दृश्य संवाद

मायानगरी के अंधेर में आउटसाइडर्स का एनकाउंटर

''मुझे यहां सब कुछ चांदी की प्लेट में सजा हुआ मिला, मगर सबके साथ ऐसा नहीं है.. परवीन मेरी डार्लिंग है, उसे जबर्दस्त शोषण से गुजरना पड़ा।'' भावुक हेमा मालिनी ने ये बातें तब कही जब परवीन बॉबी अचानक देश छोड़कर चली गई थीं। ये वही वक्तप था जब परवीन बॉबी का करियर चरम पर था और फ्लॉप स्ट्रगलर महेश भट्ट को डेट भी कर रही थीं। यूं समझ लीजिए कि परवीन बॉबी सिनेमाई पर्दे के साथ निजी जिंदगी में भी वो सबकुछ कर रही थीं, जो अपनी चाहत, आधुनिकता और आत्मनिर्भरता के नाम पर महिलाएं आज करना चाहती हैं। परवीन बॉबी के साथ अपने रिश्तों पर ही महेश भट्ट ने 'अर्थ' फ़िल्म बनाई थी। इस फिल्म से महेश भट्ट का करियर परवान चढ़ा तो वहीं परवीन बॉबी ऐसी स्थिति में पहुंच गईं जहां से उनका मानसिक संतुलन डगमगाने लगा था। कहते हैं, महेश भट्ट ने परवीन बॉबी के दिमाग को इस कदर 'हाइजैक' कर लिया था कि वो जो चाहते थे परवीन बॉबी वही कर रही थीं। फिर वो अध्यात्मिक गुरु यूजी कृष्णमूर्ति के शरण में जाने की बात हो या फिर उनके कहने पर बॉलीवुड छोड़ देने का फैसला हो, परवीन बॉबी ने सबकुछ महेश भट्ट के कहने पर किया। लेकिन महेश भट्ट लगातार यह स्थापित करने में जुटे थे कि परवीन बॉबी को मानसिक बीमारी है। महेश भट्ट ने अपने कई इंटरव्यू में इस बीमारी को पैरानायड स्कित्ज़ोफ़्रेनिया नाम बताया है। हालांकि परवीन बॉबी ने खुद को कभी इस बीमारी की चपेट में नहीं बताया। उन्होंने ये जरूर माना था कि आनुवांशिक मानसिक बीमारी ने उन्हें चपेट में ले लिया था। 

बीमारी के शुरुआती दिनों में परवीन बॉबी ने अपने अकेलेपन और हिंदी सिनेमा आउटसाइडर के मुद्दे पर खुलकर बात की थी। परवीन बॉबी ने 'द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया' में अपना एक संस्मरण लिखा था- " मैं ये जान गई हूं कि यहां बने रहने का अपना संघर्ष है, इसके अपने दबाव और चुनौतियां हैं। मैं इसमें इतनी धंस चुकी हूं कि मुझे अब इसे झेलना ही होगा।"  अपनी बीमारी के दौरान ही उन्होंने अमिताभ बच्चन से जान को खतरा बताया था, लेकिन तब इसे पागलपन कहा गया। ठीक वैसे ही, जैसे आज के वक्तच में कंगना रनौट को कहा जाता है। एक दिन ऐसा भी आया जब परवीन बॉबी के मरने की खबर आई। परवीन का फ्लैट कई दिन से बंद था। कई दिनों तक उनके घर के बाहर से अख़बार और दूध के पैकेट किसी ने नहीं हटाए तो पुलिस ने दरवाज़ा तोड़ लाश निकाली। 

मायानगरी में वही सबकुछ आज भी हो रहा है। परवीन बॉबी हो या सुशांत सिंह, बॉलीवुड में आउटसाइडर को गैंगों ने अपने तरीके से निपटाया है। वहीं, कुछ आउटसाइडर ऐसे भी हुए हैं जो खामोशी से इस तमाशा को देखते आ रहे हैं या कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। विद्युत जामवाल, दीपक डोबरियाल, सोनू सूद, आशुतोष राणा, ग्रेसी सिंह, तनुश्री दत्ता, भूमिका चावला, प्राची देसाई, मधु शाह, महिमा चौधरी, नीतू चंद्रा ये कुछ ऐसे नाम हैं जो यकीनन अपनी शुरुआती फिल्मों में ही अभिनय की छाप छोड़ दी थी लेकिन अब दरकिनार कर दिए गए हैं। लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों के सुपरहीरो बनकर उभरे सोनू सूद ने हाल ही में दिए अपने एक इंटरव्यू में यहां तक कह दिया कि स्टील की नसें हों तभी इस मायानगरी में एंट्री करें। जाहिर है, सोनू सूद को इस बात का अंदाजा है कि आउटसाइडर को सिनेमाई जगत में किन चुनौतियों से गुजरना पड़ता है। जिन्हें कुछ मौके मिलते भी हैं तो वो 'एहसान' की कैटेगरी में आ जाता है। यूं समझ लीजिए कि इस मायानगरी में वही आउटसाइडर टिक सका है जो गैंग्स के आगे नतमस्तक हो चुका है। कंगना रनौत की भाषा में कहें तो चापलूस आउटसाइडर! ये वही आउटसाइडर हैं जो बॉलीवुड गैंग के आगे पीछे मंडराते हैं और उन्हें खुशामद करने में लगे रहते है। इसका फायदा उन्हें फिल्मों में जगह पाकर मिलता है।

एप्स प्रतिबंध: पता चल गया है चीन की जान किस तोते में बसती है

भारत-चीन के मध्य हुए हालिया सीमा-संघर्ष के बाद 59 चायनीज एप्स को बैन किए जाने के बाद चीन पहली बार चिंतित हुआ। वहां के विदेश मंत्रालय की तरफ से बयान आया कि चीन इस घटनाक्रम को लेकर चिंतित है। इससे पहले चीन ने पूरी तरह आक्रामक मुद्रा अपनाए हुए था। एप्स बैन किए जाने के बाद उसे व्यापार के वैश्विक नियमों की याद आई, उसने निजता के कानून की दुहाई दी और इससे भी अधिक यह कि वह भारतीय हितों को लेकर फिक्रमंद हुआ। ग्लोबल टाइम्स की तरफ से इस घटनाक्रम के बाद एक रोचक टिप्पणी आई थी कि भारत सरकार का यह कदम भारतीय हितों के अनुकूल नहीं है।

10 वर्ष पहले तक इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि एप्स को इंस्टाॅल करना, अनइंस्टाॅल करना, एप्स को बैन करना भी युद्ध का अहम हिस्सा बन जाएगा। आपके द्वारा उपयोग मे लाई जाने वाली सोशल मीडिया साइट्स आपकी अभिव्यक्ति का साधन भर नहीं है, बल्कि उनका सीधा सम्बंध राष्ट्र की सुरक्षा से भी है। इसीलिए जब 59 चीनी एप्स के ऊपर बैन लगाया गया, तो कई लोगांे ने सवाल उठाए कि एप्स बैन करने से क्या हो जाएगा ? इससे चीन को मामूली आर्थिक नुकसान के अतिरिक्त और किसी तरह का घाटा नहीं होगा। उनके इस तर्क का उत्तर तो कुछ दिनों बाद ग्लोबल टाइम्स ने खुद ही दे दिया कि अकेले टिकटाॅक को बैन करने से टिकटाॅक की पैरेंट कम्पनी को 6 बिलियन डाॅलर का नुकसान होगा।

इस आकंडे को रणनीतिक-परिप्रेक्ष्य में रखकर समझने की कोशिश की जाए तो एप्स बैन की घटना की अहमियत समझ में आती है। यह राशि भारत और रूस के बीच घातक मिसाइल डिफेस सिस्टम एस-400 के लिए हुए समझौते में खरीद की राशि के लगभग बराबर है। एस-400 के समझौता और इसका भारत आना कितना निर्णायक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तानी मीडिया और सत्ता-प्रतिष्ठान कई बार यह कह चुका है कि एस-400 मिलने के बाद भारत-पाक के बीच कायम शक्ति-संतुलन एकदम से भारत की तरफ झुक जाएगा। यह वही एस-400 है, जिसको जल्दी देने के भारत के आग्रह पर चीन ने रूस से आपत्ति दर्ज कराई था। इस परिप्रेक्ष्य में टिकटाॅक को बैन लगाने की प्रक्रिया को समझने से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत ने कितना बड़ा आर्थिक नुकसान पहुंचाया है।

एप्स बैन के कारण चीन को हुआ आर्थिक नुकसान एकपक्ष है। इसके कारण भारत ने पूरी दुनिया को एक बहुस्तरीय मैसेज दिया है। यह मैसेजिंग कितनी प्रभावी है, इसका आकलन भारत में ठीक ढंग से नहीं किया गया। भारत ने एप्स प्रतिबंधित करके एकझटके में पूरी दुनिया को यह संदेश दिया कि चीनी तकनीकी सुरक्षा के लिहाज से अविश्वसनीय है। चीन की छवि को अविश्वसनीय और संदिग्ध पहले से भी माना जाता रहा है, लेकिन अमेरिका जैसे देश भी औपचारिक और नीतिगत स्तर पर कुछ खास नहीं कर पा रहे थे। चीन का दबाव उन पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। भारत ने चीनी दबाब की चादर को एक झटके मे छिन्न-भिन्न कर दिया।साथ ही, नीतिगत-स्तर पर अपनी वैश्विक-नेतृत्व के लिए दावा ठोंका।

भारत और चीन के बीच चल रहे संघर्ष का एक मुख्य कारण वैश्विक-नेतृत्व पर दावेदारी भी है। और एप्स प्रतिबंधित करने की परिघटना के जरिए भारत ने अपनी दावेदारी को मजबूती प्रदान कर दी है। गलवान के ंसघर्ष का षड्यंत्र चीन ने इसलिए रचा था ताकि विश्व को यह संदेश दिया जा सके कि भारत कमजोर है और नई विश्व-व्यवस्था में चीन ही एशिया का नेतृत्व करेगा, भारत ने एप्स बैन कर चीन के दांव का उलट दिया ।

रोचक बात यह है कि अभी तक भारत में यह उदाहरण दिया जाता था कि अमेरिका अपनी सुरक्षा के लिए फलां कदम उठा सकता है, तो हम क्यों नहीं कर सकते ? इजरायल अपनी सुरक्षा के लिए कदम उठा सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते ?एप्स प्रतिबंधित करने की घटना ने इस तर्क को उलट कर रख दिया। अमेरिका में यह मांग उठी कि भारत एप्स को प्रतिबंधित कर सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते? भारत के निर्णय के बाद अमेरिका ने हुवई को प्रतिबंधित किया और बाद में ब्रिटेन ने भी इस दिशा में कदम उठाए।

एप्स प्रतिबंधित करने के निर्णय और उसके प्रभाव ने इस बात की तश्दीक करते हैं कि युद्ध अब कितना जटिल हो चुका है, डिजिटल स्पेस युद्ध के अहम और निर्णायक मैदान में तब्दील हो चुका है। युद्ध की इस नई शैली में विजय उसी को हासिल होगी, जिससे शत्रु के मर्मस्थलों और शक्तिकेन्द्रों की सटीक जानकारी होगी। नीतिगत स्तर पर इन मर्मस्थलों पर प्रहार कर रक्त की एकबूंद गिराए बगैर शत्रु को औंधे मुंह गिराया जा सकता है। भारतीय नेतृत्व ने फिलहाल यह साबित किया है कि उसे चीन के नाजुक मर्मस्थल का पता है, उसे पता है कि चीन की जान किस तोते में बसती है और उस पर कैसे  और कब वार करना है।

उमा का सवाल, मीडिया में बवाल

प्रश्न पूछना पत्रकारिता का गुणधर्म और मूलधर्म है। प्रश्न पूछना पत्रकारिता की सीमा और सामथ्र्य है। प्रश्न पूछना पत्रकारिता का एकमात्र व्यवहारिक विशेषाधिकार है। पत्रकारिता के प्रश्न राज और समाज के बीच संवादसेतु बनाते हैं। यही प्रश्न नीतिनियंताओं को टोकते हैं, रोकते हैं, सच्चाई का आईना दिखाते हैं और भविष्य का रास्ता भी बताते हैं। पत्रकारीय परिदृश्य में प्रश्न, उत्तर से भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं। शायद इसी को ध्यान में रखकर आल्विन टाॅफलर ने कहा है कि गलत प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करने से बेहतर है कि सही प्रश्न का गलत उत्तर प्राप्त किया जाए। पत्रकारिता के प्रश्न,व्यवस्था -विश्लेषण के लिए एक बेहतरीन संकेतक हैं।
लोकतांत्रिक शासनप्रणाली में पत्रकारिता के प्रश्नों का वजन और भी बढ़ जाता है। कई बार किसी एक पत्रकारीय प्रश्न से राजनीति की तस्वीर बदल जाती है। संसद में हंगामा होता है, सरकार पर खतरा मंडराता है और राजनेता ‘नो कमेंट मोड’ पर चले जाते हैं। लेकिन मई महीने के पहले सप्ताह में एक अद्भुत घटना देखने को मिली। पहली बार किसी राजनेता के सवाल से मीडिया की तस्वीर में व्यापक बदलाव देखने को मिला। पत्रकारों ने उमा भारती से निर्मल बाबा के सम्बंध में एक सवाल पूछा था। प्रश्न के उत्तर में उमा भारती ने एक दूसरा प्रश्न दाग दिया। उन्होंने कहा कि यदि निर्मल बाबा के खिलाफ अजीबोंगरीब टोटकों के जरिए कृपा बरसाने और आर्थिक अनियमितता के आरोप हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन मीडिया को अपना ध्यान अन्य पंथों में सक्रि चमत्कारी बाबाओं पर भी केंद्रित करना चाहिए। इसी संदर्भ में उन्होंने दक्षिण भारत में सक्रिय ईसाई धर्मप्रचारक पाॅल दिनाकरन का नाम लिया। उमा भारती के इस प्रतिप्रश्न ने पाॅल दिनाकरन को खबरिया चैनलों की सुर्खियों में ला दिया। अधिकांश चैनलों पर पाॅल बाबा प्राइम टाईम का हिस्सा बने। मीडिया में पहली बार तर्कशास्त्रियों के तीर मतांतरण के अभियान में संलग्न ईसाई प्रचारकों पर चले। मीडिया ने पाॅल की सम्पत्ति को खंगााला, उनके दावों की पोल खोली।
जांच-पड़ताल के दौरान पाॅल दिनाकरन के संबंध में बहुत चैंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। पाॅल दिनाकरन की संपत्ति निर्मल बाबा की संपत्ति से बीस गुना अधिक है, यानी वह लगभग 5 हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। वह स्वयं द्वारा स्थापित कारुण्य विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। ईसाई पंथ का प्रचार-प्रसार करने वाले रेनबो टीवी चैनल के मालिक हैं। जीसस काल्स धर्मार्ध न्यास के संस्थाापक हैं। सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में वह सीशा नामक एक अन्य संस्था के जरिए सक्रिय हैं। दस देशों में उनके प्रेयर टाॅवर है। अकेले भारत में उनके 32 प्रेयर टाॅवर हंै। पाॅल दिनाकरन अपने सामूहिक प्रार्थना कार्यक्रमों का जिन विशेष जगहों पर आयोजन करते हैं, उसे प्रेयर टाॅवर कहा जाता है। यह प्रेयर टाॅवर पाॅल दिनाकरन की संस्था जीसस काल्स की संपत्ति हैं।
लोगों के कल्याण के लिए वह प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना के एवज में मोटी रकम वसूलते हैं। प्रार्थना करना उनका पैतृक धंधा है। पाॅल दिनाकरन के पिता डीजीएस दिनाकरन का भी प्रमुख व्यवसाय प्रार्थना करना ही था। डीजीएस दिनाकरन तो सशरीर स्वर्ग जाने और ईसा मसीह से प्रत्यक्ष संवाद करने का भी दावा करते थे। पाॅल दिनाकरन ने इस पैतृक धंधे का आधुनिकीकरण कर दिया है। अब आप बिना प्रेयर टाॅवर जाए और बिना चेक दिए भी उनसे प्रार्थना करवा सकते हैं। प्रार्थना करने के लिए आॅनलाइन आवेदन कर सकते हैं और उनके खाते में आॅनलाईन भी ।
पाॅल दिनाकरन ने प्रार्थना के लिए कई श्रेणियां निधारित कर रखी हैं। उनके पास बेचने के लिए प्रार्थनाओं का एक पैकेज है। हर छोटी बडी समस्या का निदान उनकी प्रार्थनाएं करती हैं। मंत्री पद तक दिलवाने का दावा करते हैं दिनाकरन । जितनी बडी प्रार्थना , उतनी मोटी रकम । रकम मिलने के बाद पाॅल दिनाकरन प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना के इस पैकेज की सबसे बडी खूबी यह है कि एक बार बिकी हुई प्रार्थना फिर वापस नहीं होती। यानी पाॅल दरबार में प्रार्थना ‘भूल चूक लेनी देनी’ के लिए कोई स्थान नहीं है।
पाॅल दिनाकरन पर अकेले तमिलनाडु में 15 हजार से अधिक लोगों को मतांतरित करने का आरोप है। उनकी भविष्यवाणियों पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि वह लोगों को मतांतरण के लिए प्रेरित करते हैं। उन्होंने विश्व के सभी प्रमुख देशों के बारे में भविष्यवाणियां की हैं। वह स्पष्ट रुप से कहते हैं कि ईश्वरीय शक्तियों उन्हीं पर कृपा करेंगी जो ईसाइयत के रास्ते पर चल रहे हंै। वह प्रार्थना सभाओं में ईसाइयत की शरण में अपील करते हुए भी देखे जाते हैं।
मुद्दा यह है कि आसाराम बापू से लेकर निर्मल दरबार तक की सम्पत्ति पर सवाल उठाने वाले मीडिया की नजरें सम्पत्ति के इतने बडे साम्राज्य को क्यों नहीं देख पायी ? कहीं मीडिया ने जानबूझकर चमत्कार के इस गोरखधंधे की अनदेखी तो नहीं की ! अथवा छद्म पंथ निरपेक्षता की प्रवृत्ति मीडिया पर भी हावी हो गयी है, जो बहुसंख्यकों के मानबिंदुओं को ठेस पहुचाने को ही पंथनिरपेक्षता का पर्याय मानती है। या अन्य पंथों के चमत्कारी मठाधीशों का मीडिया प्रबंधन हिन्दू बाबाओं से बेहतर है , जिसके कारण उनसे जुडी नकारात्मक बातें मीडिया में नहीं आ पाती। यही प्रश्न उमा भारती ने मीडिया के सामने अन्य शब्दों में उठाए थे। उन्होंने कहा था कि हिन्दुओं को प्रयोग की वस्तु अथवा ‘गिनी पिग्स ’ मत बनाइए।
चर्च के मतांतरण अभियान के परिप्रेक्ष्य में भारतीय मीडिया की भूमिका का विश्लेषण करने पर उमा के प्रश्नों के उत्तर आसानी से प्राप्त किए जा सकते हैं। 5,6,7 नवम्बर 1999 अपनी भारत यात्रा के दौरान पोप जाॅन पाॅल द्वितीय ने दिल्ली में ‘ एक्लेशिया इन एशिया ’ नामक एक दस्तावेज जारी किया था। एशिया के बिशप सम्मेलन में जारी किए गए इस दस्तावेज में तीसरी सहस्राब्दी में चर्च के उद्देश्य , उसकी भावी रणनीति पर पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि तीसरी सहस्राब्दी एशिया में ‘ आस्था की फसल’ काटने का समय है और चर्च को ईश्वर द्वारा सौंपा गया काम तब तक पूरा नहीं होगा जब तक प्रत्येक व्यक्ति ईसाई न बन जाए।
‘एक्लेशिया इन एशिया’ में मतांतरण अभियान के लिए मीडिया का उपयोग करने की बात स्पष्ट रुप से कही गयी है। दस्तावेज कहता है कि मतांतरण के लिए भारत के प्रत्येक प्रदेश में मीडिया कार्यालय बनाए जाने चाहिए । यह दस्तावेज कैथोलिक स्कूलों में मीडिया प्रशिक्षण के जरिए ऐसे पत्रकारों को तैयार करने की भी बात कहता है जो मतांतरण के प्रति सहानुभूति रखते हों।
मतांतरण अभियान में मीडिया की उपयोग करना चर्च की व्यापक रणनीति का एक हिस्सा है। सूचना प्रवाह को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए चर्च मीडिया शिक्षा से लेकर मीडिया चैनलों तक में व्यापक पूंजी निवेश करता है। चर्च का यह पूंजी निवेश मीडिया की अंतर्वस्तु को प्रभावित करता है। भारत में भी कई चैनलों के लिए कैथोलिक चर्च ने व्यापक पंूजी निवेश किया है। अब उन चैनलों पर चर्च के खिलाफ खबरें तो आ नही सकती। उनके निशाने पर तो हिंदू संत ही होंगे। लेकिन अब भारत में चर्च पोषित खबरिया चैनलों का एकाधिकार टूट रहा है। कुछ ऐसे स्वतंत्र खबरिया चैनल स्थापित हो चुके हैं , जिनके लिए पांथिक सीमाएं कोई महत्व नही रखती। उनके लिए दर्शक और टीआरपी ही सबकुछ है। ऐसे चैनल चर्च के नियमों के बजाय बाजार और कुछ हद तक पत्रकारिता के नियमों से संचालित होते हैं।
उमा के सवाल से मीडिया में मचा बवाल चर्च के इशारे पर नर्तन करने वाले पत्रकारों और चर्च पोषित मीडिया घरानों के लिए यह एक अशुभ संकेत है। लेकिन भारतीय परिदृश्य में यह एक शुभ घटना है। यह घटना राजनीति और पत्रकारिता के अंतर्सम्बंधों के लिहाज से तो महत्वपूर्ण है ही । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह बताती है कि अब आकाशीय सूचनाएं अपनी जमीन से जुडने लगी हैं।

चमकता रजतपटल, चुकता स्मृतिपटल

भारतीय रजतपटल शत शरद ऋतुओं का द्रष्टा बन चुका है। वह शतायु हो गया है। आगामी 12-15 महीनों में कई तथ्य और तिथियां आपकी नजरों के सामने से बहुत बार गुजरेंगी। मसलन, प्रथम भारतीय कहानी आधारित फिल्म (फीचर फिल्म) ‘राजा हरिश्चंद्र’ है। इसके निर्माता धुंडिराज गोविंद फाल्के उपाख्य दादासाहब फाल्के थे। इस फिल्म की शूटिंग की शुरुआत 21 अक्टूबर 1912 से प्रारम्भ हुई। 21 अप्रैल 1913 को मुम्बई के ओलम्पिया हाॅल में इस फिल्म का पहला शो हुआ। यह शो पत्रकारों और बुद्धिजीवियों तक सीमित था। बाद में 3 मई 1913 को यह फिल्म जनसाधारण के समक्ष प्रदर्शित की गई। इन तमाम आंकड़ों को परोसने की प्रक्रिया में एक तथ्य को छुपाए जाने की प्रबल संभावना भी है। संभवतः पंथनिरपेक्षता की काली छाया और बाजार की कठोर काया का डर आंकड़ों के कारोबारियों को उस तथ्य का जिक्र करने से रोकगा, जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह को फिल्म निर्माण के लिए अपनी भूमि और भाषा अपनाने की ललक पैदा की। वह तथ्य यह है कि इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित मतांतरण अभियान से उपजे आक्रोश ने दादा साहब फाल्के को सिनेमा का भारतीय शिल्प गढ़ने के लिए प्रेरित किया था।
उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मिशनरियों द्वारा सिनेमा के जरिए पश्चिमी आदर्शों को भारत पर थोपने की प्रक्रिया का प्रतिरोध करने के लिए दादा साहब ने भारतीय सिनेमा स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारम्भ किए। यह एक स्थापित तथ्य है कि औपनिवेशिक शासनकाल में मतांतरण की प्रकिया को राज्याश्रय प्राप्त था। हिन्दू धर्मावलम्बियों को मतांतरित करने के लिए आर्थिक प्रलोभन और राजनीतिक प्रभुसत्ता दोनों को प्रयोग इसाई मिशनरियां कर रही थी। भारतीयों को मतांतरण हेतु मानसिक स्तर पर तैयार करने के लिए साहित्य वितरण जैसे पारंपरिक तरीकों के साथ सिनेमा जैसी नवीनतम माध्यमों का भी प्रयोग किया जा रहा था। इस कड़ी में वर्ष 1910 में भारत के विभिन्न हिस्सों में यीशु मसीह के जीवन पर आधारित एक फिल्म ‘ द लाइफ आॅफ क्राइस्ट’ दिखायी गयी। इसी फिल्म ने 39 वर्षीय दादा साहब फाल्के को समानांतर भारतीय सिनेमा को स्थापित करने की प्रेरणा दी। विदेशी भाव और भाषा में निर्मित इस फिल्म को दखने के बाद दादा साहब फाल्के ने यह महसूस किया कि ईसाई मिशनरियां सिनेमाई प्रभाव का उपयोग भारतीय संस्कृति के उच्छेदन के लिए कर रहीं है। उन्हें यह तथ्य समझने में भी समय नहीं लगा कि सिनेमा मनोरंजन तक सीमित नहीं है। इसमें सांस्कृतिक संरक्षण अथवा सांस्कृतिक उच्छेदन की असीम संभावनाए भी निहित हैं। उनकी दूरदृष्टि ने दीवार पर लिखी उस इबारत को भी पढ़ लिया था कि सिनेमा को भारतीय भाषा, भाव और भूमि से जोड़कर सांस्कृतिक नवचैतन्य के लिए संभावनाएं सृजित की जा सकती हैं।
उन्होंने अपनी पहली फिल्म के लिए जिस कथावस्तु का चयन किया और उसके निर्माण के लिए जिस तरह से संघर्ष किया, उससे भी यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए सिनेमा सांस्कृतिक संरक्षण का उपकरण था। उन्होंने किसी ऐसे भारतीय आदर्श पुरुष पर फिल्म बनाने की ठानी, जिसका भारतीय लोकमानस पर गहरा प्रभाव हो। इसके लिए उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति का लम्बे अरसे तक अध्ययन और अवलोकन किया। अंततः किसी आदर्श भारतीय पात्र की उनकी खोज महाराज हरिश्चंद्र पर समाप्त हुई। महाराज हरिश्चंद्र के चरित्र में निहित उदात्त नैतिक मूल्यों की स्मृति अब भी भारतीय लोकमानस में बनी हुई थी। कई नाटक कम्पनियां हरिश्चंद्र नाटक का मंचन करती थी और एक आम भारतीय में इस नाटक को जबरदस्त उत्सुकता भी थी। महात्मा गांधी ने इस बात को स्वीकार किया है ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाटक ने उनके जीवन का बहुत प्रभावित किया है। यह स्वीकृति इस बात को साबित करती है कि सम्पूर्ण भारत में राजा हरिश्चंद्र नाटक अत्यंत लोकप्रिय था। दादासाहब फाल्के द्वारा राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म निर्माण का निर्णय उनकी भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक संरचना की बेहतरीन समझ का संकेतक है। दरसअसल, रजतपटल को भारतीय स्मृतिपटल से जोडने की ललक ने ही दादासाहब फाल्के को महाराज हरिश्चंद्र पर फिल्म निर्माण करने के लिए प्रेरित किया ।
फिल्म निर्माण की बारीकियों को समझने के लिए 1 फरवरी 1912 को उन्होंने लंदन के लिए प्रस्थान किया। लंदन जाने के लिए उन्होंने अपनी बीमा पाॅलिसी और पत्नी के गहनों को गिरवी रखकर पैसे जुटाए थे। जाहिर है यह संघर्ष व्यवसायिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक संरक्षण के लिए था। व्यवसायिक इसलिए नहीं क्योंकि उस समय भारत जैसे देश में सिनेमा के जरिए व्यवसायिक हित साधना संभव नहीं था। फिल्म बनाना एक दुष्कर कार्य था और सिनेमा देखना एक अधम कार्य। सिनेमा को उस समय इतनी हीन दृष्टि से देखा जाता था कि दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र के महिला चरित्रों के लिए पुरुष कलाकारों का चयन करना पड़ा था। क्योंकि उस समय आम भद्र महिला तो दूर वेश्याएं भी सिनेमा में भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं थीं। तत्कालीन समाज में फिल्म के शौकीनों को भी तौहीन की नजर से देखा जाता था। फिल्म देखने के शौकीन लोगों को ‘ चवन्नी छाप ’ आदम कहकर बुलाया जाता था क्योंकि उस समय मुम्बई के नावेल्टी होटल में देशी दर्शकों के लिए टिकट का मूल्य चार आने निर्धारित किया गया था। ऐसे माहौल में फिल्म निर्माण के लिए पहल कोई सांस्कृतिक व्यक्ति ही कर सकता है , व्यवसायिक व्यक्ति नहीं।
दादा साहब फाल्के द्वारा ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रुप में रोपा गया भारतीय सिनेमा का वह नन्हा पौधा आज एक विशाल वट वृक्ष बन गया है। एक आंकडे़ के मुताबिक भारत में 1.3 करोड़ लोग प्रतिदिन वाॅलीवुड की फीचर फिल्मों को विभिन्न माध्यमों के जरिए देखते हैं। वाॅलीवुड में औसतन 1000 फिल्में सालाना बनती हैं। जबकि हाॅलीवुड में यह आंकड़ा 600 फिल्मों तक सीमित है। इस वटवृक्ष से तमिल, तेलगु, बंगाली, भोजपुरी फिल्मों की नई जडे़ं निकल आयी हैं। बाहर से देखने पर यह वृक्ष लहलहा रहा है। प्रभाव में वृद्वि हुई है। हमारे सुख, दुख, स्वप्न, शैली और शब्द सब फिल्मों की स्क्रिप्ट और धुनों के जरिए अभिव्यक्त हो रहे हैं। लेकिन क्या प्रभाववृद्वि और व्यवसायिक सफलता रजतपटल के मूल्यांकन के एकमेव आधार बन सकते हैं। भारतीय संदर्भों में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि दादा साहब फाल्के ने यह पर रजतपटल के शुरुआत सामाजिक सांस्कृतिक संरक्षण और सामूहिक स्मृतिपटल के पोषण के लिए की थी।
आज की स्थिति बिल्कुल उलटी है। रजतपटल भारतीय स्मृतिपटल को पोषित करने के बजाय उसकी जडों में मट्ठा डाल रहा हैं ,उसको खरोंचकर लहूलुहान कर रहा है। आज भारतीय रजतपटल के पास पैसा और तकनीकी दोनों हैं लेकिन भारतीयता को पोषित करने वाली दृष्टि नहीं है। उसकी अंतर्वस्तु या तो बाजारु-भारतीय है अथवा विदेशी। भारतीय समाज और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य की पहचान और अभिव्यक्ति का कोई भी प्रयास रजतपटल के चमकीले लोग नहीं कर रहे है। अभिव्यक्ति की बात तो दूर भारतीय मूल्यों को उपहास की विषयवस्तु के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है। चाणक्य जैसे धारावाहिक के निर्माता और रजतपटल की दुनिया भारतीयता को अभिव्यक्ति देने में सक्रिय कुछ गिने चुने लोगों में से एक डाॅ0चंद्रप्रकाश द्विवेदी आज की स्थितियों का सटीक आकलन करते हुए कहते हैं कि -

‘‘भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के के पास उस समय कई विषय रहे होंगे,लेकिन उन्होेंने अपनी फिल्म की कथा अतीत से चुनी। मतलब यह नहीं कि वे अतीतजीवी थे। उन्हें भारत के सामने एक आदर्श रखना था।उनका उद्देश्य था इस असाधारण उपकरण सिनेमा का इस्तेमाल हम समाज के लिए करें। आजादी और उससे पहले जो फिल्में हमारे यहां बनी उसमें भारत की जडें थी।भारतीय आत्मा थी।भारत के सवाल थे। उन सवालों के उत्तर देने की कोशिशें भी उनमें थी।पांचवें छठें दशक का सिनेमा भारतीय तत्वों से भरा था। परन्तु जैसे-जैसे सिनेमा का विकास होता गया , बाजार का दबाव बढता गया। हमारी कहानियां भारत से दूर होती गयीं। अब स्थिति ऐसी हो गयी है कि भारत के पात्र होत हैं और पीछे विदेशी भीड घूम रही होती है। हमारी गलियां भी अमृतसर , राजस्थान , यूपी और बिहार की नहीं रह गयीं, बल्कि अब हम गलियां भी न्यूयार्क , लंदन , शंघाई, स्पेन और कनाडा जैसे देशों की ढूंढ रहे हैं। ’’ (झंकार ,दैनिक जागरण , 5 फरवरी 2012 , पृष्ठ 4)

वर्तमान भारतीय रजतपटल में भारत और भारतीयता दोनों एकसिरे से गायब हैं। आज के रजतपटल में गोवध की समस्या नहीं है, मैली होती गंगा नहीं है, किसान आत्महत्या नहीं है, 90 करोड़ निर्धन नहीं हैं, बिजली से महरुम और ढिबरी से टिमटिमाते 10 करोड़ घर नहीं हंै, गांव की पगडंडिया नहीं हैं, हाथरस, भदोही, मुरादाबाद के हस्तशिल्पियों की दारुण दशा नहीं है। भारतीय स्मृतिपटल में रची बसी छवियां नहीं हैं, मुहावरे नहीं है। वह तो राजपथ, फ्लाईओवर, शाॅपिंगमाल्स से जगमगा रहा है। विदेशों में पिकनिक मना रहा है, बास्टर्ड कहने में इतरा रहा है और च्यूतिया कहने में लजा रहा है। उद्योगपतियों के कौशल को मसाला लगाकर दिखा रहा है। डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेदी इस संदर्भ में कहते हैं कि -

‘‘ पिछले 63 सालों में भारत के विभाजन पर कितनी फिल्में बनी? उंगलियों पर गिन सकते हैं 1984 के दंगों पर कितनी फिल्में हैं? कश्मीर का सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा हमारी फिल्मों का विषय नहीं हैं। आतंकवाद और नक्सलवाद को लेकर, भ्रष्टाचार को लेकर, आरक्षण को लेकर, रामजन्म भूमि विवाद को लेकर फिल्में नहीं बनी हैं। इतने सारे विषय देश में मौजूद हैं, परंतु हमारे फिल्मकारों को उनसे कोई सरोकार नहीं है।’’ (झंकार ,दैनिक जागरण , 5 फरवरी 2012 , पृष्ठ 4)

सर्वाधिक पीड़ादायी दृश्य यह है कि कई पीढि़यों से लोकस्मृति में घर कर चुकी छवियां और शब्द में रजतपटल पर जगह नहीं पा रहे हैं। 60 और 70 के दशक में फिल्मों के आधिकांश गाने लोकधुनों पर आधारित होते है। आज भी लोग उन्हें बडे आत्मीय भाव से गुनगुनाते हैं। नैन लडी जईहैं तो मनवा में खटक होईबै करी, चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिजडे वाली मुनिया ,दुख भरे दिन बीते रे भइया सुख भरे दिन आयो रे, जैसी लोकधुने अब रजतपटल से लुप्तप्राय हो गयी हैं। भारतीय नाटको की परंपरा सुखांत रही है, अच्छाई के पथ पर चलने वाले नायक की विजय सुनिश्चित होती है। लेकिन अब रजतपटल पर पश्चिमी दुखांत परंपरा हावी हो रही है। अच्छाई और बुराई की रेखाएं मिट रही हैं।
सोनचिरैया संस्था की संस्थापक और प्रख्यात लोकगायिक मालिनी अवस्थी रजतपटल पर लोकधुनों के गायब होने से काफी आहत हैं। वह रजतपटल में लोक के लिए सिमटते स्थान पर चिंता जाहिर करते हुए कहती हैं कि -‘‘स्थिति यह है कि सिर्फ गायन में ही नहीं लोक के सभी अंग -उपांग में क्षति है।लोक कलाकार के अस्तित्व से सीधे जुडा हुआ है लोक कलाओं का अस्तित्व।नक्कारा ,ताशा ,मृदंग ,झांझ,सींगी ,करताल और हुडुक जैसे वाद्य तभी तक सुरक्षित है ,जब तक कि इनके कलाकार । इन कलाओं को बचाना है तो इन लोक कलाओं को बढावा देना होगा । नई पीढी को इस अनमोल थाती से जोडना है तो लोककलाओं को अब स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा । यदि अपनी संस्कृति और अपने निजत्व की पहचान बनाए रखनी है तो समाज को हर हाल में नई पीढ़ी को लोक-साक्षर बनाना ही होगा।
निश्चय ही, वर्ण साक्षरण और ई साक्षरता से कम जरुरी नहीं है लोक साक्षरता। लोकसाक्षरता एक व्यापक शब्द है। इसका सम्बंध केवल गायन वादन से नहीं है। यह उस परंपरा से परिचय है जो भारतीय व्यक्तित्व को वैशिष्ट्य प्रदान करती है। इस परंपरा का उल्लेख किसी शास्त्रीय पोथी में नहीं है। इस परंपरा के प्राण भारतीयों के सामूहिक स्मृतिपटल में बसता है। इसी स्मृति पटल की बदौलत लाखों शब्द और छवियां समय के अवरोधों को पार करते हुए निरंतर एक पीढी से दूसरी पीढी में प्रवाहित हो रही हैं। स्मृतिपटल का चुकना भारतीयों की सबसे बडी सांस्कृतिक पराजय होगी। सामूहिक स्मृति पटल को बचाने के लिए लोकसाक्षरता आवश्यक है। यही सैकडों सालों की पराधीनता के कारण भारतीय भावभूमि पर जड जमा चुकी आत्महीनता की ग्रंथि को उखाड सकती है।
स्मृतिपटल और रजतपटल के बीच स्वस्थ संवाद स्थापित कर लोकसाक्षरता को बढाया जा सकता है , यह सवंाद स्मृतिपटल के संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। इसके लिए रजतपटल पर सांस्कृतिक समझ वाले लोगों की सक्रियता बढनी आवश्यक है। भारत में व्यवस्था परिवर्तन के आकांक्षी व्यक्तियों को भी रजतपटल को हल्के में लेने और उससे दूर रहने की प्रवृत्ति परिवर्तित करने होगी। जो रजतपटल प्रतिदिन 1.3 करोड भारतीयों तक पहुंचता है ,उन्हें हंसाने -रुलाने की क्षमता रखता है,युवावर्ग जिससे सर्वाधिक प्रभावित होता हो ,उसको नजरंदाज कर व्यवस्था परिवर्तन की रुपरेखा कैसे तय की जा सकती है? क्या श्री रामजन्म भूमि आंदोलन की सफलता में श्री रामानंद सागर कृत रामायण के योगदान को एकदम से नकारा जा सकता है। रजतपटल पर सांस्कृतिक व्यक्तियों की सक्रियता समय की मांग है। सांस्कृतिक व्यक्तियों की सक्रियता रजतपटल पर स्मृतिपटल का प्रभाव और दबाव सृजित करेगी। यह प्रभाव और दबाव सांस्कृतिक सम्पन्नता और निरंतरता के लिए आवश्यक है।
भारतीय स्मृतिपटल को लहुलूहान करने में मात्र रजतपटल की अंतर्वस्तु और तकनीकी ही जिम्मेदार नहीं है। रजतपटल से सम्बंधित सूचना-प्रवाह भी भारतीय स्मृतिपटल की जडें खोद रही है। व्यवसायिक सिनेमा के अतिरिक्त बहुत कुछ सर्जनात्मक भी रजतपटल की दुनिया हो रहा है। लेकिन फिल्म की दुनिया में उसकी कोई रिपोर्टिंग नहीं होती। बिग बाॅस को लेकर तो प्रिंट और मीडिया ने आसमान अपने सिर पर उठा लिया था लेकिन लगभग एक दशक के शोध के बाद मार्च से प्रसारित होने वाले डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी के धारावाहिक उपनिषद गंगा की चर्चा सूचना-संसार और फिल्म,धारावाहिक समीक्षा के काॅलम का हिस्सा नहीं बन सका । डाक्यूमेंट्री की समीक्षा अब भी रजतपटल पत्रकारिता का हिस्सा नहीं बन सकी है, जबकि यह फिल्मों की अपेक्षा भारतीय भावभूमि और समस्याओं से अधिक जुडी है। रजतपटल की पत्रकारिता को साहित्य समीक्षा जैसा गांभीर्य देकर रजतपटल के भारतीयकरण की दिशा में प्रारम्भिक कदम बढाया जा सकता है।

दूरदर्शन के नंबर वन होने के बाद टीआरपी के लिए स्टार प्लस भी लेगा रामायण का सहारा

भारतीय समाज के अंतर्मन में गहरे बसे भगवान राम के जीवन पर आधारित रामायण सीरियल की लोकप्रियता के चलते दूरदर्शन टीआरपी में नंबर वन पर आ गया है। 1987 के इस कार्यक्रम ने दूरदर्शन को नेपथ्य से निकालकर टीवी की दुनिया की मुख्यधारा में लाने का काम किया है। इसकी देखादेखी अब स्टार प्लस जैसे चैनल ने भी रामायण का सहारा लेने का फैसला लिया है। स्टार प्लस पर 4 मई से रामायण का प्रसाचरण शुरू किए जाने की खबर है। यह कार्य़क्रम स्टार प्लस पर रात 9:30 बजे दिखाया जाएगा। बता दें कि रामायण के समापन के बाद दूरदर्शन अब उत्तर रामायण का प्रसारण कर रहा है, जिसमें राम के पुत्रों लव और कुश के जीवन को दर्शाया गया है।

रामायण की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम ने री-टेलिकास्ट होने के बाद कई रिकॉर्ड अपने नाम कर लिए हैं। शो को जबरदस्त टीआरपी मिली है। यहां तक कि ‘रामायण’ के 16 अप्रैल के एपिसोड को दुनिया भर में 7.7 करोड़ लोगों ने देखा। इस नंबर के साथ यह शो एक दिन में दुनियाभर में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला शो बन गया है। दूरदर्शन इन दिनों महाभारत और चाणक्य जैसे प्रेरक कार्यक्रम भी दिखा रहा है। यही नहीं अपने पुराने कार्यक्रमों की लोकप्रियता को भुनाने के लिए राष्ट्रीय प्रसारक ने एक अलग टीवी चैलन डीडी रेट्रो की शुरुआत का फैसला लिया है, जिसमें सभी पुराने सीरियल ही दिखाए जाएंगे।