साक्षात्कार

सौदेबाजी की राह पर पत्रकारिता: अशोक टंडन

भारत में पत्रकारिता ने अपनी शुरूआत मिशन के तौर पर की थी जो धीरे-धीरे पहले प्रोफेशन और फिर कामर्शियलाइजेशन में तब्दील हो गई। आज पत्रकारिता कमर्शियलाइजेशन के दौर से भी आगे निकल चुकी है जिसके संदर्भ में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विशवविद्यालय के पूर्व निदेशक अशोक टंडन से बातचीत के कुछ अंश यहां प्रस्तुत है

- पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ इस दौरान आपके क्या अनुभव रहें ?

दिल्ली विश्वविद्यालय से जब मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहा था तो उस समय कुछ पत्रकारों को देखकर इस क्षेत्र की ओर आकर्षण बढ़ा। एम.ए. पूरी करने के बाद वर्ष 1970 में मुझे हिन्दुस्थान समाचार से विश्वविद्यालय बीट कवर करने का मौका मिला। वर्ष 1972 में मैंने पीटीआई में रिपोर्टिंग शुरू की और वहां विश्वविद्यालय, पुलिस, दिल्ली प्रशासन, संसद, विदेश मंत्रालय समेत लगभग सभी बीट कवर की। 28 वर्षों के दौरान मैंने लगभग 28 देशों की यात्राएं की। पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करना चुनौतीपूर्ण होता है।

- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारिता के आपके क्या अनुभव रहें?

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता के लिए पहले अपने देश को समझना होता है। भारत में जब वर्ष 1980 के दशक की शुरूआत में नान अलाइनमेंट समिट और कामनवेल्थ गेम्स समिट हुई तो उसमें रिपोर्टिंग का अवसर मिला। वर्ष 1985 में मुझे विदेश मंत्रालय की बीट सौंपी गई। इस दौरान भारत के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के साथ विदेश जाने का मौका मिला। वर्ष 1988 में मुझे पीटीआई लंदन का संवाददाता नियुक्त कर दिया गया। जब कोई पत्रकार विदेश में रहकर पत्रकारिता करता है तो उसका फोकस अपने देश पर ही रहता है।

- आप पूर्व प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार के रूप में कार्य कर चुके हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में आपका क्या अनुभव रहा?

वर्ष 1998 में लंदन से जब वापिस आया तो प्रधानमंत्री कार्यालय में काम करने का मौका मिला। इस दौरान अपने साथी पत्रकारों से सहयोग करने का कार्य किया। आमतौर पर पत्रकार मेज के एक तरफ और अधिकारी दूसरी तरफ होता है। यहां मैंने मेज के दूसरी तरफ का भी अनुभव किया। प्रधानमंत्री कार्यालय में रहते हुए देशभर के पत्रकारों व विश्व के कुछ पत्रकारों के साथ सरकार की ओर से वार्तालाप किया जो एक अलग अनुभव रहा।

- मीडिया में कमर्शियलाइजेशन का दौर कब से आया?

वर्ष 1947 से पहले पत्रकारिता को मिशन माना जाता था, वर्ष 1947-75 तक मीडिया में प्रोफेशन का दौर था। आपातकाल के खत्म होने के बाद पत्रकारिता में गिरावट आनी शुरू हो गई थी और वर्ष 1991 से उदारीकरण के कारण मीडिया में कमर्शियलाइजेशन का दौर आया। लेकिन पेड न्यूज के दौर में पत्रकारिता के लिए कमर्शियल शब्द भी छोटा पड़ रहा है।

- वर्तमान समय में पत्रकारिता जगत में आप क्या बदलाव देखते हैं?

वर्तमान दौर में सौदेबाजी की पत्रकारिता हो रही है। यदि किसी को मीडिया द्वारा कवरेज करवानी है तो उसका मूल्य पहले से ही निर्धारित होता है। कमर्शियल में समाचार पेड नहीं होता, विज्ञापन के जरिए पैसा कमाया जाता है लेकिन अब पत्रकारिता में डील हो रही है। जो लोग इसको कर रहे है वह इसे व्यावसायिक पत्रकारिता मानते हैं। पत्रकारिता में 10 साल पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। हालांकि पूरा पत्रकारिता जगत ही खराब है, मैं ऐसा नहीं मानता। पत्रकारिता में कुछ असामाजिक तत्वों के कारण पूरे पत्रकारिता जगत पर आक्षेप लगाना सही नहीं है।

- वर्तमान समय में जहां चौथे स्तम्भ की भूमिका पर सवालिया निशान खड़े किए जा रहें हैं, ऐसी दशा में क्या आपको लगता है कि इसमें कोई सुधार हो सकता है?

पत्रकारिता के स्तर में गिरावट जरूर आई है। यदि कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी अगर अपना उत्पाद बाजार में लेकर आती है तो उसे मीडिया के माध्यम से समाचार के रूप में प्रस्तुत करवाती है। राजनैतिक दलों द्वारा भी चुनाव के समय मीडिया से डील किया जाता है और संवाददाता के जरिए उम्मीदवार का प्रचार कराया जाता है। पत्रकारिता को बचाने वाले अब कम ही लोग रह गए हैं और अन्य धक्का देकर निकल रहे हैं, लेकिन मीडिया में अब भी कई लोग ईमानदारी से काम कर रहे हैं। पत्रकारिता में अभी स्थिति वहां तक नहीं पहुंची कि कुछ सुधार नहीं किया जा सकता। अच्छी पत्रकारिता आवाज बनकर उठेगी। भारतीय समाज की खूबी है कि यहां कोई भी विकृति अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुंचती, उसे रास्ते में ही सुधार दिया जाता है। पत्रकारिता में अब तक जो भी निराशाजनक स्थिति सामने आई है वह अवश्य चिंता की बात है। लेकिन जब सीमा पार होने लगती है तो कोई न कोई उसे अवश्य रोकता है। भारत में पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है।

- हाल ही में हुए जन आन्दोलन पर मीडिया कवरेज का क्या रूख रहा?

इलेक्ट्रानिक मीडिया घटना आधारित मीडिया है। घटना यदि होगी तो लोग उसे देखेंगे और इससे चैनल की टीआरपी बढ़ेगी। कुछ लोगों का आरोप है कि मीडिया खुद घटना बनाता है जो काफी हद तक ठीक भी है। प्रिंस जब गड्ढे में गिरा तो उसे तीन दिन तक दिखाया गया जिसके कारण अन्य महत्वपूर्ण खबरें छूट गई। वहीं अन्ना के आंदोलन को भी मीडिया ने पूरे-पूरे दिन की कवरेज दी जो कुछ हद तक सही था क्योंकि आम जनता टेलीविजन के माध्यम से ही इस आन्दोलन से जुड़ी। मीडिया के प्रभाव के कारण यह आन्दोलन सफल हो पाया। हालांकि सरकार ने इस दौरान मीडिया की आलोचना की क्योंकि यह कवरेज उनके पक्ष में नहीं था। मीडिया की कवरेज का ही नतीजा था कि लोगों ने इस आन्दोलन के जरिए अपनी भड़ास निकाली। यदि ऐसा नहीं होता तो इसका परिणाम हानिकारक होता। मीडिया के माध्यम से ही विदेशों में भी लोगों ने इस आन्दोलन को देखा। चीन ने तो चिंता भी व्यक्त की कि भारत का मीडिया चीन के मीडिया को बिगाड़ रहा है। भारत का मीडिया स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है। जब मैं प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत था तो गर्व महसूस किया कि विदेशों में भारतीय लोकतन्त्र की सराहना की जाती है। वह भारत की न्यायिक स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के कारण भारत के मीडिया को जीवन्त मीडिया की संज्ञा देते हैं।

- विश्व की चार सबसे बड़ी समाचार समितियां विदेशी ही है। क्या आपको लगता है कि उनका प्रभाव भारतीय मीडिया पर भी है?

यह चारों समाचार समितियां बहुराष्ट्रीय हैं और इनका मानना है कि यह स्वतन्त्र पत्रकारिता कर रही हैं लेकिन यह समाचार समिति भी किसी देश की ही है और इनके लिए देश का हित सर्वोपरि होता है। यहां राष्ट्रहित व निजी हित विरोधाभासी है। ए.पी. अमेरिका की प्रतिष्ठित समाचार समिति है। इसे सबसे पहले प्रिंट के लिए शुरू किया गया और 180 देशों में फैलाया गया। इसके पीछे उद्देश्य था कि पूरी दुनिया सूचना के तंत्र को अमेरिका के नजरिए से देखे। चीन भी आर्थिक महाशक्ति बनने के साथ अपनी समाचार समिति शिन्हुआ को विश्व में फैला रहा है। वहीं दूसरी ओर भारत आर्थिक महाशक्ति के रूप में तो उभर रहा है लेकिन दुर्भाग्यवश सूचना के क्षेत्र में हम काफी पीछे हैं। सूचना के क्षेत्र में हम पहले की अपेक्षा सिकुड़ रहे हैं। प्रसार भारती, आकाशवाणी व दूरदर्शन पहले से सिकुड़ गए हैं। भारतीय समाचार समितियों की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। हमारे देश में न तो सरकारी मीडिया का विकास हुआ और न ही समाचार समितियों को विस्तृत होने दिया गया। भारत में स्थित शिन्हुआ के ब्यूरो में 60 व्यक्ति रायटर्स के ब्यूरो में 250 व्यक्ति व एपी के ब्यूरो में 350 व्यक्ति कार्यरत है। यह समाचार समितियां भारत को विश्व में अपने चश्मे से प्रस्तुत कर रही हैं। जिस तरह भारत के फिल्म उद्योग ने विश्व में अपनी पहचान बनाई है, उसी तरह हमें सूचना के क्षेत्र में भी आगे बढ़ना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका।

- पाशचात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण आज अंग्रेजी भाषा का जो प्रचलन बढ़ा है, ऐसे में हिन्दी पत्रकारिता को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?

हिन्दी पत्रकारिता की हम जब भी चर्चा करते हैं तो हम उसको अंग्रेजी के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं जो गलत है। हिन्दी अंग्रेजी की प्रतिस्पर्धी भाषा नहीं है। भारतीय पत्रकारिता ने अंग्रेजी भाषा को कभी भी अपना प्रतिस्पर्धी नहीं माना लेकिन जब भी हिन्दी पत्रकारिता को बढ़ाने की बात की गई तो हमने कह दिया कि अंग्रेजी के कारण ऐसा नहीं हो रहा। पिछले 10 सालों में हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार हुआ है। मैं नहीं मानता कि अंग्रेजी के कारण हिन्दी पत्रकारिता को नुकसान पहुंचा है। शिक्षा में बढ़ोतरी के साथ हिन्दी के स्तर में भी वृद्धि हुई है। आज हिन्दी भाषी समाचार चैनलों की संख्या अंग्रेजी भाषी चैनलों से कहीं अधिक है। भारत में अंग्रेजी भाषा वर्ष 1947 से पहले ब्रिटिष शासन की देन है। अमेरिका के महाशक्ति बनने के कारण आज अंग्रेजी वैश्विक भाषा बन गई है। जिन देशों को अंग्रेजी नहीं आती थी, वह अंग्रेजी सीख रहे हैं। भारत को अंग्रेजी का लाभ वर्तमान समय में मिल रहा है।

मीडिया समाज हित से कट गया है- जवाहर लाल कौल

पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और उसमें आई विसंगतियों के कारण आज पत्रकारिता एवं पत्रकारों पर कई तरह के लांछन लगाए जा रहे हैं। आज पत्रकारों एवं समाचार-पत्रों द्वारा व्यक्तिगत एवं संस्थागत लाभ के लिए सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित के साथ-साथ सामुदायिक कल्याण की भावना के साथ भी खिलवाड़ किया जा रहा है। क्या ऐसे में पत्रकारिता को जनचेतना एवं परिवर्तन का औजार बनाने वाले क्रांतिकारी पत्रकारों द्वारा स्थापित परंपरा के प्रति न्याय हो रहा है? स्वाधीनता दिवस की 64वीं वर्षगांठ पर जाने माने पत्रकार जवाहर लाल कौल जी से इस विषय पर उनकी राय जानने का हम प्रयास कर रहे हैं।

प्रश्न 1.- 60 के दशक में पत्रकारिता में ऐसा क्या आकर्षण रहा जो आप इस क्षेत्र में आए? इस क्षेत्र में आपका कैसा अनुभव रहा?

उत्तर- पत्रकारिता में आने से पहले मैं सामाजिक संस्थाओं में काम करता था। इसलिए मुझे ऐसा लगा कि पत्रकारिता के माध्यम से मैं समाज के प्रति अपने सेवा भाव को पूरा कर सकता हूं। उस समय पत्रकारिता में जितना आज आकर्षण है, जैसे मनोरंजन, शान-ओ-शौकत और जो दूसरी चीजें दिखाई देती हैं, वह नहीं था। फिर भी उस समय यह आकर्षण था कि इसमें व्यक्ति अपने मन की बात दूसरों को सुना सकता है और सामाजिक दायित्व पूरा कर सकता है। इसीलिए मैं इस क्षेत्र में आया।

प्रश्न 2.- पत्रकारिता के शुरूआती दौर से लेकर अब तक पत्रकारिता जगत में आप क्या बदलाव देखते हैं?

उत्तर- जब मैं पत्रकारिता में आया था तो पत्रकारिता में जो मिशन की भावना थी, समाज व उद्देश्य के प्रति काम करने की इच्छा थी वो कुछ-कुछ जीवित थी। पत्रकारिता में वे ही लोग आते थे जो समाज को कुछ देने की इच्छा रखते थे, कठिन परिस्थितियों में भी काम कर सकते थे। पारिवारिक जीवन की असुविधाओं को भी झेल सकते थे। तब तथ्य के साथ खिलवाड़ करना गलत माना जाता था। पत्रकारों का काम सच्चाई को सामने लाना और अपनी ओर से कम से कम प्रतिक्रिया देना होता है, लेकिन धीरे-धीरे पत्रकारिता में व्यापार का तत्व बढ़ने लगा। अखबारों का उत्पादन महंगा हो गया। इसका असर पत्रकारिता पर पड़ा। संचालक व मालिक मानने लगे कि समाचार पत्र उद्योग है और इसका काम पैसा कमाना है। पैसा कमाने के लिए लोगों को आकर्षित करना होता है जिसके चलते पत्रकारिता में एक शब्द आया इन्फोटेन्मेंट या सूचनारंजन। इसमें भी धीरे-धीरे सूचना तत्व कम होता गया और मनोरंजन का तत्व बढ़ता गया। इसीलिए सच्चाई और तथ्य पिछड़ते गए। सामान्य पत्रकार और संपादक भी तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने की छूट पाने लगे। एक और महत्वपूर्ण बात इसी बीच हुई-टेलीविजन का प्रसार। किसी जमाने में अखबारी भाषा को दूसरे दर्जे की भाषा कहा जाता था। जर्नलिस्टिक लैंग्वेज को हल्का-फुल्का माना जाता था जिसे टेलीविजन ने और हल्का कर दिया। भाषा तथ्यों पर आधारित न होकर अतिरंजना पर आधारित हो गई। पत्रकारिता ग्लैमर का व्यवसाय बन गई, ऐसे व्यवसाय में पैसे का लोभ होना स्वाभाविक है, इसीलिए पत्रकारिता समाजोन्मुख नहीं रह गई है।

प्रश्न 3.- जम्मू-कश्मीर पर आपने गहन अध्ययन किया है। क्या आपको लगता है कि देश के अन्य भागों में रहने वाले नागरिकों को वहां की वास्तविक जानकारी समाचार पत्रों व चैनलों के माध्यम से हो पा रही है? अगर नहीं तो क्या और कैसे होना चाहिए?

उत्तर- मीडिया व्यापक समाज हित से कट गया है। बड़े अखबार केवल उन्हीं पाठकों तक पहुंचना चाहते है जो पाठक महंगे संसाधनों को खरीद सकते हैं और जिनके कारण बड़े-बड़े विज्ञापन प्राप्त हो सकते हैं। जिन्हें हम राष्ट्रीय समाचार पत्र कहते हैं उनमें इस बात की होड़ होती है कि वह अधिक से अधिक आर्थिक रूप से संपन्न शहरी खरीदारों को ही जुटाएं। स्पष्ट है कि समाचार देते वक्त या घटनाओं पर अपना मत व्यक्त करते समय ऐसे ही पाठकों या वर्गों का हित सर्वोपरि होता है। इस तरह समाचार देने से पूरे देश के संदर्भ में हो रही घटनाओं का सही-सही चित्रण संभव नहीं है। जम्मू-कश्मीर के सिलसिले में समाचार पत्रों में अधिकतर उन ही वर्गों और गुटों के बारे में समाचार आते हैं जो हिंसा का सहारा लेते हैं, जो नकारात्मक गतिविधियों में लिप्त हैं या जो चौंकाने वाले बयान देते हैं। इस तरह जो चित्र बनता है वो न तो पूरा होता है, न सच्चा। जम्मू-कश्मीर के बारे में मीडिया की भूमिका अक्सर उत्तरदायित्वपूर्ण नहीं रही है जिससे देश के अन्य क्षेत्रों के लोगों में अनेक तरह की भ्रांतियां पैदा हो गई हैं।

प्रश्न 4.- जम्मू-कश्मीर की ऐसी क्या स्थिति है जो मीडिया द्वारा सामने नहीं लाई जा रही है?

उत्तर- जम्मू-कश्मीर में कई तरह के लोग रहते हैं। उत्तर-पश्चिमी पहाड़ों में लद्दाख का बहुत बड़ा क्षेत्र है जहां का प्रमुख धर्म, बौद्ध धर्म है। दक्षिण में जम्मू का विशाल क्षेत्र है। घाटी और जम्मू की पहाड़ियों में गुजर और बकरवाल रहते हैं। कश्मीर घाटी में भी दो मुस्लिम संप्रदाय के लोग हैं-शिया और सुन्नी। इन सब में केवल सुन्नी संप्रदाय का एक वर्ग भारत विरोधी गतिविधियों में सक्रिय है और कुछ लोग हिंसक राजनीति कर रहे हैं। यानि पूरे राज्य की आबादी के 10 प्रतिशत लोगों की गतिविधियां ही मीडिया की रूचि का विषय है। शेष सभी वर्गों की आवाज अनसुनी कर दी जाती है।

प्रश्न 5.- जम्मू-कश्मीर की स्थानीय मीडिया के बारे में आपकी क्या राय हैं?

उत्तर- जम्मू-कश्मीर की त्रासदी है कि कश्मीरी भाषा की कोई लिपि नहीं है। जो प्राचीन लिपि थी, वह शारदा कहलाती थी। आजादी के बाद वहां के सत्ताधारियों ने उर्दू, फारसी पर आधारित एक लिपि का विकास किया लेकिन यह लिपि अवैधानिक होने के कारण नहीं चल पाई। परिणामतः प्राचीन और संपन्न होने के बावजूद कश्मीरी में लोकप्रिय पत्रकारिता पनप नहीं पा रही। वर्तमान समय में जितने भी समाचार पत्र वहां छप रहे हैं वह उर्दू या अंग्रेजी भाषा में हैं। इसीलिए आम लोगों तक पत्रकारिता नहीं पहुंच पा रही है।

प्रश्न 6.- जम्मू-कश्मीर के समाचार पत्रों का क्या दृष्टिकोण हैं?

उत्तर- वहां भी पत्रकारिता का वही रूप है जो देश में है। अलग-अलग हितों के पत्र-पत्रिकाएं मौजूद हैं। कुछ अलगाववादियों का समर्थन करते हैं, तो कुछ राष्ट्रीय दृष्टिकोण को सामने लाते हैं। इनमें भी क्षेत्रीय विभिन्नता है। कश्मीर की पत्र-पत्रिकाएं अलगाववाद से प्रभावित है जबकि जम्मू में राष्ट्रीय पक्ष को प्रमुखता दी जाती है।

प्रश्न 7.- वर्तमान विदेश नीति को आप किस प्रकार देखते हैं?

उत्तर- वर्तमान विदेश नीति में किसी सकारात्मक पहल का सर्वथा अभाव है। विदेश नीति किसी देश की सुरक्षा नीति का आयाम होती है, लेकिन दुर्भाग्य से इस समय भारत चारों ओर से ऐसे देशों से घिरा हुआ है जो शत्रुवत व्यवहार कर रहे हैं। बड़े देशों की बात तो अलग, नेपाल, बांग्लादेश जैसे छोटे देश भी भारत के हितों के विपरीत नीतियां अपना रहे हैं। यह हमारी विदेश नीति की असफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है कि भारत अपने ही आंगन में अकेला पड़ गया है।

प्रश्न 8.- पत्रकारिता और बाजार के बीच संबंधों पर आपने गहन अध्ययन किया है। आपकी राय में बाजार किस तरह पत्रकारिता को प्रभावित कर रहा है?

उत्तर- पत्रकारिता बाजार का ही हिस्सा है। जिस समय पत्रकारिता एक मिशन थी, उस समय पत्रकार एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हुआ करता था। अब महंगी टेक्नोलॉजी और व्यापक प्रसार संख्या के कारण मीडिया पर पूंजीपतियों और व्यापारिक निगमों का वर्चस्व हो गया है। इसलिए आज के उपभोक्ता समाज में मीडिया बाजार पर न केवल आश्रित है बल्कि बाजार के हितों का संरक्षण करती है।

प्रश्न 9.- प्रधानमंत्री मनामोहन सिंह ने मीडिया पर आरोप लगाया है कि मीडिया देश की समस्याओं को लेकर जज की भूमिका अदा कर रहा है। क्या सरकार मीडिया पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रही है?

उत्तर- सरकार को मीडिया पर नियंत्रण करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि सरकार जिस उपभोक्तावाद का स्वयं प्रसार कर रही हैं उसी उपभोक्तावाद का माध्यम देश के अखबार भी है। सरकार इस बात को समझती है कि मीडिया को परोक्ष रूप से प्रभावित करना आसान है लेकिन प्रत्यक्ष नियंत्रण सरकार के लिए भी खतरनाक हो सकता है।

प्रश्न 10.- व्यवस्था परिवर्तन को लेकर देशभर में चल रही बहस पर मीडिया के नजरिए को आप किस परिप्रेक्ष्य में देखते हैं?

उत्तर- व्यवस्था परिवर्तन मीडिया के लिए एक खबर है। वर्तमान व्यवस्था को बदलने की न तो मीडिया में इच्छा है और न ही क्षमता।

प्रश्न 11.- न्यूज ऑफ द वर्ल्ड साप्ताहिक पत्र के बंद होने की घटना को मूल्य आधारित पत्रकारिता की समाप्ति की घोषणा मान सकते है?

उत्तर- ऐसी सारी पत्रिकाओं के बंद होन से ये तो पता लगता ही है कि मुनाफे के इस व्यापार में केवल सामाजिक दायित्व का काम करना कितना कठिन हो गया है।

प्रश्न 12.- आपके विचार में भारत की भावी दिशा क्या होनी चाहिए और यह कैसे संभव है?

उत्तर- जब 1947 में हमारा देश आजाद हुआ तो हमने अपनी दिशा तय नहीं की क्योंकि हमने ऐसी व्यवस्था अपना ली जो पहले से बनी हुई थी। हम लगभग उसी दिशा में चल रहे थे जिसमें आजादी से पहले चलते थे। इसीलिए अगर देश को बदलना है तो यह मानकर चलना होगा कि जिस तरह की व्यवस्था अपनानी है वह यहीं की परिस्थितियों, यहीं की मनीषा और यहीं के सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हो सकती हैं। दिशाएं स्वयं बनाई जाती हैं, आयातित नहीं होती।

मीडिया से मल्टी-मीडिया बनी पत्रकारिता: बलदेव भाई

भारतीय पत्रकारिता व्यावसायिकता की दौड़ में अपने कर्तव्यों से विमुख होती जा रही है। प्रौद्योगिकी के विकास और भारी पूंजी के चलते पत्रकारिता पहले मीडिया में तब्दील हुई और अब यह मल्टी मीडिया बन गई है। मीडिया के इस बदलते स्वरूप पर पांचजन्य के संपादक बलदेव भाई से बातचीत के प्रमुख अंश:

-पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

पत्रकारिता सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का सबसे सार्थक माध्यम है, यह मानकर मैं इस क्षेत्र में आया। मेरे कुछ वरिष्ठ जनों का मार्गदर्शन मुझे इस क्षेत्र में मिला और मैं धीरे-धीरे पत्रकार बनता चला गया।

-पत्रकारिता के क्षेत्र में आपके क्या संघर्ष रहे?

पत्रकारिता में मैं उस समय आया जब यह क्षेत्र व्यावसायिक रूप में इतना प्रचलित नहीं हुआ था। तब पत्रकार बनने के पीछे एक सामाजिक दायित्व होता था, कुछ मकसद रहता था कि इसके माध्यम से देश व समाज के लिए तथा विशेषकर उन वर्गों के लिए जिनकी आवाज सामान्यतः दबी रहती है, काम किया जा सकता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में वह लोग ज्यादा आते थे जिनको लगता था कि सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन में पत्रकारिता एक सशक्त माध्यम है। उस समय दूसरे तरीके के संघर्ष थे। कम साधनों में ज्यादा काम करना पड़ना था। लोग कम थे। कई प्रकार की कठिनाइयां उठानी पड़ती थी। वेतन इतना कम था कि लोग पत्रकार बनने के लिए लालायित नहीं होते थे, जिस प्रकार से आज हैं। आज पत्रकारिता में वेतन, सुविधाएं और रूतबा बढ़ गया है। अब तो कम्प्यूटर पर सारा कार्य कर लिया जाता है, उस समय हैन्ड कम्पोजिंग का दौर था। प्रूफ पढ़ना और फिर गलतियां सुधरवाना बहुत कठिन था। उस समय प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष ज्यादा नहीं था लेकिन काम की प्रकृति को लेकर काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था।

-पत्रकारिता में संघर्ष के दौरान आपका कोई रोचक अनुभव?

जब मैं ग्वालियर स्वदेश में था तो एक बार रिपोर्टिंग के लिए जा रहा था। रास्ते में इंद्रगंज थाने पर मैंने देखा कि 8-10 लोग खड़े थे। वहां एक महिला रो-रो कर थानेदार से कह रही थी कि मेरी बेटी 20 दिन से गायब है, जवान है, मेरी मदद कीजिए। पुलिस वाले मदद करने के बजाय कह रहे थे कि वह भाग गई होगी। यह देखकर मैं बुढि़या को अपने कार्यालय ले आया। मैंने अपने क्राइम रिपोर्टर को बुलाया। बुढि़या ने बताया कि वह शहर में मजदूरी करने आई है, उसका एक पड़ोसी जो कि धनी था, उसकी बेटी पर बुरी नजर रखता था। बुढि़या ने आगे बताया कि उसी लड़के ने मेरी बेटी को उठाया है और पुलिसवालों ने उससे पैसे खाए हैं। हमने 3-4 दिन तक इस खबर को छापा जिसके बाद एसएचओ डर गया और 2 दिन में मामला सुलझ गया।

-वर्तमान पत्रकारिता के दौर में आप क्या बदलाव देखते हैं?

वर्तमान में बहुत कुछ बदल गया है। पत्रकारिता पहले मीडिया बनी और अब यह मल्टीमीडिया बन गया है। सामाजिक क्षेत्र में मीडिया का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। अब कोई चीज उसकी नजरों से अछूती नहीं रह सकती। उसका बहुत विस्तार हो गया है। मीडिया अब तकनीक पर आधारित हो गया है जिसके कारण इसकी पहुंच बहुत दूर तक हो गई है। इसके कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। तकनीकी प्रभाव के कारण इसकी गति बहुत तेज हो गई है, जिसके कारण इसकी पहुंच बढ़ गई है। यह बदलाव कई दृष्टियों से सकारात्मक भी है।

-क्या मीडिया अपने पत्रकारीय मूल्यों से भटक रहा है?

यह पूरी तरह से जनअवधारणा बन गई है कि पत्रकारिता की शुरूआत जिन मूल्यों व जिन सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए और जिस राष्ट्र के नवनिर्माण के भाव को लेकर हुई, वह लुप्त हो रहे हैं। एक समय में मिशन कहा जाने वाला मीडिया अब मिशन से हट कर पूरी तरह व्यावसायिक हो गया है। यह अलग बात है कि व्यावसायिकता में दौड़ते हुए भी मीडिया कुछ काम ऐसे कर जाता है जो उस मिशन की थोड़ी संवर्द्धना करता है, लेकिन मीडिया की दृष्टि पैसा कमाना ही रहती है। स्वाधीनता आन्दोलन में मीडिया सबसे सशक्त माध्यम था। स्वाधीनता आन्दोलन के लगभग सभी नेताओं ने पत्रकारिता के माध्यम से ही जनजागृति उत्पन्न की। उस समय पत्रकारिता के साथ राष्ट्रीय भावना जुड़ी हुई थी और स्वाधीनता के बाद भी आशा जताई जा रही थी कि राष्ट्र के नवनिर्माण में भी मीडिया की भूमिका बदले हुए रूप में सामने आएगी लेकिन दुर्भाग्य से स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे पत्रकारिता का मिशन लुप्त होता चला गया। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि पत्रकारिता पहले मिशन थी, फिर प्रोफेशन हुई और अब सेंसेशन हो गई। अब तो पत्रकारिता सेंसेशनिज्म में लगी हुई है यानि सनसनी पैदा करके लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना। मीडिया में अनेक विदेशी कंपनियों का पैसा लगा हुआ है जिसने मीडिया की पूरी दृष्टि बदल दी है। मीडिया अब जनता की आवाज बनने वाला सशक्त माध्यम नहीं रहा। अब तो अखबारों में होड़ रहती है कि पेज 3 को किस तरह ज्यादा से ज्यादा आकर्षक बनाया जा सकता है। जबकि भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या का पेज 3 से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया अभिजात्य वर्गों के लिए मनोरंजन बन गया है।

-क्या मीडिया अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को सही ढंग से निभा पा रहा है?

मीडिया का अभी भी मानना है कि यह अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को सही ढंग से निभा रहा है लेकिन इसके क्रियाकलापों को देखकर ऐसा नहीं लगता। पिछले दिनों नीरा राडिया का मामला जब सामने आया तो कितनी दुर्भाग्य की स्थिति बनी कि कई ऐसे बड़े पत्रकार जिन्हें लोग आदर्श समझते थे, वह सत्ता की दलाली में संलिप्त पाए गए। उनकी भूमिका यहां तक देखी गई कि कौन मंत्री बने और कौन किस पद पर विराजमान हो। यह राष्ट्रीय भाव से नहीं बल्कि निजी लाभ के लिए हुआ। सत्ता के गठजोड़ से पैसा, प्रतिष्ठा, पद कमाने के लिए हुआ। आज राष्ट्रीय मीडिया अपने उद्देश्यों से भटका हुआ है। बल्कि छोटे शहरों के पत्रकार व मीडिया संस्थान राष्ट्रीय उद्देश्यों के प्रति जिम्मेदार दिखाई देते हैं।

-हाल ही में सरकार की ओर से मीडिया पर कई टिप्पणियां आई है, क्या सरकार इस तरह मीडिया को दबाना चाहती है?

कोई भी सरकार नहीं चाहती कि मीडिया स्वतंत्र और सशक्त हो। बिहार में कई वर्षों पहले जगन्नाथ मिश्र की सरकार ने मीडिया पर शिकंजा कसने व काला कानून बनाने का प्रयास किया व आपातकाल के समय इंदिरा गांधी ने पूरी ताकत मीडिया को कुचलने में लगा दी। सरकार भी मीडिया नियमन का प्रयास कर रही है लेकिन मीडिया भी सरकार के इस प्रयास को बल देता है। मीडिया को अपनी आचार संहिताओं का पालन करना चाहिए और मीडिया पर कयास लगाने के मौके नहीं देने चाहिए।

-मजीठिया आयोग की सिफरिशों से आप कहां तक सहमत हैं?

पालेकर आयोग से लेकर अब तक जितने आयोग बने हैं, वह सब पत्रकारों के हितों को ध्यान में रखकर हैं। इससे पहले पत्रकारों की काम करने की शर्तें, उनके वेतन, सुविधाएं नगण्य थी लेकिन इन आयोगों ने चिंता जाहिर की कि विविध क्षेत्र में जोखिमपूर्ण कार्य करने वाले पत्रकारों के आर्थिक हितों की सुरक्षा की जाए और इसीलिए इन आयोगों ने, चाहे वह पालेकर आयोग हो, बछावत आयोग हो या मजीठिया आयोग हो, सबने पत्रकारों की आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सिफारिशें प्रस्तुत की। यह सभी सिफारशें उपयोगी हैं और इन्हीं के कारण पत्रकारों की स्थितियों में सुधार आया है। मजीठिया आयोग की सिफारिशों को भी लागू किया जाना चाहिए।

-दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्र में क्या अंतर है?

दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्र के उद्देश्य में बहुत अंतर नहीं है, कार्यशैली में व्यापक अंतर है। दैनिक समाचार पत्र एक प्रकार से समाचारों पर आधारित काम में जुटा हुआ है और इसमें काम का दबाव बहुत ज्यादा रहता है। उसकी डैडलाइन की चिंता करनी पड़ती है। संख्या बहुत अधिक होने के कारण दैनिक समाचार पत्रों में प्रतिस्पर्धा का दबाव बहुत ज्यादा रहता है। कल पर कुछ नहीं टाला जा सकता, जो करना है आज ही करना होता है। दैनिक समाचार पत्र की पूरी टीम पूरे समय दबाव में रहकर काम करती है। साप्ताहिक समाचार पत्र में थोड़ी फुर्सत रहती है, लेकिन इसमें जिम्मेदारी यह रहती है कि पूरे सप्ताह में जो भी घटित हुआ है, उसका विश्लेषणात्मक वर्णन अपने पाठकों तक पहुंचाना होता है। इसमें चुनौती रहती है कि सम्पूर्णता के साथ विषय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है या नहीं, लेकिन काम का दबाव इसमें कम रहता है।

-मीडिया की भावी दिशा क्या होनी चाहिए?

मीडिया की प्रारम्भिक या भावी एक ही दिशा होनी चाहिए कि वह समाज व देश के लिए समर्पित होकर कार्य करे और उसके प्रयासों से समाज में विघटन, अलगाववाद व अराजकता की स्थितियां खत्म होनी चाहिए और देश में एक ऐसा वातावरण तैयार होना चाहिए जिससे असामाजिक तत्वों को बल न मिले। अगर मीडिया इतना सशक्त हो जाएगा तो देश की समस्याएं भी खत्म हो जाएगी। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद ने साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक प्रस्तुत किया है जो इतना खतरनांक है जिसमें हिन्दुओं को घोषित अपराधी मान लिया गया है। कुछ राष्ट्रीय मीडिया को छोड़ दें तो किसी भी मीडिया संस्थान ने लोगों को इस विधेयक के प्रति जागरूक करने का प्रयास नहीं किया। मीडिया अगर सतर्क नहीं होगा तो देश की सत्ता पर बैठे लोग अपने वोट बैंक के लिए देश को खतरे में डाल सकते हैं। भारतीय पत्रकारिता की नींव को ध्यान में रखकर वर्तमान में भी मीडिया को राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए। पत्रकारों को मीडिया की शक्ति का दुरूपयोग करने से बचना चाहिए।

-पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले नवागंतुकों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

मीडिया में आने वाले नवागंतुकों को सबसे पहले मैं बधाई देना चाहता हूं। उन्हें मीडिया में ग्लैमर और मीडिया की शक्तियों का दुरूपयोग करने से बचना चाहिए। मीडिया के भविष्य को बचाने की जिम्मेदारी उन्हीं के हाथों में है। वह सामाजिक प्रतिबद्वता, देश की सेवा व नवनिर्माण की भावना लेकर मीडिया के क्षेत्र में आए। नए लोगों को अध्ययन में अपनी रूचि बनानी पड़ेगी, बिना अध्ययन के हम अपने विचारों को सशक्त नहीं कर सकते।

पंचायती राज से रूबरू नहीं है मीडिया : श्रीपाल जैन

पंचायतों को लेकर मीडिया अक्सर भ्रष्टाचार, सरपंच की हत्या, मारपीट व रेप जैसी खबरों का ही प्रसारण करता है, जबकि पंचायती राज से समाज में कुछ सकारात्मक बदलाव भी आए हैं। पत्रकारिता के वर्तमान दौर को लेकर पंचायती राज के संपादक श्रीपाल जैन से बातचीत के कुछ अंश:

-पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

उदयपुर से जब मैं पीएचडी कर रहा था तो मैं दैनिक हिन्दुस्तान, दिनमान, धर्मयुग जैसे अखबारों में लिखता रहता था। 1981 में मैंने हिन्दुस्तान में उप संपादक के पद पर कार्यभार संभाला। उस समय मुझे पत्रकारिता व लैक्चरर में से किसी एक विकल्प को चुनना था। दिल्ली का एक आकर्षण होने के कारण मैंने पत्रकारिता को चुना। हिन्दुस्तान में मैंने सहायक संपादक और वरिष्ठ सहायक संपादक के पद पर कार्य किया। वर्ष 2008 में मैंने पंचायती राज पत्रिका में संपादक का पद संभाला।

-पत्रकारिता के दौरान आपके क्या रोचक अनुभव रहे?

पत्रकारिता के दौरान मेरे दो रोचक अनुभव रहे। शेख अब्दुल्ला जब बीमार चल रहे थे तो हिन्दुस्तान के संपादकीय पृष्ठ पर उनके उत्तराधिकारी को लेकर एक लेख जा रहा था। रात 1 बजे के करीब खबर आई कि उनका निधन हो गया। उस समय कई संस्करण जा चुके थे लेकिन दिल्ली के लिए जो संस्करण जा रहा था उसमें मैंने उस लेख को थोड़ा सा बदल दिया। उसके अगले दिन मुझे और मेरे साथियों को सराहना पत्र दिया गया। दूसरा अनुभव था कि एक दिन नाइट शिफ्ट के दौरान राजनीतिक विषय पर एक लीड बनी हुई थी। करीब पौने दो बजे खबर आई कि सलमान रूश्दी के खिलाफ अयातुल्लाह खुमैनी ने मौत का फतवा जारी कर दिया है। मैंने पहली वाली लीड खबर को नीचे करके इस खबर को लीड बना दिया जिसके लिए संपादक ने अगले दिन मेरी सराहना की।

-वर्तमान पत्रकारिता के दौर में आप क्या परिवर्तन देखते हैं?

पत्रकारिता के क्षेत्र में तीन स्तर पर परिवर्तन आए हैं। पहला विषय वस्तु, दूसरा प्रस्तुतीकरण और तीसरा साधनों के स्तर पर परिवर्तन आया है। विषयवस्तु के स्तर पर देखा जाए तो आज बॉलीवुड, ब्यूटी और फैशन का आवश्यकता से अधिक कवरेज बढ़ गया है। इसके अलावा आर्थिक विषयों का भी कवरेज बहुत बढ़ गया है। कभी-कभी तो कंपनियों की तिमाही रिपोर्ट ही पहले पेज पर लगा दी जाती है, विशेषकर अंग्रेजी अखबारों में। इन सबके कारण मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग का कवरेज अधिक बढ़ गया है और निम्न वर्ग जैसे किसान, मजदूर व आम आदमी के मुद्दों को उठाने वाली ग्राम पंचायतों का कवरेज घट गया है। अंग्रेजी अखबारों में तो ग्राम पंचायतों का जिक्र तक नहीं होता। दूसरा साज सज्जा के आधार पर भी परिवर्तन आया है। आज खबरों के साथ हाईलाइटर, आकर्षक चार्ट व मैप देने का चलन बढ़ गया है जो सराहनीय है। लेकिन आज अखबारों में आर्टिस्टों की जगह डिजाइनरों ने ले ली है जिसके कारण कार्टूनिस्ट का पतन हुआ है। खबरों के प्रस्तुतीकरण के आधार पर भी परिवर्तन हुआ है। आज स्टोरी को मुहावरों व दमदार अंदाज में प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन खबरें संक्षिप्तीकरण से ग्रस्त होती जा रही है जिसका कारण विज्ञापन है।

-पंचायती राज से क्या समाज में कुछ परिवर्तन आ रहे हैं?

पंचायती राज से समाज में दो ढंग के परिवर्तन आ रहे हैं। एक तो महिला सशक्तिकरण का सिलसिला बढ़ा है। आज देश के 12 राज्यों में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण है। करीब 30 लाख प्रतिनिधियों में 13-14 लाख महिलाएं हैं। वहीं स्थानीय स्तर पर महिलाओं के राजनीति में आने से राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के द्वार खुलते हैं। दूसरा, 73 और 74 संवैधानिक सुधार के बाद केन्द्र व राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की राशि सीधा पंचायतों के खातें में जा रही है। पहले यह राशि नौकरशाहों के पास जाती थी। इससे नौकरशाहों का भ्रष्टाचार कम हुआ है लेकिन राजनीतिक भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। कई मामलों में तो यह भी देखा गया है कि नौकरशाह व निर्वाचित प्रतिनिध मिलकर भ्रष्टाचार कर रहे हैं।

-पंचायती राज पर मुख्यधारा की मीडिया का क्या रूख है?

मुख्यधारा की मीडिया पंचायती राज को अधिक कवर ही नहीं करता और स्थानीय मीडिया कवर करता भी है तो वह भ्रष्टाचार, मारपीट, सरपंच की हत्या, सरपंच द्वारा रेप, रिश्वत लेना जैसी खबरें देता है। मीडिया को पंचायती राज के बारे में ज्यादा जानकारी ही नहीं है कि पंचायती राज कार्य कैसे करता है। पंचायतों को लेकर मीडिया के पास अच्छी जानकारी नहीं है।

-प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में से कौन पत्रकारीय मूल्यों को बेहतर तरीके से निभा पा रहा है?

तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो प्रिंट मीडिया ज्यादा विश्वसनीय है। लेकिन दोनों ही मीडिया आंशिक या पूर्ण रूप से एकपक्षीय होते जा रहे हैं। पत्रकारों की राजनेताओं से निकटता होती है। आज पत्रकार इस निकटता का प्रयोग धन कमाने में कर रहा है। पहले यह खाना खिलाने या डायरी देने तक ही सीमित था लेकिन राजनेताओं से निकटता के कारण आज पत्रकार कई काम करा लेता है। इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ रहा है कि कई बार राजनेताओं के खिलाफ खबर छपती भी नहीं है।

-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की रिपोर्टिंग के बारे में आपका क्या मत है? क्या आप इससे संतुष्ट हैं?

अखबारों में अंतर्राष्ट्रीय समाचारों का कवरेज घटा है और इसके स्पष्ट कारण है। एक तो जबसे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का उदय हुआ है, राजनीतिक उथल-पुथल ज्यादा होती रही है। इस उथल-पुथल के पीछे की राजनीति और इस उथल-पुथल के कारणों पर पत्रकार टिप्पणी करने लगे हैं। इससे संबंधित खबरें जा रही हैं। वहीं भ्रष्टाचार, रेप, अपराध जैसी खबरें इतनी बढ़ गई है कि अंतर्राष्ट्रीय खबरों का कवरेज कम हो रहा है। दूसरा अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर देखें तो अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर समस्याएं कम हुई है। सोवियत संघ के पराभव के बाद दुनिया बहुध्रुवीय हो गई है। चीन, भारत, ब्राजील जैसे देशों का उदय हो रहा है। आज युद्ध का दायरा भी सिमट गया है। आज युद्ध के मृतकों की संख्या 90 प्रतिशत तक कम हो गई है। इसके कारण भी कवरेज कम हो रहा है।

-आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मध्यपूर्व, अफ्रीका, अमेरिका में जो संघर्ष चल रहे हैं, उसको लेकर क्या भारतीय मीडिया पश्चिमी नजरिए से देखना चाहती है?

यह बात काफी हद तक सही है। हम पहले भी पश्चिमी नजरिए से देखते थे। वामपंथी नजरिए से भी देखने वाले लोग थे, लेकिन उनकी संख्या काफी कम थी। वैश्वीकरण के दौर में हम पश्चिमी देशों के बहुत नजदीक आए। इस कारण हमारा नजरिया पश्चिम के नजरिए से ही देखने का रहा है। हालांकि यह संतुलित नजरिया नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज पश्चिम में ही वैश्वीकरण का विरोध हो रहा है। विश्व बैंक ने भी माना है कि अति उदारीकरण से स्थिति खराब भी हो सकती है।

-आर्थिक पत्रकारिता पर मीडिया का क्या रूख है?

मीडिया का रूख बहुत दुर्भाग्यशाली है। मीडिया में आर्थिक मामलों की समझ रखने वाले बहुत कम लोग हैं। जबकि यह ट्रेनिंग के स्तर पर होना चाहिए। उप संपादकों, पत्रकारों को अर्थव्यवस्था संबंधी अच्छी जानकारी दी जानी चाहिए।

-वर्तमान दौर में राजनीतिक पत्रकारिता पर आपकी क्या राय है?

राजनीति के क्षेत्र में खोजी पत्रकारिता बढ़ी है, लेकिन कई बार खबरें एकपक्षीय होती है। सामान्य तौर पर कहा जाता है कि पत्रकार बिक जाता है और यह सिलसिला निश्चित रूप से ज्यादा ही बढ़ा है। दूसरी ओर राजनीतिक पत्रकारिता को अधिक महत्व देने से दूसरी खबरें घटी है। आम आदमी की चुनौतियों और समस्याओं की खबरें कम जाती है।

-आज मीडिया के संपादकीय पृष्ठ का ढांचा पूरी तरह से बदल गया है। इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?

इसको दो स्तर पर देखा जा सकता है हिन्दी और अंग्रेजी समाचार पत्र। अंग्रेजी समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर अधिकतर लेख विशेषज्ञों और विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों द्वारा लिखे जा रहे हैं। उनकी भाषा शैली ऐसी होती है जिसे आम लोगों को समझने में कठिनाई होती है। हिन्दी में भी यही परंपरा चल रही है कि विशेषज्ञ ही लिखेंगे। वह ज्यादा मेहनत करके नहीं लिखते और अधिकतर अनुवादित ही होता है। यह कार्य इतनी जल्दी होता है कि कई बार वाक्य संरचना में भी गड़बड़ हो जाती है। इस प्रकार भाषा की दृष्टि से वह ऊबऊ होते है और उसका एक सही अर्थ नहीं निकलता। अतः इसके लिए जरूरी नहीं है कि नामी विशेषज्ञों से लिखवाया जाए। थोड़ा छोटे स्तर के लेखकों से भी लिखवाना चाहिए और लेखकों के बीच प्रतिस्पर्धा कायम रखनी चाहिए।

-कई बार नॉन ईश्यूज पर भी लिखा जाता है। इस पर आपकी क्या राय है?

यह भी सही बात है कि कई बार नाॅन ईश्यूज पर लिखा जा रहा है जैसे मसलन जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन एक हकीकत है और एक हाईप भी है। इसी प्रकार एड्स को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि भारत में 50 लाख लोग एचआईवी पोजिटिव है और 10 साल बाद के आंकड़ें 25 लाख बताए गए। इस प्रकार एड्स को लेकर हाइप बना दिया गया। देव आनंद के निधन पर भी यही स्थिति देखने को मिली। निश्चित रूप से वह देश के बड़े कलाकार थे लेकिन उनको लेकर अखबारों के पेज भर दिए गए।

-आमतौर पर कहा जाता है कि मीडिया से आम आदमी के मुद्दें गायब होते जा रहे हैं। क्या आप इससे सहमत हैं?

निश्चित रूप से मीडिया से आम आदमी के मुद्दें गायब होते जा रहे हैं क्योंकि भारत वर्ष में दो चीजें बहुत महंगी हो गई है। पहली शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य। यह गरीबों की पहुंच से बाहर हो गए हैं। वहीं शिक्षा में कैसे माफिया काम कर रहा है, आज तक मीडिया ने इसे हाईलाइट नहीं किया और स्वास्थ्य में कितनी नकली दवाएं आ रही हैं व स्वास्थ्यकर्मी कितने अनुशासन में रहते हैं, इस बारे में भी अधिक कवरेज नहीं होता। जबकि मानव विकास सूचकांक में भारत बहुत पीछे चल रहा है। इसके आधारभूत तत्वों में स्वास्थ्य और शिक्षा भी शामिल है। आज बांग्लादेश हमसे स्वास्थ्य में और श्रीलंका हमसे शिक्षा में आगे बढ़ रहा है।

-मीडिया पर उठ रहे सवालिया निशानों को मद्देनजर रखते हुए क्या मीडिया पर निगरानी आवश्यक है?

मीडिया की निगरानी अति होने पर आवश्यक है। वैसे मीडिया को आत्मनियंत्रक होना चाहिए। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो एक न एक दिन ऐसी स्थिति आ सकती है।

-क्या मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए?

बिल्कुल, मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए। कई बार मीडिया गैर जिम्मेदारपूर्ण आचरण करता है, चाहे वह मालिक के कारण हो, संपादक के कारण हो या किसी लालच में हो।

-आम लोगों की नजरों में मीडिया का स्तर जो गिर गया है, उसके लिए क्या प्रयास किए जाने चाहिए?

इसके लिए तीन स्तरों पर प्रयत्न किए जाने चाहिए। पहला, सरकार और अदालत के स्तर पर प्रयास होना चाहिए। मीडिया में अगर अपमानजनक और गलत खबर छपी तोे उसके लिए मीडिया के संबन्धित व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जाए और उस पर दोषसिद्धि करके सजा दी जाए। यह सजा आर्थिक भी हो सकती है। दूसरा, खुद मीडिया के लोगों को आत्ममंथन करना चाहिए। तीसरे स्तर पर प्रबंधन है। मीडिया के प्रबंधकों को प्रशिक्षण पर ध्यान देने के लिए कदम उठाने चाहिए।

दाम मजदूर से कम, काम मालिक की निगरानी : अजय मित्तल

पत्रकारिता के प्रारम्भिक दौर में इसे अभिव्यक्ति के साथ-साथ जनजागरण का माध्यम माना जाता था। किन्तु वर्तमान परिवेश में बदल रही पत्रकारिता की दिशा और दशा दोनों ही चिन्ता का विषय बनते जा रहें हैं। पत्रकारिता जगत में हो रहे इस परिवर्तन में कौन सी प्रक्रिया उचित है? इसके बारे में हम यहां राष्ट्रदेव पत्रिका के संपादक श्री अजय मित्तल जी से उनके विचार जानने का प्रयास कर रहें हैं-

प्रश्न 1.- आपका पत्रकारिता के क्षेत्र में आने का क्या उद्देश्य रहा?

उत्तर- पत्रकारिता चुनौतिपूर्ण व्यवसाय है। जो सत्ता सारी व्यवस्थाओं की निगरानी करती है, उसकी भी निगरानी करने का दायित्व पत्रकार का है। इसीलिए समाज को कुछ वैचारिक बदल की ओर अग्रसर करने के लिए मैंने पत्रकारिता को चुना जिससे आम लोग समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए अपना योगदान दे सकें।

प्रश्न 2.- वर्तमान समय में आप पत्रकारिता के क्षेत्र में क्या बदलाव देखते हैं?

उत्तर- आज पत्रकारिता अपने मार्ग से भटक रही है। पत्रकारिता के आधार पर प्राप्त शक्तियों का पत्रकार दुरूपयोग कर रहे हैं। पहले पत्रकार देश में हो रहे घपलों, घोटालों व भ्रष्टाचार को उजागर करते थे लेकिन अब वह इसका हिस्सा बन रहे हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जिस तरह शीर्ष पत्रकारों का नाम आया उससे पत्रकार की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में सभी स्तरों के पत्रकार प्रेस को प्राप्त अधिकारों को अपने विशेषाधिकार समझने लगे हैं और इसका दुरुपयोग कर रहे हैं। स्वयं की सहूलियत के लिए पत्रकार ऐसा करते हैं। उनमें अब समाज के दिशा निर्देशक के बजाए राजनेता के गुण आ रहे हैं।

प्रश्न 3.- राष्ट्रीय महत्व के मुददों पर मीडिया की भूमिका और प्रभाव को आप किस प्रकार से देखते हैं?

उत्तर- सामान्य आदमी के पास न तो तथ्यों की जानकारी होती है और न ही विश्लेषण क्षमता। तथ्य और उनका विश्लेषण वह मीडिया से ही प्राप्त करता है। मीडिया ने आम आदमी की इसी कमजोरी का लाभ उठाकर अपनी इच्छानुसार तथ्यों और विश्लेषणों को प्रस्तुत करना और उसके अनुसार समाज को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। मीडिया को अगर भ्रष्टाचार से कुछ प्राप्त होने की उम्मीद होती है तो वह तथ्यों में बदलाव कर देती है या उसे खत्म ही कर देती है। वहीं मीडिया को यदि कुछ निजी लाभ नहीं मिलता तो वह उन्हीं तथ्यों को खोजी पत्रकारिता का नाम दे देती है। ऐसे पत्रकार अपने प्रभाव का दुरुपयोग कर समाज को अधूरे तथ्य, अर्द्ध-सत्य, असत्य बताकर पत्रकारिता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।

प्रश्न 4.- आपकी पत्रिका राष्ट्रदेव ग्रामीण क्षेत्रों में जाती है। ग्रामीण पाठकों के बारे में आपका क्या अनुभव रहा है?

उत्तर- ग्रामीण पाठक देश की समस्याओं के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। वह अपने स्थानीय परिवेश से बाहर जाकर राष्ट्र स्तर पर विचार करना चाहते हैं, देश के इतिहास, महापुरूषों को जानना चाहते हैं। वह पत्रिका के राष्ट्रीय विचारों का बड़ी संख्या में स्वागत करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के पाठकों के बीच किए गए सर्वे के दौरान पता चला कि वह देश के बारे में सोचने की ललक रखते हैं और इसीलिए वह राष्ट्रीय विचारों को पढ़ना भी पसंद करते हैं।

प्रश्न 5.- आप अपनी पत्रिका के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास करते रहे हैं। क्या आज का मीडिया राष्ट्रवाद के प्रश्न पर अपनी भूमिका का निर्वाह सही ढंग से कर रहा है?

उत्तर- राष्ट्रीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले पत्रों का स्वर राष्ट्रहित के अनुकूल है। अंग्रेजी मीडिया भारतीय परिवेश व संस्कृति को नहीं समझती। वह देश की समस्याओं और यहां के परिवेश को पश्चिमी चश्मे से निहारती है और विश्लेषण प्रस्तुत करती है। अक्सर यह देखा गया है कि जो अखबार राष्ट्रवाद के समर्थक थे उनकी प्रसार संख्या में अच्छी वृद्धि हुई है और जिन्होंने पंथ-निरपेक्षता के नाम पर राष्ट्रवाद को गिराने का कार्य किया वह ज्यादा नहीं चल पाए।

प्रश्न 6.- वर्तमान समय में व्यवस्था परिवर्तन को लेकर चल रहे आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में जनजागरण के विषय पर मीडिया की भूमिका कितनी उपयोगी साबित हुई है?

उत्तर- चाहे अन्ना का आंदोलन हो या बाबा रामदेव का, सौभाग्य से मीडिया ने अच्छा प्रदर्शन किया। मीडिया ने अच्छे पक्षों को लगभग ठीक प्रकार से प्रस्तुत किया। इसीलिए राजनेताओं ने इन आंदोलनों को बदनाम करने के लिए कार्रवाई की। मीडिया इस समय व्यवस्था परिवर्तन के मुद्दे पर लगभग समान और अनुकूल विचार रख रहा है।

प्रश्न 7.- आप उत्तर प्रदेश पत्रकार एसोसिएशन मेरठ के अध्यक्ष हैं। पत्रकारों की कौन सी प्रमुख समस्याएं हैं, जिनको लेकर पत्रकार को लड़ाई लड़ने की आवश्यकता पड़ती है?

उत्तर- पत्रकारों, विशेषकर जो छोटे और मंझले पत्रों में काम कर रहे हैं, के सामने सबसे बड़ी समस्या वेतन की है। छोटे अखबारों में तो वेतन सरकार द्वारा अकुशल कर्मियों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है। छोटे अखबारों में पत्रकारों को मिट्टी ढोनेवाले मजदूरों को मिलने वाले वेतन से भी आधा वेतन मिलता है। जबकि पत्रकारों की बड़ी संख्या इन्हीं छोटे एवं मझले समाचार पत्रों व चैनलों में कार्यरत हैं। वहीं पत्रकारों के लिए काम के घंटे भी बहुत अधिक है जिसके कारण वह न तो अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सकते हैं और न ही उन्हें अध्ययन के लिए समय मिल पाता है। यह स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। इसके अलावा पत्रकारों के बेहतर भविष्य के लिए बीमा जैसी योजनाएं भी होनी चाहिए। आज यह आवश्यक है कि पत्रकार आर्थिक रूप से इस लायक तो हो कि वह वर्तमान और भविष्य की चिंता से मुक्त रह सकें।

प्रश्न 8.- जेडे हत्याकांड से एक बार फिर पत्रकारों की सुरक्षा का मुददा सामने आया है। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए आपके अनुसार क्या कदम उठाए जाने चाहिए?

उत्तर- पत्रकारों के लिए सुरक्षा नीति बनाए जाने की आवश्यकता है। यह संभव नहीं है कि हरेक पत्रकार के साथ एक अंगरक्षक चल सके लेकिन इसके लिए बेहतर कानून होना चाहिए। राज्य स्तर पर कर्मचारियों के काम में बाधा डालने वाले पर कार्रवाई का कानून बना हुआ है, लेकिन पत्रकार को उसके काम के लिए धमकी अथवा रूकावट को इस कानून के दायरे में नहीं लिया जाता। पत्रकारों के विरूद्ध आपराधिक मामले की जांच भी जिले के एसपी स्तर के अधिकारी की देखरेख में होनी चाहिए क्योंकि छोटे स्तर के पुलिस अधिकारियों तक अपराधियों की पहुंच होती है। यह जिला स्तर का पुलिस अधिकारी पत्रकार-संबंधी किसी भी मामले की जांच की जानकारी राज्य शासन को भी नियमित भेजे।

प्रश्न 9.- वर्तमान समय में किस पत्रकार की पत्रकारिता आपको आदर्श पत्रकारिता के सबसे निकट दिखाई देती है?

उत्तर- पत्रकारिता क्षेत्र सेवा क्षेत्र है। पांचजन्य समाचार पत्र आज कम वेतन में भी समाज को सर्वोत्कृष्ट दे रहा है। आजादी से पहले बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकारों की पत्रकारिता बड़ी आदर्श थी। उन्होंने अपने समाचार पत्र आज और रणभेरी में अंग्रजों के खिलाफ जमकर लिखा और किसी भी प्रकार के प्रलोभन में नहीं आए। मेरे विचार में वर्तमान समय में ऐसी ही पत्रकारिता की आवश्यकता है जैसी पराड़कर जी के द्वारा की गई थी। वैसे तो हिन्दी पत्रकारिता की नींव ही त्याग, बलिदान और संघर्ष पर रखी गई थी। आदि संपादक जुगल किशोर शुक्ल ने अपने उदंत मार्तण्ड नामक हिंदी के प्रथम पत्र को सरकारी प्रलोभनों से दूर रखकर आर्थिक कठिनाइयों से ही चलाया। आज के पत्रकार को इन उदाहरणों को भूलना नहीं चाहिए।

सूचना का माध्यम पश्चिमी गेटकीपर्स : विजय क्रान्ति

भारतीय पत्रकारिता में समय-समय पर व्यापक परिवर्तन आए हैं जिनमें कुछ सकारात्मक भीहैं तो कुछ नकारात्मक भी। इसके साथ ही डिजिटलाइजेशन के कारण आज मीडिया की सूरत ही बदल चुकी है। पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं पर वरिष्ठ पत्रकार विजय क्रान्ति से बातचीत के कुछ अंश-

- पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

मै किरोड़ीमल कॉलेज में विज्ञान का छात्र था। मेरी लिखने में काफी रूचि थी। कॉलेज की साहित्यिक पत्रिकाओं व अन्य पत्रिकाओं में मैं लिखा करता था। कॉलेज की पत्रिका ने पहले मेरी लिखने में रूचि बढ़ाई और फिर मुझे महसूस हुआ कि मैं पत्रकार भी बन सकता हूं। उस दौर में लिखने की शैली विकसित करने का जो मौका मिला वो बहुत मजेदार था और कॉलेज खत्म होते ही मैंने निर्णय लिया कि मुझे पत्रकार बनना चाहिए।

- पत्रकारिता के दौरान आपके कुछ रोचक अनुभव?

एक बार मेरी पिटाई हुई थी जो अभी तक याद है। एक बार एक स्टोरी के लिए मैं अजमेर गया था। उन्हीं दिनों वहां एक और स्टोरी मिल गई। वहां एक बहुत बड़े सैक्स रैकेट का खुलासा हुआ था, जिसमें एक राजनीतिक दल का नेता भी शामिल था। उसकी अदालत में पेशी के दिन हम यह स्टोरी कवर करने के लिए पहुंच गए। पेशी के लिए वह गाड़ी में आने ही वाला था कि यूथ कांग्रेस के नेताओं ने घोषणा कर दी कि कोई भी अखबार वाला उसकी फोटो नहीं खीचेगा और जो खीचेगा उसके हाथ पैर तोड़ देंगे। मैं आगे बढ़ा और कहा कि जो करना है कर लो, हम अपना काम करके रहेंगे। जो ही मैंने कैमरा उठाया तो किसी ने मेरी गर्दन पकड़ ली, किसी ने सिर पर मारा। अगले दिन अखबार में खबर छप गई कि दिल्ली के पत्रकार पिट गए और मेरा नाम भी छप गया। इस प्रकार मेरे घर के लोगों को पता चला तो वह परेशान हो गए, फिर बाद में मैंने सूचना दी कि मैं ठीक हूं। इस तरह की घटना पत्रकारिता में आम है। उस समय तो बड़ा बुरा लगता है लेकिन बाद में सुनने सुनाने में काफी मजा आता है। एक और बड़ी रोचक घटना थी। जब 1992 में भारत सरकार और चीन सरकार ने भारत-तिब्बत सीमा, बॉर्डर ट्रेड के लिए दोबारा खोली तो हमारी टीम को वहां स्टोरी के लिए जाना था। मेरे सहयोगी पत्रकारों ने वहां जाने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें पता चला कि एक दिन के लिए पैदल चलना पड़ेगा। चूंकि तिब्बत में मेरी रूचि थी तो मैंने जाने का निर्णय लिया और पता चला कि एक दिन नहीं बल्कि छह दिन पैदल चलना पड़ेगा। मैं धरसुड़ा से लेकर ठाणीदार, बाॅर्डर कुंजी होते हुए लिपुलेन तक पैदल गया। इस बीच जिस खच्चर पर मैंने अपना बैग रखा था वो खो गया। तो 5 दिन तक बिना कपड़े बदले मैं पैदल चला। हालत ये थी कि कपड़ों में बदबू आने लगी थी, फिर भी रोज पैदल चलना था। खाने को कुछ मिल नहीं रहा था। सोने के लिए जगह मिली जहां खच्चर सोते हैं। बीच में केवल ढाई फीट की दीवार थी जिसके एक तरफ खच्चर सो रहा था और एक तरफ मैं। बीच-बीच में जब उसकी दुम लगती थी तो नींद खुल जाती थी। 5-6 दिन बाद वो खच्चर मिला जिस पर मेरा बैग था और फिर मैंने कपड़े बदले।

- वर्तमान पत्रकारिता के दौर में आप क्या बदलाव देखते हैं?

पत्रकारिता में मैं 1970-71 में आया था। तब से लेकर अब तक पत्रकारिता में बहुत बदलाव आए हैं जिनमें कुछ अच्छे हैं तो कुछ दुर्भाग्यपूर्ण भी हैं। सकारात्मक बदलाव की बात करें तो आज पत्रकारिता के प्रशिक्षण केन्द्रों में बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण विद्यार्थियों को अच्छा प्रशिक्षण मिल रहा है। जबकि हमारे समय में पत्रकारिता के बहुत ज्यादा प्रशिक्षण केन्द्र नहीं थे। इसके साथ ही मुद्रण तकनीक में भी डिजिटिलाइजेशन के कारण अखबारों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। पहले हिन्दी अखबारों के एक या दो संस्करण आते थे और आज एक ही अखबार के 18-19 संस्करण आते हैं जिसके कारण पत्रकारों के लिए रोजगार के अवसर बढ़े हैं। समाचार पत्रों के प्रसारण में भी वृद्धि हुई है। दूसरी ओर नकारात्मक बदलाव यह है कि मीडिया का दुरूपयोग करने के लिए पश्चिमी हितों की जो घुसपैंठ है उनके लिए संभावनाएं काफी बढ़ गई हैं। मीडिया में यह बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है। मीडिया में आज जो कुछ भी आ रहा है उसमें से कई सामग्रियां ऐसी होती हैं जिनको आम जन के समक्ष प्रस्तुत करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। आज यह मीडिया के लिए चुनौती बन गया है।

- प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में से कौन पत्रकारीय मूल्यों को बेहतर तरीके से निभा पा रहा है?

मेरा मानना है कि अन्तर प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर है। अच्छे और समझदार पत्रकार, चाहे वह प्रिंट में हो या इलेक्ट्रॉनिक में अपना काम बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन कुछ पत्रकार मीडिया का दुरूपयोग भी कर रहे हैं। अभी हाल ही में राडिया केस हुआ तो टेप हर जगह पहुंची। पता चला कि अखबारों के संपादक मीडिया की एजेंट से डिक्टेशन लेकर लिख रहे हैं। उस समय एक अखबार का संपादक राडिया से डिक्टेशन लेकर अपना लेख लिख रहा था जो बड़ी शर्मनाक बात है, लेकिन तकनीक में विस्तार होने के कारण ही ऐसे लोगों पर से पर्दा उठने लगा है, जो अच्छा है। इस प्रकार मीडिया में यह परिवर्तन थोड़ा शर्मनाक है, किन्तु रोचक है।

- फोटो पत्रकारिता में आप क्या बदलाव देखते हैं?

फोटो पत्रकारिता आज बहुत गतिशील हो गई है, खासतौर से डिजिटिलाइजेशन के बाद। पहले किसी खबर से संबंधित फोटो छपने में काफी समय लग जाता था। अगर खबर सुदूर क्षेत्र की है तो फोटो फिल्म को कार्यालय भेजने और उसका प्रिंट प्राप्त करने में 2-3 दिन का समय लग जाता था, लेकिन आज फोटो डिजिटल होने के कारण ईमेल से तुरन्त भेज दी जाती है। इसने एक ओर तो फोटो पत्रकार की चुनौतियों को बढ़़ा दिया है, तो वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र में संभावनाओं की भी बढ़ोतरी हुई है।

- आपकी सबसे यादगार फोटो प्रदर्शनी कौन सी है?

मुंबई स्थिति यूनिवर्सिटी फॉर वुमन में तिब्बतन वुमन एसोसिएशन ने एक फेस्टिवल आयोजित किया था जिसमें मैंने भी एक फोटो प्रदर्शनी लगाई थी। उसमें मैंने निर्वासन में रह रही तिब्बती महिलाओं को प्रदर्शित किया था। प्रदर्शनी के चैथे दिन चीनी दूतावास से एक जनरल आए और एक फोटो को देखकर भड़कते हुए उन्होंने उसे हटाने को कहा। उन्होंने कॉलेज की वाइस चांसलर पर दबाव बनाकर वो फोटो हटवा दी। उस फोटो का कसूर यह था कि उसमें संयुक्त राष्ट्र के सामने दो तिब्बती महिलाएं बैठी हुई आंख बंद कर एवं हाथ जोड़कर शांतिपूर्ण ढंग से आजादी की मांग कर रही थीं। उनमें से एक के हाथ में प्लैकर्ड था जिस पर लिखा था चाइना क्विट तिब्बत। वह जनरल उस फोटो को देख भड़क कर बोल रहे थे वाई शुड चाइना क्विट तिब्बत, तिब्बत इज ए पार्ट आॅफ चाइना, हू इज दिस बास्टर्ड फोटोग्राफर। इससे यह हुआ कि चार दिन यह प्रदर्शनी चली और यह फोटो दुनियाभर में प्रख्यात हो गई। इस फोटो से मैं काफी प्रभावित था क्योंकि इसमें अपने देश पर कब्जा होने के बाद भी दो महिलाएं आंखें बंद करके शांतिपूर्ण ढंग से प्रार्थना कर रही थीं। इसीलिए मैं यह फोटो अपनी प्रदर्शनी में पहली या आखिरी फोटो के तौर पर प्रदर्शित करता हूं।

-तिब्बती मामले को लेकर मुख्य धारा की मीडिया का क्या रूख है?

मुख्य धारा का मीडिया वैसे तो सहानुभूति रखता है, लेकिन यह भी सच है कि तिब्बत को पूरी दुनिया की मीडिया में जितना स्थान मिला है उतना भारतीय मीडिया में नहीं मिला। भारत और तिब्बत के हित कितने समान है, इसको लेकर भारतीय मीडिया उदासीन है। जितने भरोसे से जागरूक मीडिया को बोलना चाहिए वह भारतीय मीडिया नहीं बोल पा रहा है। मेरे विचार से भारतीय मीडिया को तिब्बती मामले को अपने प्राथमिक मामलों में शामिल करना चाहिए क्योंकि कई काम जो सरकार नहीं कर सकती, वो मीडिया और जनता कर सकती है।

-वर्तमान समय में भारतीय मीडिया में अन्तर्राष्ट्रीय कवरेज से क्या आप संतुष्ट हैं?

भारत में अंतर्राष्ट्रीय खबरें आज भी दुर्भाग्य से सूचना के पश्चिमी गेटकीपर्स कही जाने वाली चार बड़ी एजेन्सियों से ही प्राप्त हो रही हैं। इसके कारण जो भी मुद्दें पश्चिम के हित में हैं, वो दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए उन्हें इराक व ईरान के मुद्दें बड़े लगते हैं जबकि हमारे लिए यह मुद्दें बड़े नहीं है, लेकिन भारतीय मीडिया फिर भी इसे दिखाता रहता है क्योंकि दुनियाभर की खबरें यही एजेन्सियां नियंत्रित करती हैं। इस प्रकार भारतीय मीडिया उनके लिए एक उपकरण बनकर रह जाता है। ऐसी स्थिति में भारतीय अखबारों व एजेन्सियों को भी अपने ब्यूरो दुनियाभर में फैलाने चाहिए जिससे भारतीय नजरिए से अंतर्राष्ट्रीय खबरें देश में आए।

-आज आम आदमी की नजरों से मीडिया का जो महत्व घटा है उसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

पिछले कुछ समय में मीडिया में काफी शर्मनाक मामलें सामने आए हैं। मीडिया का आज जो महत्व घटा है उसके पीछे मीडिया की ही गलती है। आज कई महत्वपूर्ण मुद्दें व बड़ी खबरें मीडिया में गौण होकर रह जाती हैं जबकि सनसनी के कारण बचकानी खबरें सामने आती हैं। आज मीडिया की प्राथमिकताएं खिसक गई हैं और यह तब तक खिसकती रहेगी जब तक मीडिया सनसनी पैदा करने वाली खबरें बनाता रहेगा। ऐसी हालत में मीडिया अपना बचाव नहीं कर पाएगा। इसीलिए मीडिया को अपनी प्राथमिकताओं में सुधार करना चाहिए तभी उसे सम्मान भी मिलेगा।

-वर्तमान समय में मीडियाकर्मियों को किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है?

मीडिया पर आज कई तरह का दबाव है जो बाहरी भी है और भीतरी भी। बाहरी दबाव यह है कि आज जितने भी राजनीतिक दल, कार्पोरेट्स या मीडिया में हित रखने वाले अन्य दल हैं, वह मीडिया का अपने ढंग से प्रयोग करना चाहते हैं और उनके पास इसके लिए संसाधन भी है जिसके कारण वह दबाव बना सकते हैं। इसके अलावा आंतरिक दबाव मीडिया मालिकों का है। मीडिया का विस्तार इतना ज्यादा हुआ है कि आज मीडिया का स्वामित्व गंभीर लोगों के हाथों में नहीं है। एक समय था जब टाइम्स आॅफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स समेत बाकी सब अखबारों का स्वामित्व इज्जतदार व गंभीर लोगों के हाथों में था लेकिन आज प्रोपर्टी डीलर्स व माफियाओं ने अपने चैनल खोल रखे हैं। इस प्रकार जिन मूल्यों के कारण वह अमीर बने हैं उन्हें वह चैनल में भी लेकर आते हैं। एक और ध्यान देने वाली बात है कि जिस तरह से व्यवस्था बदल रही है उसके अनुसार मीडिया का ट्रेड यूनियन बहुत कमजोर हुआ है। ट्रेड यूनियन केवल वेतन बढ़ाने या घटाने के लिए ही नहीं बल्कि मीडिया पर एक नैतिक दबाव भी बनाए रखता था। इस प्रकार मीडियाकर्मियों को नैतिक मूल्य बनाए रखने, आंतरिक व बाहरी दबावों को झेलने के लिए ट्रेड यूनियन का जो समर्थन था, वह खत्म हो गया है। एक परिवर्तन प्रतिस्पर्धा बढ़ने के कारण भी हुआ है। आज टीआरपी के फेर में सेंसेशनलिज्म हावी हो रहा है जिसके कारण इस तरह की सोच रखने वाले पत्रकार मालिकों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो रहे हैं। यह सब आज पत्रकारिता में दुर्भाग्यपूर्ण है।

-मीडिया में आने वाले नवागंतुकों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

मीडिया में जो नए लोग आ रहे हैं उनके लिए सलाह है कि वह ग्लैमर को देखकर मीडिया में न आए। मीडिया की जो जिम्मेदारियां हैं, खतरें हैं, तनाव हंै, उन सबको झेलने की क्षमता उनके अंदर हो और इन सबकों झेलते हुए भी वह जिम्मेदारी से अपना काम निभा सकें। यह एक चुनौती है। मीडिया में अच्छा काम करने वालों के लिए संभावनाएं बहुत है लेकिन आपमें सम्मान, समझदारी व जिम्मेदारी के साथ खड़े रहने की कितनी ताकत है, यह तय करेगी कि आप कितने सफल होंगे।