दिनेशा अत्रि

सच्चाई को दिखाने का साहसी प्रयास ’द जज’

सजग एवं साहसी फिल्म निर्देशक जीतू आरवमुदन ने ’द जज’ फिल्म बनाकर लव जिहाद की समस्या को जीवंत रूप में सामने लाने की एक जोरदार कोशिश की है। इसी फिल्म में उन्होंने तथाकथित सेक्युलरिज्म और उसके पैरोकार बुद्धिजीवियों के चेहरे से नकाब हटाने का प्रयास किया है। ’द जज’  पश्चाताप और आत्मग्लानि की एक ऐसी कहानी है  जिसने वर्तमान काल में हिंदू एवं अन्य समुदायों की महिलाओं के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को बड़ी संजीदगी के साथ प्रस्तुत किया है।

लगभग एक घंटे की इस कहानी के सभी किरदार अपनी भूमिका के साथ न्याय करते दिखे। सबसे अहम किरदार है जज का। सारी कहानी संजीव जोशी नाम के इस जज के इर्द-गिर्द घूमती है। संभवतः इसी कारण फिल्म का नाम ’द जज’ रखा गया है। सेकुलरिज्म और बुद्धिजीवियों की बात करने वाले जज साहब शुरू में ही बड़ी गंभीरता के साथ बताते हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता न केवल हमारे लिए, अपितु पूरे देश के लिए भी गलत संकेत है, क्योंकि यह हमारी देश की पंथनिरपेक्षता के खिलाफ है। उसी जज के सम्मुख एक हिंदू लड़की का मामला आता है, जिसका नाम अवंतिका चौधरी है। वह लड़की एक मुस्लिम लड़के एजाज शेख के प्यार के चंगुल में फंसकर अपने पिता की बात को नकारते हुए उस मुस्लिम लड़के के साथ शादी करने की जिद पकड़े रखती है।

तीसरा किरदार अवंतिका के पिता का है। इस मामले को लेकर वह जज साहब से व्यक्तिगत तौर पर मिलकर बहुत सारे समाचार पत्रों की कटिंग्ज दिखाते हैं कि किस तरह लव जिहाद की शिकार हुई लड़कियों की हत्या कर दी जाती है। वह पिता जज से प्रार्थना करता है कि आप आदर्श हैं, आप ही मेरी बेटी का मार्गदर्शन कीजिए। इस पर जज साहब पंथनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाते हुए कहते हैं कि जिन बातों को मैं ही नहीं मानता, उन बातों को मैं कैसे अवंतिका को समझा सकता हूं। तब अवंतिका के पिता कहते हैं कि अगर मेरी बेटी की जगह आपकी बेटी होती तो आप क्या करते? इस पर जज साहब कहते हैं कि मैं आपको कट्टरवादी मूर्ख समझता हूं, जिसे धर्म के आगे इंसानियत नहीं दिखती। जज साहब केस का फैसला सुनाते हुए शादी की सहमति देकर पूरे देश को पंथनिरपेक्षता का संदेश देते हैं। उसके बाद जो होना था, वही हुआ। निकाह के 10 दिन बाद आयशा का (निकाह के बाद अवंतिका चैधरी का बदला हुआ नाम) अर्द्धनग्न शव प्राप्त होता है। उसकी हत्या उसके पति एजाज शेख द्वारा की जाती है, जो कि पहले से दो बार शादीकर चुका था।

इस फिल्म ने एक सामाजिक हकीकत को सामने लाने का सार्थक प्रयास किया है, जिसके तहत मुस्लिम पुरुषों द्वारा गैर-मुस्लिम लड़कियों का धर्मांतरण करवाने के लिए प्रेम का नाटक किया जाता है। आज यह एक विश्वव्यापी मुद्दा बना हुआ है। कई अध्ययनों में यह बात सामने आ चुकी है। लव जिहाद को अगर हम दूसरे शब्दों में ’बेटी बचाओ, बहू लाओ’ योजना भी कह सकते हैं। हम सबके मन में एक सामान्य सा प्रश्न उठता है कि लव जिहाद करने और करवाने वालों का उद्देश्य क्या है? इसके पीछे राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक कारण हैं। इन कारणों से स्वतः ही धीरे-धीरे जनसांख्यिकी में परिवर्तन होगा और यह परिवर्तन राजनीतिक प्रणाली में भयानक सिद्ध होगा। धीरे-धीरे पूरे देश का इस्लामीकरण करना ही इन जिहादियों का उद्देश्य है। न्यायपालिका के समक्ष यह मामला पहली बार 2009 में आया था। तब केरल उच्च न्यायालय ने एक लंबी जिरह के बाद निष्कर्ष निकाला कि लव जिहाद का मामला वास्तव में है और इसकी आड़ में जबरदस्ती धर्मांतरण करवाया गया है। ऐसी घटनाएं तब से लेकर आज तक निरंतर बढ़ती ही जा रही हैं। आए दिन हम समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं कि धर्म परिवर्तन नहीं करने पर मॉडल के साथ की मारपीट। लव जिहाद के नाम पर बेरहमी से हत्या। धर्म नहीं बदला तो मुस्लिम पति ने घर से निकाला। ऐसी कितनी ही घटनाएं हम अपने आसपास में होते हुए देखते हैं, परंतु फिर भी हम सब देखकर खामोश रहते हैं, क्योंकि यह घटनाएं दूसरे के घर में होती हैं। जब तक अपने घर में कोई घटना न घटे, तब तक हम सतर्क नहीं होते। भारत के साथ-साथ कई दूसरे देशों की लड़कियां और महिलाएं इसकी चपेट में आ चुकी हैं। बहुत सारे पाठकों को तो 2014-15 में केरल में हुई लव जिहाद की घटनाएं याद ही होंगी। उनकी जांच एनआईए ने की थी। उसमें भी निष्कर्ष निकला था कि इसके पीछे आतंकी संगठन आईएसआई का हाथ है और वह इसके लिए मुस्लिम लोगों को फंडिंग करते हैं। 2020 की बहुत सारी घटनाएं जिसमें एक महक कुमारी का अपहरण करके जबरन धर्म परिवर्तन करवाकर अत्याचार किया। उसके लिए ब्रिटेन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और भारतीय प्रवासियों ने जस्टिस फॉर महक कुमारी के नाम से अभियान चलाकर विरोध-प्रदर्शन किया और कहा कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। भारत में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पंथनिरपेक्षता और कानून की आड़ में लव जिहाद जैसी दुष्वृत्तियों को बढ़ावा देते आए हैं। यहां सवाल उठता है कि क्या हम और आप सिर्फ कानून के न्याय पर ही टिके रहेंगे या फिर अपने बच्चों के हित में उनकी परवरिश में लाड़-प्यार के साथ सतर्कता भी रखेंगे? हम सभी को अपने बच्चों को इस तरह से संस्कार देने चाहिएं कि वे मानसिक रूप से इतने सशक्त बन जाएं कि कभी भी कोई उनको बहला-फुसला न सके। खुद को बुद्धिजीवी मानने वालों को भी इन घटनाओं पर निष्पक्ष रूप से मंथन करना चाहिए और समाज का सही मार्गदर्शन करना चाहिए, ताकि फिल्म के अंत में जज की तरह उनके जीवन में भी पश्चाताप ही न रह जाए।

खतरे की घंटी है टिकटॉक की फैंटेसी

चाइनीज टिकटॉक ऐप खुद के अभिव्यक्ति का एक साधन होने का दावा करती रही है। हालांकि पिछले कई दिनों से यह अलग-अलग कारणों से विवादों में है। इसी क्रम में बहुत से बुद्धिजीवियों ने टिकटॉक को पूर्णता बंद करने की मांग की है। टिकटॉक को लेकर अब तक के अनुभव से देखें तो यह मांग बहुत हद तक उचित जान पड़ती है। टिकटॉक ने युवाओं को न केवल अनुत्पादक कार्यों में लगाया है, बल्कि युवा मस्तिष्क को हिंसात्मक विचारों से भरने का कार्य भी किया है। तकनीकी कंपनियों के धड़ल्लेदार मार्केटिंग तिकड़मों से अनजान युवा वर्ग को यह पता भी नहीं चल पाता कि कब वे पॉर्नोग्राफी जैसी अनैतिक दुर्गुणों का शिकार हो जाते हैं। टिकटॉक के विरोध में लिखने का यह अर्थ कभी भी नहीं कि हम मनोरंजन के ही खिलाफ हैं। टिकटॉक जैसे मंच मनोरंजन के नाम पर जिस अनैतिकता को बढ़ावा दे रहे हैंए उसे मनोरंजन कैसे मान लिया जाए। इसी बीच समाज के कुछ जागरूक नागरिकों ने टिकटॉक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, तो यह काफी हद तक सही प्रतीत होता है।

टिकटॉक पर विवादास्पद वीडियो पोस्ट करने पर राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने भी टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। उन्होंने ट्वीट करके आरोप लगाया कि मैं मजबूती के साथ टिकटॉक इंडिया को पूर्णतया प्रतिबंधित करने के पक्ष में हूं और इसके लिए वह भारत सरकार को भी लिखेंगी। यह न केवल आपत्तिजनक वीडियोज को बढ़ावा दे रहा है, बल्कि युवाओं को गैर-उत्पादक जीवन की ओर धकेल रहा है। यहां ये कुछ फोलाअर्ज के लिए जी रहे हैं और जब यही नंबर कम हो जाते हैं, तो मौत को भी गले लगा लेते हैं। हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब टिकटॉक को प्रतिबंधित करने की मांग उठी हो। नवंबर 2019 में हीना दरवेश ने मुंबई हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाई थी जिसमें कहा गया था कि यह ऐप अपराधों और मौतों का कारण बन रहा है। इसी बीच टिकटॉक पर पिछले साल मद्रास उच्च न्यायालय ले प्रतिबंध लगा दिया था, जिसे बाद में हटा लिया गया। 12 मार्च को अमेरिका में रिपब्लिकन सीनेटर जॉश हावले ने सीनेट में एक बिल पेश किया कि सभी फेडरल सरकारी उपकरणों पर चीनी सोशल मीडिया ऐप टिकटॉक को डाउनलोड व इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगाया जाए, क्योंकि यह अमेरिकी सरकार की डाटा सुरक्षा पर एक जोखिम हो सकता है। इस तरह से यह भारत और दुनिया के दूसरे कई देशों में बार-बार सवालों के घेरे में आता रहा है।

कुछ समय पहले महाभारत के भीष्म पितामह मुकेश खन्ना ने भी टिकटॉक को बेकार बताया था। उन्होंने इस पर अश्लीलता फैलाने का भी आरोप लगाया था। मुकेश खन्ना ने यह भी कहा कि इस ऐप के उपयोग कर युवा नियंत्रण से बाहर हो रहा है। इंस्टाग्राम अकाउंट पर अपने विचार साझा करते हुए उन्होंने कहा था।

टिक टॉक टिक टॉक घड़ी में सुनना सुहावना लगता है। लेकिन आज की युवा पीढ़ी का घर मोहल्ले, सड़क-चैराहे पर चंद पलों का फेम पाने के लिए सुर-बेसुर में टिकटॉक करना बेहूदगी का पिटारा लगता है। कोरोना चायनीज वाइरस है। यह सब जान चुके हैं। पर टिकटॉक भी उसी बिरादरी का है, यह भी जानना जरूरी है। टिकटॉक फालतू लोगों का काम है। और यह उन्हें और भी फालतू बनाता चला जा रहा है। अश्लीलता, बेहूदगी, फूहड़ता घुसती चली जा रही है आज के युवाओं में इन बेकाबू बने वीडियोज के माध्यम से। इसका बंद होना जरूरी है। खुशी है मुझे कि इसे बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। मैं इस मुहिम के साथ हूं।

टिकटॉक एक बार तब भी सुर्खियों में था जब फैजल सिद्दीकी का टिकटॉक अकाउंट सस्पेंड कर दिया गया था। इसके बाद उनके भाई आमिर सिद्दीकी का टिकटॉक अकाउंट भी सस्पेंड कर दिया गया था। आमिर सिद्दीकी के टिकटॉक अकाउंट सस्पेंड होने के पीछे कास्टिंग डायरेक्टर नूर सिद्दीकी की याचिका भी बताई जा रहा है। अब उनका टिकटॉक अकाउंट सस्पेंड कर दिया गया है, जिसके 38 मिलियन यानी 38 लाख फॉलोअर्स हैं। आमिर ने यू-ट्यूब कम्युनिटी के खिलाफ एक वीडियो बनाया था, जिसके बाद से वो ज्यादा खबरों में थे। बता दें कि पहले टिकटॉक वर्सेस यू-ट्यूब का मामला आया। इसके बाद फैजल सिद्दीकी का वीडियो वायरल हुआ, जिस पर एसिड अटैक को बढ़ावा देने का आरोप लगा। इस आरोप के बाद सोशल मीडिया पर तमाम ऐसे वीडियो घूमने लगे जिन पर यौन हिंसा और जानवरों पर अत्याचार के आरोप लग रहे हैं।

इतनी आसानी से टिकटॉक के जाल में फंसने के पीछे एक बेहद सामान्य सा मनोविज्ञान कार्य कर रहा होता है। लंबे समय से बॉलीवुड ने युवाओं के मन में एक अजीबोगरीब  फैंटेसी पैदा कर रखी है कि उनका लाइफ स्टाइल आम आदमी की तुलना में खास होता है। इसलिए बॉलीवुड की इस फैंटेसी से प्रभावित बहुत से भारतीय खासकर युवा खुद को सेलिब्रिटी के तौर पर देखना चाहते हैं। टिकटॉक इनैक्टमेंट के दौरान टिकटॉकर खुद को अभिनेता या अभिनेत्री के रूप में देखने लगता है। हालांकि यह भी सच है कि हर कोई बच्चा अभिनेता और अभिनेत्री नहीं बनने वाले। फिर क्यों उन्हें समय और ऊर्जा की बर्बादी से नहीं रोका जा रहा

इन सब विवादों के बीच टिकटॉक ने एक पोस्ट किया है जिसमें उन्होंने कुछ स्पष्टीकरण दिया है, लेकिन इतने भर से बात बनने वाली नहीं। भारतीय समाज को अब समझना होगा कि अपने बहुमूल्य जीवन का अधिकतर समय टिकटॉक पर विडियोज बनाकर दूसरों का मनोरंजन करने के लिए आप लोग क्यों खुद को साधन बना रहे हैं? कायदे से तो माता-पिता को अपने बच्चों को ऐसे अनुत्पादक कामों में न उलझने से समझाना चाहिए, लेकिन बहुत से मां-बाप स्वयं बच्चों के साथ मिलकर वीडियोज बना रहे हैं। ऐसे मां-बाप अपने बच्चों से क्या उम्मीद रख सकते हैं?

अगर हम अपनी आने वाली पीढ़ी को मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ बनाना चाहते हैं, तो उन्हें इन सब फूहड़ कार्यों से हटाकर रचनात्मक एवं उत्पादक कार्यों में लगाना होगा। इसमें बहुत से कार्य हो सकते हैं, जैसे समाजसेवा, स्वाध्याय, देशभक्ति और नैतिक मूल्यों से अवगत करवाना। हमारे मार्गदर्शक शास्त्र भी इसी बात पर बल देते हुए व्याख्या करते हैं। सद्भिरेव सहासीत सद्भिरकुर्वीत सङ्गतिम्।