जयेश मटियाल

हॉलीवुड का सांस्कृतिक-मायालोक 

भारत की सांस्कृतिक धरोहर कैलाश मन्दिर पर हाल ही में अमेरिका के हिस्ट्री चैनल ने एक एपिसोड बनाया था। पूरे एपिसोड में वे हैरत में थे कि किसी मनुष्य द्वारा ऐसी कारीगरी कैसे संभव है,जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एपिसोड में बताया गया कि भारत में चमत्कारी मशीनें हुआ करती थी, जिन्होंने इसे बनाया। भारतीय वास्तुकला और वैदिक विज्ञान को श्रेय देने की बजाय, स्वयं की संतुष्टि के लिए डायरेक्टर्स ने एलोरा की गुफाओं को एलियन की कारीगरी करार दे दिया। यह पहली बार नहीं है जब अमेरिका भारत के खिलाफ इस तरह का मिथक गढ़ रहा हो। हिस्ट्री चैनल की “एनसेन्ट एलियन” नामक टेलीविजन सीरीज में भारत की प्राचीन धरोहरों को लेकर कई एपिसोड हैं, जो यह साबित करने में लगे हैं कि यह सब एलियन्स का करा-धरा है।
अमेरिका पोषित फिल्में, टेलीविजन-एपिसोड, वेब-सीरीज, अन्य जगहों की सांस्कृतिक विरासतों को लेकर अपने हितानुसार नए आख्यान गढ़ रही हैं और पश्चिमी संस्कृति को, सोच को, पहनावे को अन्य देशों समेत भारत पर भी थोपने का काम कर रही हैं। यह जिम्मा खासतौर पर हॉलीवुड के कंधे पर है। हॉलीवुड अमेरिकी विचारों को प्रेषित करने का सॉफ्ट टूल है, इस प्रक्रिया को हॉलीवुडाइजेशन कहा जाता है। जिसमें हॉलीवुड सम्पूर्ण एशिया में फिल्म उद्योग को प्रभावित करता है ताकि प्रोडक्शन शैली, ड्रेसिंग, यहां तक कि हॉलीवुड के नाम की नकल कर सके। भारतीय सिनेमा का हॉलीवुड चलनइसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है। यही वुड भारतीय मूल्यों, सिद्धांतो को ताक पर रखकर भारतीय फिल्मों को पश्चिमी संस्कृति के सांचे में ढालने में सफल भी हो रहा है।
पिछले कुछ सालों से भारत में हॉलीवुड फिल्मों का दब-दबा बढ़ा है। चीन के बाद भारत अमेरिकी फिल्म और मनोरंजन उद्योग के लिए दूसरा सबसे बड़ा बाजार बना है। आंकड़ों के अनुसार पिछले साल हॉलीवुड फिल्मों ने भारत में तकरीबन 1220 करोड़ रुपए से अधिक की कमाई की है जो हॉलीवुड की भारत में अब तक की सबसे ज्यादा कमाई है। भारत में हॉलीवुड फिल्मों के प्रभाव को बढाने के लिए हॉलीवुड स्टूडियोज अपनी फिल्मों का हिन्दी भाषा समेत अन्य भारतीय भाषाओं में डबिंग के लिए, मार्केटिंग के लिए व्यापक स्तर पर पैसा खर्च कर रहे हैं। इसका हालिया उदाहरण स्पाइडर मैन होमकमिंग फिल्म है, जो हिन्दी समेत अन्य नौ भारतीय भाषाओं में डब की गई थी।
हॉलीवुड किस तरह भारत को निशाने पर रखकर फिल्में बनाता है इसका एक उदाहरण बहुचर्चित हॉलीवुड फिल्म अवतार है। अवतार जोकि भारतीय अवधारणा है, उसे एलियन्स से जोड़ा गया है। अमेरिका भारत के चित्रण के प्रति बहुत असंवेदनशील रहा है। हॉलीवुड और अमेरिकन टीवी शो में भारत को गरीब, पिछड़ा, सपेरों की भूमि के रूप में दिखाता है।  द 100 फुट जर्नी, स्लमडॉग मिलियनेयर, लाइफ ऑफ पाई और द मिस्ट्रेस ऑफ स्पाइसेस जैसी लोकप्रिय हॉलीवुड फिल्में भारत को नकारात्मक रूप में दिखाती है। इन फिल्मों में भारतीय पात्रों को गरीब और रहस्यमयी रूप में दिखाया गया है। इंडियाना जोन्स में एक भारतीय पात्र को इतना नकारात्मक रूप से दिखाया गया कि भारत सरकार को  इसकी शूटिंग पर प्रतिबंध लगाना पड़ा।
हॉलीवुड ने न केवल पश्चिमी संस्कृति बल्कि आर्थिकी थोपने का भी काम किया है। हॉलीवुड स्टूडियो, फिल्म-टीवी, और वेबसीरीज के रूप में विभिन्न देशों के विभिन्न बाजारों में स्थानीय मनोरंजन के एक बड़े हिस्से पर कब्जा जमाने के लिए, अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए  प्रयासरत रहते हैं। उदाहरणस्वरूप भारत में नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म का दबदबा होना। और फिर यही ओटीटी प्लेटफॉर्म अपराध और अश्लीलता से भरी भारत विरोधी, सनातन संस्कृति विरोधी लैला जैसी वेबसीरीज को बढ़ावा देती है।
बॉलीवुड की अधिकांश फिल्में भारतीय मूल्यों और संस्कृति को हॉलीवुड की तर्ज पर ताक पर रखती है। शुरूआती दौर में जो फिल्में भारत की संस्कृति, समाज, परिवार, देश का प्रतिबिंब हुआ करती थी, वही फिल्में आज भारत को लीलने में लगी हैं। पुराने दौर की फिल्मों में जहां प्रेम में पवित्रता झलकती थी, हॉलीवुडाइजेशन के परिणामस्वरूप आज प्रोग्रेसिव के नाम पर प्रेम में अश्लीलता दिखाई पड़ती है।  
आधुनिकता के नाम पर हॉलीवुड, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का परिचायक है। जो भारतीय संस्कृति को विकृत करने में लगा है। भारतीय मूल्यों में पश्चिमी विचारधारा, राजनीतिक मान्यताएं, पश्चिमी विज्ञान,  पश्चिमी नैतिक अवधारणाएं, प्रतीक और आदर्श, पश्चिमी कामकाज के तरीके, पश्चिमी खान-पान, पश्चिमी गीत-नृत्य, मानव अस्तित्व की पश्चिमी अवधारणा की घुसपैठ में अमेरिकी फिल्मों का बड़ा योगदान है।  उदाहरण के तौर पर हॉलीवुड फिल्मों को देख-देखकर हमारा खान-पान भी अमेरिकी हो गया है। बात फिर बिहार के लिट्टी-चोखा की हो, उत्तराखण्ड के कोदे की रोटी, या कलकत्ता के रसगुल्ले की, सब पर मैक्डोनल्डस, केएफसी और पिज्जा जैसे ग्लोबल ब्रांड ही हावी हैं।
हॉलीवुड फिल्में देखकर लोग अमेरिका को एक आदर्श समाज के रूप में देखने लगे हैं, जहां अच्छाई हमेशा बुराई पर हावी रहती है। जबकि सच्चाई यही है कि हॉलीवुड एक ही विचारधारा को स्थापित करने में लगा है। विविधताओं को खत्म कर एक ही जीवनशैली बनाने में लगा है। अमेरिकी संस्कृति को वैश्विक संस्कृति बनाने में लगा हुआ है, गैर-अमेरिकियों का अमेरिकीकरण करने में लगा हुआ है। जिसमें हॉलीवुड काफी हद तक सफल भी रहा है।
 

ब्रेकिंग न्यूज या ब्रेकिंग फैक्ट

14 जुलाई को ‘द हिन्दू’ ने अपनी वेबसाइट पर एक खबर ब्रेक की। जिसके बाद यकायक भारत सरकार और विदेश नीति पर सवालों की बौछार शुरू हो गई। सोशल मीडिया की बदौलत हर कोई विदेशी मामलों का जानकार बना फिरने लगे। कुछ मीडिया घरानों ने तो इस खबर पर विदेशी मामलों के जानकारों की टिप्पणियां दर्ज करवानी शुरू कर दी। मगर अगले ही दिन यह सब धरा का धरा रह गया, जब दूसरा पक्ष सामने आया।
दरअसल, द हिन्दू ने खबर प्रसारित की, कि ईरान ने भारत को चाबहार रेल प्रोजेक्ट से हटा दिया है। द हिन्दू के मुताबिक भारत की तरफ से वित्तीय देरी के चलते चाबहार बंदरगाह से जाहेदान तक का यह रेल प्रोजेक्ट, ईरान स्वयं से पूरा करेगा। 15  जुलाई को ईरान की तरफ से इस खबर पर प्रतिक्रिया आई। ईरान द्वारा इस खबर का खंडन करते ही, तथाकथित विदेशी मामलों के जानकार, जो पहले इस खबर की तर्ज पर भारत सरकार की विदेशी नीति को कोसने व सवाल दागने में लगे थे, सभी अपनी बगल झांकने में लग गए।  
ईरान के बंदरगाह और समुद्री संगठन के डिप्टी फरहाद मोंतासिर ने कहा कि यह दावा पूरी तरह गलत है। उन्होंने  बताया कि चाबहार में निवेश के लिए ईरान में भारत के साथ सिर्फ दो समझौतों पर हस्ताक्षर हुआ था। पहला पोर्ट की मशीनरी और उपकरणों के लिए और दूसरा भारत द्वारा 150 मिलियन डॉलर के निवेश को लेकर। मोंतासिर ने सफाई दी चाबहार में ईरान द्वारा भारत के सहयोग पर किसी भी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। अल-जजीरा द्वारा ईरान का पक्ष सामने रखने के बाद भारत में रहने वाले भारत विरोधियों की उम्मीदों को झटका लगा है।
द हिन्दू ने इस खबर के साथ चीन द्वारा ईरान में किये जाने वाले निवेश को भी जोड़ा है। द हिन्दू के अनुसार इस रेलवे प्रोजेक्ट की शुरूआत उस समय हुई है, जब चीन ने ईरान के साथ, आने वाले 25 सालों तक 400 बिलियन डॉलर की रणनीतिक साझेदारी को अंतिम रूप दिया है। द हिन्दू के मुताबिक इससे ईरान में भारत की योजनाएं धूमिल पड़ सकती हैं। जबकि ईरान सरकार का कहना है कि  चाबहार पोर्ट में निवेश के अलावा, भारत तुर्कमेनिस्तान की सीमा पर चाबहार से जाहेदान तक और जाहेदान से सराक की सीमा तक इस स्ट्रेटजिक ट्रांसिट रूट के निर्माण और वित्तपोषण में और अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भारत-चीन सीमा विवाद के दौरान अप्रत्यक्ष रूप से चीन का हित साधने में लगा भारतीय मीडिया का चीनी संस्करण अब ईरान के नाम पर झूठ फैलाकर भारत विरोधी गतिविधियों में उत्प्रेरक के रूप में काम कर रहा है। बलूचिस्तान से लगे ईरान के तटीय हिस्से में स्थित चाबहार बंदरगाह अपनी रणनीतिक स्थिति और  अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, और कजाखस्तान जैसे मध्य एशियाई देशों के निकटतम होने के कारण भारत के उपयोग के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह समझने के बजाय, भारतीय मीडिया का एक धड़ा अलग-अलग मोर्चों पर भारत के खिलाफ एक प्रोपेगेंडा सीरीज चलाने में लगा हुआ है।
‘मेड इन चाइना’ मीडिया जो चाबहार बंदरगाह के माध्यम से ईरान-भारत-अफगानिस्तान त्रिपक्षीय सहयोग विकास परियोजना की विफलता का दावा करने में लगा है, उसे यह जानना जरूरी है कि 17 जुलाई को अफगानिस्तान से तीसरा ट्रांसिट कार्गो शिप चाबहार बंदरगाह के माध्यम से भारत के लिए रवाना हुआ। लगभग बीस दिन पहले चाबहार बंदरगाह के माध्यम से सूखे फलों का अफगानिस्तान का पहला और दूसरा ट्रांसिट कार्गो भारत ने आयात किया था।
इसी बीच, चाबहार बंदरगाह के माध्यम से ही भारतीय गेहूं को अफगानिस्तान ले जाया जा रहा है, अब तक पांच जहाजों को चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान के लिए स्थानांतरित कर दिया गया है। यब सब इस बात की ओर संकेत करता है कि यह ईरान-भारत-अफगानिस्तान त्रिपक्षीय सहयोग विकास परियोजना अपने उद्देश्य के लिए प्रतिबद्ध है।
 

मीडिया के चीनी मिशन


हालिया वर्षों में अमेरिका और चीन के संबंध बेहद तनावपूर्ण रहे हैं। बात चाहे ट्रेड वॉर की हो, या उईगर मुस्लिम उत्पीड़न और हांगकांग में चीन के बढ़ते अतिक्रमण पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का आलोचनात्मक रुख, कोरोना वायरस पर चीन को हर मोर्चे पर घेरने की हो या अमेरिका में फैले दंगों पर चीन की प्रतिक्रिया जैसे अनेक मुद्दों ने दोनों देशों को आमने-सामने खड़ा कर रखा है। इस बीच लड़ाई अब मीडिया के मोर्चे पर भी छिड़ गई है।

 

ट्रम्प प्रशासन ने 22 जून को चार चीनी मीडिया आउटलेट्स को यह कहते हुए फॉरेन मिशन घोषित किया है कि ‘वे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र हैं’। जिनमें चाइना सेंट्रल टेलीविजन, चाइना न्यूज सर्विस, द पीपल्स डेली और द ग्लोबल टाइम्स शामिल है। स्टेट डिपार्टमेंट प्रवक्ता मॉर्गन ऑर्टगस के अनुसार ‘पिछले एक दशक से खासतौर पर शी जिनपिंग के कार्यकाल में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने चीनी समाचार एजेंसियों, चैनलों, अखबारों को चीन के प्रोपगेंडा आउटलेट के रूप में स्थापित किया है और उन पर अधिक व प्रत्यक्ष नियंत्रण है’।

 

चीनी मीडिया के आउटलेट्स को अब अमेरिका में प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा। फॉरेन मिशन एक्ट के अन्तर्गत विदेशी दूतावास पर जो नियम लागू होते हैं, वही नियम इन आउट्लेट्स पर भी लागू होंगे। इन आउट्लेट्स को अब अपने कर्मियों के नाम, व्यक्तिगत सूचना, अमेरिका में चीनी मीडियाकर्मियों की संपंत्तियों का पूरा विवरण और संस्थान के टर्नओवर की पूरी जानकारी तथा रियल एस्टेट होल्डिंग्स की सूची यूएस स्टेट डिपार्टमेंट को नियमित तौर पर रिपोर्ट करनी होगी। साथ ही संयुक्त राज्य में इन आउट्लेट्स के कर्मियों की संख्या कितनी होगी, यह भी स्टेट डिपार्टमेंट तय करेगा।

 

अमेरिका और चीन के बीच मीडिया वॉर पिछले कई महीनों से चल रहा है। अमेरिकी अधिकारियों ने मार्च में कहा था कि ‘बीजिंग में लंबे समय से पत्रकारों को डराया और परेशान किया जा रहा है’ जिस कारण प्रमुख चीनी मीडिया आउटलेट्स के अमेरिकी कार्यालयों में पत्रकारों की संख्या में कमी की जा रही है। जवाब में, चीन ने न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जर्नल और वाशिंगटन पोस्ट के कई अमेरिकी पत्रकारों को चीन से निष्कासित कर दिया।

 

यह दूसरी बार है कि चीनी मीडिया पर अमेरिका ने फॉरेन मिशन एक्ट लगाया गया। इससे पहले फरवरी में चीन की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी सिन्हुआ, चाइना ग्लोबल टेलीविजन नेटवर्क (सीजीटीएन), चाइना रेडियो, चाइना डेली डिस्ट्रीब्यूशन कॉर्पोरेशन और हाई तेअन डेवलपमेंट यूएसए को विदेशी सरकारी अधिकारियों के रूप में माना, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में कार्यरत राजनयिकों के समान नियमों के अधीन हैं। बकौल मॉर्गन ऑर्टगस ‘ये नौ चीनी मीडिया संस्थाएं फॉरेन मिशन एक्ट के अन्तर्गत आती हैं क्योंकि इन पर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना सरकार का नियंत्रण है और यह विदेशी सरकार के स्वामित्व वाली एजेंसियां है’।

 

द न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार हाल के कई वर्षों से, अमेरिकी अधिकारियों द्वारा चीनी समाचार संगठनों की बढ़ती संख्या पर सख्त वीजा पारस्परिकता और अमेरिका में चीनी मीडिया के आउटलेट को विदेशी दूतावास घोषित करने पर चर्चा चलती रही है, क्योंकि बीजिंग ने विदेशी पत्रकारों को जारी वीजा और उनके निवास परमिटों को सीमित करना शुरू कर दिया था।

 

यह पहली बार नहीं है, जब अमेरिका ने अपने हितों के लिए विदेशी आउटलेटों को फॉरेन मिशन घोषित किया हो। इससे पहले भी शीत युद्ध के दौरान फॉरेन मिशन के रूप में सोवियत मीडिया आउटलेटों को नामित किया गया था। यह घटनाक्रम संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच संबंधों को दर्शाता है, जो विभिन्न मुद्दों और विवादों के बाद पैदा हुए हैं, जहां लड़ाई अलग सिरे से लड़ी जा रही है। जो यह संदेश दे रहा है कि चीनी मीडिया पत्रकारिता का नहीं, बल्कि चीन सरकार का प्रतिनिधि है।

अल-जजीरा तेरे देश में

अल-जजीरा भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मीडिया की स्थिति और अल्पसंख्यकों की हालत को लेकर खासा चिंतित रहता है, लेकिन उसके अपने देश में इन मुद्दों की हालत काफी चिंताजनक है। इन सभी मोर्चों पर भारत की स्थिति इस चैनल के अपने देश से काफी बेहतर है। फिर चैनल बात-बात पर भारत को उपदेश कैसे देता है?  शायद भारतीयों ने यह प्रश्न कभी पूछा नहीं कि जनाब आपके देश में क्या हाल है?

 

अपने अस्तित्व से ही अनवरत विवादों में रहा है कतर। कभी एकाधिकारवादी मानसिकता व नीतियों के कारण तो कभी राजनीतिक-कूटनीतिक संकट के चलते। पिछले पांच दशकों से मीडिया व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर दमनकारी कानून के सम्बन्ध में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं व मीडिया संस्थानों द्वारा घोर आलोचनाएं सहनी पड़ रही है। हाल में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया कर्मियों के कार्य को प्रतिबंधित करने वाला एक नया कतरी कानून आया है।

जिसमें “कोई भी कतरी देश-विदेश में झूठी या पक्षपातपूर्ण अफवाह, बयानों, या समाचारों का प्रकाशन-प्रसारण करता है, जो राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचाता है, जनमत को प्रभावित करता है, या राज्य के सार्वजनिक व  सामाजिक निर्णयों की चर्चा व आलोचना सार्वजनिक रूप से करता है तो वह दोषी माना जाएगा”। इस कानून के तहत्त अपराधी को अधिकतम एक लाख कतरी रियाल का जुर्माना और पांच साल तक की जेल होगी।

 

कतर का यह नया फरमान अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है, जिस पर उसने दो साल पहले ही आईसीसीपीआर साल 2018 की बैठक में हस्ताक्षर किए थे। इस पर मध्य-पूर्व देशों समेत अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया चैनलों, अखबारों, वेबसाइट पर खूब चर्चा रही, सिवाए अल-जजीरा के। कतर के अंग्रेजी अखबार अल राया ने अपनी वेबसाइट पर इस कानून को लेकर जब गम्भीर चर्चा की, विस्तृत विश्लेषण किया, तो दबाव के चलते अखबार को लेख हटाने के लिए और माफीनामा जारी करने के लिए मजबूर किया गया। कारण यह खबर अनौपचारिक स्त्रोत के हवाले से थी, जबकि यह फेक न्यूज नहीं थी।  

 

शुरूआती दौर में कतर सरकार द्वारा न्यूज रूम में सेंसर बिठाए रहते थे, जो यह तय करते थे कि सत्तारूढ़ थानी परिवार व उसके निर्णयों के बारे में, क्या प्रकाशित होगा क्या नहीं। कतर संविधान में अनुच्छेद 48 जो प्रेस की स्वतंत्रता, मुद्रण और प्रकाशन कानूनसम्मत होने की बात करता है। वहीं 1979 का प्रेस कानून आज भी कतरी प्रिंट मीडिया को नियंत्रित करता है। यह कानून कहता है कि ‘कतर राज्य के आमीर (प्रधानमन्त्री) की आलोचना नहीं की जाएगी, जब तक कि उनके कार्यालय की ओर से लिखित अनुमति के तहत कोई बयान नहीं दिया जाता है’। इस कानून का उल्लंघन करने वाले पर मानहानि के तहत्त केस दर्ज किया जाता है। कतर में मानहानि के तहत्त अपराधी पर बीस हजार कतरी रियाल का जुर्माना व सात साल की जेल का प्रावधान है। इसीलिए कतर में पत्रकार अक्सर सेल्फ-सेंसर करते हैं, और कुछ भी छापने से डरते हैं, इस भय से कि कहीं उन पर इस कानून का उल्लंघन करने का आरोप न लगाया जाए। 

 

कतर ने ऐसा कानूनी ढांचा तैयार किया हुआ है, जो सत्ताधारी परिवार व उसके निर्णयों की आलोचना या असंतोष को प्रकट करने की स्वतंत्रता को कुचल कर रख देता है। साल 2016 में दोहा न्यूज को भी यही भुगतना पड़ा। कतर में लोकप्रिय अंग्रेजी वेबसाइट दोहा न्यूज, जो अक्सर संवेदनशील राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करती थी, उस पर अनिश्चितकालीन बैन लगा दिया गया। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के अनुसार दोहा न्यूज वेबसाइट के कर्मचारियों का कहना है कि यह सेंसरशिप पूर्वाग्रह के चलते लगाया गया है।

 

कतरी संविधान विरोधाभासी है। एक ओर अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता की बात करता है, तो दूसरी ओर राज परिवार व आमीर की आलोचना करने पर प्रतिबंध लगाता है। कतरी कानून सत्ताधारी परिवार को लेकर कितना संवेदनशील है। इसे अरब स्प्रिंग मूवमेंट के दौरान घटी एक घटना से समझा जा सकता है। यह वह दौर था जब खाड़ी देशों में एकाधिकारवादी मानसिकता, सत्तारूढ़ परिवारों के खिलाफ आक्रोश था, अपने अधिकारों और आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी। साल 2010 में कतरी कवि मोहम्मद अल-अजमी ने मिस्त्र के काहिरा में अपने अर्पाटमेंट में कुछ लोगों के बीच सत्तारूढ़ थानी परिवार की आलोचना करने वाली एक कविता सुनाई, जो यू-ट्यूब के जरिए काफी वायरल हुई। लोगों ने वीडियो को काफी पसन्द किया। जिसके बाद 2011 में मोहम्मद अल-अजमी को गिरफ्तार किया गया और आरोप लगाया कि सरकार को उखाड़ फेंकने और सार्वजनिक रूप से आमीर की आलोचना करना अपराध है। परिणामस्वरूप अल-अजमी को साल 2012 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। साल 2013 में अपील करने के बाद अदालत ने सजा को घटाकर 15 साल कर दिया था। अल-अजमी की रिहाई के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कैंपेन चलता रहा, जिसके बाद दबाव के चलते चार साल बाद अजमी को बशर्ते रिहा करना पड़ा। इसके बाद कतर की न्यायपालिका में खामियों की आलोचना करने पर, अल-अजमी के वकील, नजीब अल-नूमी को निशाना बनाना जारी रखा। फरवरी 2017 में, सरकार ने अल-नूमी पर मन-मुताबिक यात्रा करने पर प्रतिबंध लगा दिया।

 

खाड़ी देशों में 10 में से 9 युवा किसी न किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग करते हैं। यह खुलासा ऑरेगोन विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं संचार स्कूल ने अपनी रिसर्च में किया है। कतर में इन्टरनेट पर भी सेल्फ-सेंसरशिप की मंशा वाला साइबर अपराध कानून 2014, जो अरब स्प्रिंग मूवमेंट के बाद लाया गया। जिसके अन्तर्गत ‘इंटरनेट पर झूठी खबर के प्रसार को अपराधी बताता है और जो सामाजिक मूल्यों, सिद्धांतों का उल्लंघन करता है या दूसरों की निंदा या अपमान करता है, ऑनलाइन आपत्तिजनक पोस्ट करने’ के दोषी को अधिकतम पांच लाख कतरी रियाल और तीन साल जेल का प्रावधान है।

 

 

सेल्फ-सेंसरशिप के एक उदाहरण के रूप में, एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कतर में होने वाले फीफा वर्ल्ड कप 2022 के लिए प्रवासी मजदूरों के उत्पीडन पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें पाया गया कि ज्यादातर स्थानीय मीडिया ने प्रवासी मजदूरों के विषय को कवर ही नहीं किया।

 

कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान एमनेस्टी इंटरनेशनल ने आरोप लगाए हैं कि कतर में प्रवासी मजदूरों को अवैध रूप से निष्कासित किया गया। एमनेस्टी के मुताबिक ‘मार्च 2020 में सैकड़ों लोगों को कतर पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया, जिसमें से 20 नेपाली पुरुषों का साक्षात्कार लिया। उसमें अधिकांश लोगों ने कहा कि उन्हें यह कहकर पुलिस ले गई कि उनका कोरोना टेस्ट किया जाएगा और स्क्रीनिंग के बाद वे अपने घरों को लौट सकते हैं। जबकि उन्हें केंद्रों पर नजरबंदी के लिए ले जाया गया, और नेपाल लौटने से पहले कई दिनों तक अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया था’।

 

कतर में कफाला के अनुसार प्रवासी मजदूरों के साथ व्यवहार किया जाता रहा है। कफाला इस्लामिक प्रणाली है, जो प्रवासी मजदूरों के तमाम अधिकारों को मालिक के अधीन मानती है। जो प्रवासी मजदूर को गुलाम बना देती है। इसी तर्ज पर कतर में प्रवासी मजदूरों के पासपोर्ट उनके मालिक जब्त कर लेते हैं, उचित वेतन नहीं देते हैं, जोकि प्रवासी श्रमिक अधिकारों का उल्लंघन है।

 

जो पत्रकार व शोधकर्ता प्रवासी श्रमिकों के हालातों की जांच करने का प्रयास करते हैं, कतर में उनकी गिरफ्तारी का इतिहास रहा है। गल्फ सेन्टर फॉर ह्यूमन राइट्स 2019 की रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2015 में जर्मन प्रसारक डब्लूडीआर और एआरडी के लिए विश्व कप के आसपास होते भ्रष्टाचार पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने वाली टीम को गिरफ्तार कर लिया और उनके उपकरण को जब्त कर लिया।

15 मई 2016 को कतरी अधिकारियों ने बीबीसी के एक पत्रकार और उसके समूह को प्रवासी श्रमिकों की परिस्थितियों को कवर करने पर हिरासत में लिया।

16 मई 2016 को, डेनिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के पत्रकार जो प्रवासी श्रमिकों के फुटबॉल मैच को कवर कर रहे थे। को, हिरासत में लिया गया था और उनके फुटेज को छीन लिया गया था।

दोहा न्यूज पर बैन लगने से पूर्व कतरी सरकार ने बाल यौन शोषण के एक मामले को कवर करने के लिए साइबर कानून के तहत्त दोहा के संपादकों में से एक को हिरासत में ले लिया।

2016 में ही कतरी अधिकारियों ने जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ फॉरेन सर्विस के एक अमेरिकी छात्र को हिरासत में लिया जो कतर में प्रवासी श्रमिकों की परिस्थितियों का अध्ययन करने के लिए आया था।

 

कतर पर आतंकवाद का समर्थन करने के आरोप भी समय-समय पर लगते रहे हैं, मध्य-पूर्वी देशों समेत कई अन्य देश अल-कायदा और कतर के बीच संबंधों की बात करते हैं। अल-जजीरा के एक पूर्व पत्रकार, योसरी फॉउदा ने भी अपनी किताब ‘इन दि वे ऑफ हार्मः फ्रॉम दि स्ट्रॉन्गहोल्डस् ऑफ अल-कायदा टू दि हार्ट ऑफ आईएसआईएस’ में बताया है कि कैसे पूर्व कतरी अमीर, शेख हमद बिन खलीफा अल थानी, ने अल-कायदा के साथ अपने मुलाकात के वीडियो रिकॉर्डिंग प्राप्त करने के लिए एक मिलियन यूएस डॉलर का भुगतान किया। फाउदा के अनुसार 2002 में हमद बिन खलीफा ने छुपकर अल-कायदा के सदस्यों के साथ मुलाकात की थी।

इसी तरह  अपनी पुस्तक ‘इनसाइड अल-कायदा’ में, लेखक रोहन गुणरत्न ने लिखा: ‘यह निश्चित है कि कतर में शाही परिवार का एक सदस्य अल-कायदा संगठन का समर्थन करता है’।

एबीसी न्यूज ने अमेरिकी खुफिया अधिकारियों के हवाले से कहा कि ओसामा बिन लादेन, सत्तारूढ़ परिवार के सदस्य अब्दुल्ला बिन खालिद अल-थानी से मिलने 1996 से 2000 के बीच में कतर गया था।

 

कतर में गहराते मानवाधिकार व प्रवासी मजदूर संकट, मीडिया की बद्दतर स्थिति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करते कानून, सेल्फ-सेंसरशिप नीतियां, आतंकवाद को पनाह देने वाले जैसे गम्भीर मुद्दों पर अल-जजीरा चुप्पी साधता रहा है।  

सत्तारूढ़ परिवार पर यह आरोप बार-बार लगता रहता है कि उसने सभी मंत्रालयों में अपने परिवार व सगे-संबंधियों को बिठा रखा है। कतर के सबसे बड़े मीडिया संस्थान अल-जजीरा का बोर्ड अध्यक्ष शेख हमद बिन थमेर अल थानी, सत्तारूढ़ परिवार से ही है, जो इसे पूर्णरूप से  नियंत्रित करता है।

 

मीडिया संस्थान के नाम पर अल-जजीरा थानी परिवार का राजनीतिक टिप्पणीकार है। कतरी सरकार अल-जजीरा के बैनर तले अपने विरोधियों के विरुद्ध मीडिया कैम्पेन चलाता आया है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर अपनी छवि बेहतर दिखाने का प्रयास करता रहा है, जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। कतर शासित मीडिया अल-जजीरा की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी है, और पूर्वाग्रह से कितना ग्रसित है, यह तथ्य भी खुलकर सामने आ रहे हैं।

विज्ञापन सहारे पाकिस्तान

5 अगस्त 2019 भारत के लिए ऐतिहासिक दिन रहा, तो पाकिस्तान का मानो कुछ औचित्य ही न रहा। जम्मू-कश्मीर व लद्दाख, दो केन्द्र शासित प्रदेश बनने के साथ, पाकिस्तान ने मानवाधिकार उल्लंघन, अल्पसंख्यक अत्याचार, सेकुलरिज्म इत्यादि का राग, रात-दिन अलापना शुरू कर दिया। इस घटनाक्रम को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग से लेकर  विभिन्न इस्लामिक व अन्य देशों के समक्ष रखने की पुरजोर कोशिश की, मगर यहां पाकिस्तान की तमाम उम्मीदों पर पानी फिर गया।

पाकिस्तान को यदि कुछ राहत मिली तो वह विदेशी मीडिया से, भले ही वह प्रोपगेंड़ा आधारित खबरों और भ्रामक विज्ञापन के द्वारा ही सही। हालांकि यह हैरानी वाली बात नहीं है, क्योंकि विदेशी मीडिया अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर, भारत की नकारात्मक छवि बनाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहता है।

इसका ताजा उदाहरण दि न्यूयार्क टाइम्स अखबार में 27 सितम्बर को पूरे पेज पर प्रकाशित कश्मीर आधारित एक विज्ञापन है। अप्रत्यक्ष रूप से पाक समर्थित यह विज्ञापन तथ्यात्मक रूप से पूर्णतः गलत और भ्रामक है, जिसके सहारे पाकिस्तान ने पूरे विश्व में कश्मीर का रोना रोया।

यह विज्ञापन इस बात की तस्दीक करता है कि पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से कश्मीर मुद्दे को लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर, इस बार भी मुंह की खानी पड़ी है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं, और इस्लामिक संगठन व देश, इस मुद्दे पर पाकिस्तान के पक्षकार नहीं रहे। अपने बुरे दौर से गुजर रहा पाकिस्तान, जहां अराजकता, अंदरूनी कलह, बेरोजगारी, कर्जदारी, कमजोर अर्थव्यवस्था, के चलते कोई ठोस कदम उठाने की क्षमता न होने के कारण पाक को अब, भ्रामक विज्ञापनों व खबरों का ही सहारा है। जिसके जरिए पाकिस्तान खुद को और दुनिया को यह दिखाने की कोशिश में लगा है कि वह लड़ रहा है।

प्रत्यक्ष रूप से यह विज्ञापन इन्टरनेशनल ह्यूमैनिटेरियन फाउन्डेशन द्वारा प्रायोजित था। जो मुख्य रूप से केन्या, इंडोनेशिया और थाईलैंड में काम करती है। यह वही फाउन्डेशन है, जो पहले भी भारत के खिलाफ मुहिम चला चुकी है।

हाउडी मोदी कार्यक्रम के समय 22 सितंबर को अनुच्छेद 370 व 35ए हटाने के विरोध में, हॉस्टन के एनआरजी स्टेडियम में, भारत विरोधी विज्ञापन व अभियान के मुख्य आयोजक के रूप में, यह संस्था सामने आई थी। विज्ञापन के माध्यम से कश्मीर रैली के नाम पर ‘गो बैक मोदी’ स्लोगन का खूब प्रचार-प्रसार किया गया। इस तरह के विज्ञापन दर्शाते हैं कि पाकिस्तान जो हर बात पर परमाणु बम की धमकी देता रहता था, आज इस कदर स्वयं को सांत्वना दे रहा है कि वह अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत से, विज्ञापनों के जरिए लड़ाई लड़ रहा है।

चूंकि जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत हमेशा से स्पष्ट रहा है कि यह हमारा आंतरिक मामला है, और किसी भी देश को इस पर हस्तक्षेप करने का न तो किसी प्रकार का कोई अधिकार है और न ही आवश्यकता। इसीलिए पाकिस्तान प्रत्यक्ष रूप से भारत पर किसी तरह का दबाव बना पाने में असफल रहा है, मजबूरन पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री इमरान खान ने विदेशी मीडिया की तरफ रुख अपनाकर भारत के खिलाफ माहौल बनाने का हरसंभव प्रयास किया है। दि न्यूयॉर्क टाइम्स में 30 अगस्त को इमरान खान का प्रकाशित लेख इसी बात का एक उदाहरण मात्र है। जिसमें जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, व स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए, भारत से शांतिपूर्ण तरीके से वार्तालाप की कोशिश, जैसी खोखली बातों का जिक्र किया गया है।

विदेशी मीडिया ने अपने एजेंड़े के तहत भारत की नकारात्मक छवि बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर पर, पूरे विश्व को भ्रमित करने की भरपूर कोशिश की है। दि गार्डियन बताता है कि जम्मू-कश्मीर पर फैसला संविधान के तहत नहीं बल्कि इरादे और विचारधारा के द्वारा दिया गया एक बयान है। वहीं दि न्यूयॉर्क टाइम्स इसे कश्मीर की स्वायत्तता मिटाना बताता है। अलजजीरा इस फैसले के दिन को काला दिन मानता है। यही रूख बीबीसी ने भी अपनाया। यह वही विदेशी मीडिया है जो, पाक समर्थित आतंकवाद से ग्रसित भारत, बलोचिस्तान पर हो रहे अत्याचार, उईघर मुस्लिमों के चीनीकरण पर चुप्पी साध के बैठा रहता है। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है, जब विदेशी मीडिया ने भारत के प्रति पूर्वाग्रह और पक्षपाती रूख न अपनाया हो। भारत के विरूद्ध इस तरह के कुकृत्य, विदेशी मीडिया की कुंठा को साफतौर पर दर्शाता है।

शक्ति का आकाशीय मिशन

27 मार्च 2019 भारत के लिए ऐतिहासिक दिन रहा, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र को सम्बोधित कर बताया कि ‘मिशन शक्ति के तहत भारत के वैज्ञानिकों द्वारा 3 मिनट के भीतर लो अर्थ ऑरबिट में 300 किलोमीटर दूर, पूर्वनिर्धारित ‘लाइव सैटेलाइट’ को, एंटी-सैटेलाइट मिसाइल द्वारा मार गिराया है’। डीआरडीओ के तकनीकी मिशन की बदौलत ‘मिशन शक्ति’ के सफल परीक्षण के साथ भारत अंतरिक्ष महाशक्ति के रूप में अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथा देश बन गया। ‘फर्स्ट मार्डन वॉर’ यानि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान संचारीय युद्ध ने दस्तक दी थी। जो संकेत था, आने वाले समय में ‘इन्फॉरमेशन वॉर’ का। समय बीता, नई तकनीक इजाद हुई और आज सूचना का दौर आ गया, आधुनिक समय में सूचना और संचार सबसे बड़ा और मारक हथियार है। संचार के बिना अब वर्तमान और भविष्य की कल्पना करना अमावस में चांद ढूंढने जैसा है। कोई भी देश तभी प्रगति करता है, जब वह सुरक्षित हो। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अब भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु जल, थल और वायु से लेकर अब अंतरिक्ष में भी अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। किसी भी देश के लिए युद्ध के समय संचार अहम भूमिका निभाता है। वर्तमान समय में जितनी जरूरत भूमिगत हथियारों की महसूस हो रही है, उससे कहीं अधिक आज और आने वाले कल को सशक्त संचार माध्यमों के निर्माण और उनकी सुरक्षा की होगी। इस जरूरत को पूरी करता, एंटी-सैटेलाइट मिसाइल एक ऐसा हथियार है, जो युद्ध के दौरान, दुश्मन देशों के संचार और सैन्य उपग्रहों को बाधित करने की क्षमता रखता है और उनका उपयोग अपने सैनिकों के साथ संचार करने से रोकने के लिए किया जा सकता है। इसका इस्तेमाल सैन्य टुकड़ी या आने वाली मिसाइलों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी हासिल करने के लिए भी किया जा सकता है। एंटी सैटेलाइट मिसाइल शत्रु देश के लो ऑरबिट के उपग्रहों पर ‘पेलेट क्लाउड’ हमले कर सकता है। ए-सैट, स्पेस सिस्टम पर साइबर हमले, इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक पल्स (ईएमपी) विस्फोट उपकरण, लेजर आधारित हथियार और दुश्मन के सैन्य अभियानों को नष्ट कर सकता है। ए-सैट में अन्य उपग्रहों के विनाश के लिए लक्षित मिसाइलें शामिल होती है, साथ ही यह अंतरिक्ष में फैले अपने उपग्रहों की पुख्ता सुरक्षा करने में भी अहम भूमिका निभाता है। हालांकि, मिशन शक्ति के सफल परीक्षण की घोषणा करते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को आश्वासन दिया कि ‘भारत ने एंटी-सैटेलाइट मिसाइल क्षमता प्राप्त की है, यह किसी भी देश के विरूद्ध नही है, यह केवल भारत की सुरक्षा के लिए है। भारत हमेशा अंतरिक्ष में शस्त्रीकरण और बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ का विरोध करता रहा है, और यह परीक्षण किसी भी स्थिति में इस नीति को नहीं बदलता है। आज का परीक्षण किसी भी अंतर्राष्ट्रीय कानून या संधि व समझौतों का उल्लंघन नहीं करता है। भारत आधुनिक तकनीक का उपयोग देश के नागरिकों की सुरक्षा व कल्याण के लिए उपयोग करेगा और हमारा सामरिक उद्देश्य शांति बनाए रखना है’। भारत की इस अभूतपूर्व सफलता पर कई देशों ने अपनी प्रतिक्रिया दी। चीन ने सतर्कतापूर्ण प्रतिक्रिया देकर कहा कि ‘हम आशा करते हैं कि सभी देश अंतरिक्ष में दीर्घकालिक शांति एवं स्थिरता कायम रखने के लिए वास्तविक कदम उठाएंगे’। मिशन शक्ति की सफलता पर पडोसी देश पाकिस्तान ने कथित रूप से कहा कि ‘अंतरिक्ष मानव जाति की साझी विरासत है और हर देश की जिम्मेदारी है कि वह उन कार्यों से बचे, जिनसे इस क्षेत्र का सैन्यीकरण हो’। इंडिया टुडे के मुताबिक पाक ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से भारत की इस कार्रवाई की निंदा करने और अंतरिक्ष को सैन्यीकरण के बारे में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को मजबूत करने की अपील की। भारत की सफलता से पाकिस्तान की छट-पटाहट, इस बयान से साफ देखी जा सकती है। रूस ने इस परीक्षण पर सकारात्‍मक रुख दिखाते हुए भारत के साथ संयुक्‍त भागीदारी की पेशकश की। भारत की सफलता के बाद रूस की ओर से जारी बयान में कहा गया कि अंतरिक्ष क्षेत्र में हथियारों की होड़ को रोकने व स्‍थाई शांति के लिए बहुपक्षीय वैश्विक पहल में राजनीतिक दायित्‍व खासा महत्‍वपूर्ण है और रूस इसमें भारत की भागीदारी का समर्थन करता है। अपने बयान में रूस ने अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ रोकने पर भी जोर दिया। अमेरिका का भारत के इस परीक्षण पर दोहरा चरित्र देखने को मिलता है, एक ओर अमेरिका कहता है कि ‘दोनों देश मजबूत सामरिक साझेदारी के तौर पर अंतरिक्ष एवं विज्ञान के क्षेत्र में साझा हितों के लिए साथ मिलकर काम करते रहेंगे और अंतरिक्ष में सुरक्षा को लेकर गठजोड़ सहित अन्‍य तकनीकी सहयोग जारी रखेंगे’। वहीं दूसरी ओर नासा मिशन शक्ति की सफलता को ‘टेरिबल थिंग’ (भयानक बात) करार देकर कहता है कि ‘भारत द्वारा नष्ट किए गए उपग्रह से अंतरिक्ष की कक्षा में 400 टुकड़ों का मलबा हुआ, जिससे इंटरनेशनल स्पेस सेंटर पर खतरा पैदा हो गया है’। नासा के इस बयान पर डीआरडीओ की तरफ से कहा गया कि ‘यह परीक्षण मलबे को ध्यान में रखते हुए किया गया है और 45 दिनों में यह मलबा अंतरिक्ष से क्षरित होकर धरती पर गिर जाएगा’। साथ ही डीआरडीओ ने यह भी कहा कि ‘चीन के दो परीक्षणों का मलबा अभी भी अंतरिक्ष में बह रहा है’। अब सवाल उठता है कि नासा को 2007 में टेरिबल नही लगा, जब यही परीक्षण चीन ने किया था? एक भारतीय होने के नाते यह गर्व करने वाली बात है कि एपीजे अब्दुल कलाम द्वीप लॉन्च कॉम्पलेक्स से डीआरडीओ के बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस इंटरसेप्टर मिसाइल के सहयोग से ‘स्वदेशी तकनीक’ पर आधारित ‘एंटी सैटलाइट मिसाइल’ का उपयोग कर पहली बार में ही मिशन शक्ति का सफल परीक्षण हुआ। इस सफल परीक्षण के साथ शत्रु देशों को स्वतः ही संदेश जाता है कि भारत गीदड़ भभकी से डरने वाला नही है, और भारत अब पूर्ण रूप से, अंतरिक्ष में भी अपनी पुख्ता सुरक्षा की क्षमता रखता है। बहरहाल यह तो शुरूआत है, मेक इन इंडिया की, समृद्ध भारत की, सशक्त भारत की, सुरक्षित भारत की और आधुनिक तकनीक के साथ चलने वाले भारत की। यही तो परिकल्पना है नए भारत की।

साइबर वर्ल्ड में जिहाद 3.0

पिछले सात दशकों में आतंकवाद की जो खेप पैदा हुई है उसके लिए वैचारिक स्तर पर भी काफी प्रयास किए गए हैं। जिहाद अलग-अलग स्तरों से होकर, अब बडे पैमाने पर आतंकी फैक्ट्री को गढ़ने का काम इंटरनेट कर रहा है लिहाजा जिहाद का मीडिया नेटवर्क खूब फल-फूल रहा है। इंटरनेट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के जरिए वैचारिक जिहाद ने दस्तक दे दी है, जो साइबर वर्ल्ड में जिहाद 3.0 है।

यहां पर जिहाद को तीन चरणों में वर्गीकृत किया गया है, प्रथम चरण यानि जिहाद 1.0 जब घोड़ों की सवारी कर तलवारें, चाकू हाथ में लिए जिहादी आतंकवाद को फैलाया जाता था। भारत पर मुस्लिम आक्रमण और फिर हिन्दुओं की हत्या, लूट-पाट, बलात्कार, मतान्तरण नाना प्रकार के अत्याचार, कालान्तर में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें से मुहम्मद बिन कासिम का उदाहरण हमारे सामने आता है, जिसने भारत में मंदिरों को धवस्त करवाया, मूर्तियां तोड़ी गई, महलों को लूटा गया। देवल पर आक्रमण के बाद, ब्राह्मणवाद में हजारों की संख्या में हिंदुओं का नरसंहार किया और उनकी महिलाओं और बच्चों को अरब बाजारों में बेचा गया।

द्वितीय चरण, जिहाद 2.0 जब तकनीकी रूप से सक्षम हुआ तो आधुनिक टैंकों, विमानों, गाड़ियों, की सवारी कर आतंकी मनसूबों को अंजाम दिया गया जो आज भी जारी है। इसका एक बड़ा उदाहरण 9/11 अमेरिका पर आतंकी हमला, जिसमें वर्ल्ड ट्रेड सेंटर, न्यूयॉर्क स्थित ट्विन टावर्स के साथ अल-कायदा आतंकवादियों ने 4 जेट विमान अपहरण कर 2 विमानों को टकरा दिया, जिसमें 90 देशों के लगभग 3000 से ज्यादा लोग मारे गए थे।

इंटरनेट के विकास के बाद और सोशल मीडिया के उभार के साथ जिहादी आतंकवाद अब सोशल मीडिया की सवारी कर रहा है। आतंकी संगठनों के विश्व भर में जिहाद फैलाने के लिए विभिन्न ऑनलाइन मैग्जीन, वेबसाइट, फेसबुक आईडी-पेज, फाइल शेयरिंग पोर्टल, ब्लॉग अकाउंट, ट्विटर अकांउट, यू-ट्यूब चैनल व सोशल मीडिया के अन्य प्लटफॉर्म पर सक्रिय हैं, जो जिहाद का तृतीय चरण यानि जिहाद 3.0 है। आज के समय में यह ज्यादा खतरनाक व घातक है क्योंकि इसके जरिए वैचारिकी रूप से जिहादी आतंकवाद फैलाया जा रहा है। परिणामस्वरुप कई लोग जिहादी विचारधारा से प्रभावित होकर आतंकी संगठनो का दामन थाम रहे हैं तो कई अप्रत्यक्ष रूप से आतंकी गतिविधियों में आए दिन संलिप्त पाए जाते हैं। पहले आतंक के लिए वैचारिकी रूप से, जिहाद के लिए प्रेरित करना एक चुनौती जैसी थी, मगर सोशल मीडिया के उभार के बाद यह चुनौती, जिहादियों के लिए अवसर के रूप बदल गई। अवसर इसलिए भी बना क्योंकि सोशल मीडिया का बेहतर उपयोग तो शिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है, और शिक्षित व्यक्ति को वैचारिकी रूप से जिहाद के लिए प्रेरित करना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। आज समाज शिक्षित है, जो अमानवीय कुकृत्यों के प्रति सजग है, ऐसे में जिहाद 3.0 को अशिक्षा का परिणाम नहीं माना जा सकता है बल्कि यह परिणाम है जिहादी आतंकवाद, कट्टरवाद की लगातार खुराक का। यह परिणाम है गैर-मुस्लिमों के खिलाफ नफरत भरे विचार तैयार करने का।

जिहाद 3.0 का परिणाम कितना घातक हो सकता है, इसे केरल की एक घटना के माध्यम से समझा जा सकता है। नवंबर 2017 में केरल पुलिस ने आशंका जताई थी कि केरल में एक साल के भीतर करीब 100 लोगों ने इस्लामिक स्टेट (आई.एस.) को ज्वाइंन किया। जिसमें पुलिस ने दावा किया था कि उनके पास संबंधित 100 लोगों के खिलाफ 300 से ज्यादा ऑडियो क्लिप, व्हाटसऐप मैसेज, टेलीग्राम मैसेज ऐप व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से आई. एस. में शामिल होने के पुख्ता सबूत हैं। इन ऑडियो क्लिप में एक महिला का ऑडियो क्लिप भी शामिल था, जिसमें महिला ने अपने पति की मृत्यु के बारे में बताया, जो आई.एस.आई.एस. में शामिल हुआ था। ऐसी कई घटनाएं हैं जो भारत समेत पूरे विश्व में हो रही हैं, ये संकेत है जिहाद 3.0 का।

साइबर वर्ल्ड में जिहाद 3.0 का एक उदाहरण दाबिक ऑनलाइन मैग्जीन है, जिसका पहला प्रकाशन 5 जुलाई 2014 रमजान के समय हुआ। इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड द लेवेंट द्वारा संचालित इस मैग्जीन का नाम दाबिक इसलिए है, क्योंकि इनके अनुसार ‘दाबिक शहर में एक चिंगारी जली हुई है और इसकी गर्मी अल्लाह की अनुमति से तीव्र हो जाएगी और तब तक तीव्र रहेगी जब तक क्रूसेडर आर्मी दाबिक में जल नहीं जाती’। मैग्जीन का पहला अंक द रिटर्न ऑफ खिलाफा है। मैग्जीन के अनुसार ‘खिलाफत की स्थापना का लक्ष्य हमेशा एक रहा है वह है, इस सदी के जिहाद का पुनरूथान’, यानि जिहाद 3.0। दाबिक मैग्जीन का एक अंक जस्ट टेरर नाम से है। इस आर्टिकल में कम्युनिस्टों के खिलाफ अफगान जिहाद समाप्त होने के बाद बंगाल यानि बांग्लादेश में जिहाद का उदय कैसे हुआ, को सिलसिलेवार तरीके से बताया गया है और लिखा है कि ‘बंगाल के मुसलमानों के बीच सैकड़ों वर्षों से चली आ रही आशा के बीच जिहाद की एक नई रोशनी पैदा हुई जो यूरोपीय उपनिवेशवाद और हिंदू सांस्कृतिक आक्रमण दोनों के प्रभावों के कारण शिर्क और बिद’अह में डूब गई थी’। भारत के प्रति जिहादी घृणित मानसिकता का अंदाजा आप इन चंद लाइनों से लगा सकते हैं, आर्टिकल में लिखा है कि ‘तथाकथित मुस्लिम भाईचारा का भारतीय उपमहाद्वीप, मूर्खता से यह सोचता है कि तौहीद की पुकार, जिहाद और खिलाफत को, शहादत से कुचला जाएगा। वे भूल गए थे कि इस उम्मा के पेड़ (जिहाद के पेड़) को पानी नहीं दिया जाता है, उसके शहीदों का खून दिया जाता है’। दाबिक के कुल 15 अंक है, आखिरी अंक 31 जुलाई 2016 का है। इसके बाद यह मैग्जीन बंद कर दी गई।

आई.एस.आई.एल. की एक और ऑनलाइन मैग्जीन दर-अल-इस्लाम, जिसका पहला अंक 23 दिसंबर 2014 को प्रकाशित हुआ। मैग्जीन के कुल 10 अंक हैं, और भाषा फ्रेंच। मैग्जीन में फ्रांस और पेरिस में आतंकवादी हमलों की प्रशंसा करने वाले लेख शामिल हैं।

अगस्त 2016 में इस्लामिक स्टेट का प्रमुख रणनीतिकार अबु मुहम्मद अल-अदनानी के मारे जाने के बाद दाबिक और दर-अल-इस्लाम मैग्जीन का स्थान ऑनलाइन मैग्जीन रूमियाह (रोम) ने ले लिया। रूमियाह नाम इसलिए है क्यूंकि इनके अनुसार ‘हदीस में मुहम्मद ने कहा है कि मुस्लिम, कुस्तुंतुनिया (कॉन्सटेंटिनोपल) और रोम (रोमन साम्राज्य) को जीतेंगे’। रूमियाह के कुल 13 अंक है। मैग्जीन में गैर-मुस्लिमों के खिलाफ हमलों को उचित बताते हुए, काफिरों के छोटे-बड़े समूहों पर किन चाकूओं से कैसे हमला किया जाए, इसका विस्तृत विवरण मैग्जीन में मिलता है। मैग्जीन में एक आंकड़े के मुताबिक ‘बंगाल यानि बांग्लादेश व उसके आस-पास के क्षेत्रों में हिजरी कैलेण्डर के मुताबिक 1436-1437 के बीच 42 प्रतिशत हिंदू व बौद्ध लोगों की हत्याएं चाकू से की गई’। दूसरे अंक में लिखा है कि ‘काफिरों का खून तुम्हारे लिए हलाल है इसलिए इसे बहाओ’। मैग्जीन के तीसरे अंक में महमूद गजनवी द्वारा भारत पर आक्रमण का विस्तृत विवरण है। इस अंक में लिखा है कि ‘मूर्तियों को तोड़ना और उनके आदर्शों को जलाना जिहाद का एक बड़ा पहलू है जिसे सभी नबियों ने प्रचलित किया था और गजनवी ने भारत के खिलाफ जिहाद छेड़ने, मूर्तियों को नष्ट करने व भारतीय भूमि पर इस्लाम फैलाने के लिए खुद को समर्पित किया’। महमूद का भारत पर आक्रमण से लेकर सोमनाथ मंदिर लूटने व मूर्तिभंजन का गुणगान मैग्जीन में किया गया है।

आतंकी संगठनों द्वारा संचालित ऑनलाइन मैग्जीन इस्तोक, कुस्तुंतुनिया, इन्स्पाइर, इस तरह की सभी मैग्जीन आपत्तिजनक तो हैं ही साथ ही जिहादी, मानवता के कितने बड़े भक्षक हैं, और गैर-मुस्लिमों के प्रति घृणा व कुकृत्यों को इन मैग्जीन में साफ देखा जा सकता है।

इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग करके जिहाद वैचारिक स्तर पर अपने पांव पसार रहा है, शारीरिक जिहाद फैलाने वालों को तो सेना मुठभेड़ कर मार गिरा रही है। वैचारिक आतंकवादियों को, जिहादियों को, वैचारिक स्तर पर सोशल मीडिया के जरिए ढेर किया जा सकता है, इसीलिए वैचारिक जिहाद का सोशल मीडिया पर तीव्र प्रतिकार होना आवश्यक है, और यह भी देश सेवा ही है।

चुनावी भाषा की चकल्लस

व्यक्ति अपनी मातृभाषा अथवा परिवेश की भाषा में सबसे सहज व स्वतंत्र महसूस करता है और  किसी अन्य भाषा के मुकाबले क्रिएटिव होने की सम्भावना भी सर्वाधिक होती है। संवाद और संचार की दृष्टि से मातृभाषा अहम भूमिका निभाती है, संवाद और संचार तभी प्रभावी होगा, सफल होगा, जब भाषा का माध्यम मातृभाषा होगी। मातृभाषा व्यक्ति के दैनिक जीवन में अहम रोल निभाती है, और अगर बात चुनाव की हो, राजनीति की हो, तो भाषा का महत्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि आज का दौर लोगों को आश्वस्त कर उनका मत प्राप्त करने का है, और अपनी भाषा में लोग जल्दी आश्वस्त भी होते हैं।

राजनीति, और मातृभाषा एक-दूसरे के पूरक हैं। भारतीय संदर्भों में इसका महत्व पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का वह बयान है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘मेरी हिंदी अच्छी नहीं है, इसलिए प्रधानमंत्री से ज्यादा बेहतर पद राष्ट्रपति का है’। हालांकि इस बयान के बाद एक इंटरव्यू में प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ‘मैंने कहा था कि प्रधानमंत्री का पद आम आदमी के करीब होता है, उसे आम लोगों से संवाद करना होता है और हिंदी आम आदमी की भाषा है, ऐसे में प्रधानमंत्री के पद पर बैठने वाले शख्स का हिंदी में जबरदस्त दखल होना चाहिए, तभी वह आम लोगों से बेहतर संवाद स्थापित कर पाएगा’। राजनीति में हिंदी भाषा के लिहाज से प्रणब मुखर्जी का यह बयान कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं।

महात्मा गांधी जनसंपर्क हेतु हिंदी भाषा को ही ज्यादा उपयुक्त मानते थे। गांधी जी का मानना था कि ‘वास्तव में अपने लोगों के दिलों तक तो हम अपनी भाषा के द्वारा ही पहुंच सकते हैं’। राजनीति में तो यह बात बहुत मायने रखती है।

2014 के लोकसभा चुनावों के दौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी भाषा के लिहाज से लोकप्रिय राजनेता हैं। नरेंद्र मोदी के धाराप्रवाह हिंदी भाषणों को नजरअंदाज करने की संभावना कम ही रहती है, हां यह बात अलग है कि आप उनसे सहमत हों या असहमत। पीएम मोदी ने वर्तमान समय में भारत समेत विश्व में हिंदी भाषा में अपने भाषणों के जरिए, संवाद के जरिए, हिंदी भाषा की लोकप्रियता को और बढ़ाया है, साथ ही स्वयं की लोकप्रियता के कारणों में से एक कारण यह भी है कि वे अक्सर अपनी चुनावी रैली में परिवेश की भाषा का उचित उपयोग करते हैं, जिस कारण जनता भावनात्मक रूप से जुड़ती है। आप इसे रणनीति कह सकते हैं।

भाषा एक उपकरण के तौर पर संचार, शिक्षा, सामाजिक एकीकरण और विकास के लिए उपयोग में तो लाई ही जाती है साथ ही भाषा पहचान का अभिन्न हिस्सा है, जो विभिन्न भाषाई व  सांस्कृतिक विविधताओं को बनाये रखती है। बच्चे की पहली भाषा उसकी मातृभाषा होती है, मातृभाषा में मौलिक चिन्तन की संभावना सर्वाधिक है, बच्चे का दृष्टिकोण, सोचने की शक्ति, तर्क की शक्ति, किसी अन्य भाषा के मुकाबले अधिक होती है। बच्चे के विकास के लिए शिक्षा महत्वपूर्ण है और संपूर्ण विकास के लिए मातृभाषा। यही बात युवाओं पर भी लागू होती है। गांधी जी भी शिक्षा के माध्यम के लिए मातृभाषा को ही सर्वोतम मानते थे। उनका कथन था ‘किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना, मैं राष्ट्र का दुर्भाग्य मानता हूं’। गांधी जी किसी भाषा का विरोध नहीं करते थे, उनका कहना था कि ‘भाषाएं खूब पढ़ें, मगर मैं यह हरगिज नहीं चाहूंगा कि कोई हिंदुस्तानी अपनी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी उपेक्षा करे, उसके प्रति शर्म महसूस करे’।

शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषा का कितना योगदान है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ईएफए (एजुकेशन फॉर ऑल) यूनेस्को 2003 की एक रिसर्च रिपोर्ट जिसमें, लिखा है कि ‘गुणवत्ता शिक्षा प्राप्त करने में मातृभाषा केंद्रीय भूमिका निभाती है’।

यूनेस्को द्वारा जारी की गई ‘एजुकेशन टुड़े द मदर टंग डिलेमा’ नामक एक रिसर्च रिपोर्ट, जिसमें  यूनेस्को के भूतपूर्व शिक्षा सहायक निदेशक जॉन डेनियल का कहना है कि, ‘जो बच्चे अपनी मातृभाषा में अपनी शिक्षा शुरू करते हैं, वे बेहतर शुरूआत करते हैं और लगातार बेहतर प्रदर्शन करते हैं, उन बच्चों की तुलना में जो नई भाषा के साथ अपनी शिक्षा शुरू करते हैं’। यूनेस्को की एक और रिसर्च रिपोर्ट ‘मदर टंग मैटर्स लोकल लैंग्वेज ऐज अ की टू इफेक्टिव लर्निंग’। 2008 की यह रिसर्च रिपोर्ट द्विभाषी शिक्षा प्रक्रिया में मातृभाषा के अहम योगदान को दर्शाती है, रिसर्च में बताया गया है कि द्विभाषी शिक्षा प्रक्रिया हो या फिर बहुभाषी, दोनों में मातृभाषा का उपयोग एक माध्यम के रूप में किया जा सकता है, जिससे शिक्षा प्रभावी होगी साथ ही व्यक्ति का सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर संपूर्ण विकास होगा। रिसर्च का उद्देश्य मातृभाषा का शिक्षा में योगदान और विभिन्न भाषाई व सांस्कृतिक विविधता को दर्शाना है। रिपोर्ट में चार अलग-अलग देशों की अलग-अलग परिस्थतियों को लिया गया है, जिनमें द्विभाषी शिक्षा प्रणाली अपनाई गई व परिणाम सकारात्मक थे। यूनेस्को द्वारा की गई ऐसी दो-तीन रिसर्च नहीं हैं, बल्कि अनेकों हैं, जिनमें मातृभाषा को द्विभाषी शिक्षा के नजरिये से, व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिहाज से, महत्वपूर्ण बताया गया है।

भारत विकासशील देश है, जो डिजीटलीकरण की ओर बढ़ रहा है। केपीएमजी इंड़िया और गूगल द्वारा की गई ‘इंडियन लैंग्वेज डिफाइनिंग इंडियाज इंटरनेट’ नामक स्टड़ी बताती है कि भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ता डिजिटल कंटेट को अंग्रेजी के बजाय, भारतीय भाषाओं में अधिक पसंद कर रहे हैं, सर्च कर रहे हैं और भारतीय भाषाओं में डिजिटल कंटेट की मांग दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। स्टड़ी में अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं की तुलना के मुताबिक 2011 में भारत में अंग्रेजी इंटरनेट यूजर 68 मिलियन थे, जबकि भारतीय भाषाओं के इंटरनेट यूजर 42 मिलियन थे। 2016 में यही भारतीय भाषाओं के इंटरनेट यूजर 234 मिलियन हो गए जबकि भारत में अंग्रेजी इंटरनेट यूजर 175 मिलियन रह गए। स्टडी में एक अनुमान के मुताबिक 2021 तक भारत में अंग्रेजी भाषा के इंटरनेट यूजर लगभग 199 मिलियन जबकि भारतीय भाषाओँ के इंटरनेट यूजर 536 मिलियन हो जाएंगे। बाजार की भाषा तो परिवेश की भाषा रही है, यह स्टड़ी भी यही बताती है। स्टड़ी में बताया गया है कि 88 प्रतिशत भारतीय इंटरनेट यूजरों ने डिजिटल विज्ञापनों के लिए अंग्रेजी भाषा की तुलना में परिवेश की भाषाओं की तरफ कदम बढ़ाया है। बहरहाल आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि डिजीटलीकरण के इस दौर में भाषाई एकाधिकार नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं का दब-दबा रहेगा।

2019 चुनावी वर्ष है, तमाम मीड़िया रणनीतिकार और राजनेता अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए भरसक प्रयास करेंगे, लेकिन उन्हें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि मातृभाषा को दरकिनार कर, भारत जैसे भाषाई विविधता के लिहाज से सम्पन्न देश में, जीत के बारे में सोचना महज हवाई कल्पना करना होगा।

शिकारी आंखों से कुंभ की कवरेज

जहां भीड़ इकट्ठा होती है, वहां मीडिया का जमावड़ा लगना स्वाभाविक है, मीडिया के इस जमावड़े का असर भीड़ और मीडिया दोनों के ऊपर देखने को मिलता है। मीडिया कवरेज निष्पक्ष हो, भीड़ के मन को पढ़े व उद्देश्य को समझे। मीडिया देश, काल और पात्र को केन्द्र में रखकर रिर्पोटिंग करे, तो सकारात्मक प्रभाव डालता है। मगर संकट की स्थिति तब पैदा होती है जब मीडिया देश, काल और पात्र को केन्द्र में न रखकर, अपना एजेंड़ा पहले से तैयार रखता है और  अपने तय एजेंडे के मुताबिक रिर्पोटिंग करता है।

कुछ ऐसी ही स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा कुम्भ मेले पर देखने को मिलती है। अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया की कुम्भ पर कवरेज उस शिकारी की तरह होती है, जो अपने शिकार पर घात लगाये बैठा होता है कि कब शिकार गलती करे, और शिकारी उसे धर दबोचे। इसका  उदाहरण अल जजीरा का वो आर्टिकल है, जिसमें कुम्भ मेले को एक आपदा के रूप में बताया गया। 2003 में नासिक कुम्भ मेले में भगदड़ मचने से कुछ लोगों की मृत्यु हुई व कुछ लोग घायल भी हुए, इसे आधार बनाकर अल जजीरा ने पूरे कुम्भ के परिणाम को ही विपत्तिपूर्ण बताया। बीबीसी ने तो इस दुर्घटना को 1999 में केरल के एक हिंदू धार्मिक स्थल पर मची भगदड़ से जोड़ दिया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब कुम्भ में मची भगदड़ को इस तरह से दिखाया गया हो, और न ही इसमें मात्र अल जजीरा व बीबीसी शामिल हैं बल्कि कई अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया भी शामिल हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा कुम्भ पर आपत्तिजनक कवरेज का एक उदाहरण जनवरी 2001 इलाहाबाद (प्रयागराज) कुम्भ का वह प्रकरण है, जिसमें ‘चैनल 4’ नामक एक ब्रिटिश पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टर पर कुम्भ मेला उत्सव के आयुक्त सदा कांत ने आरोप लगाया व दावा किया कि ‘चैनल 4 की टीम ने 25 वर्षीय एक मैक्सिकन महिला को आपत्तिजनक रूप में फिल्माया था और नागा साधुओं व अन्य व्यक्तियों के स्नान के समय अजीबोगरीब फोटोग्राफ लिये गये थे, जो कि भारतीय भावनाओं को आहत करने वाले थे’। इस प्रकरण पर तत्कालीन कुम्भ मेला निदेशक अरविंद नारायण मिश्रा के अनुसार ‘ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोगों व भारत में रहने वाले लोगों ने ‘चैनल 4’ व ‘बीबीसी’ द्वारा आपत्तिजनक कवरेज के बारे में शिकायत की है’। जिस कारण कुम्भ मेले के समय गंगा में नहाने की जगहों पर फोटो लेने व वीडियो बनाने पर बैन लगा दिया गया। मामले की गम्भीरता और अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया की इस अनैतिकता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस मामले को भारत के उच्चायुक्त के साथ ब्रिटेन में उठाने तक की नौबत आ गई थी।

अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया भारत और कुम्भ के प्रति कितना संवेदनशील है, इसका अन्दाजा ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ के एक आर्टिकल से लगाया जा सकता है, जिसमें बाकायदा लिखा है कि ‘धार्मिक सम्मेलनों में भारत त्रासदी के लिए कोई अजनबी नहीं है’ यानि भारत धार्मिक सम्मेलनों में दुर्घटनाओं के लिए जाना जाता है। वाल स्ट्रीट आगे लिखता है कि ‘भारत में ऐसी त्रासदियां अक्सर आती रहती हैं, जहां धार्मिक सम्मेलन होते हैं, और भीड़ को नियंत्रण करने व सुरक्षा व्यवस्था का अभाव होता है’। इस आर्टिकल में कुम्भ 2013 रेल हादसे के साथ, भारतीय मन्दिरों व भारतीय धार्मिक स्थलों, जहां पर दुर्घटनायें हुई है, को सिलसिलेवार तरीके से बताया गया है।

अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया कुम्भ को पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं। उनके लिए यह पर्व केवल मनोरंजन के लिए है। नागा साधु इनके केन्द्र में होते हैं, नागा साधुओं की राख से लिपटी नग्न फोटो लेना और फिर उस फोटो व नागा साधुओं का अपने हित के लिए विश्लेषण करना। इनका एजेंडा भी पहले से तय है कुम्भ में आये श्रद्धालुओं की गन्दी व अजीबोगरीब तस्वीरें लेना, जिसमें किसी के लम्बे बाल, दाढ़ी, जो उलझें हों, शरीर पर कपड़े ना हो, राख से लिपटा शरीर हो, जिनका माथा टीके और चन्दन से भरा हो, जिससे वे इसे आदिवासी के रूप में दिखा सकें। अपने एजेंडे के मुताबिक अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया का एकमात्र उद्देश्य भी तो यही है कि साधुओं की  अजीबोगरीब तस्वीरें लेना, उनके रहन-सहन, खान-पान को ऐसे दिखाना जैसे वो किसी दूसरी दुनिया के लोग हों। लंगर में बैठे साधु जिनकी अपनी अलग वेश-भूषा होती है, साधुओं की चिलम पीते हुए तस्वीरें लेना ताकि उन्हे नशेड़ी साबित कर सके, साधुओं के हाथ में तलवार, त्रिशूल व डण्ड़ों की फोटो, वीडियो, और डाक्यूमेंट्री बनाना, जो मात्र आकर्षण का केन्द्र बनें। अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया कवरेज का उद्देश्य व केन्द्र भारतीय संस्कृति, मां गंगा व कुम्भ की मान्यताओं, कुम्भ का महत्व, कुम्भ में होने वाली चर्चाओं व उसके परिणामों पर कत्तई नहीं है।

कुम्भ का आयोजन व इसका महत्व मात्र स्नान तक नही है, यह संवाद व चर्चा के लिहाज से, भारतीय संस्कृति, हिन्दू धर्म की मान्यताओं को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने का सबसे बड़ा प्लेटफॉर्म है। बिना कोई निमंत्रण दिए, बिना किसी प्रलोभन के कुम्भ में इतने बड़े जनसैलाब का उमड़ना, कड़ाके की ठण्ड़ में भी गंगा में डुबकी लगाना, साधु-संतो के जप-तप, त्याग को समझना, कुम्भ के प्रति भक्तों की भावनाओं को समझ पाना, यह सब अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए दूर की कौड़ी है। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि उनके यहां ऐसा अद्भुत संगम न तो कभी देखने को मिला है और न ही कभी मिलेगा। यह संगम मात्र नदियों का नहीं है, यह तो विचारों का है, मान्यताओं का है, आस्थाओं का है। सामान्य व्यक्ति से लेकर साधु-संतो और विभिन्न जाति, लिंग, आय, आयु का संगम है। अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया कुम्भ को भारतीय नजरिये से, धार्मिक आस्था और नैसर्गिक शान्ति के प्रयास को देखे व समझे इसकी अपेक्षा करना स्वयं को झूठा दिलासा देना व धोखे में रखने जैसा है।

कुम्भ मेला भारत की प्राचीन संस्कृति का प्रतीक है, वैश्विक स्तर पर कुम्भ ने अपना परचम लहराया है, कुम्भ के महत्व का अंदाजा अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया को इस बात से लगाना चाहिए कि  यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण संबंधी अंतर सरकारी समिति ने दक्षिण कोरिया के जेजू में 4 से 9 दिसंबर 2017 को अपनी 12वीं सत्र बैठक में कुम्भ मेले को ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर’ की प्रतिनिधि सूची में शामिल किया है। इस सूची में बोत्सवाना, कोलंबिया, वेनेजुएला, मंगोलिया, मोरक्को, तुर्की, और संयुक्त अरब अमीरात व अन्य देशों के विभिन्न सांस्कृतिक पर्व शामिल हैं।

15 जनवरी मकर संक्रान्ति के दिन प्रथम शाही स्नान के साथ प्रयागराज में अर्द्ध कुम्भ शुरू हो रहा है। कुम्भ मेले की कवरेज के लिए राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया प्रतिनिधियों की खास व्यवस्था के लिए मीडिया कैम्प बनाया गया है। किसी भी देश की छवि बनाने व बिगाड़ने में मीडिया आज मुख्य हथियार के रूप में काम कर रहा है। ऐसे में वैश्विक स्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया भारत व कुम्भ को किस रूप में दिखा रहा है, इस पर निगरानी रखना व गौर करना आवश्यक है।

 

सच्चाई की फेक फैक्ट्री

जब फेक न्यूज की फैक्ट्री ही फेक न्यूज के खिलाफ मुहिम चलाती है, और कहती है कि हम फेक न्यूज के लिये चिन्तित हैं, तब यह हास्यास्पद भी लगता है, अचम्भित भी करता है, और वाकई चिन्तित भी करता है। जिस पर पूर्वाग्रह, नस्लवाद, तथ्यों से छेड-छाड के आरोप लगते रहे हों, जो लगातार विवादों में रहा हो, जिसे हमेशा आलोचनाओं का सामना करना पडा हो। ऐसे में उसके प्रति संशय पैदा होना स्वाभाविक बात है।

जी हाँ। मैं बात कर रहा हूँ बीबीसी की। हाल ही में बीबीसी ने यह दावा किया कि उसने भारत में फेक न्यूज पर एक रिसर्च की है, जिसके बाद बीबीसी ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें बीबीसी के अनुसार फेक न्यूज फैलाने में चार चीजें मुख्य रुप से सामने आई, पहली हिंदू सुपीरियॉरिटी (श्रेष्ठता), दूसरी हिन्दू धर्म का पुनरुथान, तीसरी राष्ट्रीय अस्मिता व गर्व और चौथी एक नायक का व्यक्तित्व (नरेन्द्र मोदी)।

इस पूरी रिपोर्ट में राष्ट्रवाद (राष्ट्रीय अस्मिता गर्व) शब्द को चुना गया और बताया गया कि भारत में फर्जी समाचार (फेक न्यूज) राष्ट्रवाद की आड में फैलाया जा रहा है। बीबीसी द्वारा भारत में फेक न्यूज पर किया गया सर्वे और उसकी रिपोर्ट में कितनी साफगोई और सावधानी बरती गई है, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि बीबीसी द्वारा फेक न्यूज की एक ही रिपोर्ट अब तक ‘तीन बार’ जारी की जा चुकी है। पहली बार जब यह रिपोर्ट जारी की गई तो उसमें बीबीसी ने ‘दिवालिया कानून’ का मतलब बताया कि ‘दिवाली के दौरान कानून बदल रहा है’, जिसके बाद बीबीसी ने दूसरी बार जारी की गई रिपोर्ट में लिखा कि हमने हिन्दी शब्द दिवालिया के अनुवाद में त्रुटि की है व इसे सही किया गया है। पहली रिपोर्ट में पेज नं. 88 जिसमें दि बेटर इंडिया नामक वेबसाइट को उन नामों में जोड दिया, जो नाम बीबीसी को लगता है कि वे बीजेपी समर्थक समूह हैं और फेक न्यूज फैलाने के लिए जाने जाते हैं। दि बेटर इंडिया ने इस पर आपत्ति जताई जिसके बाद बीबीसी को अपनी दूसरी बार जारी की गई रिपोर्ट में दि बेटर इंडिया का नाम हटाना पडा। बात यहीं पर खत्म नही हुई, इसके बाद बीबीसी ने दि बेटर इंडिया से ई-मेल के जरिये ‘माफी मांगी’, जिसे दि बेटर इंडिया ने 17 नवंबर 2018 को अपने ट्विटर अकाउंट से सार्वजनिक किया।

बीबीसी द्वारा फेक न्यूज की एक ही रिपोर्ट जब दूसरी बार अपडेट्ड रुप में जारी की गई तो, इसमें भी खामियाँ कुछ कम नहीं थी। दूसरी रिपोर्ट पेज नं. 87 के दूसरे पैराग्राफ में लिखा है कि ‘30 स्त्रोत बीजेपी समर्थक समूह जिन्होने कम से कम एक बार तो फेक न्यूज फैलाई है’। (जिनके नाम पेज नं. 88 में हैं) बीबीसी की तीसरी रिपोर्ट जारी होती है, जिसमें दूसरी रिपोर्ट के 30 स्त्रोत 29 स्त्रोत में बदल जाते हैं। दूसरी रिपोर्ट पेज नं. 88 में नाम तो 32 हैं पर ग्राफ में 33 दिखाये गये हैं, जबकि उन नामों की संख्या 34 दिखायी गई है, इसमें भी वन्दे मातरम् नाम दो बार लिखा गया है, यह नाम वाकई में दो बार है या नहीं, यह तो बीबीसी ही जाने (तीसरी रिपोर्ट में भी वन्दे मातरम् नाम दो बार है)। दूसरी रिपोर्ट के पेज नं. 92 में जिसमें ग्राफ और संख्या में 11 जबकि नाम केवल 10 दिखाये गये हैं। इसके बाद बीबीसी अपनी तीसरी अपडेट्ड रिपोर्ट जारी करता है। इसमें भी बीबीसी गलतियों को मानने की जगह सफाई देने की कोशिश कर रहा है।  भारत में फेक न्यूज पर बीबीसी की यह रिपोर्ट न हुई, प्ले स्टोर की ऐप हो गई, जो बार-बार अपडेट मांग रही है।  

बीबीसी ने फेक न्यूज फैक्ट्री होने का एक उदाहरण स्वयं ही इस रिपोर्ट में दिया है, जिसमें खुद बीबीसी एक भ्रामक और फेक न्यूज फैला रहा है। पेज नं. 72 में फोटो नं. 13 जिसमें बीबीसी लिखता है कि, ‘भ्रामक संदेश का दावा है कि दिवालिया कानून बदलने के कारण 2100 कंपनियों ने 83 हजार करोड रुपये बैंको का लोन लौटाया है’। जबकि असल में यह खबर सत्य है, और इसकी पुष्टि टाइम्स ऑफ इंडिया समेत कई अन्य बडे मीडिया चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं ने की है।

बीबीसी फेक न्यूज फैक्ट्री का एक और उदाहरण इसी रिपोर्ट में मिलता है। पेज नं. 88 में बीबीसी के अनुसार बीजेपी समर्थक समूह जो फेक न्यूज फैलाते हैं, उनमें ‘वायरल इन इंडिया’ (viralinindia) नामक एक फेसबुक पेज भी शामिल है, जबकि यह फेसबुक पेज असल में कांग्रेस समर्थक फेसबुक पेज है और इसकी पुष्टि ‘प्रतीक सिन्हा’ ने 16 नवंबर 2018 को अपने ट्विटर अकाउंट से की है। यह वही प्रतीक सिन्हा हैं, जो अल्ट न्यूज के सह-संस्थापक हैं। जिसके बारे में पेज नं. 100 में बीबीसी ने लिखा है, कि फेक न्यूज की पहचान के लिए ‘तथ्य जांच साइट’ का उपयोग किया गया है, जिनमें तथ्य जांच साइट ‘अल्ट न्यूज’ (altnews) भी शामिल है।

बीबीसी डिजिटल हिन्दी के संपादक राजेश प्रियदर्शी के न्यूजलॉन्ड्री में दिये गये साक्षात्कार के अनुसार बीबीसी ने राष्ट्रीय स्तर पर कोई सर्वेक्षण नहीं किया है और दस अलग-अलग शहरों से विभिन्न आयु, आय व लिंग (जेंडर) के 40 लोगों के सोशल मीडिया व्यवहार को परखा गया है और जिन लोगों का साक्षात्कार लिया गया उन्हे यह नहीं कहा कि बीबीसी फेक न्यूज के बारे में कोई रिसर्च कर रहा है, वे आगे कहते हैं कि बीबीसी की यह रिसर्च कोई अन्तिम सत्य नहीं है।

बीबीसी की इस रिपोर्ट में कार्यरत् पीएचडी डिग्रीधारक व अन्य ज्ञानियों ने दिवालिया कानून को दिवाली के त्यौहार से जोड दिया, यही नही इस कानून को ही भ्रामक संदेश बता दिया। बीबीसी तो यह भी भूल गया कि उसने खुद 12 मई 2016 को दिवालिया कानून को व्यवसाय के लिए अच्छा बताया था। एक ही रिपोर्ट को तीन बार बदला जाना, ग्राफ, नाम, संख्याओं में गलती करना, दि बेटर इंडिया वेबसाइट से माफी मांगना और फिर उसे एक मानवीय भूल करार देना, दूसरी बार जारी अपडेट्ड रिपोर्ट में 30 स्त्रोत और तीसरी बार जारी अपडेट्ड रिपोर्ट में 29 स्त्रोत का बदल जाना, और यह कहना कि स्त्रोतों ने कम से कम एक बार तो फेक न्यूज फैलाई है, बिना कोई राष्ट्रीय स्तर पर सर्वे किये और जमीनी स्तर पर मात्र 40 लोगों के सोशल मीडिया व्यवहार को परख कर उसे फेक न्यूज रिसर्च बताना, ऐसी कई अन्य चीजें दर्शाती है कि बीबीसी की यह रिपोर्ट कितनी विश्वसनीय है और बीबीसी इस रिपोर्ट के प्रति और भारत व भारतीयता के प्रति कितना संवेदनशील है। एक तरफ बीबीसी कहता है कि यह रिसर्च कोई अन्तिम सत्य नहीं है और दूसरी तरफ कहता है कि भारत में राष्ट्रवाद की आड में फेक न्यूज फैल रही है। भारत के प्रति बीबीसी की मनसा और मानसिकता बीबीसी पहले भी कई बार दिखा चुका है। इस रिपोर्ट से तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि बीबीसी ने अपना निष्कर्ष पहले से तैयार रखा था, बस रिपोर्ट आनन-फानन में तैयार कर दी।

बीबीसी डिटॉल (Dettol) का धुला नहीं है। हमेशा की तरह इस बार भी बीबीसी को आलोचनाओं का सामना करना पडा, बीबीसी को माफी भी मांगनी पडी, कुल मिलाकर बीबीसी की खूब भद्द पिटी है। अन्त में बीबीसी से सतर्क रहें, सावधान रहें।