने घोड़े से अलग सौंदर्य प्रमाण सिद्ध करती हैं।
इसमें कोई लिखित शास्त्रीय नियम नहीं है, परन्तु परम्परा से प्राप्त एक आकार नियम है जो उसे मिट्टी में बनाने पर, सरल आकार गढने के लिए प्रमाबोध होना चाहिए, जो कि उस मिट्टी में काम करते हुये ही जाना जा सकता है। लोकप्रमाण का सबसे अनूठा और अत्यंत सरल रुप आपको वनवासी लोगों की कला में मिलेगा। भारतीय कला में जितना बाहुल्य नगरीय एवं ग्रामीण समाज का रहा है, उससे कम आदिवासियों का नही है। प्रकृति में अत्यधिक रमें होने के कारण इनमें हू-ब-हू सादृश्य या प्रमाण का गणितीय आकलन की नियमावली नहीं है किन्तु स्वतः जन्य रुपबोध का प्रमाण इनके पास है जो कि नगरीय समाज के कलाप्रमाण नियमों से बिल्कुल भिन्न है। इनके यहाँ शब्द कम होते हैं, भाव ज्यादा। इनमें बनने वाले लम्बोतरे चेहरे, अधिक लम्बाई के शरीर वाले शिल्प, अद्भुत आकलन से युक्त हैं। वस्तुतः ये शिल्प इनके पूज्य देवों के होते हैं।उनको केवल बनाना ही नहीं होता बल्कि रचना एक अनुष्ठान होता है। इसलिए स्वतः निर्झरणी की तरह स्वतंत्र रचनाविधान होता है। इन शिल्पों में अनुपात उस अनुष्ठानिक के ऊपर होता है। इस तरह हर पीढी उस आंकलन, उस अनुष्ठान को रचती है किन्तु सबका प्रमाण उस व्यक्तिगत के अऩुसार होता है फिर भी एक दायरे में, जिसे आप आदिवासी कलाएँ कहकर सीमा रेखा में बाँध देते हैं। जब इन्ही भाव, आकृति, प्रमाणों को बहुतेरे आधुनिकों (पिकासो, गोग्वं, हुसैन आदि) ने चित्र में उतार कर गैलरी बाजार में करोडों में बेचा तो वे समकालीन कला के धरोहर बन गये।
भारतीय समाज प्रयोगों की अनवरत भूमि रही है। लोक हमेशा स्वतंत्र रहा है अपने प्रतिमान गढने के लिए। उसका अपना प्रमाण है, अपनी शास्त्रीयता। इसका सुन्दर स्वरुप ग्राम्य जीवन में फैले त्योहारोंपर सृजित विविध रंगोली, मांडना आदि रचनाएँ है। विवाहादि, पूजन के अवसर पर गाय के गोबर से गौर-गणेश हाथों से बनाकर (त्वरित) पूजा किया जाता है। वे ग्रामदेवता जो ग्राम की रक्षा करते हैं, उनकी आकृति में जो पिंडी बना दी जाती है या पहलवान बीरबाबा बनाने के लिए अनगढ पत्थर पर सिंदूर, टीक दिया जाता है, या सायर देवी के नाम पर, ललही छठ के नाम पर मिट्टी के ढूहे की थान बना दी जाती है, उसमें किसी शास्त्रीय नियम की आवश्यकता नहीं होती। एक तरफ मन्दिर बनाने के और उसमें मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हेतु इतने नियम, विधि-विधान बनाये गये हैं, वहीं दूसरी ओर दो ईंट शंकुनुमा खडे कर उसके अन्दर नदी के बालू से निकले गोले पत्थर को रखकर, जल चढाकर शिव बना दिया जाता है। अद्भुत छूट है लोक मन को ।
विष्णु धर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र के अध्याय 35 में चित्रांकन हेतु शरीर की ऊँचाई के अनुसार पाँच प्रकार के पुरुष माने गये हैं- हंस, भद्र, मालव्य, रुचक, शशक। इसी प्रमाण के अनुरुप देवता, मनुष्य, गन्धर्व, किन्नर आदि चित्रित किये जाते थे। चित्रसूत्र के 39 अध्याय तक विभिन्न अंगों के प्रमाण, शरीर मुद्राओं के माप का वर्णन है। साधारण मानव, राक्षस, किन्नर, यक्षादि के शारीरिकी का उनके मुखादि भाव का विस्तृत वर्णन है। यह प्रमाण इतना सरल है कि आकृतियों के मापन हेतु'बित्ता'व 'अंगुल' भी प्रमाणरुप में समझाये गये हैं। देवता अथवा मानव का चित्रण सामान्य मनुष्य से बड़ादिखाया जाना चाहिए। अजंता की 17वीं गुफा में चित्रित महात्मा बुद्ध और यशोधरा का चित्र जिसमें यशोधरा अपने पुत्र राहुल को बुद्ध को सौंप रही है।
इस चित्र में बुद्धत्व को दर्शाने हेतु यशोधरा - राहुल के आकार की तुलना में समान दृश्य तल पर बुद्ध को अपेक्षाकृत बडा चित्रित किया गया है। यहाँ अधिक बड़ा बनाना, बुद्ध की महिमा को कलाकार ने प्रमाण में ढालकर अद्भुत प्रमाशक्ति का परिचय दिया है। इस तरह के अनेक उदाहरण अजंता-एलोरा में आपको मिल जायेंगे। जिसे भारतीय दृष्टि कहते हैं, उसका मूल तत्व स्वयं मे प्रतिष्ठित होना अर्थात इस प्रकृति से, जगत से आत्मीय संवाद। जड-जंगम से चक्षु संवाद की धारा एकल, एकांगी या एकमार्गी नही हो सकती। वह दृष्टि विश्व के अनेक दृष्टान्तों से भिन्न है, इसलिए उसकी पुर्नसृष्टि के सारे आकलन, उपकरण एकदम नया होगा, अजनबियत की हद तक। किसी से तुलनात्मक रुप में श्रेष्ठबोध की प्रतियोगिता से परे। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि कुछ साल हम किसी आक्रमण काल में रहे उसके बाद हमने अपनेहीदृष्टि की उपेक्षा कर दी। एक विकसित उधारी मुलम्मेमें अपनी मूल धात्विकता को ढंक दिया। अब सब एकरंगी वैश्विकता में मारे-मारे फिर रहे हैं। विश्व अभी भी भारत को उसके अजंता-एलोरा, खजुराहो, कांगडा, राजस्थानी, पिछवई, मधुबनी, वरली में ढूँढ रहा है। मैं नहीं कहता कि फिर से वही हो जाना चाहिए जो चार-पाँच सौ साल पहले था लेकिन मूल आत्मा की खोज होनी चाहिए। ऐतिहासिक अनस्थिरता के लम्बे कालखण्ड के बाद हमने तथाकथित आजादी भी पाई तो पहचान की हडबोंगई में उन्ही के रुप ओढ़ लिए जिनके हम गुलाम थे। कला के हमारे मानक पुराने घोषित कर दिये गये।
कला विद्यालयों में प्रमाशक्ति का अध्ययन विकास केवल एकअर्थी बनकर रह गया है। निर्जीव वस्तुओं को एक साथ टेबल पर कपड़े के साथ, खास दिशा से आती प्रकाश-छाया में संयोजित करके चित्रण करना जिसे अंग्रेजी में 'स्टिल लाइफ' कहा जाता है। स्त्री या पुरुष को मॉडल बनाकर सामने से हू-ब-हू आनुपातिक चित्रण करना यह 'लाइफ स्टडी'कहलाता है अर्थात प्रमाण अध्ययन केवल सामने उपस्थित वस्तु के आकार के समान। जो वस्तु जितना इस दुनिया में है उतना बराबर ही रच देना चमत्कृत भले ही कर दे किन्तु यह एकांगी ही होगा। अरे! हम तो रुप के अन्दर उस आत्मा को रचने वाले हैं। हमने तो उस अगम्य को भी ध्वनित किया है। उस आकार को बनाकर उसमें प्राणछन्द रचे हैं। वो सहज है, सरल भी लेकिन एकदिशीय नहीं, बहुदिशीय, एकप्रमाण नहीं, बहुप्रमाण।