डॉ. जयप्रकाश सिंह

रॉकेट्री: फिल्म जो कहा गया, उसे ध्यान से सुनना है और जो नहीं कहा गया, उसे ध्यान से समझना है

फिल्म रॉकेट्री में नम्बी नारायणन अपने साथ फ्रांस जा रहे भारतीय वैज्ञानिकों को वहां पर काम करने का एक टिप्स देते हैं कि वहां पर जो कुछ कहा जाए उसे ध्यान से सुनना है और जो कुछ न कहा जाए, उसे ध्यान से समझना है। भारतीय वैज्ञानिक इसी टिप्स के आधार पर काम करते हैं, कम बोलते हैं और वहां से बहुत कुछ सीखकर वापस आते हैं। ऐसा लगता है कि यह पूरी फिल्म भी इसी संवाद के आधार पर गढ़ी गई है। कुछ मुद्दों को साफगोई के साथ परदे पर कहा गया है और कुछ अतिशय संवेदनशील मुद्दों की तरफ केवल संकेत भर किया गया है। ऐसी घटनाओं की पूरी पृष्ठभूमि समझने और सही निष्कर्ष निकालने का कार्य दर्शकों पर छोड़ दिया गया है।

उदाहरण के लिए नम्बी नारायणन को फर्जी केस में फंसाने के बाद उन पर हुए अत्याचार को बहुत मार्मिक तरीके से फिल्म में दिखाया गया है। फिल्म यह भी रेखांकित करने में सफल रही है कि नम्बी की गिरफ्तारी के बाद भारतीय अंतरिक्ष अभियान कैसे दशकों पीछे चला गया। लेकिन नम्बी के खिलाफ जो षड्यंत्र रचा गया, उसकी परतों को फिल्म ठीक ढंग से नहीं खोल पाती। शायद, इसमें एक विचारधारा का पोल खुलने का डर था और उस अधिकारी पर अंगुली उठने का डर था, जिसे गुजरात दंगों के दौरान गलत साक्ष्यों को प्रस्तुत करने के लिए हाल ही में गिरफ्तार किया गया है। उस अधिकारी की गिरफ्तारी के बाद नम्बी नारायणन ने खुलकर यह बात कही थी कि गुजरात दंगों की तरह ही उस अधिकारी ने इसरो केस में मनगढंत कहानियां गढ़ी और उसे सनसनीखेज ढंग से परोसा। नम्बी नारायणन ने आगे कहा कि जब वह गिरफ्तार हुआ तो मैं बहुत खुश था क्योंकि वह हमेशा इसी तरह की शरारतों में संलिप्त रहता था। इस तरह की चीजों का अंत होना ही चाहिए। इसीलिए मैंने कहा कि मैं बहुत खुश हूं।

वह अधिकारी हाल ही में तीस्ता सीतलवाड़ के साथ गिरफ्तार हुआ है। जाहिर है इस लॉबी के पास मजबूत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समर्थन होगा। इस अधिकारी पर यदि खुलकर प्रश्न उठता तो गुजरात दंगों के दौरान उसके द्वारा निभाई गई भूमिका और भी संदिग्ध बन जाती। शायद, इसीलिए यह फिल्म नम्बी के खिलाफ एक बड़े अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र की तरफ संकेत तो करती है, लेकिन उसके किरदारों की जांच-पड़ताल करने से बचती है। फिल्मांकन की इस शैली के कारण  राकेट्री अपने साथ कई प्रश्न लेकर आती है। एकाध प्रश्नों का उत्तर भी देती है, लेकिन अधिकांश अनुत्तरित रह जाते हैं। इसीलिए दर्शक मन में एक टीस और कई सारे प्रश्न लेकर सिनेमा हॉल से बाहर निकलता है।

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि इसमें किसी भी तरह की अतिरंजना नहीं है। फिल्म के अंतिम दृश्य में जब नम्बी नारायणन से यह कहा जाता है कि वह सभी को माफ कर दे तो उनका यह उत्तर की माफी देने से मामला समाप्त नहीं हो जाएगा, बल्कि यह हल्का हो जाएगा। किसी और के साथ मेरे जैसी दुर्घटना न हो, इसके लिए माफी नहीं लड़ना जरूरी है। व्यक्तिगत रूप से यह कथन सहज है और सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर सही भी। नम्बी के चरित्र को इसी तरीके से पूरी फिल्म में मानवीय बनाए रखा गया है। अमेरिका में इच्छित प्रोफेसर के अधीन काम करने के लिए उनके द्वारा घरेलू काम करने की बात हो या रूसी और अमेरिकी महिला सहकर्मियों से उनके संवाद हो, बहुत ही सहज और भारतीय मन के करीब लगते हैं।  

फिल्म स्वतंत्रता के बाद भारत की अंतरिक्ष यात्रा की कहानी और उसकी चुनौतियों को सलीके से परोसती है। वैज्ञानिकों ने जिस जज्बे के साथ एक सकारात्मक संस्कृति के संस्थान बनाए, और जिस सृजनात्मकता के साथ चुनौतियों पर विजय पायी, राकेट्री को बखूबी परदे पर उतारती है। यह फिल्म भी उन्ही वैज्ञानिकों की तरह विविध पक्षों को साधती हुई दिखती है। शाहरूख खान की छवि का इस्तेमाल करना हो या फिल्म के अंत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मंगल मिशन के बाद के सम्बोधन और 2019 के पद्मभूषण के समय के विजुअल्स का उपयोग करना, यह दर्शाता है कि फिल्म और निर्देशक देशभक्ति की एक कहानी सुनाने में ज्यादा उत्सुक थे और इसके लिए उन्होंने सभी तरह की छवियों का इस्तेमाल किया। 

राकेट्री से पहले सोनी लाइव पर राकेट ब्वायज वेबसीरीज भारतीय वैज्ञानिकों के जीवन और संघर्ष तथा अंतरिक्ष और सुरक्षा चुनौतियों को परदे पर दिखा चुकी है लेकिन रॉकेट्री पहली ऐसी फिल्म है, जिसमें बड़े परदे पर एक वैज्ञानिक के जीवन और भारत की अंतरिक्ष यात्रा की चुनौतियों को एकसाथ दिखाया गया है। खिलाड़ियों और गैगस्टरों से हटकर वैज्ञानिकों के जीवन में निर्देशकों की रूचि भारतीय दर्शकों और समाज में आ रहे बदलावों की तरफ भी संकेत करता है। इस बदलाव को स्वर देने वाली इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए।

सम्राट पृथ्वीराज: लगभग एक फिल्मी महाकाव्य रच गए है डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी

फिल्म सम्राट पृथ्वीराज के अंत में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी कुछ पंक्तियों में फिल्म का सारांश पढ़ते हैं। इस बहाने वह भारत के पूरे सभ्यतागत-संघर्ष का सारांश भी पढ़ जाते हैं। दबावों और फार्मूलों को सहते हुए, उनको थोड़ा-बहुत स्थान देते हुए भी अपने अनुरूप निर्णायक संदेश कैसे गढ़ा और पढ़ा जाए, फिल्म के अंत की वह चार पंक्तियां हमें बता देती है। विशेषकर जब वह कहते हैं कि भारत 755 वर्षों के संघर्ष के बाद 1947 में स्वतंत्र होता है, तो उसमे गंभीर सभ्यतागत संदेश छिपा है।

जब आपके पास अपनी बात कहने के संसाधान और प्लेटफार्म न हों तो सबसे अच्छी स्थिति तो यही होती है कि आप किसी भी सिस्टम के दबावों को सहन करते हुए उसकी क्षमताओं का उपयोग अपनी बात कहने के लिए कर लें। सम्राट पृथ्वीराज को देखने पर यही लगता है कि फिल्म में इसी नीति का पालन किया गया है। जो लोग सम्राट पृथ्वीराज’ में चाणक्य’ की झलक देखना चाहते हैं वह थोड़े निराश हो सकते हैं। चाणक्य एक निर्माता-निर्देशक का स्वप्न था और सम्राट पृथ्वीराज महज निर्देशक का प्रयास है। फिल्म देखने के बाद निर्देशक पर निर्माताओं के दबाव को स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है।

बॉलीवुड में स्थापित मानसिकता और फार्मूलों के दबाव के कारण ही इण्टरवल के पहले फिल्म की गति बहुत कमजोर दिखती है और कहानी भी भटकती हुई नजर आती है। लेकिन फिल्म के दूसरे हिस्से पर डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की छाप अधिक स्पष्ट है। इण्टरवल के बाद दर्शक फिल्म में बंध जाता है और सोचने-विचारने पर विवश हो जाता है।

अक्षय कुमार की भूमिका को लेकर सोशल मीडिया में बहुत प्रश्न उठाए गए, लेकिन पृथ्वीराज की भूमिका में वह बहुत अजीब नहीं लगते। संजय दत्त और मानुषी छिल्लर का अभिनय बेजोड़ कहा जा सकता है। अक्षय कुमार के आस-पास जिन अभिनेताओं ने भूमिका निभाई है, वह फिल्म को कमजोर नही पड़ने देती। गोरी और चामुण्ड के लिए निभाई गई भूमिकाएं भी अपनी छाप छोड़ती है।

ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से देखें तो तत्कालीन युद्धों और रणनीतियों को बहुत सफलता के साथ फिल्म में दर्शाया गया है। युद्ध और युद्ध के मैदान यथार्थ के बहुत नजदीक लगते हैं। कुछ दृश्य ऐसे हैं, जो उस समय के युद्धों की प्रतिनिधि छवि बनकर हमारे मस्तिष्क में बस जाते हैं। प्रथम युद्ध में गोरी को हाथी से नीचे गिराने की रणनीति और वीरता सृजनात्मकता को एक नए स्तर तक लेकर जाती है। 

यह फिल्म एक जरूरी बहस का उत्तर भी देती है कि भारतीयों को निरंतर संघर्षरत क्यों रहना पड़ा और अनेकों बार पराजय का सामना करना क्यों पड़ा। प्रायः इसका उत्तर वीरता और संख्या के संदर्भों में खोजा जाता है। फिल्म यह दिखाती है कि पराजयों का मुख्य कारण मुख्यतः ऐसे अनैतिक तरीकों का उपयोग करना है, जिनकी कल्पना भी भारतीयों के परे थी। भारतीय संदर्भों में युद्धों की भी एक मर्यादा थी, जबकि आक्रांताओं की युद्धनीति का मुख्य आधार ही धोखा और अनैतिकता थी। जब तक भारतीय शासक इस तरह की नई मानसिकता को समझते और उसके लिए स्वयं को तैयार करते तब तक विदेशी आक्रांता निर्णायक बढ़त हासिल कर चुके थे।

योद्धा बण गई मैं’ के अतिरिक्त फिल्म का गीत-संगीत कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता। पृथ्वीराज के समय लश्करी जबान का प्रभाव बहुत अधिक नहीं था, लेकिन गीत और संवाद में लश्करी जबान का प्रयोग फिल्म के प्रवाह को बाधित कर देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्म के देश-काल को ध्यान में रखे बगैर शब्दों का मनमाना उपयोग किया गया है। डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म में शब्दों को लेकर संवेदनशीलता न बरती गई हो, यह बात दर्शक पचा नहीं पाता।

यह फिल्म और इस पर आ रही प्रतिक्रियाएं डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी को इस बात के लिए आगाह भी करती है कि उनकी ताकत उनका इतिहास बोध और पटकथा है। इससे हटकर अन्य आयामों पर फोकस करने पर उनकी फिल्में आकर्षण खो देती हैं। पिंजर, मोहल्ला अस्सी और जेड प्लस आकर्षक पटकथा और इतिहास-बोध ही था और कमी बॉलीवुड फार्मूलों को जबरदस्ती फिल्म में घुसेड़ने की थी। सम्राट पृथ्वीराज में भी बॉलीवुड के फार्मूले कई जगह हावी हो गए है और जहां भी उन फार्मूलों को जगह दी गई है, वहां फिल्म कमजोर हो गई है।

जिन दर्शकों को फिल्म से आपत्ति है उन्हें यह समझना चाहिए कि कोई भी फिल्म ऐतिहासिक सच्चाई को ज्यों का त्यों नहीं कहती। फिल्म में कहानियों को कहने का अपना तरीका होता है। बॉलीवुड में इस तरह की फिल्मों का चयन दुष्कर कार्य है और बड़े बैनर के द्वारा ऐसी किसी फिल्म को निर्मित करने के लिए तैयार होना और भी मुश्किल कार्य है। ऐसे दबावों के बीच यदि फिल्म बनी है तो यह एक अवरोध को तोड़ने जैसा है। ऐसी फिल्मों से इतिहास पर बहस प्रारंभ होती है और फिर सच्चा और पूरा इतिहास भी लोगों के सामने आता है। इतिहास का जो सच इस फिल्म में नहीं आया है, वह किसी और फिल्म के जरिए आए, उसके लिए प्रयास होने चाहिए।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विभिन्न दबावों को सहते हुए और विभिन्न पक्षों को साधते हुए अपनी बात फिल्मों में कैसे कही जाए, इतिहास के खुरदुरे यथार्थ को फिल्मी परदे पर मनोरंजक ढंग से कैसे उतारा जाए, उसकी आवश्यक पृष्ठभूमि फिल्म सम्राट पृथ्वीराज ने बांधी है। इसीलिए, इसे अवश्य देखा जाना चाहिए।

मूवी माफिया के कब्जे में ‘भारतीय मन’

नया भारत और स्वच्छ भारत बनाने का लक्ष्य बॉलीवुड को स्वच्छ और नया बनाए बगैर प्राप्त नहीं किया जा सकता। असल में बॉलीवुड इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है। बॉलीवुड को स्वच्छ करना जरूरी है, तभी नया भारत बन सकता है। एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में अभिनेत्री कंगना रणौत ने बॉलीवुड की ताकत और उसमें पसरी गंदगी की तरफ संकेत करते हुए यह टिप्पणी की थी।
कई लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है। भला ‘नया भारत’ और ‘स्वच्छ भारत’ का मुंबइया सिनेमा से क्या सम्बंध हो सकता है? हमेशा ‘महत्वपूर्ण मुद्दों’ पर चर्चा करने के शौकीन कई बुद्धिजीवी पिछले दो महीनों से सोशल-मीडिया पर इस बात के लिए आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं कि सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या-हत्या प्रकरण को कुछ चैनल इतनी कवरेज क्यों दे रहे हैं?  उनके लिए फिल्म और उससे जुड़े मुद्दों पर चर्चा करना वाहियात मुद्दे पर चर्चा करने जैसा है। 
ये वही लोग हैं जो अन्य जगहों पर नई पीढ़ी में बढ़ती नशे की लत पर रोना रोते हैं। परिवार टूटने, सम्बंधों के बिखरने पर नोस्टैल्जिक होकर व्याख्यान देते हैं। सामाजिक-सरोकारों से युवाओं की बढ़ती दूरी पर कोसते हैं। लेकिन तनिक ठहरकर, इस बात का विश्लेषण करने की जहमत नहीं उठाते कि ऐसा क्यों हो रहा है? जिस तथाकथित नई पीढ़ी के बिगड़ने की बातें हर जगह होती हैं, वह नई चीजें सीख कहां से रही है? उसे आधुनिकता, प्रगतिशीलता, वैज्ञानिकता के नाम पर जो परोस जा रहा है, उसे वह स्वीकार कर रही है। प्रश्न यह है कि वह परोसने वाला कौन है? कौन है जो भारत की नई पीढ़ी के मन और स्वप्न को गढ़ रहा है? कौन भारतीय मन पर कुंडली मारकर बैठा हुआ है? ऐसा कौन सा प्लेटफार्म है, जो भारतीय मन और उसके स्वप्नों को निर्धारित कर रहा है?
जनसामान्य और विशेषज्ञ अलग-अलग शब्दावली और लहजे में एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नई पीढ़ी पर सबसे अधिक प्रभाव फिल्मी दुनिया का है, बॉलीवुड का है। समाजीकरण के अन्य माध्यमों का प्रभाव फिल्मी दुनिया के सामने हल्का पड़ता जा रहा है। खान-पान, रहन-सहन, जीवन के लक्ष्य, व्यवहार के मुहावरे सभी वहीं से तो आ रहे हैं। जिसके हाथों में देश की पूरी पीढ़ी हो, उस पर चर्चा करना निरर्थक विषय पर चर्चा करना कैसे हो सकता है? कंगना रणौत की टिप्पणी को इस संदर्भ में रखकर समझने की कोशिश करें तो उसके अर्थ आसानी से खुल जाते हैं।
इससे भी बड़ी बात यह कि जिस प्लेटफार्म और इंडस्ट्री के पास इतनी ताकत है, जो अपनी सम्मोहन-शक्ति के कारण सांस्कृतिक-अभिकेन्द्र बन गया है, उसको पारदर्शी, स्वच्छ और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत बनाने की जिम्मेदारी हमारी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर होनी चाहिए। युवाओं के सबसे बड़े रोल-मॉडल संवैधानिक और राष्ट्रीय मूल्यों के अनुसार काम करें, यह आवश्यक हो जाता है। इस दिशा में कार्य करना, उसके लिए परिवेश बनाना, पसरे हुए सड़ांध को दूर करने के लिए मुखर होना एक महत्तर राष्ट्रीय कर्तव्य बन जाता है। इसलिए बॉलीवुड पर बहस बहुत जरूरी हो जाती है और उसकी पारदर्शिता के लिए उठने वाली किसी भी आवाज का महत्व बढ़ जाता है। 
कंगना की ही शब्दावली का इस्तेमाल करें तो बॉलीवुड कोई इंडस्ट्री नहीं बल्कि एक रैकेट की तरह कार्य करता है। हिन्दूफोबिक और राष्ट्रविरोधी मानसिकता से चलने वाले माफिया-गिरोह की तरह है। यदि बॉलीवुड के इतिहास पर नजर डालें तो इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है। 
भारत में फिल्मों की शुरुआत लगभग एक सदी पहले दादा साहेब फाल्के से होती है। ऐतिहासिक साक्ष्य यह साबित करते हैं कि फिल्मी दुनिया में उनके प्रवेश का कारण भारतीय सभ्यता के उज्जवल पक्ष को लोगों के सामने रखना था। उन्हें मिशनरियों द्वारा दिखाई जा रही फिल्म ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ को देखकर पीड़ा हुई थी कि वे फिल्मी माध्यम का उपयोग मतांतरण के लिए कर रहे हैं। इसके बाद वह संकल्प लेते हैं कि फिल्म निर्माण की बारीकियों को सीखकर भारतीय कथानक और मूल्यों को आगे बढ़ाएंगे। फिल्म-निर्माण की बारीकियों के सीखने की उनके संघर्ष की एक अलग कहानी है। लेकिन उनकी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बताती है कि फिल्म निमार्ण में उनकी प्राथमिकताएं क्या थीं।
स्वतंत्रता के समय और उसके दो दशक बाद तक भारत का फिल्म जगत अपने सांस्कृतिक मूल्यों, देशज मान्यताओं और देशभक्ति से ओतप्रोत था। लेकिन इसी बीच बॉलीवुड में दो-पटकथा लेखकों सलीम-जावेद का प्रवेश होता है। और इसी के साथ शुरू होता है संवाद और कहानियों में भारतीय-समाज को वैचारिक और सभ्यतागत पूर्वाग्रहों के साथ पेश करने का सिलसिला। शोले, जंजीर, अंदाज, डॉन जैसी फिल्मों में इस पूर्वाग्रह को इतनी कुशलता के साथ गूंथा गया है कि दर्शक आसानी से इसको पकड़ नहीं पाता। समाज के कुछ वर्गों को बुरा और कुछ वर्गों को अच्छा दिखाने की परम्परा शुरु हुई। और यहीं से शुरु होता है अपनी परम्पराओं, सामाजिक-सरंचना और भारतीय यथार्थ का मखौल उड़ाने का सिलसिला, जो अब खुल्लम-खुल्ला देश का मखौल उड़ाने तक पहुंच गया है। उस समय गढ़ी गई ‘एंग्री यंगमैन’ की छवि ने भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को किस तरह प्रभावित किया, इसका विश्लेष्ण किया जाए तो वैचारिक आग्रहों को आसानी से पकड़ा जा सकता है।
नब्बे के दशक में बॉलीवुड तेजी से माफिया के शिकंजे में फंसता गया। फिल्मी-दुनिया को इंडस्ट्री का दर्जा देकर इसे रोकने की कोशिश की गई, लेकिन माफिया, ड्रग-रैकेट की घुसपैठ बॉलीवुड में इस कदर हो चुकी थी कि वह उससे ही संचालित होने लगा। मुम्बई बम धमाकों के बाद जब यहां का माफिया कराची पहुंचा तो उसके जरिए आईएसआई को बॉलीवुड में घुसपैठ करने का मौका मिल गया। उसके बाद तो जो काम संवादों में गूंथकर होता था, वह खुल्लमखुल्ला होने लगा। मिशन-कश्मीर, फना, माय नेम इज खान जैसी फिल्मों का पूरा कथानक ही इस तरह से बुना गया, जिससे पाकिस्तान का दृष्टिकोण साबित होता है। 
इसी दौर में दिव्या भारती की रहस्यमय स्थितियों में मौत होती है। गुलशन-कुमार ने टी-सीरीज के जरिए देश में भक्ति-संगीत की एक नई गंगा बहाने की कोशिश की थी। पूरे देश ने उनके प्रयासों को हाथों-हाथ लिया था। बाद में उनकी नृशंस हत्या कर दी गई। उसके बाद पिछले दो-दशकों से इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। आज भी भक्ति और देशभक्ति के लिए लोगों को दशकों पूर्व के गानों से ही काम चलाना पड़ता है। आशुतोष राणा जैसे फिल्मकारों, जिनकी भाषा और दर्शन को लेकर एक स्पष्ट झुकाव था, उनके कैरियर को तबाह कर दिया गया। विवेक ओबेरॉय जैसों का कैरियर व्यक्तिगत कारणों से तबाह कर देना हाल की ही घटना है।
कंटेट के जरिए भारतीय आस्था के प्रतीकों को किस तरह से नुकसान पहुचाया जा सकता है, इसके हालिया उदाहरणों ने लोगों को सोचने पर विवश कर दिया है। पीके में भगवान शिव और गलियों की रामलीला में भगवान राम का मजाक तो खुले आम दिखता है। बजरंगी भाईजान में बंदरों के सामने झुकने या शाकाहारी खाने का जिस तरह मजाक उडाया गया है, वह बहुत बारीकी से देखने पर ही समझ में आता है। दंगल में खास मजहब के बेचने वाले मुर्गों का खाना, अंततः मांसाहार बनाने की अनभिज्ञता और कुश्ती के फाइनल के दिन प्रसाद के रूप में मिट्टी देने की घटना के जरिए किस तरह सभ्यतागत एजेंडे को आगे बढाया गया है, वह आसानी से समझ में आता है।
कंगना रणौत ने क्योंकि इस इंडस्ट्री में काम किया है, इसलिए उनके शब्दों में बॉलीवुड में काम कर रही देश-विरोधी और सभ्यता-विरोधी संरचना को समझना आवश्यक है। कंगना के अनुसार यह पूरा ढ़ांचा तीन स्तरों पर काम करता है। पहले स्तर पर महेश भट्ट जैसे लोग हैं, जो दिखने में कूल और आधुनिक लगते हैं, लेकिन फिल्में जेहादी बनाते हैं। दूसरे स्तर पर जावेद-अख्तर जैसे लोग हैं, जो स्वयं को नास्तिक बताते हैं, लेकिन उनका पूरा ध्यान इस बात पर होता है कि कौन लोग इस्लामिक सिद्धांतों के अनुसार काम करते है और कौन उसके विरोध में काम करते हैं। इसके आधार पर किसी अभिनेता को आगे बढ़ाने और रोकने की रणनीति बनाते हैं। तीसरे स्तर पर करण जौहर जैसे लोग हैं जो फिल्मों के कंटेंट को इस तरह से मोड़ते हैं, जिससे अपना देश, अपनी परम्पराएं ही खलनायक दिखने लगती हैं। गुंजन सक्सेना फिल्म में कपोल-कल्पित पितृसत्ता को दिखाने की बात हो या केसरी में सैनिकों द्वारा मस्जिद बनाने की बात, इसी तथ्य को साबित करते हैं, जबकि सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत थी। 
मन पर कब्जा किसी देश के लिए सबसे भयावह स्थिति होती है। इसको लम्बे समय बरकरार रखने की इजाजत दे दी जाए तो गुलामी में आजादी और आजादी में गुलामी का भ्रम पैदा होने लगता है। इसलिए मूवी-माफिया के शिकंजे को तोड़ना जरूरी हो जाता है। यह स्थापित तथ्य है कि मूवी-माफिया की जान ड्रग में बसती है, इसके जरिए वह जहां बॉलीवुड के तंत्र को लचर बनाता है, अभिनेता-अभिनेत्रियों की कमजोरी का लाभ उठाने की स्थिति में पहुंचता है, वहीं उसे बॉलीवुड में निवेश लायक धन भी मिलता है। ड्रग के जरिए उगाही और फिल्मों में निवेश, यह एक सेट फार्मूला है। 
इस स्थिति से निकलने का एक सहज और सरल उपाय अपने अनुभवों के आधार पर कंगना रणौत ने सुझाया है, वह यह है कि सभी अभिनेता, अभिनेत्री, फिल्म-डायरेक्टरर्स का किसी फिल्म शुरू करने से पहले इस बात को जानने के लिए ब्लड सैंपल लिया जाना चाहिए कि वह हार्ड ड्रग कनज्यूम करते हैं या नहीं और दूसरा उनसे यह हलफनामा लिया जाना चाहिए कि वह देश-विरोधी कंटेट औैर मानसिकता को आगे नहीं बढ़ाएंगे। जब खेलों तक में डोप टेस्ट किए जाते हैं तो पूरे देश की मानसिकता को प्रभावित करने वाले लोगों का ब्लड टेस्ट,डोप-टेस्ट क्यों नहीं होना चाहिए। आखिर किसी को भी अपने बच्चों का रोल-मॉडल बनाने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती। #drugtestforcelebrities का अभियान समय और देश की मांग है।
 

समय की मांग है सांस्कृतिक-स्वतंत्रता का स्वदेशी-सूचनातंत्र

भारत केन्द्रित भारत-दृष्टि और भारत केन्द्रित विश्व-दृष्टि वर्तमान बौद्धिक-पारिस्थितिकी की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गयी है। लेकिन ऐसी बौद्धिक पारिस्थितिकी निर्मित करने की जब भी कोशिश होती है, तो प्रायः सारी बहस भारत केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था तक ही सीमित कर दी जाती है, भारत-केन्द्रित सूचना व्यवस्था का पक्ष पूरी तरह उपेक्षित ही रह जाता है। वास्तविकता यह है कि जिस तरह के सूचना-सघन समाज में हम जी रहे हैं, उसमें शिक्षा क्षेत्र के पहल-प्रयोग, शोध-अन्वेषण भी बौद्धिक परिवेश और जनमानस का हिस्सा तभी बन सकते हैं, जब उसे सूचना तंत्र का सहयोग प्राप्त हो।
भारत-केन्द्रित सूचना-तंत्र के अभाव के कारण ही शिक्षा-क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण शोध हो चुके हैं, या हो रहे है, उनसे सामान्य भारतीय की तो दूर, अकादमिक व्यक्ति का भी परिचय नहीं है। वासुदेवशरण अग्रवाल की पुस्तक ’पाणिनीकालीन भारतवर्ष’ हो, या हजारी प्रसाद द्विवेदी की ’नाथ-सम्प्रदाय’, दोनों शोध की दृष्टि से प्रतिमान रचने वाली किताबें हैं, लेकिन बौद्धिक विमर्श से दोनों गायब हैं। इसका कारण शिक्षा-तंत्र की उपेक्षा के साथ सूचना-तंत्र में इनको स्थान न मिलना भी है। कमजोर सूचना-तंत्र के कारण ही ऐसे शोध-ग्रंथों के बावजूद हिन्दी पर स्तरीय-शोध के अभाव की तोहमत अलग से मढ़ दी जाती है। 
पहले सूचनाओं का प्रमुख स्रोत शिक्षा-व्यवस्था थी। अब भी सूचनाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाने में उसकी एक निश्चित भूमिका बनी हुई है। इसके साथ एक हकीकत यह भी है कि पिछले तीस वर्ष में जो जीवनशैली पनपी है, उसमें शिक्षा-व्यवस्था के समानांतर ही स्थान सूचना-व्यवस्था ने भी स्थान बना लिया है। नई पीढ़ी जितना समय शिक्षण-संस्थानों में खर्च करती है, लगभग उतना ही समय सोशल-मीडिया, फिल्म, डाक्यूमेंट्री या सूचना के अन्य प्लेटफार्म पर भी खर्च कर रही है। इसलिए उसमें शिक्षा-व्यवस्था से प्राप्त सूचना को सूचना-तंत्र से प्राप्त सूचनाओं की कसौटी पर कसने और सूचना-तंत्र से प्राप्त सूचनाओं को किताबों से प्राप्त सूचनाओं के साथ सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति पनपी है। यदि आज यह कहा जाने लगा है कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की सूचनाएं अन्य यूनिवर्सिटी की सूचनाओं पर भारी पड़ रही हैं, तो इसे पूरी तरह से मजाक में नहीं टाला जा सकता। इस कथन को शिक्षा-तंत्र और सूचना-तंत्र के उभरते सम्बंधों के परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की कोशिश होनी चाहिए।
भारत-केन्द्रित बौद्धिक पारिस्थतिकी रचने और उसके माध्यम से सांस्कृतिक-स्वतंत्रता प्राप्त करने के जिस लक्ष्य की चर्चा होती है, उसकी पूर्वशर्त भारत केन्द्रित सूचना-तंत्र का निर्माण है। भारतीय दृष्टि से संचालित संचार-व्यवस्था, सूचना-प्रवाह का निर्माण शैक्षणिक-परिवेश के विऔपनिवेशीकरण(डिकोलोनाइजेशन)के लिए आवश्यक नहीं है, बल्कि नए देश-काल, विश्व-व्यवस्था में भारत और भारतीयता को प्रत्येक मोर्चे पर स्थापित करने के लिए भी आवश्यक है। भारत के विश्व-महाशक्ति बनने का रास्ता उसके सूचना-महाशक्ति बनने से होकर ही गुजरता है और ऐसा होने के बडे़ स्पष्ट कारण हैं।
भारत अभी तक अपनी जीवंत सांस्कृतिक विरासत का उपयोग शेष दुनिया से सम्बंध बनाने और उनके बीच स्थापित करने के लिए एक सीमा से अधिक नहीं कर सका है। विशेषज्ञ समय-समय पर यह राय देते रहे हैं कि सांस्कृतिक-कूटनीति का उपयोग कर भारत स्वयं को आसानी से विश्व-पटल पर स्थापित कर सकता है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में तो भारत का सांस्कृतिक प्रभाव अब तक बना हुआ है, लेकिन वहां भारत अपनी सशक्त-उपस्थिति दर्ज कराने में असफल रहा है, तो उसका कारण यही है कि उसके पास सूचना का वैश्विक ढांचा नहीं है। 
वैश्विक सूचनातंत्र के अभाव के कारण ही भारत दक्षिण-पूर्व एशिया में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के पाठ-भेद से उत्पन्न दूरी अथवा पूरी दुनिया में जातिवाद को नस्लवाद के समान बताकर होने वाले बौद्धिक आक्रमणों के समुचित प्रतिकार के स्थान पर रक्षात्मक हो जाता है, स्पष्टीकरण देने लगता है। हद तो तब हो जाती है जब पाकिस्तान जैसे इस्लामिक गणतंत्र और चीन जैसे लौह-पर्दे की नीति से संचालित देश भी भारत को खुलेपन, सहिष्णुता पर उपदेश देकर चले जाते हैं, और सूचना के क्षेत्र में कमजोर स्थिति के कारण हम सफाई देने की मुद्रा अपना लेते हैं। 5 अगस्त 2019 के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कई बार यह बयान दिया कि भारत गांधी-नेहरू के आदर्शों से दूर जा रहा है, नया भारत असहिष्णु है। इस नैरेशन को आगे बढ़ाने वाले आलेख दुनिया भर के अखबारों में प्रकाशित हुए। भारत पाकिस्तान प्रेरित इस विमर्श का ठीक ढंग से उत्तर नहीं दे सका। साधारण सा तर्क दिया जा सकता था कि गांधी और नेहरू को 70 साल पहले पूरी तरह से दरकिनार कर ही तो पाकिस्तान की नींव रखी गई थी। अब जब भारत अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप निर्णय रहा है, तो पाकिस्तान किस मुंह से गांधी-नेहरू की दुहाई दे रहा है। भारत को पांथिक-सहिष्णुता पर पग-पग उपदेश देने वाले देश के पूर्व-विदेशमंत्री के ऊपर केवल इस कारण ईशनिंदा का मामला दर्ज हो जाता है कि उसने सभी पंथों को समान बता दिया था। लेकिन इसे राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के वास्तविक चरित्र की झलक के रूप में पेश करने में  भारत विफल रहा। इसका एकमात्र कारण सूचना-प्रवाह में हमारी कमजोर वैश्विक स्थिति ही रही है। एक कठुआ-प्रकरण के कारण हिन्दुस्तान को रेपिस्तान बताने के अभियान को यदि वैश्विक स्तर पर स्वीकृति मिल जाती है, तो इसका भी बड़ा कारण सूचना के मोर्चे पर भारत की कमजोर-प्रतिक्रिया ही थी। 
स्पष्ट है कि भारत की छवि को लगातार नुकसान पहुंचाने वाले, उसे पिछड़ा और अमानवीय साबित करने वाले मीडिया अभियानों का उत्तर मजबूत सूचना-व्यवस्था के जरिए ही दिया जा सकता है। भारत की वैश्विक स्वीकृति उसकी सशक्त सूचना अधोसंरचना पर ही निर्भर करेगी। अभी तो स्थिति यह है कि देश में अपवाद स्वरूप घट रही कुछ अप्रिय घटनाओं को भारत के चरित्र के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें सूचना-क्षेत्र में लगातार हो रही हैं और भारतीय सूचना-तंत्र का राडार प्रायः इन खबरों का नोटिस भी नहीं ले पाता, सही प्लेटफार्म पर सटीक उत्तर देना तो बहुत दूर की बात है।
इसी प्रक्रिया का दूसरा पक्ष है अपनी परम्परा, विरासत, दृष्टिकोण और दर्शन के सकारात्मक पक्ष से पूरी दुनिया को परिचित कराना। योग की वैश्विक स्वीकृति के बाद भारत की वैश्विक-स्तर पर एकतरह से रीब्रांडिंग हुई है। लेकिन योग की दस्तक और प्रामाणिकता और आवश्यकता इतनी अधिक थी कि उसकी स्थापना होनी ही थी, फिर भी देश और विदेश में लम्बे समय तक सूचना के अवरोध खड़े किए ही गए। योग के अतिरिक्त कई ऐसी विधाएं अब भी हैं, जो दुनिया में भारत की पहचान बना सकती हैं। कलरीपयट्टू जैसी भारतीय मार्शल आर्ट, शास्त्रीय संगीत, भारतीय वेश-भूषा, पर्यावरण-मित्र जीवनशैली आदि ऐसे क्षेत्र है, जिन्हें यदि ठीक ढंग से विश्व-बिरादरी के समक्ष लाया जाये तो उनको स्वीकार किए जाने में समय नहीं लगेगा। इनसे भारत की दूसरे देशों को प्रभावित करने की साफ्ट-पॉवर बहुत बढ़ जाएगी। कारण साफ है, इन विधाओं का अपना विशिष्ट भारतीय दर्शन भी है, जो इनके साथ पूरी दुनिया की यात्रा करेगा और स्वीकृत भी होगा। इनकी स्वीकृति के लिए आवश्यकता केवल मजबूत और विश्वसनीय सूचना-संरचना की है। 
स्वदेशी सूचना-तंत्र की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि सूचना-प्रवाह और उससे सम्बंधित डेटा देश की सुरक्षा और सम्प्रभुता में निर्णायक स्थान प्राप्त कर चुके हैं। युद्धभूमि अब जल, थल, नभ के साथ वर्चुअल दुनिया तक विस्तृत हो चुकी है। शत्रु अब वर्दी-रहित है, और नागरिक-क्षेत्रों में बैठकर सूचना, वीडियो के जरिए हमलों को अंजाम दे सकता है। वर्तमान युद्ध में केवल सशस्त्र सैनिक नहीं, बल्कि निशस्त्र आम नागरिक भी योद्धा की भूमिका में आ चुके हैं।
सोशल-मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर बने अकाउंट और उन पर हो रही गतिविधियां महत्वपूर्ण सूचनाएं शत्रुओं तक पहुंचा सकती हैं। मसलन, हाल में चीन अपने सैनिकों को उचित सम्मान देने के प्रश्न पर केवल इसलिए दबाव में आ गया क्योंकि उसके ही सोशल-मीडिया प्लेटफार्म पर एक ऐसा वीडियो आ गया, जिसमें एक चीनी सैनिक के शव को उचित सम्मान न देने पर उसके परिजन असंतोष व्यक्त कर रहे थे। इसी तरह, 2015 में आईएसआईएस के एक ठिकाने को तबाह करने में अमेरिकी सेना को इसलिए सफलता मिली थी क्योंकि उसके हाथ एक आतंकी कमांडर की सेल्फी लग गई थी। आईएसआईएस के एक कमांडर ने अपने किसी ठिकाने से फेसबुक पर एक सेल्फी पोस्ट की, अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने सेल्फी के लोकशन की छानबीन की और 22 घंटे बाद वहां बमबारी कर ठिकाने को तहस-नहस कर दिया गया। सोशल-मीडिया पर जनरेट हो रहे डेटा की सुरक्षा सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है और यह कार्य स्वदेशी सूचना-तंत्र का विकास करके ही संभव है। 
ऐसे और भी कारण है, जो वैश्विक परिप्रेक्ष्य से लैस स्वदेशी सूचना-तंत्र को वर्तमान भारत की सबसे बड़ी आवश्यकता बना देते हैं। एक राष्ट्र और सभ्यता के रूप में सूचना के वैश्विक और विश्वसनीय ब्रांड खडे़ करना सामूहिक-जिम्मेदारी है। यह सांस्कृतिक-स्वतंत्रता की मूलभूत शर्त है। यदि अगले कुछ वर्षों में यह कार्य नहीं होता तो सबसे निर्णायक मोर्चे पर पिछड़ने के लिए हम अभिशप्त होंगे। 
 

मीडिया ’मेड इन चाइना’

22 जून को एक लाइव टीवी डिबेट के दौरान सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद ने भारतीय सूचना-तंत्र पर कटाक्ष करते हुए एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उनके अनुसार सेना और सरकार के आधिकारिक बयान के बारे में भारतीय मीडिया का एक वर्ग संदेह पैदा करना चाहता है। इस वर्ग की तरफ से ऐसे अपुष्ट तथ्य सामने रखे जा रहे हैं, जिनसे राष्ट्रीय हित को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है। पूर्व भारतीय सैन्य अधिकारी ने सवाल उठाते हुए कहा कि देश के बयान को सच न मानकर जिन अपुष्ट तथ्यों और प्रायोजित प्रश्नों को सच के रूप में परोसा जा रहा है, उनका सोर्स पता किया जाना चाहिए। यदि स्रोत की पहचान हो जाए तो भारतीय मीडिया के उस वर्ग की मानसिकता और हितों की आसानी से पहचान की जा सकती है।

स्पष्टतः लेफ्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद ग्लोबल टाइम्स के प्रोपेगेंडा को भारत के आधिकारिक बयान पर तरजीह देने वाले मीडिया के एक वर्ग की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे थे। उन्होंने कहा कि युद्ध जैसी स्थिति में शत्रु के बयान को अधिक वजन देकर भारतीय मीडिया का एक वर्ग क्या साबित करना चाहता है? वह भारतीय मीडिया के उस वर्ग के बारे में अपनी खीझ व्यक्त कर रहे थे, जो 16 जून के बाद ग्लोबल टाइम्स के दृष्टिकोण,तथ्य और बयानों को अंतिम सच मानकर ज्यों का त्यों स्वीकार रहा था।

ऐसी ही एक बहस में हायब्रिड वारफेयर पर विशेषज्ञता रखने वाले लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने राय दी कि गलवान-संघर्ष ने चीन के उस मनोवैज्ञानिक लाभ को ध्वस्त कर दिया है, जो उसने 1962 के युद्ध के बाद हासिल किया था। यह साबित हो गया है कि जमीन पर चीन, भारतीय सेना से बहुत कमजोर है। गलवान का सैन्य महत्व तो है ही, उससे अधिक महत्व मनोवैज्ञानिक है।

इन दोनों टिप्पणियों को केन्द्र में रखकर 16 जून के बाद भारतीय मीडिया के व्यवहार को देखें तो कोई बहुत अच्छी तस्वीर नहीं उभरती। निर्णायक मौकों पर अपने देश, सेना, सरकार को लेकर वह अजीब तरह के हीनताबोध का प्रदर्शन करती है। शल्य वृत्ति उसके भीतर बहुत गहरे तक धंसी हुई है।

भारतीय मीडिया के एक वर्ग की यह प्रवृत्ति हायब्रिड वारफेयर, या फिफ्थ जनरेशन वारफेयर के वर्तमान दौर में देशहित को गंभीर नुकसान पहुंचा रही है। युद्ध की नई शैली सीमा और सैनिकों तक सीमित नहीं है। सूचना-तंत्र और सूचना-प्रवाह इसका अहम हिस्सा हो चुके हैं। इस लिहाज से पत्रकार देश की सुरक्षा की अहम कड़ी बन चुके हैं। सोशल-मीडिया के आने के बाद तो प्रत्येक नागरिक, उसकी सोच और अभिव्यक्ति की भी युद्ध में निश्चित भूमिका तय हो जाती है।

ऐसे में पेशेवर मीडिया से सम्बंध रखने वाले लोग ’मेड इन चाइना वर्जन’ को अधिक तरजीह देकर देश की सुरक्षा और सम्प्रभुता के साथ खिलवाड़ क्यों करना चाहते हैं? इसका रहस्यभेदन करना राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ खुले एक महत्वपूर्ण मोर्चे को फतह करने जैसा है। आखिर क्या कारण है कि अपने ऊल-जलूल शीर्षकों के लिए पहचान बना चुका अंग्रेजी अखबार भारत-चीन संघर्ष के बाद बड़े निर्लज्जतापूर्वक यह शीर्षक लगाता है कि उन्होंने हमें घर में घुसकर मारा। इस शीर्षक से देशवासियों और सेना को क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही थी और इससे किसके हितों की पूर्ति हो रही थी, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है।

क्या कारण है कि ग्लोबल टाइम्स के इस निष्कर्ष को कि चीन में भारतीय प्रधानमंत्री के आधिकारिक बयान की बहुत प्रशंसा हो रही है, हमारे अखबार ज्यो का त्यों प्रकाशित करते हैं? यह जानते हुए कि ग्लोबल टाइम्स की हैसियत चीनी सत्ता-प्रतिष्ठान के प्रोपेगैंडा-मशीन से अधिक कुछ नहीं हैं। यही ग्लोबल टाइम्स पिछले पांच सालों से भारतीय प्रधानमंत्री को अतिराष्ट्रवादी रवैये के लिए कोसता रहा है। उसकी यह स्टोरी प्रधानमंत्री की राष्ट्रवादी और मजबूत निर्णय लेने वाली छवि को नुकसान पहुंचाने के लिए प्लांट की गई थी। भारत का मीडिया उसकी चाल में फंसा, और उसके बाद कुछ राजनीतिक दल भी। यह एक वेल-डिजाइन और वेल-टारगेटेड स्टोरी थी।

ऐसा नहीं है कि ग्लोबल टाइम्स की भारतीय प्रधानमंत्री की मजबूत और निर्णायक छवि को नुकसान पहुंचाने की कोशिश अपने तरह की पहली कोशिश हो। भारत में  2019 में होने वाले आम चुनावों के ठीक पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने यह कहते हुए सबको हैरत में डाल दिया था कि यदि चुनावों में मोदी जीतते हैं तो भारत और पाक के शांति-प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। इससे पहले इमरान खान मोदी को हठी और शांति-प्रक्रिया का दुश्मन बताते रहे हैं। जाहिर है यह बयान मोदी को चुनावों में नुकसान पहुंचाने और उस फर्जी नैरेशन को मजबूत करने के लिए दिया गया था, जिसमें पुलवामा हमलों के लिए मोदी और पाकिस्तान की मिलीभगत का आरोप लगाया गया था। चुनाव समाप्त होने के बाद, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, इमरान खान ने फिर भूलकर भी ऐसा बयान नहीं दिया। स्पष्ट है कि सूचना-संग्राम का अपना आकलन, अपने निशाने और रणनीति होती है, जिसे समग्र परिप्रेक्ष्य में रखे बगैर समझा नहीं जा सकता।

ऐसा नहीं कि भारतीय मीडिया का जो वर्ग चायनीज वर्जन को अंतिम मानकर परोस रहा है, उसे मीडिया के जरिए लड़ी जाने लड़ाई और उसके तौर-तरीकों का पता न हो। इनमें से अधिकांश कई दशकों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं, इसलिए उनकी समझ पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। फिर दो ही संभावनाएं बचती हैं, या तो वे घरेलू राजनीतिक-संघर्ष को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक खींचने की कोशिश कर रहे हैं या फिर उनकी निष्ठा देश के प्रति कभी रही नहीं हैं, और अन्य देशों के मीडिया आउटलेट का एक्सटेंशन काउंटर के रूप में कार्य रहे हैं। हो सकता है कि यह दोनों बातें साथ-साथ काम रही हों।  

भारतीय मीडिया के मेड इन चाइना संस्करण को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अविश्वसनीय होना चीन की सबसे बड़ी पहचान है। चीन और उसके उत्पादों के बारे में कोई भी किसी भी तरह का दावा करने से बचता है। दुकानदार, खरीददार सभी का चीनी उत्पादों के बारे में मूल्यांकन यही होता है-चीनी सामान है, कितने दिन चलेगा इसका कोई भरोसा नहीं। वहां की पत्रकारिता को लेकर अविश्वास तो और भी अधिक है। क्योंकि अभी दुनिया में जिन कुछ देशों में आयरन कर्टेन पॉलिसी शिद्दत के साथ लागू की जाती है, उनमें चीन सबसे ऊपर है। ऐसे में मेड इन चाइना वर्जन के सहारे भारत में पत्रकारिता करना राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक तो है ही, पत्रकारीय-मूल्यों के लिहाज से भी यह गर्त में जाने जैसा है।

चायनीज मीडिया के भारतीय संस्करणों को जून 2020 के तीसरे सप्ताह में यह बात समझ में आ गई होगी कि किसी दूसरे देश का भोंपू बनने और वास्तविक खबर के बीच अंतर करने का कौशल अब भारतीय जनता में आ गया है। इसलिए पत्रकारिता के मूल्यों की दुहाई देकर देशहित के साथ खिलवाड़ करने का खेल भी वह अच्छी तरह समझने लगी है। अब चीन के सबसे बड़े रणनीतिकार माने जाने वाले शुन झू की बिना लड़े युद्ध जीतने की नीति भारत में आगे नहीं बढ़ पाएगी। ऐसे में चीन और भारत में काम कर रहे मेड इन चाइना वर्जन को स्वीकार करने वाले मीडिया का अवसाद और अवमूल्यन की तरफ बढ़ना बहुत स्वाभाविक है। 

सच्चाई की मीडिया-लिंचिंग

भारतीय मीडिया में यकायक सम्प्रदाय सबसे बड़ा ‘समाचार-मूल्य’ बन गया है। समाचार के चयन और महत्व का निर्धारण धड़ल्ले से साम्प्रदायिक आधार पर हो रहा है। किसी एक सम्प्रदाय से जुड़ी घटना मानवता का मुद्दा बन जाती है, सच की लड़ाई बन जाती है, अत्याचार की कहानी बन जाती है। लेकिन  किसी अन्य सम्प्रदाय से जुड़ी वैसी ही घटना खबर बनने के लिए तरस जाती है, मीडिया भयानक चुप्पी साध लेता है।

अपराधी को कानून के कठघरे में लाए बिना यदि भीड़ न्याय करने में उतारू हो जाए तो मॉब लिंचिग होती है। यदि सच का सुविधा और स्वार्थ के अनुसार किया चुनाव किया जाने लगे तो मीडिया लिंचिंग हो जाती है। एक में व्यक्ति की मौत होती है, दूसरे में सच दम तोड़ता है। हाल ही में जब पालघर में दो साधुओं की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई या असम में सब्जी बेचने वाले सनातन डेका मॉब लिचिंग का शिकार बने तो उनकी पहचान के साथ जिस तरह से खिलवाड़ किया गया, उससे मीडिया की साम्प्रदायिक आधार पर कवरेज करने का प्रश्न फिर से चर्चा का विषय बना। पालघर में तो साधुओं को मीडिया ने शुरुआती दौर में चोर बता दिया।

यदि पीछे भी नजर डालें तो इतिहास की सर्वाधिक अमानवीय, क्रूर और वीभत्स मॉब लिंचिंग की घटना मधु चिंदक्की की हत्या को माना जा सकता है। 22 फरवरी 2018 को जनजातीय समाज से ताल्लुक रखने वाले मधु चिंदक्की की हत्या कुछ मुट्ठी चावल चुराने के आरोप में कर दी गई थी। 27 वर्षीय मधु को बांधकर भीड़ ने इतनी बुरी तरह पीटा कि अस्पताल जाते समय उनकी मौत हो गई। अमानवीयता की हद यह थी कि कुछ लोग पिटाई के दौरान मानसिक रूप से विकलांग मधु के साथ सेल्फी ले रहे थे। मॉब लिंचिंग की इस घटना को एक समुदाय विशेष के द्वारा अंजाम दिया गया था। चार्जशीट के अनुसार एम. हुसैन, पी.सम्सुद्दीन, वी. नजीब, के सिद्दीक, और पी. अबूबकर मुख्य अभियुक्तों की सूची में शामिल हैं। मीडिया में मॉब लिंचिग के दौर पंथ और सम्प्रदाय ढूंढने की जो व्यग्रता रहती है, वह भीड़ द्वारा मधु चिंदक्की की हत्या मामले से पूरी तरह गायब है।

18 मई 2019को मथुरा के चौक बाजार में दुकानदार भारत यादव की एक भीड़ पीट-पीटकर हत्या कर देती है। उनका गुनाह केवल इतना था कि उन्होंने अपनी दुकान पर लस्सी पीने वाले कुछ लोगों से उसकी कीमत मांग ली थी। भारत यादव की उम्र 26 वर्ष थी। भारत यादव के भाई पंकज यादव हनीफ और शाहरुख को इस घटना के लिए दोषी ठहराते हैं। उनके अनुसार एक बुर्के वाली औरत ने भी भीड़ को उकसाया। पंकज के अनुसार भीड़ उनके भाई को काफिर कह-कह कर पीट रही थी। इस घटना पर मीडिया ने आपराधिक मौन धारण कर लिया। हिन्दी के अखबारों में तो यह इस घटना की थोड़ी बहुत कवरेज हुई भी। अंग्रेजी अखबारो से यह खबर लगभग पूरी तरह से गायब रही। इक्का-दुक्का अखबारों ने कवर किया भी तो वह बताने से अधिक छिपाने के अंदाज में किया।

11 मई 2019 को दिल्ली के बसई दारापुर में ध्रुव त्यागी के ऊपर इसलिए पत्थर बरसाए गए, पीटा गया और अंततः चाकुओं से गोद कर हत्या कर दी क्योंकि क्योंकि उन्होंने अपनी आंखों के सामने अपनी बेटी के साथ हो रही छेड़खानी का विरोध किया था। इस घटना में अपने पिता को बचाने आया अनमोल त्यागी भी बुरी तरह जख्मी हो गया।

इन तीन मामलों को मीडिया के पूर्वाग्रह और साम्प्रदायिक दृष्टिकोण को समझने के लिए केस स्टडी के रूप में लिया जा सकता है। इन सभी मामलों में मीडिया ने समुदाय का नाम नहीं लिया। इन्हें कानून और व्यवस्था का मामला माना। और ‘कथित’ शब्द का इस हद तक प्रयोग किया गया कि घटना की वास्तविकता के बारे में संदेह पैदा होने लगे।

तर्क यह दिया जा सकता है कि मीडिया नैतिकता के लिहाज से यह ठीक है। हां, इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। लेकिन जब तस्वीर का दूसरा पहलू देखते हैं कि तो आसानी से यह समझ में आ जाता है कि मामला इतना सीधा नहीं है। यदि आज एक सामान्य आदमी मीडिया लिंचिंग के मामलों को रिकॉल करने की कोशिश करता है तो उसे तीन घटनाएं याद आती है मोहम्मद अखलाक, पहलू खान और तबरेज अंसारी। आप दिमाग पर जोर देंगे तो यह तथ्य भी उभरेगी कि इन तीनों मामलों की छवि इस कदर आपके दिमाग में गढ़ी गई है मानो यह कानून व्यवस्था का मसला न हो। एक हिंसक, क्रूर और बहुसंख्यक समुदाय का एक अल्पसंख्यक और समुदाय पर किया गया हमला है।

इसका कारण बहुत स्पष्ट है मीडिया में इन घटनाओं की कवरेज कानून-व्यवस्था के प्रश्न के रूप में नहीं हुई। बल्कि एक बर्बर और बलवान समुदाय द्वारा शांतिप्रिय और निर्बल समुदाय पर हमले के रूप में की गई। इन हत्याओं का उपयोग राजनीतिक और सभ्यतागत आख्यान गढ़ने के लिए या उन्हें मजबूत बनाने के लिए किया गया। भारतीय मीडिया के लिए हिंदुओं पर हुए हमले व्यक्तिगत हो जाते हैं, कानून-व्यवस्था का प्रश्न बन जाते हैं, शांति-अपील के फुटनोट उनके साथ नत्थी कर दिए जाते हैं। मुसलमानों पर होने वाले हमले सामुदायिक हो जाते हैं, साम्प्रदायिक हो जाते हैं और उसमें आक्रोश को हवा-पानी दिया जाता है।

इससे भी आगे जाने वाला पूर्वाग्रह यह है कि मीडिया एक समुदाय के आरोपों को बिना छान-बीन के ही अंतिम मान ले रहा है और उन्हें प्रचारित-प्रसारित कर रहा है। गुरुग्राम में एक व्यक्ति ने यह आरोप लगाए कि दूसरे लोगों ने पीटा, टोपी उतरवायी, जय श्रीराम के नारे लगवाए। मीडिया ने इस खबर को हाथोंहाथ लिया। हैदराबाद से भी जबरन जय श्रीराम के नारे लगवाने की खबर आई, खबर पूरी तरह फर्जी पाई गई। पश्चिम बंगाल में एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम से जयश्रीराम के नारे पर लगवा रहा था। पेश ऐसे किया गया मानो हिन्दू मुसलमानों से जय श्रीराम के नारे लगवा रहे हों।

दूसरी तरफ हिन्दुओं से जुड़ी हुई पुख्ता खबरों को भी या तो कवर नहीं किया जाता है या शीर्षक में सम्बोधन लगाकर उन्हें संदेहास्पद बना दिया जाता है। केरल में महिला पुलिस कर्मी को दूसरे समुदाय के पुलिसकर्मी ने जिंदा जला दिया। कुछ अखबारों ने शीर्षक में इसे मानसिक असंतुलन से जोड़कर प्रस्तुत किया। दिल्ली में एक दुकान पर समुदाय विशेष के अपराधी ने तोड़-फोड़ किया, इस घटना को ऐसे पेश किया गया मानो दिल्लीवासी ने किसी मुंबईवासी से पर हमला कर दिया हो।

इस नई प्रवृत्ति के कारण भारतीय मीडिया की रही-सही विश्वसनीयता भी खत्म हो रही है। यह समाज में वैमनस्य और घृणा के नए बीज भी बो रही है। दिल्ली के चावड़ी बाजार के गली दुर्गा मन्दिर पर हुए हमले के तमाम कारणों में से एक कारण यह भी था कि वहां पर एक समुदाय विशेष के व्यक्ति की मॉब लिंचिंग का अफवाह उड़ी। एक समुदाय ने इस अफवाह का उपयोग मन्दिर पर हमला करने के लिए किया।

मॉब लिंचिग की झूठी और एकतरफा खबरें घृणा के व्यापार को आधार प्रदान कर रही है। मॉब लिंचिंग कानून व्यवस्था का प्रश्न है और इससे निपटा ही जाना चाहिए। लेकिन सच की जिस तरह से मीडिया लिंचिंग  की जा रही है, वह तो देश की सामूहिक चेतना के साथ खिलवाड़ है। उसे कैसे रोका जाए। सच के पक्ष में खड़े होकर, सच को मुखर करके ही ऐसा किया जा सकता है। मीडिया-लिंचिंग अभी शैशवास्था में है, यही इसके प्रतिकार का उचित समय है। अन्यथा झूठ का बाजार और अफवाहबाजी का तंत्र निर्णायक भूमिका में आ जाएंगे।

महामारी का आयरन कर्टेन

एक सूचना छिपाने की कीमत कितनी बड़ी हो सकती है, इसका अंदाजा कोराना संकट से लगाया जा सकता है। साथ ही, सही समय पर सम्पूर्ण सूचना मिलनी क्यों जरूरी है, इसके बार में भी कोराना संकट ही हमें सचेत करता है। कोरोना ने दुनिया को एक अभूतपूर्व संकट में खडा़ कर दिया है, तो इसका एक बड़ा कारण सूचना के मोर्चे पर बरती गई लापरवाही है। कोरोना चीन में कैसा फैला, इसके बारे में संशय का लाभ चीन को दिया जा सकता है। लेकिन कोरोना दुनिया में कैसे फैला, इसके बारे में चीन की भूमिका को लेकर कोई संदेह नही है। चीन में यह चमगादड़ से मानव में आया वुहान की चर्चित हुआनान सीफूड बाजार से या फिर वुहान इंस्टीट्यूट आॅफ वायरोलाॅजी की लैब से, इसके बारे में स्पष्ट रूप से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन लगभग सभी देश इस पर एकमत है कि कोविड-19 एक वैश्विक महामारी इसलिए बन गई क्योंकि चीन ने दुनिया को इसके बारे में सही-समय पर सूचित करने में आपराधिक लापरवाही बतरती। यदि इस वायरस और इसकी प्रकृति के बारे में दुनिया को शुरुआती दौर पर सचेत कर दिया गया होता तो सार्स की तरह कोविड-19 का प्रभाव भी एक सीमित दायरे में रह जाता।
सार्स के संक्रमण के दौरान इससे सम्बंधित सभी सूचनाएं वैश्विक स्तर पर पहुंच गई थी, और इसी कारण इसका प्रभावी रोकथाम संभव हो सका। कोरोना-19 के मामले में स्थिति एकदम उलट दिखती है। चीन में दिसंबर महीने के दूसरे सप्ताह से ही कोरोना के मामले सामने आना शुरु हो गए थे लेकिन चीन ने इसका आकलन बहुत कामचलाऊ तरीके से किया। संभवतः उसे आर्थिक-नुकसान या अपनी छवि की चिंता सता रही थी। दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक चीन में यह संकेत मिलने शुरू हो गए थे कि कोविड-19 का संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में हो सकता है। इसके बावजूद उसने इस सूचना को छिपाया। स्थिति तब और खराब हो गई, जब तमाम आशंकाओं के बीच चीन की साम्यवादी सरकार ने वुहान से अपने नागरिकों को दुनिया भर की यात्रा करने में कोई रोक नहीं लगायी। वुहान से दुनिया भर में जाने वाले लोग जैव-आत्मघाती दस्ते में तब्दील हो गए और जल्द ही कोविड-19 के संक्रमण ने वैश्विक-महामारी का रूप ले लिया।
चीन ने वस्तुस्थिति को छिपाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी सहयोग लिया। चीन की तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन को कोविड-19 की सूचना देने में बहुत विलम्ब किया गया और शुरूआती रिपोर्ट में चीन ने इस बात की जानकारी नहीं दी कि इसका संक्रमण एक इंसान से दूसरे इंसान में हो सकता है। इसीलिए 14 जनवरी को इस संगठन ने ट्वीट कर दुनिया भर को यह जानकारी दी कि चीन की शुरुआती जांच में इस बात के संकेत नहीं मिले हैं कि कोरोना वायरस इंसानों से इंसानों में फैलता है। लेकिन जब सभी देशों में कोरोना फैलने की खबरें आने लगीं तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक सप्ताह बाद ही 22 जनवरी को एक ट्वीट में यह जानकारी दी कि वुहान में कोरोना वायरस के इंसानों से इंसानों में फैलने के मामले सामने आए हैं। और फिर एक सप्ताह बाद इसी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया।
चीन और विश्व-स्वास्थ्य संगठन के गठजोड़ द्वारा सूचना छिपाने के आरोपों को इसलिए भी बल मिला क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ताईवान द्वारा दी गई सूचना पर कोइ ध्यान नहीं दिया था। ताईवान के आईलैंड्स सेंटर्स फाॅर डिजीज कंट्रोल के मुखिया चांउ जीहा ने प्रेस कान्फ्रेंस कर बताया कि ताइवान ने 31 दिसंबर को ही डब्ल्यूएचओ को इस नए वायरस इंसान से इंसान में फैलने के बारे में सचेत किया था। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस महत्वपूर्ण सूचना पर कोई सटीक प्रतिक्रिया नहीं दी। इसके बाद अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने भी चीन और विश्व-स्वास्थ्य संगठन की भूमिका पर सवाल उठाया। मंत्रालय के अनुसार कोविड-19 को रोकने के लिए जब राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन से आने वाले यात्रियों पर रोक लगाने का फैसला लिया था तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे गलत फैसला करार दिया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरिका इसके बाद किस तरह आमने-सामने आए, यह अलग कहानी है।
चीन का आंतरिक घटनाक्रम भी इसी बात की तरफ संकेत करता है कि चीन ने कोविड-19 से सम्बंधित सूचनाओं को छिपाने के लिए जानबूझकर प्रयास किए। चीन के वुहान केन्द्रीय अस्पताल में कार्यरत नेत्र-विशेषज्ञ डॉ. ली वेनलियांग ने 30 दिसंबर को ही अपने साथी डाॅक्टरों को सूचित किया था कि उन्होंने कुछ मरीजों में सार्स जैसे लक्षण दिखे हैं। चीन की साम्यवादी सरकार ने इस सूचना को गम्भीरता से लेने के बजाय डॉ. वेनलियांग को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का रास्ता चुना। चार दिन बाद चीनी प्रशासन के पब्लिक सिक्यूरिटी ब्यूरो ने उन्हें आॅफिस बुलाया और उन्हें एक पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया। उस पत्र में उन गलत टिप्पणी करने और सामाजिक व्यवस्था को बुरी तरह से अस्तव्यस्त करने के आरोप लगाए गए थे। वह उन आठ लोगों में से एक थे, जिन पर अफवाह फैलाने के आरोप लगाकर जांच की गई। सही सूचना देने, खतरे के बारे में बताने के लिए डाॅ. वेनलियांग से जिस तरह से व्यवहार किया गया, वह साबित करता है कि चीन ने कोविड-19 सम्बंधी सूचनाओ को लेकर किस तरह का अपारदर्शी रुख अपनाया हुआ था।
चीन का सूचनाओं से खेलने का दृष्टिकोण तब भी दुनिया के सामने आया जब उसने वुहान में कोविड-19 से मरने वाले व्यक्तियों की संख्या में यकायक परिवर्तन कर दिया। 17 अप्रैल को चीन ने वुहान में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या में 1,290 की बढ़ोतरी कर दी, इसके कारण मौतों का आंकड़ा कुल 3,869 हो गया। आंकडों में इस परिवर्तन ने दुनिया भर का ध्यान अपनी तरफ खींचा। इससे यह घारणा भी मजबूत हुई कि चीन सही आंकड़ों और सूचनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इस प्रकरण को लेकर चीन पर निशाना साधते हुए ट्वीट किया कि ’’ इस अज्ञात शत्रु से होने वाली मौतों का आंकड़ा चीन अचानक बढ़ा कर दोगुना कर दिया है। लेकिन ये इससे कहीं अधिक है। ये अमरीका में हो रही मौतों के आंकड़े से भी कहीं अधिक है।’’
चीन द्वारा कोविड-19 के सम्बंध में सूचना दबाने का एक अन्य प्रकरण को ’ सिक्स डे डिले’ के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार चायनीज प्रशासन ने कोविड-19 के खतरे के बारे में सभी औपचपारिक सूचनाएं 14 जनवरी को दे दी थीं लेकिन चीनी राष्ट्रपति ने इसे 20 जनवरी को सार्वजनिक किया। तब तक इसके कारण 3000 हजार से अधिक लोग सक्रमित हो गए थे।
कोरोना संक्रमण के समय चीन में उत्तरदायित्वपूर्ण शासन और पारदर्शी सूचना प्रणाली का घोर अभाव दिखा है। इस समय एक एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के बजाय चीन का व्यवहार टिपिकल साम्यवादी देश की तरह है। प्रायः प्रत्येक साम्यवादी देश में वैचारिकी के नाम पर उत्तरदायित्व और पारदर्शिता की बलि चढ़ा दी जाती है। शासक तानाशाह बन जाते हैं और सूचनाएं आयरन कर्टेन में कैद हो जाती है। आयरन कर्टेन सूचना-प्रवाह को अपने हितों के अनुसार नियंत्रित और बाधित करने वाली साम्यवादी देशों की नीति रही है। इस आयरन कर्टेन के कारण कोविड-19 की सूचनाएं दुनिया तक सही समय पर नहीं पहुंची और महामारी ने पूरी दुनिया को अपने शिकंजे में ले लिया। आगे ऐसा न हो इसलिए साम्यवादी आयरन कर्टेन का वैश्विक मंच से गायब होना आवश्यक है।

 

जिहादी पब्लिक रिलेशन्ज

आतंकवाद की जड़ें सदियों पुरानी है, लेकिन उसका कलेवर बदलता रहता है। आज भी काम करने का मात्र तरीका बदला है, बाकी गैर-मुस्लिमों को मारने की परंपरा आज भी वही है, जो सैकडों वर्ष से चली आ रही है। मीडिया को आज के युग का सबसे बड़ा हथियार माना जाता है। इस बात को आतंकवादी संगठन भी भलीभांति जानते हैं। आतंकवादी संगठन मीडिया का भरपूर उपयोग कर आतंकी मंसूबों को अंजाम दे रहे हैं।
मीडिया क्षेत्र में पब्लिक रिलेशन्ज अहम भूमिका निभाता है। पीआर का काम लक्षित व सौद्देश्यपूर्ण संबंध बनाना है, किसी व्यक्ति, वस्तु या संस्थान को प्रोमोट करना, लोगों को उसके बारे में अवगत करवाना है। पीआर किन्ही संगठनों और प्रमुख लोगों की छवि बनाने में महत्वपूर्ण कारक है।
आजकल यही काम जिहाद के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले भी दक्षता के साथ कर रहे हैं। अपनी बातों से लोगों को प्रभावित करना, आकर्षित करना पीआर की अनूठी कला है। इसी कला का प्रयोग अब आतंकवादियों द्वारा भी किया जा रहा है, पब्लिक रिलेशन्ज के माध्यम से आतंकवाद फैलाने के लिए इन लोगों ने पहले से ही अपनी टारगेटेड ऑडियंस तय करके रखी होती है। ये आतंकवादी संगठन अपना काम खुलेआम नहीं कर सकते। इनका कार्य तो लुका-छुपी करके ही पूर्ण होता है। खुफिया एजेंसियों के रडार पर आने का खतरा भी इनके सिर पर हमेशा मंडराया होता है। इनके पीआर की सबसे बड़ी कार्यनीति यह है कि ये लोग अपना कार्य मजहब की आड़ में छिपकर करते हैं। इसके द्वारा लोग इनके साथ एक जुड़ाव महसूस करते हैं और फिर लोगों को गलत राह पर धकेल देते हैं। ये लोगों का माइंडवॉश करने का काम करते हैं। आजकल के दौर में यही लोग मीडिया का सहारा लेकर लोगों के मन में जहर घोल रहे हैं।
आतंकी समूह पब्लिक रिलेशन्ज को मजबूत बनाने के लिए कुछ खास तरीके, कुछ खास पद्धतियां अपनाते हैं, जिससे आम आदमी के मन में डर पैदा किया जा सके। जैसे कुछ भयावह चित्र दिखाना, कटे सिर, खून से सने चाकू-खंजर और छोटी-छोटी घटनाओं को इस तरीके से पेश करना कि लोगों में इनका खौफ बना रहे। ये सब इनकी मूल रणनीतियां हैं। ये आतंकवादी संगठन पीआर के माध्यम से लोगों में डर पैदा करते हैं और इनकी विचारधारा का अनुसरण करने वाले लोग इनसे जुड़ाव महसूस करते हैं। ये पीआर के लिए गलत तरीकांे का प्रयोग करते हैं जो सामान्य पब्लिक रिलेशन्ज एथिक्स के खिलाफ है।
खुुफिया एजेंसियों के रडार पर आने से बचने के लिए ये पब्लिक रिलेशन्ज के प्लेटफॉर्म भी बदलते रहते हैं। आजकल इंटरनेट के जमाने में कोई भी व्यक्ति अपना संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक कुछ सेकेंड में पहुंचा सकता है। कमोबेश आतंकवादी संगठन भी इसी का इस्तेमाल जिहाद के लिए कर रहे हैं, ताकि इनकी चर्चा सार्वजनिक हो। फेक अकाउंट बनाकर अपना काम करना, जैसे दाबिक और रूमियाह जैसी पीडीएफ वर्जन में पत्रिका निकालना ताकि लोगों में भी इनका खौफ बना रहे। फील्ड में आकर लोगों को प्रभावित करना इनकी शुरूआती रणनीति रही है। पहले संगठन स्थापित हो जाए, फिर ये लोग अपना कार्य धीरे-धीरे पूरा करते हैं।
आतंकवाद सभी देशों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। आतंकवादी संगठन, मीडिया विशेष रूप से इंटरनेट व विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग कर जिहाद फैलाने का काम कर रहे हैं। जिहादी पब्लिक रिलेशन्ज इस्लामिक प्रतीकों व शब्दों का उपयोग कर प्रोपेगेंडा फैलाने का काम करते हैं। यह काम एक रणनीति के तहत किया जाता है।
किसी भी चीज के बारे में जानने के लिए उस चीज के बारे में पढ़ना काफी आवश्यक है। हम अपनी राय तभी रख पाते हैं, जब हम उसके बारे में जानते हों। जिहादी पब्लिक रिलेशन्ज और इन आतंकवादी संगठनों की मानसिकता समझने के लिए दाबिक और रूमियाह के चार अंक ही काफी हैं। दाबिक और रूमियाह जैसी पत्रिकाओं द्वारा ही हम इनकी मानसिकता समझ सकते हैं। इनको वैचारिक रूप से नेस्तनाबूद किया जा सकता है।

सोशल मीडिया पर राजनीतिक फैक्ट चेक

एक रोड शो के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को एक व्यक्ति थप्पड़ मार देता है। उनकी पार्टी इसे विरोधी दलों का षड्यंत्र बताती है और थप्पड़ मारने वाले व्यक्ति को दूसरे दल का कार्यकर्ता घोषित कर देती है। मामला आगे बढ़ता इससे पहले ही सोशल मीडिया पर उस व्यक्ति की छान-बीन शुरू हो जाती है और जो सच हाथ लगता है कि उससे एक प्रोपेगैंडा फैलने से पहले ही ध्वस्त हो जाता है। थोड़ी सी छानबीन के बाद यह पता चल जाता है कि वह व्यक्ति ‘आप’ से ही जुड़ा हुआ है और उसके कार्यक्रमों में शिरकत करता रहा है। सोशल मीडिया के ‘फैक्ट-चेक’ के कारण राजनीति को अपना रास्ता सुधारने का यह एक उदाहरण है।
इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ महागठबंधन ने बीएसएफ से बर्खास्त जवान तेजबहादुर यादव को उम्मीदवार बनाने की घोषणा कर बहुतों को आश्चर्य में डाल दिया। यह तर्क गढ़ने की कोशिश की गई कि सरकार सैन्य बलों की वास्तविक मांगों को अनसुना कर देती है और जो सही मुद्दे उठाता है, उसके खिलाफ तानाशाही रवैया और असहिष्णुतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाती है। तेजबहादुर यादव के जरिए राष्ट्रवाद, असहिष्णुता और अधिनायकवाद के त्रिकोण में प्रधानमंत्री को घेरने की योजना थी।
विपक्ष का एजेंडा आगे बढ़ता इससे पहले ही सोशल मीडिया के ‘फैक्ट-चेक’ ने उसकी हवा निकाल दी। पहले यह खबर आई कि तेजबहादुर यादव की फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हैं। रही-सही कसर उस वायरल वीडियो ने पूरी कर दी जिसमे तेजबहादुर यादव 50 करोड़ रूपए के एवज में प्रधानमंत्री की हत्या करवाने की बात कर रहे होते हैं। हिजबुल आतंकियों के साथ अपने संबंध होने की धौंस जमा रहा है, इसके आगे की कहानी बताने की जरूरत नहीं है।
इसी तरह चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री की एक वीडियो क्लिप वायरल करने की कोशिश की गई, जिसमें वह यह कहते हुए सुनाई पड़ रहे हैं कि ‘मैं पठान का बच्चा हूं’। उन्होंने यह बात इमरान खान को उद्धृत करते हुए कही थी। लेकिन वीडियो सुनने के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे प्रधानमंत्री स्वयं को ही, पठान का बच्चा कह रहे हैं। इस वीडियो की भी पोल खुलते देर नही लगी।
ये कुछ उदाहरण भर है, जो यह दर्शाते हैं कि चुनावी मौसम में सोशल मीडिया के कारण किस कदर राजनीतिक प्रोपेगैंडा पर रोक लगी है और उसे और राजनीतिक-प्रक्रिया को ट्रैक पर रखने की मदद मिली है। अभी तक सोशल मीडिया की प्रायः इसी संदर्भ मे चर्चा होती रही है कि यह झूठ को फैलाने का साधन बन गया है। सोशल मीडिया पर जिसके मन में जो आता है, वही लिख देता है और लोग बिना सच की पड़ताल किए पोस्ट्स को लाइक-शेयर करते रहते हैं।
कुल-मिलाकर सोशल मीडिया को झूठ का मंच साबित करने की पुरजोर कोशिश होती है, लेकिन इसी बीच चुनावी मौसम के दौरान सोशल मीडिया के फैक्ट चेक वाले रूप ने यह साबित कर दिया कि सोशल-मीडिया प्रोपेगैंडा-पॉलिटिक्स को लगभग नामुमकिन बना दिया है। झूठ की राजनीति न तो अब राजनेताओं के लिए संभव रह गई है और न ही पत्रकारों के लिए। चंद मिनटों में ही झूठ की राजनीति और झूठ की पत्रकारिता का किला सोशल मीडिया पर सक्रिय जंगजू फतह कर लेते हैं।
कारण यह है कि सोशल मीडिया ने प्रत्येक व्यक्ति को जुबान दे दी है। अब एक सामान्य सा आदमी भी बड़े से बड़े राजनेता अथवा पत्रकार द्वारा चलाए गए ‘विमर्श’ में न केवल हस्तक्षेप कर सकता है, बल्कि झूठ-सच की तरफ उसका ध्यान भी आकृष्ट करा सकता है। सच के लिए शाबाशी दे सकता है। झूठ के लिए झिड़की लगा सकता है।
आम आदमी को सोशल मीडिया ‘अभिव्यक्ति का नया आकाश’ दिया है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से जो हो-हल्ला मचा है, उसका कारण यह नही कि किसी की स्वतंत्रता छीनी गई है, बल्कि इसके पीछे टीस यह है कि अब हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक मंच मिल गया है। वह किसी से भी प्रश्न पूछ सकता है। इस नई परिघटना के कारण राजनीति और पत्रकारिता ने दशकों से चली आ रही मठाधीशी ढह गई है और मठाधीश बेचैन हो गए हैं।
सोशल मीडिया के कारण जो ‘फैक्ट चेक मैकेनिज्म’ उभरा है, उससे झूठ की सियासत पर विराम लगने की संभावनाए भी बलवती हुई है। 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों को अलग-अलग नजरिए से विश्लेषित किया ही जाएगा। इन सब विश्लेषणों के बीच देखने योग्य एक रोचक बात यह होगी कि सोशल मीडिया के कारण विकसित हुआ फैक्ट चेक मेकैनिज्म चुनावी दृष्टि से कितना कारगर हुआ है।

उमा का सवाल, मीडिया में बवाल

प्रश्न पूछना पत्रकारिता का गुणधर्म और मूलधर्म है। प्रश्न पूछना पत्रकारिता की सीमा और सामथ्र्य है। प्रश्न पूछना पत्रकारिता का एकमात्र व्यवहारिक विशेषाधिकार है। पत्रकारिता के प्रश्न राज और समाज के बीच संवादसेतु बनाते हैं। यही प्रश्न नीतिनियंताओं को टोकते हैं, रोकते हैं, सच्चाई का आईना दिखाते हैं और भविष्य का रास्ता भी बताते हैं। पत्रकारीय परिदृश्य में प्रश्न, उत्तर से भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं। शायद इसी को ध्यान में रखकर आल्विन टाॅफलर ने कहा है कि गलत प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करने से बेहतर है कि सही प्रश्न का गलत उत्तर प्राप्त किया जाए। पत्रकारिता के प्रश्न,व्यवस्था -विश्लेषण के लिए एक बेहतरीन संकेतक हैं।
लोकतांत्रिक शासनप्रणाली में पत्रकारिता के प्रश्नों का वजन और भी बढ़ जाता है। कई बार किसी एक पत्रकारीय प्रश्न से राजनीति की तस्वीर बदल जाती है। संसद में हंगामा होता है, सरकार पर खतरा मंडराता है और राजनेता ‘नो कमेंट मोड’ पर चले जाते हैं। लेकिन मई महीने के पहले सप्ताह में एक अद्भुत घटना देखने को मिली। पहली बार किसी राजनेता के सवाल से मीडिया की तस्वीर में व्यापक बदलाव देखने को मिला। पत्रकारों ने उमा भारती से निर्मल बाबा के सम्बंध में एक सवाल पूछा था। प्रश्न के उत्तर में उमा भारती ने एक दूसरा प्रश्न दाग दिया। उन्होंने कहा कि यदि निर्मल बाबा के खिलाफ अजीबोंगरीब टोटकों के जरिए कृपा बरसाने और आर्थिक अनियमितता के आरोप हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन मीडिया को अपना ध्यान अन्य पंथों में सक्रि चमत्कारी बाबाओं पर भी केंद्रित करना चाहिए। इसी संदर्भ में उन्होंने दक्षिण भारत में सक्रिय ईसाई धर्मप्रचारक पाॅल दिनाकरन का नाम लिया। उमा भारती के इस प्रतिप्रश्न ने पाॅल दिनाकरन को खबरिया चैनलों की सुर्खियों में ला दिया। अधिकांश चैनलों पर पाॅल बाबा प्राइम टाईम का हिस्सा बने। मीडिया में पहली बार तर्कशास्त्रियों के तीर मतांतरण के अभियान में संलग्न ईसाई प्रचारकों पर चले। मीडिया ने पाॅल की सम्पत्ति को खंगााला, उनके दावों की पोल खोली।
जांच-पड़ताल के दौरान पाॅल दिनाकरन के संबंध में बहुत चैंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। पाॅल दिनाकरन की संपत्ति निर्मल बाबा की संपत्ति से बीस गुना अधिक है, यानी वह लगभग 5 हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। वह स्वयं द्वारा स्थापित कारुण्य विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। ईसाई पंथ का प्रचार-प्रसार करने वाले रेनबो टीवी चैनल के मालिक हैं। जीसस काल्स धर्मार्ध न्यास के संस्थाापक हैं। सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में वह सीशा नामक एक अन्य संस्था के जरिए सक्रिय हैं। दस देशों में उनके प्रेयर टाॅवर है। अकेले भारत में उनके 32 प्रेयर टाॅवर हंै। पाॅल दिनाकरन अपने सामूहिक प्रार्थना कार्यक्रमों का जिन विशेष जगहों पर आयोजन करते हैं, उसे प्रेयर टाॅवर कहा जाता है। यह प्रेयर टाॅवर पाॅल दिनाकरन की संस्था जीसस काल्स की संपत्ति हैं।
लोगों के कल्याण के लिए वह प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना के एवज में मोटी रकम वसूलते हैं। प्रार्थना करना उनका पैतृक धंधा है। पाॅल दिनाकरन के पिता डीजीएस दिनाकरन का भी प्रमुख व्यवसाय प्रार्थना करना ही था। डीजीएस दिनाकरन तो सशरीर स्वर्ग जाने और ईसा मसीह से प्रत्यक्ष संवाद करने का भी दावा करते थे। पाॅल दिनाकरन ने इस पैतृक धंधे का आधुनिकीकरण कर दिया है। अब आप बिना प्रेयर टाॅवर जाए और बिना चेक दिए भी उनसे प्रार्थना करवा सकते हैं। प्रार्थना करने के लिए आॅनलाइन आवेदन कर सकते हैं और उनके खाते में आॅनलाईन भी ।
पाॅल दिनाकरन ने प्रार्थना के लिए कई श्रेणियां निधारित कर रखी हैं। उनके पास बेचने के लिए प्रार्थनाओं का एक पैकेज है। हर छोटी बडी समस्या का निदान उनकी प्रार्थनाएं करती हैं। मंत्री पद तक दिलवाने का दावा करते हैं दिनाकरन । जितनी बडी प्रार्थना , उतनी मोटी रकम । रकम मिलने के बाद पाॅल दिनाकरन प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना के इस पैकेज की सबसे बडी खूबी यह है कि एक बार बिकी हुई प्रार्थना फिर वापस नहीं होती। यानी पाॅल दरबार में प्रार्थना ‘भूल चूक लेनी देनी’ के लिए कोई स्थान नहीं है।
पाॅल दिनाकरन पर अकेले तमिलनाडु में 15 हजार से अधिक लोगों को मतांतरित करने का आरोप है। उनकी भविष्यवाणियों पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि वह लोगों को मतांतरण के लिए प्रेरित करते हैं। उन्होंने विश्व के सभी प्रमुख देशों के बारे में भविष्यवाणियां की हैं। वह स्पष्ट रुप से कहते हैं कि ईश्वरीय शक्तियों उन्हीं पर कृपा करेंगी जो ईसाइयत के रास्ते पर चल रहे हंै। वह प्रार्थना सभाओं में ईसाइयत की शरण में अपील करते हुए भी देखे जाते हैं।
मुद्दा यह है कि आसाराम बापू से लेकर निर्मल दरबार तक की सम्पत्ति पर सवाल उठाने वाले मीडिया की नजरें सम्पत्ति के इतने बडे साम्राज्य को क्यों नहीं देख पायी ? कहीं मीडिया ने जानबूझकर चमत्कार के इस गोरखधंधे की अनदेखी तो नहीं की ! अथवा छद्म पंथ निरपेक्षता की प्रवृत्ति मीडिया पर भी हावी हो गयी है, जो बहुसंख्यकों के मानबिंदुओं को ठेस पहुचाने को ही पंथनिरपेक्षता का पर्याय मानती है। या अन्य पंथों के चमत्कारी मठाधीशों का मीडिया प्रबंधन हिन्दू बाबाओं से बेहतर है , जिसके कारण उनसे जुडी नकारात्मक बातें मीडिया में नहीं आ पाती। यही प्रश्न उमा भारती ने मीडिया के सामने अन्य शब्दों में उठाए थे। उन्होंने कहा था कि हिन्दुओं को प्रयोग की वस्तु अथवा ‘गिनी पिग्स ’ मत बनाइए।
चर्च के मतांतरण अभियान के परिप्रेक्ष्य में भारतीय मीडिया की भूमिका का विश्लेषण करने पर उमा के प्रश्नों के उत्तर आसानी से प्राप्त किए जा सकते हैं। 5,6,7 नवम्बर 1999 अपनी भारत यात्रा के दौरान पोप जाॅन पाॅल द्वितीय ने दिल्ली में ‘ एक्लेशिया इन एशिया ’ नामक एक दस्तावेज जारी किया था। एशिया के बिशप सम्मेलन में जारी किए गए इस दस्तावेज में तीसरी सहस्राब्दी में चर्च के उद्देश्य , उसकी भावी रणनीति पर पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि तीसरी सहस्राब्दी एशिया में ‘ आस्था की फसल’ काटने का समय है और चर्च को ईश्वर द्वारा सौंपा गया काम तब तक पूरा नहीं होगा जब तक प्रत्येक व्यक्ति ईसाई न बन जाए।
‘एक्लेशिया इन एशिया’ में मतांतरण अभियान के लिए मीडिया का उपयोग करने की बात स्पष्ट रुप से कही गयी है। दस्तावेज कहता है कि मतांतरण के लिए भारत के प्रत्येक प्रदेश में मीडिया कार्यालय बनाए जाने चाहिए । यह दस्तावेज कैथोलिक स्कूलों में मीडिया प्रशिक्षण के जरिए ऐसे पत्रकारों को तैयार करने की भी बात कहता है जो मतांतरण के प्रति सहानुभूति रखते हों।
मतांतरण अभियान में मीडिया की उपयोग करना चर्च की व्यापक रणनीति का एक हिस्सा है। सूचना प्रवाह को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए चर्च मीडिया शिक्षा से लेकर मीडिया चैनलों तक में व्यापक पूंजी निवेश करता है। चर्च का यह पूंजी निवेश मीडिया की अंतर्वस्तु को प्रभावित करता है। भारत में भी कई चैनलों के लिए कैथोलिक चर्च ने व्यापक पंूजी निवेश किया है। अब उन चैनलों पर चर्च के खिलाफ खबरें तो आ नही सकती। उनके निशाने पर तो हिंदू संत ही होंगे। लेकिन अब भारत में चर्च पोषित खबरिया चैनलों का एकाधिकार टूट रहा है। कुछ ऐसे स्वतंत्र खबरिया चैनल स्थापित हो चुके हैं , जिनके लिए पांथिक सीमाएं कोई महत्व नही रखती। उनके लिए दर्शक और टीआरपी ही सबकुछ है। ऐसे चैनल चर्च के नियमों के बजाय बाजार और कुछ हद तक पत्रकारिता के नियमों से संचालित होते हैं।
उमा के सवाल से मीडिया में मचा बवाल चर्च के इशारे पर नर्तन करने वाले पत्रकारों और चर्च पोषित मीडिया घरानों के लिए यह एक अशुभ संकेत है। लेकिन भारतीय परिदृश्य में यह एक शुभ घटना है। यह घटना राजनीति और पत्रकारिता के अंतर्सम्बंधों के लिहाज से तो महत्वपूर्ण है ही । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह बताती है कि अब आकाशीय सूचनाएं अपनी जमीन से जुडने लगी हैं।

चमकता रजतपटल, चुकता स्मृतिपटल

भारतीय रजतपटल शत शरद ऋतुओं का द्रष्टा बन चुका है। वह शतायु हो गया है। आगामी 12-15 महीनों में कई तथ्य और तिथियां आपकी नजरों के सामने से बहुत बार गुजरेंगी। मसलन, प्रथम भारतीय कहानी आधारित फिल्म (फीचर फिल्म) ‘राजा हरिश्चंद्र’ है। इसके निर्माता धुंडिराज गोविंद फाल्के उपाख्य दादासाहब फाल्के थे। इस फिल्म की शूटिंग की शुरुआत 21 अक्टूबर 1912 से प्रारम्भ हुई। 21 अप्रैल 1913 को मुम्बई के ओलम्पिया हाॅल में इस फिल्म का पहला शो हुआ। यह शो पत्रकारों और बुद्धिजीवियों तक सीमित था। बाद में 3 मई 1913 को यह फिल्म जनसाधारण के समक्ष प्रदर्शित की गई। इन तमाम आंकड़ों को परोसने की प्रक्रिया में एक तथ्य को छुपाए जाने की प्रबल संभावना भी है। संभवतः पंथनिरपेक्षता की काली छाया और बाजार की कठोर काया का डर आंकड़ों के कारोबारियों को उस तथ्य का जिक्र करने से रोकगा, जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह को फिल्म निर्माण के लिए अपनी भूमि और भाषा अपनाने की ललक पैदा की। वह तथ्य यह है कि इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित मतांतरण अभियान से उपजे आक्रोश ने दादा साहब फाल्के को सिनेमा का भारतीय शिल्प गढ़ने के लिए प्रेरित किया था।
उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मिशनरियों द्वारा सिनेमा के जरिए पश्चिमी आदर्शों को भारत पर थोपने की प्रक्रिया का प्रतिरोध करने के लिए दादा साहब ने भारतीय सिनेमा स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारम्भ किए। यह एक स्थापित तथ्य है कि औपनिवेशिक शासनकाल में मतांतरण की प्रकिया को राज्याश्रय प्राप्त था। हिन्दू धर्मावलम्बियों को मतांतरित करने के लिए आर्थिक प्रलोभन और राजनीतिक प्रभुसत्ता दोनों को प्रयोग इसाई मिशनरियां कर रही थी। भारतीयों को मतांतरण हेतु मानसिक स्तर पर तैयार करने के लिए साहित्य वितरण जैसे पारंपरिक तरीकों के साथ सिनेमा जैसी नवीनतम माध्यमों का भी प्रयोग किया जा रहा था। इस कड़ी में वर्ष 1910 में भारत के विभिन्न हिस्सों में यीशु मसीह के जीवन पर आधारित एक फिल्म ‘ द लाइफ आॅफ क्राइस्ट’ दिखायी गयी। इसी फिल्म ने 39 वर्षीय दादा साहब फाल्के को समानांतर भारतीय सिनेमा को स्थापित करने की प्रेरणा दी। विदेशी भाव और भाषा में निर्मित इस फिल्म को दखने के बाद दादा साहब फाल्के ने यह महसूस किया कि ईसाई मिशनरियां सिनेमाई प्रभाव का उपयोग भारतीय संस्कृति के उच्छेदन के लिए कर रहीं है। उन्हें यह तथ्य समझने में भी समय नहीं लगा कि सिनेमा मनोरंजन तक सीमित नहीं है। इसमें सांस्कृतिक संरक्षण अथवा सांस्कृतिक उच्छेदन की असीम संभावनाए भी निहित हैं। उनकी दूरदृष्टि ने दीवार पर लिखी उस इबारत को भी पढ़ लिया था कि सिनेमा को भारतीय भाषा, भाव और भूमि से जोड़कर सांस्कृतिक नवचैतन्य के लिए संभावनाएं सृजित की जा सकती हैं।
उन्होंने अपनी पहली फिल्म के लिए जिस कथावस्तु का चयन किया और उसके निर्माण के लिए जिस तरह से संघर्ष किया, उससे भी यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए सिनेमा सांस्कृतिक संरक्षण का उपकरण था। उन्होंने किसी ऐसे भारतीय आदर्श पुरुष पर फिल्म बनाने की ठानी, जिसका भारतीय लोकमानस पर गहरा प्रभाव हो। इसके लिए उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति का लम्बे अरसे तक अध्ययन और अवलोकन किया। अंततः किसी आदर्श भारतीय पात्र की उनकी खोज महाराज हरिश्चंद्र पर समाप्त हुई। महाराज हरिश्चंद्र के चरित्र में निहित उदात्त नैतिक मूल्यों की स्मृति अब भी भारतीय लोकमानस में बनी हुई थी। कई नाटक कम्पनियां हरिश्चंद्र नाटक का मंचन करती थी और एक आम भारतीय में इस नाटक को जबरदस्त उत्सुकता भी थी। महात्मा गांधी ने इस बात को स्वीकार किया है ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाटक ने उनके जीवन का बहुत प्रभावित किया है। यह स्वीकृति इस बात को साबित करती है कि सम्पूर्ण भारत में राजा हरिश्चंद्र नाटक अत्यंत लोकप्रिय था। दादासाहब फाल्के द्वारा राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म निर्माण का निर्णय उनकी भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक संरचना की बेहतरीन समझ का संकेतक है। दरसअसल, रजतपटल को भारतीय स्मृतिपटल से जोडने की ललक ने ही दादासाहब फाल्के को महाराज हरिश्चंद्र पर फिल्म निर्माण करने के लिए प्रेरित किया ।
फिल्म निर्माण की बारीकियों को समझने के लिए 1 फरवरी 1912 को उन्होंने लंदन के लिए प्रस्थान किया। लंदन जाने के लिए उन्होंने अपनी बीमा पाॅलिसी और पत्नी के गहनों को गिरवी रखकर पैसे जुटाए थे। जाहिर है यह संघर्ष व्यवसायिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक संरक्षण के लिए था। व्यवसायिक इसलिए नहीं क्योंकि उस समय भारत जैसे देश में सिनेमा के जरिए व्यवसायिक हित साधना संभव नहीं था। फिल्म बनाना एक दुष्कर कार्य था और सिनेमा देखना एक अधम कार्य। सिनेमा को उस समय इतनी हीन दृष्टि से देखा जाता था कि दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र के महिला चरित्रों के लिए पुरुष कलाकारों का चयन करना पड़ा था। क्योंकि उस समय आम भद्र महिला तो दूर वेश्याएं भी सिनेमा में भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं थीं। तत्कालीन समाज में फिल्म के शौकीनों को भी तौहीन की नजर से देखा जाता था। फिल्म देखने के शौकीन लोगों को ‘ चवन्नी छाप ’ आदम कहकर बुलाया जाता था क्योंकि उस समय मुम्बई के नावेल्टी होटल में देशी दर्शकों के लिए टिकट का मूल्य चार आने निर्धारित किया गया था। ऐसे माहौल में फिल्म निर्माण के लिए पहल कोई सांस्कृतिक व्यक्ति ही कर सकता है , व्यवसायिक व्यक्ति नहीं।
दादा साहब फाल्के द्वारा ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रुप में रोपा गया भारतीय सिनेमा का वह नन्हा पौधा आज एक विशाल वट वृक्ष बन गया है। एक आंकडे़ के मुताबिक भारत में 1.3 करोड़ लोग प्रतिदिन वाॅलीवुड की फीचर फिल्मों को विभिन्न माध्यमों के जरिए देखते हैं। वाॅलीवुड में औसतन 1000 फिल्में सालाना बनती हैं। जबकि हाॅलीवुड में यह आंकड़ा 600 फिल्मों तक सीमित है। इस वटवृक्ष से तमिल, तेलगु, बंगाली, भोजपुरी फिल्मों की नई जडे़ं निकल आयी हैं। बाहर से देखने पर यह वृक्ष लहलहा रहा है। प्रभाव में वृद्वि हुई है। हमारे सुख, दुख, स्वप्न, शैली और शब्द सब फिल्मों की स्क्रिप्ट और धुनों के जरिए अभिव्यक्त हो रहे हैं। लेकिन क्या प्रभाववृद्वि और व्यवसायिक सफलता रजतपटल के मूल्यांकन के एकमेव आधार बन सकते हैं। भारतीय संदर्भों में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि दादा साहब फाल्के ने यह पर रजतपटल के शुरुआत सामाजिक सांस्कृतिक संरक्षण और सामूहिक स्मृतिपटल के पोषण के लिए की थी।
आज की स्थिति बिल्कुल उलटी है। रजतपटल भारतीय स्मृतिपटल को पोषित करने के बजाय उसकी जडों में मट्ठा डाल रहा हैं ,उसको खरोंचकर लहूलुहान कर रहा है। आज भारतीय रजतपटल के पास पैसा और तकनीकी दोनों हैं लेकिन भारतीयता को पोषित करने वाली दृष्टि नहीं है। उसकी अंतर्वस्तु या तो बाजारु-भारतीय है अथवा विदेशी। भारतीय समाज और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य की पहचान और अभिव्यक्ति का कोई भी प्रयास रजतपटल के चमकीले लोग नहीं कर रहे है। अभिव्यक्ति की बात तो दूर भारतीय मूल्यों को उपहास की विषयवस्तु के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है। चाणक्य जैसे धारावाहिक के निर्माता और रजतपटल की दुनिया भारतीयता को अभिव्यक्ति देने में सक्रिय कुछ गिने चुने लोगों में से एक डाॅ0चंद्रप्रकाश द्विवेदी आज की स्थितियों का सटीक आकलन करते हुए कहते हैं कि -

‘‘भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के के पास उस समय कई विषय रहे होंगे,लेकिन उन्होेंने अपनी फिल्म की कथा अतीत से चुनी। मतलब यह नहीं कि वे अतीतजीवी थे। उन्हें भारत के सामने एक आदर्श रखना था।उनका उद्देश्य था इस असाधारण उपकरण सिनेमा का इस्तेमाल हम समाज के लिए करें। आजादी और उससे पहले जो फिल्में हमारे यहां बनी उसमें भारत की जडें थी।भारतीय आत्मा थी।भारत के सवाल थे। उन सवालों के उत्तर देने की कोशिशें भी उनमें थी।पांचवें छठें दशक का सिनेमा भारतीय तत्वों से भरा था। परन्तु जैसे-जैसे सिनेमा का विकास होता गया , बाजार का दबाव बढता गया। हमारी कहानियां भारत से दूर होती गयीं। अब स्थिति ऐसी हो गयी है कि भारत के पात्र होत हैं और पीछे विदेशी भीड घूम रही होती है। हमारी गलियां भी अमृतसर , राजस्थान , यूपी और बिहार की नहीं रह गयीं, बल्कि अब हम गलियां भी न्यूयार्क , लंदन , शंघाई, स्पेन और कनाडा जैसे देशों की ढूंढ रहे हैं। ’’ (झंकार ,दैनिक जागरण , 5 फरवरी 2012 , पृष्ठ 4)

वर्तमान भारतीय रजतपटल में भारत और भारतीयता दोनों एकसिरे से गायब हैं। आज के रजतपटल में गोवध की समस्या नहीं है, मैली होती गंगा नहीं है, किसान आत्महत्या नहीं है, 90 करोड़ निर्धन नहीं हैं, बिजली से महरुम और ढिबरी से टिमटिमाते 10 करोड़ घर नहीं हंै, गांव की पगडंडिया नहीं हैं, हाथरस, भदोही, मुरादाबाद के हस्तशिल्पियों की दारुण दशा नहीं है। भारतीय स्मृतिपटल में रची बसी छवियां नहीं हैं, मुहावरे नहीं है। वह तो राजपथ, फ्लाईओवर, शाॅपिंगमाल्स से जगमगा रहा है। विदेशों में पिकनिक मना रहा है, बास्टर्ड कहने में इतरा रहा है और च्यूतिया कहने में लजा रहा है। उद्योगपतियों के कौशल को मसाला लगाकर दिखा रहा है। डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेदी इस संदर्भ में कहते हैं कि -

‘‘ पिछले 63 सालों में भारत के विभाजन पर कितनी फिल्में बनी? उंगलियों पर गिन सकते हैं 1984 के दंगों पर कितनी फिल्में हैं? कश्मीर का सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा हमारी फिल्मों का विषय नहीं हैं। आतंकवाद और नक्सलवाद को लेकर, भ्रष्टाचार को लेकर, आरक्षण को लेकर, रामजन्म भूमि विवाद को लेकर फिल्में नहीं बनी हैं। इतने सारे विषय देश में मौजूद हैं, परंतु हमारे फिल्मकारों को उनसे कोई सरोकार नहीं है।’’ (झंकार ,दैनिक जागरण , 5 फरवरी 2012 , पृष्ठ 4)

सर्वाधिक पीड़ादायी दृश्य यह है कि कई पीढि़यों से लोकस्मृति में घर कर चुकी छवियां और शब्द में रजतपटल पर जगह नहीं पा रहे हैं। 60 और 70 के दशक में फिल्मों के आधिकांश गाने लोकधुनों पर आधारित होते है। आज भी लोग उन्हें बडे आत्मीय भाव से गुनगुनाते हैं। नैन लडी जईहैं तो मनवा में खटक होईबै करी, चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिजडे वाली मुनिया ,दुख भरे दिन बीते रे भइया सुख भरे दिन आयो रे, जैसी लोकधुने अब रजतपटल से लुप्तप्राय हो गयी हैं। भारतीय नाटको की परंपरा सुखांत रही है, अच्छाई के पथ पर चलने वाले नायक की विजय सुनिश्चित होती है। लेकिन अब रजतपटल पर पश्चिमी दुखांत परंपरा हावी हो रही है। अच्छाई और बुराई की रेखाएं मिट रही हैं।
सोनचिरैया संस्था की संस्थापक और प्रख्यात लोकगायिक मालिनी अवस्थी रजतपटल पर लोकधुनों के गायब होने से काफी आहत हैं। वह रजतपटल में लोक के लिए सिमटते स्थान पर चिंता जाहिर करते हुए कहती हैं कि -‘‘स्थिति यह है कि सिर्फ गायन में ही नहीं लोक के सभी अंग -उपांग में क्षति है।लोक कलाकार के अस्तित्व से सीधे जुडा हुआ है लोक कलाओं का अस्तित्व।नक्कारा ,ताशा ,मृदंग ,झांझ,सींगी ,करताल और हुडुक जैसे वाद्य तभी तक सुरक्षित है ,जब तक कि इनके कलाकार । इन कलाओं को बचाना है तो इन लोक कलाओं को बढावा देना होगा । नई पीढी को इस अनमोल थाती से जोडना है तो लोककलाओं को अब स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा । यदि अपनी संस्कृति और अपने निजत्व की पहचान बनाए रखनी है तो समाज को हर हाल में नई पीढ़ी को लोक-साक्षर बनाना ही होगा।
निश्चय ही, वर्ण साक्षरण और ई साक्षरता से कम जरुरी नहीं है लोक साक्षरता। लोकसाक्षरता एक व्यापक शब्द है। इसका सम्बंध केवल गायन वादन से नहीं है। यह उस परंपरा से परिचय है जो भारतीय व्यक्तित्व को वैशिष्ट्य प्रदान करती है। इस परंपरा का उल्लेख किसी शास्त्रीय पोथी में नहीं है। इस परंपरा के प्राण भारतीयों के सामूहिक स्मृतिपटल में बसता है। इसी स्मृति पटल की बदौलत लाखों शब्द और छवियां समय के अवरोधों को पार करते हुए निरंतर एक पीढी से दूसरी पीढी में प्रवाहित हो रही हैं। स्मृतिपटल का चुकना भारतीयों की सबसे बडी सांस्कृतिक पराजय होगी। सामूहिक स्मृति पटल को बचाने के लिए लोकसाक्षरता आवश्यक है। यही सैकडों सालों की पराधीनता के कारण भारतीय भावभूमि पर जड जमा चुकी आत्महीनता की ग्रंथि को उखाड सकती है।
स्मृतिपटल और रजतपटल के बीच स्वस्थ संवाद स्थापित कर लोकसाक्षरता को बढाया जा सकता है , यह सवंाद स्मृतिपटल के संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। इसके लिए रजतपटल पर सांस्कृतिक समझ वाले लोगों की सक्रियता बढनी आवश्यक है। भारत में व्यवस्था परिवर्तन के आकांक्षी व्यक्तियों को भी रजतपटल को हल्के में लेने और उससे दूर रहने की प्रवृत्ति परिवर्तित करने होगी। जो रजतपटल प्रतिदिन 1.3 करोड भारतीयों तक पहुंचता है ,उन्हें हंसाने -रुलाने की क्षमता रखता है,युवावर्ग जिससे सर्वाधिक प्रभावित होता हो ,उसको नजरंदाज कर व्यवस्था परिवर्तन की रुपरेखा कैसे तय की जा सकती है? क्या श्री रामजन्म भूमि आंदोलन की सफलता में श्री रामानंद सागर कृत रामायण के योगदान को एकदम से नकारा जा सकता है। रजतपटल पर सांस्कृतिक व्यक्तियों की सक्रियता समय की मांग है। सांस्कृतिक व्यक्तियों की सक्रियता रजतपटल पर स्मृतिपटल का प्रभाव और दबाव सृजित करेगी। यह प्रभाव और दबाव सांस्कृतिक सम्पन्नता और निरंतरता के लिए आवश्यक है।
भारतीय स्मृतिपटल को लहुलूहान करने में मात्र रजतपटल की अंतर्वस्तु और तकनीकी ही जिम्मेदार नहीं है। रजतपटल से सम्बंधित सूचना-प्रवाह भी भारतीय स्मृतिपटल की जडें खोद रही है। व्यवसायिक सिनेमा के अतिरिक्त बहुत कुछ सर्जनात्मक भी रजतपटल की दुनिया हो रहा है। लेकिन फिल्म की दुनिया में उसकी कोई रिपोर्टिंग नहीं होती। बिग बाॅस को लेकर तो प्रिंट और मीडिया ने आसमान अपने सिर पर उठा लिया था लेकिन लगभग एक दशक के शोध के बाद मार्च से प्रसारित होने वाले डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी के धारावाहिक उपनिषद गंगा की चर्चा सूचना-संसार और फिल्म,धारावाहिक समीक्षा के काॅलम का हिस्सा नहीं बन सका । डाक्यूमेंट्री की समीक्षा अब भी रजतपटल पत्रकारिता का हिस्सा नहीं बन सकी है, जबकि यह फिल्मों की अपेक्षा भारतीय भावभूमि और समस्याओं से अधिक जुडी है। रजतपटल की पत्रकारिता को साहित्य समीक्षा जैसा गांभीर्य देकर रजतपटल के भारतीयकरण की दिशा में प्रारम्भिक कदम बढाया जा सकता है।

मंथन का महोत्सव कुम्भ

जल की धाराएं तो हर बार हिमालय से निकल कर सागर में मिल जाती हैं लेकिन परम्परा की धाराएं कई बार समुद्र से निकलकर कर हिमालय तक पहुंच जाती हैं। परम्पराओं में चतुर्दिक चलने का सामर्थ्य होता है और ढलान हर बार इनके मार्ग का निर्धारण नहीं करता। परम्पराओं की इसी सामर्थ्य और प्रकृति से देश में एकता के सांस्कृतिक सूत्र निर्मित होते हैं। समुद्र मंथन की कथा परम्पराओं के चहुंओर बढ़ने के इस सामर्थ्य का उदाहरण है। एक ऐसी कथा जिसके केन्द्र में समुद्र है लेकिन उसकी उपस्थिति और प्रभाव अखिल भारतीय है। इस कथा की मथनी का सहयोग लेकर आज भी आम भारतीय अपना धर्मपथ निर्धारित करने की कोशिश करता है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि सबसे अधिक परम्पराओं का सृजन इस कथा ने ही किया है, शिव के जलाभिषेक की परम्परा हो या कुंभ स्नान की परम्परा और सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण से सम्बंधित परम्पराएं, सबके केन्द्र में समुद्र मंथन है। इससे भी अधिक आश्चर्य का विषय यह है कि समुद्र-मंथन से जुड़ी परम्पराएं अब भी जीवंत बनी हुई हैं, भारतीय संस्कृति के कुछ निश्चित संदेशों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सम्प्रेषित कर रही हैं। आखिर समुद्र मंथन की कथा भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों की अभिव्यक्ति की महाकथा क्यों बन गई है ? मंथन की इस कथा ने अपने भीतर कौन से संदेश संजोए हुए हैं? इससे भी बड़ी प्रश्न यह कि भले ही समुद्र-मंथन निकली परम्पराएं अब भी जीवंत बनी हुई हों, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में इस कथा में निहित संदेशों की कोई प्रासंगिकता बची भी है या नहीं। ये सारे प्रश्न एक पुनर्मंथन करने को विवश करते हैं।
समुद्र
-मंथन की कथा के केन्द्र में मंथन है। मंथन ही इस कथा का सबसे बड़ा मूल्य भी है। प्रायः मंथन का यह मूल्य कुछ आदर्शों को स्थापित करने की इच्छा से उपजता है लेकिन कोरे आदर्शों के जरिए आगे नहीं बढ़ता। यह यथार्थ की सटीक समझ के आधार पर आदर्शों को स्थापित करने की प्रक्रिया है। कथा तो यही संदेश देती है। समुद्र-मंथन की योजना देवों के पराजित होने के बाद बनाई जाती है, और देवों को पराजित करने वाले असुरों को सहभागी बनाकर बनाई जाती है। शत्रु को सहभागी बनाने का कारण क्या है ? ऐसा नहीं था कि असुरों का मन बदल गया था। उन्हें अमृत प्राप्त करने की योजना का हिस्सा बनाने के अपने जोखिम थे लेकिन यथार्थ यह था कि उनकी शक्ति को नकारकर, उन्हें सहभागी बनाए बिना समुद्र मंथन नहीं किया जा सकता था। देवता अक्षम थे और अकेले समुद्र- मंथन करना उनके सामर्थ्य के बाहर था। उनको सहभागी बनाना यथार्थ की स्वीकृति थी। समुद्र-मंथन का सबसे बड़ा संदेश यथार्थ की स्वीकृति ही है। आपको प्रिय हो या अप्रिय, यथार्थ को स्वीकार किए बगैर सच और सफलता की तरह आगे नहीं बढ़ जा सकता। यथार्थ का सामना करने का साहस आदर्श गढ़ने, पाने की मूलभूत शर्त है।
यह कथा बताती है कि मंथन एक बहुआयामी और जटिल प्रक्रिया है। इतनी जटिल की कई बार विरोधाभासी प्रतीत होती है। लेकिन जो सत्य के लिए, धर्म के लिए विरोधाभासों को साध सके, विरोधियों को साथ ले सके, वही मंथन कर पाने में सक्षम होता है। मंथन का आदर्श शिव है और यथार्थ शक्ति है। देवता मंथन के लिए अपने अहंकार को त्यागकर असुरों से संवाद करते हैं, उनसे समुद्र मंथन में सहभागी होने का निवेदन करते हैं, तो इसका कारण बड़े लक्ष्य के प्रति उनकी सजगता है। मंथन की कथा का दूसरा प्रमुख संदेश यही है। अहंकार का कद कभी भी लक्ष्य से बड़ा नहीं होना चाहिए। पूरी तरह सजग रहते हुए सभी शक्ति
-केन्द्रों का सम्मान करना, उनसे संवाद करना, सहभागी बनाना यही मंथन है। संवाद रचने या सहभागिता सुनिश्चित करने का आशय नहीं होता सजगता छोड़ दी जाए। लक्ष्य और शत्रु के प्रति सजगता मंथन की पूर्व शर्त है। समुद्र-मंथन में भी यह सजगता दिखती है। अमृत को लेकर मनमोहिनी रूप करने का प्रकरण यह साबित करता है कि निर्णायक क्षणों में देवपक्ष अपने लक्ष्य को लेकर सजग है।
मंथन भविष्य के अनिश्चय को स्वीकार करने का साहस है। यह मनमाने, मनमाफिक निष्कर्षों पर पहुंचने और उन पर विश्वास करने से हमें रोकती है। मंथन-जो है, उससे संवाद है और जो होना चाहिए, उसकी आकांक्षा है। और यथार्थ तो परिवर्तनशील है। वह कब, कौन सा रूप धरकर हमारे सामने खड़ा हो जाए, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। इसलिए भविष्य का अनिश्चय स्वीकार कर अपने मार्ग पर आगे बढ़ना यह मंथन का तीसरा संदेश बन जाता है। मंथन की प्रारंभिक स्थिति में कोई भी पक्ष यही नहीं जानता कि समुद्र-मंथन क्या परिणाम लेकर आएगा। लेकिन देवपक्ष इस बात को लेकर स्पष्ट है कि इसे टाला नहीं जा सकता। मार्ग में हलाहल विष है और अंत में अमृत का कुंभ भी। भविष्य के इस अनिश्चित स्वरूप को स्वीकार करने का साहस होने पर मंथन की घटना जन्म लेती है।
समुद्र-मंथन की यह कथा हमें इस बात के लिए भी आश्वस्त करती है कि यदि हम भविष्य का अनिश्चय स्वीकार कर आगे बढ़ते हैं तो अंतिम परिणाम अच्छा ही होता है, अंत में अमृत-कुंभ ही प्राप्त होता है। अंतिम निष्कर्ष सत्यमेव जयते ही है। यह इस कथा से मिलने वाला सम्बल है। सत्य में अनुरक्ति और उसकी विजय में विश्वास यह भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य है, समुद्र-मंथन भी इस मूल्य को पोषित करता है।
कुंभ को मंथन के इन संदेशों के परिप्रेक्ष्य में ही ठीक ढंग ढंग से समझा जा सकता है। कुंभ महोत्सव का मंथन की इस कथा से गहरा सम्बंध हैं। कुभ मंथन की देन है और यह मंथन की परम्परा को आगे बढ़ाने का आयोजन भी। कुंभ को मंथन का महोत्सव बनाकर ही अमृत की कुछ बूंदे प्राप्त देश-समाज के लिए प्राप्त की जा सकती हैं। मंथन का महोत्सव बनने की स्थिति में कुंभ संघर्ष-समाधान का सबसे प्रभावी और बड़ा उपकरण बन सकता है और संघर्षों से निजात खोजती दुनिया के लिए कुंभ की यह भूमिका अमृत की किसी बूंद से कम नहीं होगी।
कुंभ संघर्ष-समाधान की सनातन परम्परा है और संघर्षों के समाधाना की संभावनाएं अब भी इसमें बची हुई है। अपने-अपने हिस्से के सच को अंतिम सच मान लेना बहुत स्वाभाविक है। यदि टुकड़ों में बंटे सच एक दूसरे से संवाद न करें तो वृहदतर सच अपरिचित रह जाता है, बड़ी संभावनाएं आकार नहीं ले पातीं।यह स्थिति ही अतिवादिता को जन्म देती है। अपनी सीमाओं का भान न रहने पर सच का हर टुकड़ा, दूसरे के खिलाफ जिहाद छेड़ देने पर आमादा हो जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। अतिवादित और संवादहीनता की वर्तमान दौर में कुंभ जैसे आयोजनों के मूलभाव को पुर्नजीवित किया जाना बहुत आवश्यक हो जाता है क्योंकि कुंभ व्यवस्थागत घटकों के बीच संवाद का एक वृहद पारंपरिक प्लेटफार्म रहा है।
भारतीय संस्कृति संवाद से ही सत्य के उपलब्ध होने की बात कहती है। आप अध्यात्म के सूत्रों को पहचान करना चाहते हैं अथवा एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं, इसके लिए संवाद से बढ़कर कोई मानवीय और समग्र तरीका नहीं हो सकता। संवाद की अवधारणा के आधार पर ही लोकतांत्रिक मूल्य पनपते हैं और सहिष्णु लोकमानस भी बनता है। किसी भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों की पहचान और समाधान के लिए अधिकतम् सुझाव, संवाद की प्रक्रिया के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। संवाद की अतिशय महत्ता को ध्यान में रखकर ही शायद इसे धार्मिक पवित्रता की परिधि में प्रस्तुत किया जाता है। किसी के मत को खत्म करने के लिए शस्त्र उठाने की परंपरा हमारे यहां कभी भी नहीं रही। कुंभ, संवाद की इस परम्परा का सांस्थानिक स्वरूप है।
अमृत और अमरता का भी कुंभ से गहरा संबंध है। साधारणतया अमृत से एक ऐसे पदार्थ का आशय निकाला जाता है,जिसको ग्रहण करने के बाद हम कालवाह्य हो जाते हैं,कालातीत हो जाते हैं,काल के गुणधर्म से परे हो जाते हैं। अस्तित्व का विस्तार त्रिकाल में हो जाता है। लेकिन यह अमृत और अमरत्व की बहुत रूढ़ व्याख्या है। रूपांतरण की प्रक्रिया के जरिए अपने अस्तित्व को बनाए रखना भी एक प्रकार का अमरत्व है। भारतीय संस्कृति का अमरत्व कुछ इसी प्रकार का है। सामयिक परिवर्तनों को आत्मसात करने की प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति का कलेवर बदल जाता है,लेकिन उसके मूलाधार नहीं बदलते। वह नितनवीन होने के साथ भी चिरपुरातन भी बनी रहती है। नितनवीन और चिरपुरातन के बीच संतुलन बिंदुओं की खोज और उनको साधने की प्रक्रिया में कुंभ जैसे आयोजनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। आज जब हम परिवर्तनों के अंधड़ में जी रहे हैं तब इस संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज अपेक्षाकृत अधिक आवश्यक हो गई है। यदि हम कुंभ को व्यवस्थागत संवाद के प्लेटफार्म के मूलस्वरूप में स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित रूप से संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज भी कर लेंगे। ऐसा करना अपनी सांस्कृतिक धारा को अक्षय बनाए रखने के लिए जरूरी है।
कुंभ जैसे वृहत्तर आयोजन के जरिए मंथन के मूल्य और संवार की संस्कृति को पुनर्स्थापित किया जा सकता है। यदि ऐसा हो सके तो हम निश्चित रूप से सनातन को पोषित करने की स्थिति में होंगे क्योंकि सनातन को अमरता की बूंदे मंथन के मूल्य और संवाद की संस्कृति से ही मिलती रही हैं।

सरस संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया

संज्ञाएं पहचान का आधार होती हैं। संज्ञाशून्य होना पहचानविहीन होने जैसा है। इसीलिए, पहचान गढ़ने का कोई भी काम किसी संज्ञा से प्रारम्भ होता है। यदि किसी व्यक्ति या समाज से उसकी संज्ञाए छीन ली जाएं तो उसके सामने पहचान का संकट खडा हो जाता है। यही खासियत उन्हें सांस्कृतिक और साभ्यतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है। हर आक्रांता देर-सवेर उन संज्ञाओं का नाम बदलना चाहता है, जिनसे आक्रांत समाज की पहचान जुड़ी हुई होती है।
संज्ञाएं किसी समाज की वास्तविक पहचान को न केवल उसकी स्मृति में न केवल बनाए रखती हैं बल्कि उस पहचान को फिर से स्थापित करने हेतु संघर्ष करने के लिए प्रेरित भी करती है। इसीकारण ये आक्रांताओं के सामने चुनौती बन जाती है। इसलिए संज्ञाहरण या संज्ञा

संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इसकी घोषणा 19 दिसम्बर 2016 को ही कर दी थी। अब इससे सम्बंधित वैश्विक कार्यक्रमों की विधिवत शुरुआत भी पेरिस स्थिति यूनेस्को हाउस से हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र प्रत्येक वर्ष को किसी चयनित मुद्दे के ‘अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाता है। इस संस्था के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित करना अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता को बताने और उसकी तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने का एक तरीका है।
संयुक्त राष्ट्र की इस परम्परा के लिहाज से देखें तो वर्ष 2019 को ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाने में कोई अनूठापन नहीं दिखता। सामान्य समझ तो यही बनती है कि संयुक्त राष्ट्र इस वर्ष देशज भाषाओं के संरक्षण
-संवर्द्धन के लिए विशेष प्रयास करेगा। वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे भाषायी-सम्मोहनों और दबावों के बीच संयुक्त राष्ट्र की ऐसी पहल साहसी मानी जाएगी। लेकिन बात केवल साहस की नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी समझ के अनुसार इस वर्ष को मनाने जा रहा है, वह उसके निर्णय को अनूठा और क्रांतिकारी दोनों बना देते हैं।
संयुक्त राष्ट ने ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के लिए जो थीम निर्धारित की है, वह अब तक की भाषायी समझ को सिर के बल खड़ी कर सकती है। थीम के अनुसार ‘देशज भाषाएं विकास, शांति
-निर्माण, सुलह का उपकरण हैं।’ इस थीम की जरूरत और आशय को अधिक स्पष्ट करते हुए संयुक्त राष्ट्र एक आकार लेती भाषायी समझ की तरफ संकेत करता है।
इस संस्था के ही शब्दों में कहें तो ‘भाषाएं लोगों के रोजमर्रा के जीवन में संचार, शिक्षा, सामाजिक एकीकरण और विकास के उपकरण के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि लोगों की विशिष्ट पहचान, सांस्कृतिक इतिहास, परम्परा और स्मृति का भण्डार भी हैं। इतना मूल्यवान होने के बावजूद विश्व भर में भाषाएं खतरनाक दर से विलुप्त हो रही हैं। इस बात को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है, ताकि इनके बारे में जागरूकता पैदा हो सके। इसका लक्ष्य इन भाषाओं को बोलने वाले लोगों को लाभ पहुंचाना तो है ही, उन अन्य लोगों को भी इस बात का अहसास दिलाना है कि देशज भाषी दुनिया की सांस्कृतिक विविधता में किस कदर योगदान कर रहे हैं।’
संयुक्त राष्ट्र ने देशज भाषाएं क्यों महत्वपूर्ण हैं, इसके लिए 6 कारण गिनाए हैं। संस्था के अनुसार देशज भाषाएं ज्ञान और दुनिया को समझने की एक विशिष्ट प्रणाली से हमारा परिचय कराती है। देशज भाषाएं शांति का माध्यम है, यह टिकाउ विकास, निवेश, शांति
-स्थापना और सुलह का के रास्ते खोलती हैं। भाषा मूलभूत मानवाधिकार और स्वतंत्रता है। यह सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देती है। और अंतिम यह कि यह विविधता की पोषक है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा देशज भाषाओं के पक्ष में दिए गए इन तर्कों की वजह से भाषा का कद यकायक बढ़ जाता है। इस बड़े फलक पर भाषा का जुड़ाव हर उदात्त आदर्श से हो जाता है, वह मानवीय मूल्यों तक पहुंचने का प्राथमिक उपकरण बन जाती है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित ‘मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स’ या ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स’ के संदर्भों में भाषाओं की अहमियत बढ़ जाती है। ऐसा लगता है कि भाषायी सामर्थ्य का निवेश किए बगैर किसी भी लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। भाषा मूलभूत अधोसंरचना के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती है।
संयुक्त राष्ट्र ने भाषायी सामथ्र्य के अनछुए लेकिन प्रभावी पहुलओं की अपनी स्वीकृति दे दी है। इसी के साथ बदलाव और टकराव की भूमिका भी तैयार कर दी है। भाषा अब जिस नए कलेवर में हमारे सामने आ रही है, उसका सामथ्र्य यदि अपने सम्पूर्ण कलाओं के साथ अवतार ले रहा है, तो इससे भविष्य में व्यापक बदलाव दिख सकते हैं। लेकिन इसके साथ टकराव के नए मोर्चे भी तैयार होंगे।
अभी तक भाषा को पहनने वाले कपड़े के तरह परोसा जाता था। जब चाहे बदल लो। वह तो अभिव्यक्त का उपकरण भर है, इसे संस्कृति, पहचान से जोड़ना मूर्खता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र तो स्पष्ट कह रहा है कि भाषा पहचान को गढ़ती है और यह सांस्कृतिक स्मृतियों का सामूहिक कोश है। चुनौती इस तर्क को भी मिलेगी कि परम्परा को किसी भी भाषा में आगे बढ़ाया जा सकता है, इसलिए परम्परा के आग्रही व्यक्तियों को भाषा के बारे में आग्रह नहीं रखना चाहिए।
प्रश्न उस लोकप्रिय तर्क पर भी उठेंगे, जो कहता है कि विकास की खास भाषा होती है। भाषा
-विविधता को कलह का कारण मानने वाले भी संयुक्त राष्ट्र की नई भाषायी लाइन से निराश होंगे। भाषायी मानवाधिकार और भाषायी स्वतंत्रता की संकल्पनाएं, किस कदर उठापटक पैदा कर सकती हैं, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल नहीं है। अभी तक मानवाधिकार की एक खास वैश्विक भाषा है और उसी खास भाषा में दक्षता प्राप्त कर स्वतंत्र होने की घोषणा की जा सकती है।
देशज भाषाओं के बहाने ही सही, संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी समझ को गढ़ने और फैलाने की कोशिश कर रहा है, उसके असर से कोई भी देश अछूता नहीं रहेगा। देश के भीतर भी विभिन्न मोर्चों पर इसके अलग
-अलग तीव्रता के प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। भारतीय संदर्भों में देखें तो संयुक्त राष्ट्र के नव-भाषायी संकल्पों से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में से एक मीडिया का क्षेत्र होगा। भारतीय मीडिया अब भी परम्परागत भाषायी आख्यानों से संचालित होता है। अधिकांश बिंदुओं पर उसकी दिशा संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के उलट दिखाई पड़ती है।
भाषा सम्बंधी एक आयाम का विश्लेषण भी इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त होगा कि भारतीय मीडिया की भाषायी समझ ठहर गई है। नए अध्ययनों के आलोक में वह अपनी भाषायी समझ का विश्लेषण करने के लिए न तो तैयार है और न ही कहने का नया व्याकारण तैयार करने में उसकी रुचि है। मसलन, संयुक्त राष्ट्र जहां भाषा के माध्यम से शांति की संभावनाओं को तलाश रहा है। भाषा के संयमित-संतुलित उपयोग पर जोर दे रहा है, वहीं भारतीय मीडिया दिन--दिन कर्कश होती जा रही है। उसे लगता है कि सच चिल्लाकर-शोर मचाकर ही सच कहा जा सकता है।
भाषायी मर्यादा का हनन भारतीय मीडिया का स्थायी चरित्र बनता जा रहा है। शोरगुल तक तो फिर भी गनीमत थी। अब तो यह घृणा के स्तर तक पहुंच गया है। इसका ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब द क्विंट की एक पत्रकार ने सार्वजनिक रूप से अमित शाह की मौत की कामना की। 16 जनवरी 2019 को अमित शाह ने ट्वीट किया कि -मुझे स्वाइन फ्लू हुआ है, जिसका उपचार चल रहा है। ईश्वर की कृपा, आप सभी के प्रेम और शुभकामनाओं से शीघ्र ही स्वस्थ हो जाऊंगा। इस पर द क्विंट की पत्रकार स्तुति मिश्रा ने अमित शाह की मौत की इच्छा ट्वीटर पर जाहिर की।
इसी तरह द क्विंट के ही स्तंभकार विकास महरोत्रा ने 7 मार्च 2017 को ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी रोड की तस्वीर साझा करते हुए उनके मौत की कामना की थी। कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने पर जब तजिन्दर पाल बग्गा ने सिखों की चिंताओं को आवाज दी तो एक महिला पत्रकार ने उनके मरने की कामना करते हुए उन्हें शोक संवेदना भेजी।
एनडीटीवी की राजनीतिक सम्पादक सुनेत्रा चैधरी से इससे भी एक कदम आगे निकल जाती हैं। उन्होंने 3 अक्टूबर 2009 को एक ट्वीट किया था। ट्वीट नरेन्द्र मोदी को स्वाइन फ्लू होने से जुडा़ था और उसका आशय भी स्तुति मिश्रा जैसा ही था। अपने इस ट्वीट पर घिरने के बाद उनका उत्तर था कि मुझे ऐसा लिखने का कोई पछतावा नहीं है। मृणाल पांडे के नाम से पत्रकारिता जगत में सब परिचित ही हैं। उन्होंने पत्रकारिता से जुड़े कई सरकारी
-गैरसरकारी पदों की शोभा बढ़ाई है। एक मात्र बौद्धिक होने की आत्ममुग्धता उनमें मौक-बे-मौके दिखती रहती है। इसी कड़ी में वह प्रधानमंत्री को ‘वैशाखनंदन’ कह जाती हैं। आलोचना होने पर उन्होंने अपनी इस गलती को भी बौद्धिकता का मायाजाल रचकर
ये उदाहरण भारतीय मीडिया की भाषायी समझ पर प्रश्न जैसे हैं। संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया अपनी भूमिका को नए सिरे से कैसे परिभाषित करेगी, उस पर बहुतों की नजर रहेगी। भविष्य में विमर्श और विश्वसनीयता का स्तर मीडिया की भाषायी समझ पर ही निर्भर करेगा।

परिवर्तन करके साम्राज्यवादी शक्तियां अपने साम्राज्य को स्थायी बनाने का बंदोबस्त करती रही हैं। आक्रांताओं द्वारा संज्ञाओं के साथ खिलवाड़ इसलिए भी किया जाता है क्योंकि यह पराधीन समाज को नीचा दिखाने का अवसर भी प्रदान करता है।
दूसरी तरफ संस्कृति के प्रति संवेदनशील लोग नई संज्ञाओं को संरक्षित रखने की कोशिश करते हैं या आरोपित संज्ञाओं के स्थान पर मूल संज्ञाओं की वापसी के लिए संघर्ष करते हैं। एक सांस्कृतिक व्यक्ति भली प्रकार से यह जानता है कि संज्ञाओं के संरक्षण का मतलब अपनी सभ्यता-संस्कृति के गुणसूत्रों की रक्षा करना है। संज्ञा बीज है। यदि वह अक्षुण्ण बनी रहती है तो सांस्कृतिक प्रवाह भी कमोबेश बना रहता है। संज्ञा प्रेरणा और स्वप्न है। उसमें बदलाव का मतलब किसी सभ्यता के स्वप्नों और प्रेरणाओं पर कब्जा करना है।
एक सभ्यता के रूप में लगभग तेरह सौ वर्षों से राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्षों के साथ भारत संज्ञाओं के मोर्चे पर युद्धरत है। सत्ता हथियाने के बाद होने वाले नरसंहारों, मन्दिरों, लूट-पाट, बलात्कार शिक्षा में बदलाव जैसे बिंदुओं की चर्चा तो कमोबेश होती रही है, लेकिन भारत ने खुद को पहचान देने वाली संज्ञाओं के लिए कैसे संघर्ष किया है, इस पर चर्चा अभी न के बराबर हुई है। हाल में इलाहाबाद और फैजाबाद का ‘पुर्ननामकरण संस्कार‘ होने के बाद नाम और नामकरण को लेकर भारतीय मीडिया में यकायक चर्चाओं की बाढ़ आ गई। भारत के सांस्कृतिक अभिकेन्द्रों में शामिल रहे प्रयाग और अयोध्या को उनकी मूलसंज्ञा से सम्बोधित किए जाने के बाद भारतीय मीडिया में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह की छिछली चर्चाएं की गई और सतही दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया, उससे यह जरूरी हो गया कि संज्ञाओं से सम्बंधित परम्परागत भारतीय दृष्टिकोण से परिचित हुआ जाए।
उत्तर प्रदेश में परम्परागत संज्ञात्मक चेतना की कुछ स्थानों पर हुई अभिव्यक्ति के बाद मीडिया में जो बहस चली या चलाई गई, वह मुख्यतः चार तर्को के आधार पर गढ़ी गई। पहली यह कि नाम में क्या रखा है, किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है। दूसरा तर्क यह गढ़ा गया कि लोगों के विकास और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए। नाम बदलने से वस्तुस्थिति थोड़ी ही बदल जाती है। तीसरे तर्क का सहारा कुछ मौलानानुमा लोगों ने लिया और यह कहा कि यदि नामकरण करना ही है तो नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण कर दिया जाए। और यह भी कि नामकरण इतिहास के साथ खिलवाड़ है।
इन चार तर्कों को यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोदी मीडिया के ये तीनों तर्क न केवल भोथरे हैं बल्कि उनकी सांस्कृतिक निरक्षरता के द्योतक भी हैं। भारत में गुणधर्म के आधार पर नामकरण करने की परम्परा रहा है। चर्चा में रहे अयोध्या या प्रयाग के नामकरण का उनकी विशेषताओं और इतिहास से गहरा सम्बंध है। अयोध्या का मतलब जो योध्य नही हैं, जिसे युद्ध में जीता नहीं जा सकता। प्रयाग के नामकरण का सम्बंध भी ब्रह्मा के प्रथम यज्ञ से है। केवल अयोध्या या प्रयाग का ही नहीं, व्यक्तियों या स्थानों का नामकरण उनके गुणधर्मों के निश्चित करने की भारत में परम्परा रही हैं। संज्ञाओं को लेकर इस अतिशय संवेदनशीलता के कारण ही भारत में निरुक्त जैसा एक पूर्ण शास्त्र अस्तित्व में आया और नामकरण को सोलह संस्कारों में शामिल किया गया। अब जिन्हें टॉम, डिक, हैरी में से कुछ भी चुन लेने की आदत है, वह निश्चित नाम के आग्रह और नामों के अवदान को स्वीकार कर पाएं, यह मुश्किल है। भारत में नामों की कितनी महत्ता है कि इसका अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि भारतीयों ने कुछ अर्थों में नाम को राम से भी बड़ा मान लिया। तुलसीदास जी रामनाम को ही सर्वोत्तम तीर्थ बताते हुए कहते हैं कि
-
कासी बिधि बसि तनु तजें, हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम
-नाम अनुराग।।
यानी विधिपूर्वक काशी में रहकर शरीर त्यागने से और प्रयाग में हठपूर्वक शरीर त्यागने से जो मोक्ष रूपी फल मिलता है, वह राम नाम में अनुराग होने से मिल जाता है। तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में नाम की विस्तृत महिमा गाई है। वह ‘को बड़ छोट कहत अपराधू, सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू’ कहकर रूप और नाम की तुलना से बचते हैं लेकिन आगे जाकर रूप को नाम के अधीन बताने में भी नहीं हिचकते हैं-देखिअहिं रूप नाम अधीना। रूप ग्यान नहिं नाम विहीना। उनके अनुसार नाम में अनुराग रखने वाले भक्तों को हमेशा मंगल ही होता है-भाय कुभाय अनख आलसहूं। नाम जपत मंगल दिसि दसहूं।
नाम-महिमा का यह चिंतन, अक्षर को अविनाशी और शब्द को ब्रह्म मानने वाली वृहद दार्शनिक रूप का प्रतिफल है। इसीकारण, भारतीय परम्परा अष्टोत्तरशतनामावली, सहस्रनामावली जैसी परम्पराओं का विकास हुआ। प्रयाग और अयोध्या के नामकरण को इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भारतीय जनमानस को उसकी वास्तविक स्मृतियों से जोड़ने वाला आवश्यक सांस्कृतिक कर्म है।
इतिहासकार होने का दावा करने वाली एक टोली ने यह तर्क गढ़ा की नाम में बदलाव इतिहास के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ है। भारतीयता को लेकर हमेशा अरण्यरोदन करने वाली एक मंडली ने नामकरण को फिजूलखर्ची साबित करने की कोशिश की।
स्पष्ट है नामकरण को लेकर भारतीय परम्परा बहुत सजग और सुव्यवस्थित रही है। इसमें किसी का भी, कुछ भी नाम रख देने वाले चिंतन के लिए स्पेस न के बराबर रहा है। नामकरण से सम्बंधित परम्परागत बोध के छीजने के बावजूद आज भी एक सामान्य भारतीय परिवार में जन्मे नवजात का नामकरण उसकी जन्मकुंडली के आधार पर संभावित गुणों और विशेषताओं का ध्यान में रखकर किया जाता है। ऐसे में कम से कम भारतीय संदर्भों में तो यह तर्क हास्यास्पद ही कहा जाएगा कि नाम में क्या रखा है ? या किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है।
दूसरा तर्क यह है दिया गया कि नाम बदलने से वस्तुस्थित थोड़ी ही बदलती है। हां, यह सच है कि नाम बदलने से तुरंत वस्तुस्थिति में तो कोई बदलाव नहीं आता लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इससे हमारी चेतना की प्रक्रिया और बोधात्मक स्वरूप में तुरंत ही बदलाव आ जाता है। यह बोधात्मक बदलाव देर
-सवेर वस्तुस्थिति में बदलाव का कारण बनता है। नामकरण, विकास की प्रक्रिया और सांस्कृतिक बोध में सम्बंध स्थापित कर वस्तुस्थिति में बदलाव का मजबूत और दूरगामी आधार सृजित करता है। विकास की दिशा यदि सांस्कृतिक-बोध से शून्य है तो ऐसा विकास न स्थायी होता है और न ही शुभ। ऐसा विकास अंततः रावण की लंका बनाता है, जो सोने की होते हुए अनाचार का पर्याय बनती है। इसलिए विकास और सांस्कृतिक बोध को साथ लाने का कार्य उचित नामकरण करने या मूल नामों को पुनः स्थापित करने से प्रारंभ होता है। नामकरण तुरंत बदलाव नहीं पैदा करता लेकिन यह ऐसा बोध पैदा करता है, जिससे बदलाव की संभावनाएं पैदा होती हैं।
जहां तक नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण करने की बात है तो आदर्श स्थिति में ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन यह तर्क उन शहरों के संदर्भ में अपने
-आप प्रासंगिक हो जाता है, जिनके प्राचीन नामों को आक्रांताओं ने जबरन बदल दिया। अयोध्या या प्रयाग प्राचीन नगर थे, इन नगरों से ही आस-पास के क्षेत्रों की पहचान होती थी। इन नगरों को आक्रमणकारियों ने तो नहीं बसाया था। धार्मिक-सांस्कृतिक कारणों इन पुराने शहरों को नए नाम दे दिए गये थे। इसलिए सांस्कृतिक दृष्टि से बर्बर लोगों ने बिना शहर बसाए नए नामकरण करने की जो भूल की थी, उसका परिमार्जन किया जाना आवश्यक हो जाता है। अयोध्या और प्रयाग को उनका मूल सम्बोधन पुनः प्रदान कर ऐसा ही आवश्यक परिमार्जन किया गया है।
इतिहास के साथ खिलवाड़ करने की बात तो पूरी तरह देशबोध और कालबोध से जुड़ी बोध है। यदि आप का इतिहास 11वीं शताब्दी या 15वीं शताब्दी तक जाता है तो नैसर्गिक नाम देने के सरकारी प्रक्रिया इतिहास के साथ खिलवाड़ लगेगी लेकिन यदि आपका इतिहास बोध इससे और आगे जाता है तो यह इतिहास के साथ किए गए खिलवाड़ को ठीक करने जैसा होगा। मामला दृष्टि का है, कोई 11 शताब्दी के बाद के घटनाक्रम को ही इतिहास मानता है तो खुद ही इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहा है।
फिजूलखर्ची के संदर्भों में तो यही कहा जा सकता है कि अर्थ का सबसे अच्छा निवेश बोध, ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में ही हो सकता है। इन क्षेत्रों में किया गया निवेश अंततः आर्थिक दृष्टि से भी लाभकारी साबित होता है। नैसर्गिक नाम की वापसी बोध में बदलाव के लिए बहुत जरूरी है और इसमें होने वाले आर्थिक खर्चे को आवश्यक निवेश मानकर स्वीकार किया जाना चाहिए। यहां इस तथ्य को भी ध्यान रखना चाहिए कि लालबुझक्कणों की एक टोली आर्थिक खर्चे का तर्क तभी देती है जब देश कुछ मूलभूत और महत्वपूर्ण हासिल करने की दिशा में अग्रसर होता है। पोखरण के समय भी खर्चे का रोना
-रोया गया था, मंगलयान के समय भी और अयोध्या और प्रयाग के नामों को लेकर रोजी-रोटी की दुहाइयां दी जा रही है। रोजी-रोटी का प्रश्न महत्वपूर्ण है। लेकिन हमेशा सांस्कृतिक भाव-बोध या मूलभूत शोध के विरोध में जाकर ही रोजी-रोटी का प्रश्न उठाना शातिराना हरकत ही कही जाएगी।
जो यह मानते हैं कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष अब भी चल रहा है , उनके लिए नैसर्गिक नामों की वापसी एक आवश्यक कदम और महत्वपूर्ण उपलब्धि की तरह है। अकादमिक षड्यंत्रों और मीडियाई छल से परे जाकर आम जनमानस को टंटोले तो कृत्रिम नामों का हटना उनके लिए यह अरसे से कलजे पर रखे हुए पत्थर और सम्मान पर लगे हुए कलंक के हटने जैसा है। भारतीय जनमन का ईमानदारी से टंटोलें तो वहां पर यही स्थायी भाव मिलेगा।

संज्ञाओं के संघर्ष में सभ्यता

संज्ञाएं पहचान का आधार होती हैं। संज्ञाशून्य होना पहचानविहीन होने जैसा है। इसीलिए, पहचान गढ़ने का कोई भी काम किसी संज्ञा से प्रारम्भ होता है। यदि किसी व्यक्ति या समाज से उसकी संज्ञाए छीन ली जाएं तो उसके सामने पहचान का संकट खडा हो जाता है। यही खासियत उन्हें सांस्कृतिक और साभ्यतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है। हर आक्रांता देर-सवेर उन संज्ञाओं का नाम बदलना चाहता है, जिनसे आक्रांत समाज की पहचान जुड़ी हुई होती है।
संज्ञाएं किसी समाज की वास्तविक पहचान को न केवल उसकी स्मृति में न केवल बनाए रखती हैं बल्कि उस पहचान को फिर से स्थापित करने हेतु संघर्ष करने के लिए प्रेरित भी करती है। इसीकारण ये आक्रांताओं के सामने चुनौती बन जाती है। इसलिए संज्ञाहरण या संज्ञापरिवर्तन करके साम्राज्यवादी शक्तियां अपने साम्राज्य को स्थायी बनाने का बंदोबस्त करती रही हैं। आक्रांताओं द्वारा संज्ञाओं के साथ खिलवाड़ इसलिए भी किया जाता है क्योंकि यह पराधीन समाज को नीचा दिखाने का अवसर भी प्रदान करता है।
दूसरी तरफ संस्कृति के प्रति संवेदनशील लोग नई संज्ञाओं को संरक्षित रखने की कोशिश करते हैं या आरोपित संज्ञाओं के स्थान पर मूल संज्ञाओं की वापसी के लिए संघर्ष करते हैं। एक सांस्कृतिक व्यक्ति भली प्रकार से यह जानता है कि संज्ञाओं के संरक्षण का मतलब अपनी सभ्यता-संस्कृति के गुणसूत्रों की रक्षा करना है। संज्ञा बीज है। यदि वह अक्षुण्ण बनी रहती है तो सांस्कृतिक प्रवाह भी कमोबेश बना रहता है। संज्ञा प्रेरणा और स्वप्न है। उसमें बदलाव का मतलब किसी सभ्यता के स्वप्नों और प्रेरणाओं पर कब्जा करना है।
एक सभ्यता के रूप में लगभग तेरह सौ वर्षों से राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्षों के साथ भारत संज्ञाओं के मोर्चे पर युद्धरत है। सत्ता हथियाने के बाद होने वाले नरसंहारों, मन्दिरों, लूट-पाट, बलात्कार शिक्षा में बदलाव जैसे बिंदुओं की चर्चा तो कमोबेश होती रही है, लेकिन भारत ने खुद को पहचान देने वाली संज्ञाओं के लिए कैसे संघर्ष किया है, इस पर चर्चा अभी न के बराबर हुई है। हाल में इलाहाबाद और फैजाबाद का ‘पुर्ननामकरण संस्कार‘ होने के बाद नाम और नामकरण को लेकर भारतीय मीडिया में यकायक चर्चाओं की बाढ़ आ गई। भारत के सांस्कृतिक अभिकेन्द्रों में शामिल रहे प्रयाग और अयोध्या को उनकी मूलसंज्ञा से सम्बोधित किए जाने के बाद भारतीय मीडिया में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह की छिछली चर्चाएं की गई और सतही दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया, उससे यह जरूरी हो गया कि संज्ञाओं से सम्बंधित परम्परागत भारतीय दृष्टिकोण से परिचित हुआ जाए।
उत्तर प्रदेश में परम्परागत संज्ञात्मक चेतना की कुछ स्थानों पर हुई अभिव्यक्ति के बाद मीडिया में जो बहस चली या चलाई गई, वह मुख्यतः चार तर्को के आधार पर गढ़ी गई। पहली यह कि नाम में क्या रखा है, किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है। दूसरा तर्क यह गढ़ा गया कि लोगों के विकास और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए। नाम बदलने से वस्तुस्थिति थोड़ी ही बदल जाती है। तीसरे तर्क का सहारा कुछ मौलानानुमा लोगों ने लिया और यह कहा कि यदि नामकरण करना ही है तो नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण कर दिया जाए। और यह भी कि नामकरण इतिहास के साथ खिलवाड़ है।
इन चार तर्कों को यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोदी मीडिया के ये तीनों तर्क न केवल भोथरे हैं बल्कि उनकी सांस्कृतिक निरक्षरता के द्योतक भी हैं। भारत में गुणधर्म के आधार पर नामकरण करने की परम्परा रहा है। चर्चा में रहे अयोध्या या प्रयाग के नामकरण का उनकी विशेषताओं और इतिहास से गहरा सम्बंध है। अयोध्या का मतलब जो योध्य नही हैं, जिसे युद्ध में जीता नहीं जा सकता। प्रयाग के नामकरण का सम्बंध भी ब्रह्मा के प्रथम यज्ञ से है। केवल अयोध्या या प्रयाग का ही नहीं, व्यक्तियों या स्थानों का नामकरण उनके गुणधर्मों के निश्चित करने की भारत में परम्परा रही हैं। संज्ञाओं को लेकर इस अतिशय संवेदनशीलता के कारण ही भारत में निरुक्त जैसा एक पूर्ण शास्त्र अस्तित्व में आया और नामकरण को सोलह संस्कारों में शामिल किया गया। अब जिन्हें टॉम, डिक, हैरी में से कुछ भी चुन लेने की आदत है, वह निश्चित नाम के आग्रह और नामों के अवदान को स्वीकार कर पाएं, यह मुश्किल है। भारत में नामों की कितनी महत्ता है कि इसका अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि भारतीयों ने कुछ अर्थों में नाम को राम से भी बड़ा मान लिया। तुलसीदास जी रामनाम को ही सर्वोत्तम तीर्थ बताते हुए कहते हैं कि
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कासी बिधि बसि तनु तजें, हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम
-नाम अनुराग।।
यानी विधिपूर्वक काशी में रहकर शरीर त्यागने से और प्रयाग में हठपूर्वक शरीर त्यागने से जो मोक्ष रूपी फल मिलता है, वह राम नाम में अनुराग होने से मिल जाता है। तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में नाम की विस्तृत महिमा गाई है। वह ‘को बड़ छोट कहत अपराधू, सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू’ कहकर रूप और नाम की तुलना से बचते हैं लेकिन आगे जाकर रूप को नाम के अधीन बताने में भी नहीं हिचकते हैं-देखिअहिं रूप नाम अधीना। रूप ग्यान नहिं नाम विहीना। उनके अनुसार नाम में अनुराग रखने वाले भक्तों को हमेशा मंगल ही होता है-भाय कुभाय अनख आलसहूं। नाम जपत मंगल दिसि दसहूं।
नाम-महिमा का यह चिंतन, अक्षर को अविनाशी और शब्द को ब्रह्म मानने वाली वृहद दार्शनिक रूप का प्रतिफल है। इसीकारण, भारतीय परम्परा अष्टोत्तरशतनामावली, सहस्रनामावली जैसी परम्पराओं का विकास हुआ। प्रयाग और अयोध्या के नामकरण को इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भारतीय जनमानस को उसकी वास्तविक स्मृतियों से जोड़ने वाला आवश्यक सांस्कृतिक कर्म है।
इतिहासकार होने का दावा करने वाली एक टोली ने यह तर्क गढ़ा की नाम में बदलाव इतिहास के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ है। भारतीयता को लेकर हमेशा अरण्यरोदन करने वाली एक मंडली ने नामकरण को फिजूलखर्ची साबित करने की कोशिश की।
स्पष्ट है नामकरण को लेकर भारतीय परम्परा बहुत सजग और सुव्यवस्थित रही है। इसमें किसी का भी, कुछ भी नाम रख देने वाले चिंतन के लिए स्पेस न के बराबर रहा है। नामकरण से सम्बंधित परम्परागत बोध के छीजने के बावजूद आज भी एक सामान्य भारतीय परिवार में जन्मे नवजात का नामकरण उसकी जन्मकुंडली के आधार पर संभावित गुणों और विशेषताओं का ध्यान में रखकर किया जाता है। ऐसे में कम से कम भारतीय संदर्भों में तो यह तर्क हास्यास्पद ही कहा जाएगा कि नाम में क्या रखा है ? या किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है।
दूसरा तर्क यह है दिया गया कि नाम बदलने से वस्तुस्थित थोड़ी ही बदलती है। हां, यह सच है कि नाम बदलने से तुरंत वस्तुस्थिति में तो कोई बदलाव नहीं आता लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इससे हमारी चेतना की प्रक्रिया और बोधात्मक स्वरूप में तुरंत ही बदलाव आ जाता है। यह बोधात्मक बदलाव देर
-सवेर वस्तुस्थिति में बदलाव का कारण बनता है। नामकरण, विकास की प्रक्रिया और सांस्कृतिक बोध में सम्बंध स्थापित कर वस्तुस्थिति में बदलाव का मजबूत और दूरगामी आधार सृजित करता है। विकास की दिशा यदि सांस्कृतिक-बोध से शून्य है तो ऐसा विकास न स्थायी होता है और न ही शुभ। ऐसा विकास अंततः रावण की लंका बनाता है, जो सोने की होते हुए अनाचार का पर्याय बनती है। इसलिए विकास और सांस्कृतिक बोध को साथ लाने का कार्य उचित नामकरण करने या मूल नामों को पुनः स्थापित करने से प्रारंभ होता है। नामकरण तुरंत बदलाव नहीं पैदा करता लेकिन यह ऐसा बोध पैदा करता है, जिससे बदलाव की संभावनाएं पैदा होती हैं।
जहां तक नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण करने की बात है तो आदर्श स्थिति में ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन यह तर्क उन शहरों के संदर्भ में अपने
-आप प्रासंगिक हो जाता है, जिनके प्राचीन नामों को आक्रांताओं ने जबरन बदल दिया। अयोध्या या प्रयाग प्राचीन नगर थे, इन नगरों से ही आस-पास के क्षेत्रों की पहचान होती थी। इन नगरों को आक्रमणकारियों ने तो नहीं बसाया था। धार्मिक-सांस्कृतिक कारणों इन पुराने शहरों को नए नाम दे दिए गये थे। इसलिए सांस्कृतिक दृष्टि से बर्बर लोगों ने बिना शहर बसाए नए नामकरण करने की जो भूल की थी, उसका परिमार्जन किया जाना आवश्यक हो जाता है। अयोध्या और प्रयाग को उनका मूल सम्बोधन पुनः प्रदान कर ऐसा ही आवश्यक परिमार्जन किया गया है।
इतिहास के साथ खिलवाड़ करने की बात तो पूरी तरह देशबोध और कालबोध से जुड़ी बोध है। यदि आप का इतिहास 11वीं शताब्दी या 15वीं शताब्दी तक जाता है तो नैसर्गिक नाम देने के सरकारी प्रक्रिया इतिहास के साथ खिलवाड़ लगेगी लेकिन यदि आपका इतिहास बोध इससे और आगे जाता है तो यह इतिहास के साथ किए गए खिलवाड़ को ठीक करने जैसा होगा। मामला दृष्टि का है, कोई 11 शताब्दी के बाद के घटनाक्रम को ही इतिहास मानता है तो खुद ही इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहा है।
फिजूलखर्ची के संदर्भों में तो यही कहा जा सकता है कि अर्थ का सबसे अच्छा निवेश बोध, ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में ही हो सकता है। इन क्षेत्रों में किया गया निवेश अंततः आर्थिक दृष्टि से भी लाभकारी साबित होता है। नैसर्गिक नाम की वापसी बोध में बदलाव के लिए बहुत जरूरी है और इसमें होने वाले आर्थिक खर्चे को आवश्यक निवेश मानकर स्वीकार किया जाना चाहिए। यहां इस तथ्य को भी ध्यान रखना चाहिए कि लालबुझक्कणों की एक टोली आर्थिक खर्चे का तर्क तभी देती है जब देश कुछ मूलभूत और महत्वपूर्ण हासिल करने की दिशा में अग्रसर होता है। पोखरण के समय भी खर्चे का रोना
-रोया गया था, मंगलयान के समय भी और अयोध्या और प्रयाग के नामों को लेकर रोजी-रोटी की दुहाइयां दी जा रही है। रोजी-रोटी का प्रश्न महत्वपूर्ण है। लेकिन हमेशा सांस्कृतिक भाव-बोध या मूलभूत शोध के विरोध में जाकर ही रोजी-रोटी का प्रश्न उठाना शातिराना हरकत ही कही जाएगी।
जो यह मानते हैं कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष अब भी चल रहा है , उनके लिए नैसर्गिक नामों की वापसी एक आवश्यक कदम और महत्वपूर्ण उपलब्धि की तरह है। अकादमिक षड्यंत्रों और मीडियाई छल से परे जाकर आम जनमानस को टंटोले तो कृत्रिम नामों का हटना उनके लिए यह अरसे से कलजे पर रखे हुए पत्थर और सम्मान पर लगे हुए कलंक के हटने जैसा है। भारतीय जनमन का ईमानदारी से टंटोलें तो वहां पर यही स्थायी भाव मिलेगा।

सही मोर्चे की खबर

वास्तविक शत्रु, शस्त्र और मोर्चे की पहचान पर ही किसी संघर्ष का परिणाम सबसे अधिक निर्भर करता है। संघर्षों के दौरान बहुत से अन्य कारक भी परिणाम को प्रभावित करते हैं, लेकिन यदि कोई पक्ष शत्रु में मित्र और मित्र में शत्रु देखने के भ्रम का शिकार हो जाए या शत्रुता को लेकर ऊहापोह की स्थिति में आ जाए तो उस पक्ष का पराजित होना तय है। यह मनोदशा आत्मघात सरीखी स्थिति को जन्म देती है। इसी तरह संघर्ष के दौरान शत्रु पक्ष की रणनीति को मूर्त रूप देने वाले मोर्चों और प्रभावी हथियारों की पहचान भी अहम रणनीतिक जिम्मेदारी होती है। मोर्चे के महत्व के अनुरूप शक्ति के समानुपातिक सदुपयोग की कला सजगता से ही आती है।
दुर्भाग्यवश, सभ्यतागत-संघर्ष की वर्तमान विश्वव्यवस्था में हिंदू-धर्म शत्रु, शस्त्र और मोर्चों को लेकर भ्रम की स्थिति में है। अंतिम पैगंबर की अवधारणा पर आधारित पंथों की एकमात्र सत्य होने के दुराग्रह के कारण हिंदू धर्म की समावेशी प्रकृति को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है। एक तरफ यह कट्टरता है कि जो हमसे इतर है, वह झूठ है और उसे रहने का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ सभी पंथों को एक ही पलडे़ पर तोलने की अतिशय उदारता। यह विरोधाभासी स्थिति हिंदू-धर्म के समक्ष पिछले हजार सालों से चुनौतियां पैदा कर रही है और यह दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है।
सूचनात्मक-संकल्पनात्मक स्तर पर लड़े जा रहे वर्तमान सभ्यतागत-संघर्ष में मीडिया-अकादमिक जगत केंद्रीय भूमिका में हैं। मीडिया और अकादमिक का गठजोड़ सबसे घातक हथियार है और संघर्ष का बड़ा मोर्चा भी। इस मोर्चे पर हिन्दू धर्म की दयनीय उपस्थिति उसे कुव्याख्याओं के लिए सुभेद्य बना देती है। मीडिया और अकादमिक जगत में हिंदू धर्म की कुव्याख्याओं की पीड़ा से उपजी किताब है रीआर्मिंग-हिंदुइज्म। नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि यह कोई उत्तेजक और आक्रामक किताब है, लेकिन इसकी अंतर्वस्तु बताती है कि सबसे प्रभावी हथियार से लैस होने और सबसे निर्णायक मोर्चे पर डटने की भारतीयों से की गई अपील है।
लेखक इस मूल मान्यता को लेकर आगे बढ़ता है कि शोध, सूचना और संवाद कभी हिंदू धर्म की मूल शक्ति रहे हैं, पिछली कुछ शताब्दियों में यह परम्परा क्षीण हुई है। किताब के पहले हिस्से में उन सभी अकादमिक मिथकों की पहचान की गई है, जिनके जरिए हिंदू धर्म पर हमला किया जाता है मसलन-आर्य-आक्रमण का मिथक, वैदिक-हिंसा का मिथक, वैकल्पिक इतिहास का मिथक। दूसरे हिस्से में सनातन दर्शन के विविध आयामों को स्पर्श किया गया है और निष्कर्ष भारत की नियति, जगत गुरु के रूप में उसकी भूमिका को रेखांकित किया गया है।
लेखक इस तथ्य को मजबूती से स्थापित करता है कि हिंदू-धर्म के खिलाफ प्रतिस्पर्धी पक्ष आपस में हाथ मिलाकर आक्रमण करते हैं। इस्लाम और ईसाइयत एकजुट होकर हमला करते हैं, यूरोप और अमेरिका में वाम और दक्षिण मिलकर हिन्दू धर्म को निशाना बनाते हैं। रीआर्मिंग हिंदुइज्म इस बात से हमें सचेत करती है कि भारतीय सभ्यता पर हमलों को व्यक्तिगत पूर्वाग्रह मानने के प्रति सचेत करती है।‘ सबसे पहले हमें इस सच को स्वीकार करना चाहिए कि हिंदूफोबिया व्यक्तिगत पूर्वाग्रह नहीं है। यह एक बड़ी और गहरी राजनीतिक सच्चाई से उपजी अकादमिक रचना है। ( पृष्ठ 31)
पुस्तक की एक प्रमुख खूबी इसका संस्कृतिमय और संस्कृतमय होना है। किताब का पहले भाग का नाम देश-काल दोष है। पहले अध्याय का नाम अकादमिक माया सभा है। अंग्रेजी किताब में संस्कृत शब्दों और भारतीय संकल्पनाओं का विनियोग किताब को अलहदा बनाता है। इससे भी बड़ी बात भारतीय मानस पर किताब में स्थान-स्थान पर की गई अंतःदृष्टिपूर्ण की गई टिप्पणियां हैं। रामायण, महाभारत और पुराण हमारे लिए भूतकाल से संबंधित किताबें नहीं हैं, बल्कि शाश्वत, जीवंत सांस्कृतिक संसाधन हैं। ( पृष्ठ 144) अवतारों के जीवन में घटित त्याग-तपस्या को रेखांकित करने की शैली बहुत अनूठी है-राम और कृष्ण, महानतम, सर्वाधिक लोकप्रिय अवतार हैं। दोनों को वनवास झेलना पड़ा। एक को राज्याभिषेक से ठीक पहले और दूसरे को जन्म लेते ही। ( पृष्ठ 156)। इसी तरह भारतीयों की देव-विविधता संबंधी संकल्पना की लेखक अलग ही धरातल पर आकर्षक किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि मीडिया के अध्यापन से जुड़े एक प्रोफेसर ने भारतीय मीडिया की सभ्यतागत संघर्ष में भूमिका को इस किताब के जरिए रेखांकित किया है। साथ ही भारतीय दृष्टि से वैश्विक अकादमिक-मीडिया के गठजोड़ का मूल्यांकन किया है। अन्यथा अभी तक तो पश्चिमी मीडिया को आदर्श मानकर उसकी शब्दावली और नैरेटिव्स के अनुकरण का ही चलन रहा है। हां, कहीं-कहीं पर यह जरूर लगता है कि नई संकल्पनाओं को गढ़ने के बाद उनका उतनी गहराई से विश्लेषण नहीं किया गया है, जितना अपेक्षित है।
पुस्तक एक नया भारतीय परिप्रेक्ष्य रचने और समझने में सहायक है। पुस्तक का हिंदी संस्करण किताब को उसके लक्षित समूह तक पहुंचाने में सहायक होगा ही, भारत में चल रहे विमर्शों में कुछ नए सकारात्मक आयाम जोड़ने के लिए भी आवश्यक है।

लाल सलाम का काला कलाम

अप्रियकर घटनाओं को एकांगी नजरिए से देखना हम भारतीयों की आदत सी बन चुकी है। हमें हमेशा इस बात को स्वीकार करने में झिझक रहती है कि गली मोहल्लांे में घट रही घटनाओं का भी एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य हो सकता है और कोई वैश्विक-काॅकस देश भर में समस्याओं की श्रृंखला खड़ी कर सकता है।
साम्यवाद के संदर्भों में तो समझ की सीमाएं हमें और भी असहज बना देती हैं। जेएनयू से लेकर एचपीयू तक अपने देश और संस्कृति को लेकर जो घृणा का भाव है, उसकी जड़ों को सैद्धांतिक स्तर पर टटोलने की कोशिशंे कम ही हुई हैं। हिंदी में तो बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान और चीन को अपने देश पर तरजीह देने की विरासत किन कारणों से पैदा हुई, सभी धर्मों को अफीम मानने वाला साम्यवाद भारत में इस्लाम और ईसाइयत का पहरेदार और हिंदुत्व के प्रति घृणा भाव से कैसे भर गया, इसकी तह तक जाने की जहमत भारतीय बुद्धिजीवियों ने कम ही उठाई है।
इस परिस्थिति में प्रसिद्ध पत्रकार संदीप देव की किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की‘ सन्नाटे को चीरने वाली भूमिका में हमारे सामने आती है। किताब भारत में घटी और घट रही घटनाओं को समझने और यथार्थ को वैश्विक नजरिए से देखने के लिए प्रेरित करती है। साम्यवाद की विविध रणनीतियों और रूपों से हमारा परिचय कराती है। पुस्तक का प्रारंभ साम्यवाद के सैद्धांतिक आधारों को टटोलने से होता है और जब सैद्धांतिकी को खंगालने का काम भारत पहुंचता है, तो उसके केंद्र में नेहरू आ जाते हैं। यद्यपि यह किताब साम्यवाद का वास्तविक स्वरूप हमारे सामने रखना चाहती है, लेकिन नेहरू की वैचारिकी और व्यक्तित्व को समझने-परखने का एक नया वैचारिक सिरा भी हमारे हाथ पकड़ा जाती है। नेहरू की वैचारिक बनावट की यात्रा पर संदर्भों के साथ जिस तरह से यह पुस्तक प्रकाश डालती है, वह आंख खोलने वाला है। मसलन फिलिप स्प्रैट का यह कथन कि ‘मैं जितना समझता था, उससे बड़े कम्युनिस्ट थे।‘
कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए साम्यवादियों ने एक रणनीति के तहत किस तरह उपयोग किया और चीन युद्ध के समय उनको किस तरह अंधेरे में रखकर धोखा दिया, वह किताब में बहुत सहज और रोचक बन जाता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य साम्यवादियों के लिए सबसे बड़ा शत्रु क्यों होता है, इसकी भी बड़ी गहराई से व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। राष्ट्र को चुनौती देने के लिए ही सन् 1919 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशन की स्थापना की गई थी। इसके जरिए कई देशों में लाल क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया था।
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता नए संदर्भ ग्रंथों तक इसकी पहुंच है। हिंदी माध्यम में आई किताबों में प्रायः वैश्विक संदर्भ स्रोतांे का अभाव ही दिखता है। लेकिन लेखक ने अपनी बात को प्रमाणिक बनाने के लिए विभिन्न स्रोंतों का उल्लेख कर इस किताब को ही महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। संदीप देव ने साम्यवादियों के लाल और खूंखार चेहरे को देखने के लिए एक खिड़की खोली है और भविष्य के शोधों के लिए एक आधार भूमि उपलब्ध कराई है। भारत में साम्यवाद को लेकर नई पीढ़ी में एक कसमसाहट दिखती है, लेकिन प्रायः वह खंडन का सशक्त वैचारिक आधार उपलब्ध न होने के कारण सही रास्ते का चुनाव नहीं कर पाती। यह किताब युवाओं को वर्तमान कसमसाहट में निजात दिला सकती है। नई पीढी का पथ-प्रदर्शक बनने की सभी संभावनाओं को यह किताब खुद में समेटे हुए है।

भारतीय यर्थाथ का फिल्मी मोहल्ला

भारतीय यथार्थ को सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ उतारने के प्रयास न के बराबर हुए हैं। प्रायः भारतीय सच को फिल्मी पर्दे पर इस तरह परोसा जाता है कि उससे आत्म-परिष्कार की बजाय आत्म-तिरस्कार की भावना पैदा होती है। अभी तक फिल्मी पर्दे पर परोसे गए सच से विद्वेष और पिछड़ेपन की मानसिकता ही पैदा होती रही है।
इस परिस्थिति में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी‘ कहानी कहने के एक नए व्याकरण की तरह आई है। जिस सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ यह फिल्म खांटी भारतीय सच को परोसती है, वह फिल्म को एकदम अलहदा बना देती है। यहां हर सच के लिए स्थान है, सच में कड़वापन भी है, चरित्र में पर्याप्त विरोधाभास के लिए स्पेस है, लेकिन कहानी इस खूबसूरती के साथ कही गई है कि चरित्र गुंथे हुए है, जुबानों की तपिश के बावजूद मन में मैल पैदा नहीं होता, लोग एक-दूसरे के साथ संवाद में बने हुए हैं।
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने ऐसी ही कोशिश अपनी फिल्म पिंजर में भी की थी, लेकिन बहुत सारे पक्षों को एकसाथ समेटने के चक्कर में सब कुछ गड्डमड्ड हो गया था। ‘मोहल्ला अस्सी‘ में सभी पक्षों को इतने सहज ढंग से उकेरा गया है कि दुराग्रहों के दबाव हावी नहीं हो पाते।
फिल्म में धर्मनाथ पांडेय की भूमिका में सनी देओल देहभाषा के स्तर पर बहुत प्रभावी हैं। उनकी पत्नी की भूमिका में साक्षी तंवर ने बनारसीपन और बनारसी यथार्थ को गजब ढंग से आत्मसात किया है। पप्पू पान वाले की दुकान पर बैठने वाले सभी किरदारों ने कमोबेश अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।
विभिन्न किरदारों को यथार्थ के धरातल पर बनाए रखते हुए संदेश देने का काम डॉ. चंद्रप्रकाश की खूबी रही है। यह खूबी इस फिल्म में दिखती है। वह साक्षात्कारों में इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी वास्तविक क्षमता शब्द, संवाद और लेखन है। पूरी फिल्म में कई ऐसे संवाद हैं, जो जुबान और दिमाग दोनों पर चढ़ जाते हैं। हम घाट को पिकनिक स्पॉट और गंगा को स्वीमिंग पूल नहीं होने देंगे, अब विदेशी ही इतिहास लिखेंगे बनारस का, हमने राम से यह कभी नहीं मांगा कि कष्ट न मिले, हमने तो हमेशा कष्ट को सहने की शक्ति मांगी जैसे संवाद काफी प्रभावी हैं।
संभवतः ‘मोहल्ला अस्सी‘ ऐसी पहली फिल्म है, जिसमें ब्राह्मण वर्ग को सभी आयामों के साथ दिखाया गया है। उनका धर्मसंकट, तंगहाली, बदलते परिवेश में उभरती चुनौतियां और सामाजिक कटाक्षों के बढ़ते चलन और उससे पैदा होने वाली घुटन सभी को करीने से परदे पर उतारा गया है। शिवलिंग को प्रवाहित करते समय पांडेय परिवार जिस मानसिक स्थिति से गुजरता है, उसका चित्रण इतने प्रभावी ढंग से किया गया है कि वह दिमाग पर छा जाता है। इससे जुड़े दृश्य यह बताते हैं कि परम्पराएं बहुत त्याग से बचती और बढ़ती हैं।
बॉक्स ऑफिस पर इसे मिली सफलता-असफलता से इस फिल्म का आकलन नहीं किया जा सकता। फिल्म के चरित्र धर्मनाथ पांडेय पूरी फिल्म में संघर्ष करते हैं, लेकिन अंततः फिल्म यह बता जाती है कि सच उनके साथ है। यही बात फिल्म के लिए भी कही जा सकती है, वह सफल भले न हो, उसके पास सच है। इसी कारण ‘मोहल्ला अस्सी‘ वर्तमान का दस्तावेज और भविष्य की फिल्म है।

 

लाल सलाम का काला कलाम

डॉ. जयप्रकाश सिंह

अप्रियकर घटनाओं को एकांगी नजरिए से देखना हम भारतीयों की आदत सी बन चुकी है। हमें हमेशा इस बात को स्वीकार करने में झिझक रहती है कि गली मोहल्लों में घट रही घटनाओं का भी एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य हो सकता है और कोई वैश्विक-कॉकस देश भर में समस्याओं की श्रृंखला खड़ी कर सकता है।
साम्यवाद के संदर्भों में तो समझ की सीमाएं हमें और भी असहज बना देती हैं। जेएनयू से लेकर एचपीयू तक अपने देश और संस्कृति को लेकर जो घृणा का भाव है, उसकी जड़ों को सैद्धांतिक स्तर पर टटोलने की कोशिशें कम ही हुई हैं। हिंदी में तो बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान और चीन को अपने देश पर तरजीह देने की विरासत किन कारणों से पैदा हुई, सभी धर्मों को अफीम मानने वाला साम्यवाद भारत में इस्लाम और ईसाइयत का पहरेदार और हिंदुत्व के प्रति घृणा भाव से कैसे भर गया, इसकी तह तक जाने की जहमत भारतीय बुद्धिजीवियों ने कम ही उठाई है।
इस परिस्थिति में प्रसिद्ध पत्रकार संदीप देव की किताब ‘कहानी कम्युनिस्टों की‘ सन्नाटे को चीरने वाली भूमिका में हमारे सामने आती है। किताब भारत में घटी और घट रही घटनाओं को समझने और यथार्थ को वैश्विक नजरिए से देखने के लिए प्रेरित करती है। साम्यवाद की विविध रणनीतियों और रूपों से हमारा परिचय कराती है। पुस्तक का प्रारंभ साम्यवाद के सैद्धांतिक आधारों को टटोलने से होता है और जब सैद्धांतिकी को खंगालने का काम भारत पहुंचता है, तो उसके केंद्र में नेहरू आ जाते हैं। यद्यपि यह किताब साम्यवाद का वास्तविक स्वरूप हमारे सामने रखना चाहती है, लेकिन नेहरू की वैचारिकी और व्यक्तित्व को समझने-परखने का एक नया वैचारिक सिरा भी हमारे हाथ पकड़ा जाती है। नेहरू की वैचारिक बनावट की यात्रा पर संदर्भों के साथ जिस तरह से यह पुस्तक प्रकाश डालती है, वह आंख खोलने वाला है। मसलन फिलिप स्प्रैट का यह कथन कि ‘मैं जितना समझता था, उससे बड़े कम्युनिस्ट थे’।
कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए साम्यवादियों ने एक रणनीति के तहत किस तरह उपयोग किया और चीन युद्ध के समय उनको किस तरह अंधेरे में रखकर धोखा दिया, वह किताब में बहुत सहज और रोचक बन जाता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य साम्यवादियों के लिए सबसे बड़ा शत्रु क्यों होता है, इसकी भी बड़ी गहराई से व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। राष्ट्र को चुनौती देने के लिए ही सन् 1919 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशन की स्थापना की गई थी। इसके जरिए कई देशों में लाल क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया था।
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता नए संदर्भ ग्रंथों तक इसकी पहुंच है। हिंदी माध्यम में आई किताबों में प्रायः वैश्विक संदर्भ स्रोतों का अभाव ही दिखता है। लेकिन लेखक ने अपनी बात को प्रमाणिक बनाने के लिए विभिन्न स्रोंतों का उल्लेख कर इस किताब को ही महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। संदीप देव ने साम्यवादियों के लाल और खूंखार चेहरे को देखने के लिए एक खिड़की खोली है और भविष्य के शोधों के लिए एक आधार भूमि उपलब्ध कराई है। भारत में साम्यवाद को लेकर नई पीढ़ी में एक कसमसाहट दिखती है, लेकिन प्रायः वह खंडन का सशक्त वैचारिक आधार उपलब्ध न होने के कारण सही रास्ते का चुनाव नहीं कर पाती। यह किताब युवाओं को वर्तमान कसमसाहट में निजात दिला सकती है। नई पीढ़ी का पथ-प्रदर्शक बनने की सभी संभावनाओं को यह किताब खुद में समेटे हुए है।