सूर्यप्रकाश

भारतीय लोक को नकारता बॉलीवुड

भारतीय सिनेमा के सौसालों से ज्यादा के इतिहास में बड़ा हिस्सा ऐसी फिल्मों का रहा है, जो भारत के लोक को ध्यान में रखकर बनाई गई। पटकथा, संगीत से लेकर संवाद तक में यह खयाल रखा गया कि फिल्में समाज की भाषा में ही समाज के मुद्दे उठाएं। भारत में सिनेमा की शुरुआत ही राजा हरिश्चन्द्र फिल्म से हुई थी, जिसमें सतयुग के सत्यवादी हरिश्चन्द्र की कहानी का चित्रण था। सत्य और दानवीरता के लिए राजपाट छोड़ने, बेटे को गंवाने और पत्नी से भी श्मशान में कर वसूलने वाले हरिश्चन्द्र का चित्रण ऐसा था कि मूक फिल्म ने सब कुछ कह दिया। फिल्म के निर्माता दादासाहेब फाल्के समूचे बॉलीवुड के ही दादासाहेब कहलाए। इसके बाद भी वीरदुर्गादास, अमर सिंह राठौड़ जैसी फिल्मों का निर्माण किया गया। 17वीं शताब्दी के योद्धा वीर दुर्गादास पर बनी इस फिल्म में एक तरफ लोकश्रुतियों में विद्यमान रहे दुर्गादास की कहानी कही गई तो दूसरी तरफ गीतों में मेवाड़ी बोल भी सुनाई दिया। 'थाने काजलियो बनालूं' गीत मेवाड़ी अंचल के मिठास से परिचय कराता है।

यही नहीं 12वीं सदी के अप्रतिम योद्धा पृथ्वीराज चौहान पर भी 1959 में एक फिल्म बनी थी। ऐसी फिल्मों की एक श्रृंखला फिल्मी दुनिया में लंबी चली है, लेकिन हम देखते हैं कि इनमें वह स्टारकास्ट नहीं जुड़ी, जिन्हें फिल्म के चलने की गारंटी माना जाता है।  भारतीय सिनेमा का हम बारीकी से अध्ययन करें तो हम देखते हैं कि लगभग 1970 के दशक तक फिल्में ऐसी थीं, जो किसी न किसी स्वरूप में समाज का चित्रण करती थीं और उसी की भाषा में संवाद भी थे। देश गांवों में बसता था तो फिल्में भी गांवों का चित्रण करती थी या फिर गांव और संघर्ष के बीच की कहानी सुनाती थी। ऐसी ही एक बहुचर्चित फिल्म है, दो बीघा जमीन। जिसने अपने दौर में जमीन अधिग्रहण के चलते किसान की परेशानियों को अपने ढंग से उठाया।

फिर समय बीता और फिल्म इंडस्ट्री ने भी तकनीक के नए आयाम अपने साथ जोड़े। फिल्में रंगीन हुई और तकनीक जोरदार होती गई, लेकिन फिल्मों से लोकसंवाद पीछे छूटता गया। सिनेमा के शुरुआती दौर में जहां गांवों पर केंद्रित फिल्में बनती थी, वे अब गांवों में सुधार की बातें करनी लगी। अभिनेता शहरी हो गया और कथित भद्रलोक से आया शख्स गांव में सभ्यता की सीख देने लगा। गांव बुराईयों के केंद्र के तौर पर दिखाए जाने लगे। ठाकुरों की जिद, पंडितों की पोंगापंथी, साहूकारों की प्रताड़ना ही मानो गांव का सच हो गई और शहर से आए हीरो से ही उसका कल्याण था। भले ही यह सच नहीं था और न है, लेकिन फिल्में यही कहती रही और टीवी का सत्य समाज के सत्य से परे हो गया। शायद यही कारण है कि अब फिल्में समाज का आईना नहीं रही बल्कि समाज में किसी गलत हरकत पर यह कहा जाने लगा कि यह फिल्म नहीं है, जो कुछ भी करोगे।

दरअसल भारतीय सिनेमा का हम बारीकी से अध्ययन करें तो यह एक तरह से मूल परंपरा को नकारने की व्यवस्था रही है। जिस हॉलीवुड के पीछे भारतीय सिनेमा हमेशा चलने की कोशिश करता रहा है, उसने भी यूनान, मिस्र और रोम जैसी सभ्यताओं का चित्रण अपनी फिल्मों में लोककथाओं के आधार पर ही किया है। बहुचर्चित फिल्म ट्रॉय की ही बात करें तो यह होमर की रचना इलियाड पर आधारित है, जिसमें यूनानी वीर एकलिस की वीरता की गाथाएं हैं। होमर की यह रचना कोई ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है, लेकिन लोककाव्य होने और समाज में उसकी मान्यता के आधार पर फिल्म में उसे जस का तस उतारा गया है। फिल्म की सफलता भी बताती है कि लोककाव्य पर आधारित यह रचना पश्चिमी समाज में कितने गहरे तक पैठ किए हुए है। इसके अलावा 300 मूवी को बनाते हुए भी इतिहास के उन चर्चित तथ्यों का पूरा सम्मान किया गया। भारत में ऐसी फिल्में विरले ही बनती हैं और यदि बनी भीं तो एक अलग तरह के चित्रण के दबाव में बनती हैं।

निर्माता-निर्देशक पर यह दबाव रहता है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में तैयार सेकुलरिज्म की अवधारणा को 10वीं, 12वीं या 17वीं शताब्दी के किसी नायक पर बनी फिल्म से चोट न पहुंचे। या फिर 326 ईसा पूर्व के चाणक्य को दिखाने से कहीं गंगा-जमुनी तहजीब की आभासी अवधारणा न टूट जाए। यहीं यह सवाल है कि आखिर 10वीं शताब्दी या फिर ईसा पूर्व के किसी नायक को जब हम आज की राजनीतिक अवधारणा के बीच फिट करेंगे तो क्या इतिहास से न्याय होगा? उदाहरण के तौर पर हम पद्मावत फिल्म की ही बात करें तो निर्माता-निर्देशक रानी पद्मावती के नाम से दर्शकों को तो सिनेमा हॉल तक खींचना चाहते हैं, लेकिन चरित्र और कहानी के चित्रण की खामियों पर यह कहकर पर्दा डालते हैं कि हमने इतिहास दिखाने के लिए फिल्म नहीं बनाई, यह विशुद्ध मनोरंजन है। इतिहास के तथ्यों से कैसा मनोरंजन? मौजूदा भारतीय सिनेमा का यही चरित्र है, जो उसे समाज की बात को उसकी ही बोली, भाषा और मान्यताओं में कहने नहीं देता।

ऐसा ही भारत की रचनाओं को भी नकारने का स्वभाव भारतीय सिनेमा में दिखता है। ब्रिटिश शासन के दौरान बंगाल और बिहार में प्रशासक के तौर पर काम करने वाले सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने बुंदेलखंड के योद्धाओं आल्हा और ऊदल पर लिखे काव्य आल्हखंड की तुलना होमर के इलियाड से की है। यह वही इलियाड है, जिसके आधार पर ट्रॉय फिल्म बनी और एकलिस और हेक्टर जैसे योद्धाओं की कहानी का चित्रण किया गया। भले ही ग्रियर्सन को आल्ह खंड में संभावनाएं दिखीं, लेकिन भारतीय सिनेमा इसे नहीं स्वीकारता। इसके अलावा राजतरंगिणी, पद्मावत या फिर पृथ्वीराज रासो जैसे अन्य ग्रंथों में भी ऐसी तमाम संभावनाएं मौजूद हैं, जिनके चित्रण के जरिए विश्व स्तरीय सिनेकृतियां प्रदर्शित की जा सकती हैं। यह समाज और सिनेमा के एक-दूसरे के उलट चलने जैसी स्थिति है। समाज की मान्यताएं सिनेमा स्वीकार नहीं कर रहा है और सिनेमा की कृतियों को समाज खुद से नहीं जोड़ता। ऐसे में सिनेमा समाज का दर्पण कैसे बनेगा? यह शोचनीय विषय है।  

क्रेडिट दिए बिना लोकसंगीत की लोकप्रियता को भुनाया: भारतीय सिनेमा की एक प्रवृत्ति यह भी दिखती है कि वह अपनी सुविधा के लिए लोकसंगीत का इस्तेमाल तो करता है, लेकिन उसे प्रामाणिकता न मिले, शायद इसलिए क्रेडिट देने से बचता है। सन् 2008 में आई फिल्म ओए लकी, लकी ओए में 'तू राजा की राजदुलारी, मैं सर्प लंगोटे आला सू' गीत को लिया गया है। जंगम साधुओं का यह गीत हरियाणा, पंजाब समेत उत्तर भारत के बड़े हिस्से में लोकप्रिय हैं। इस एक गीत को ही सैकड़ों गायकों ने अपने-अपने तरीके से गाया है। इसकी लोकप्रियता को भुनाते हुए फिल्म में इस गीत को लिया गया है, लेकिन कहीं भी यह क्रेडिट नहीं दिया गया कि आखिर यह कहां से आया और हमने इसे कहां से हासिल किया। इसी तरह फिल्म मंगल पांडे के गीत मंगल-मंगल की तर्ज आल्हा से ली गई है, लेकिन यह क्रेडिट नहीं दिया गया कि आखिर इसे कहां से लिया गया है।
 

आल्ह खंड: लोकसंवाद में वीरता, समरसता की अमर कहानी

कट-कट मुंड गिरैं ज्वानों के, उठ-उठ रुंड करें तलवार। यह गति हो गई रणखेतों में, बहने लगी खून की धार। आल्ह खंड की ये पंक्तियां न सिर्फ काव्य के वीर रस को नई ऊंचाइयां देती मालूम पड़ती हैं बल्कि भारत के इतिहास को भी बेहद सरल और रोचक शब्दों में दोहराती हैं। एक दौर में हिंदी पट्टी के बड़े क्षेत्र में बेहद लोकप्रिय रहे आल्ह खंड को यदि हम भारत में सबसे प्रभावशाली लोकसंवाद का माध्यम कहें तो कुछ गलत न होगा। 12वीं सदी के महोबा के चंदेल शासक परमाल के सेनापति भाईयों आल्हा-ऊदल की कहानी सुनाने वाला आल्ह खंड करीब 1000 साल तक पीढ़ी दर पीढ़ी रिसते हुए यहां तक पहुंचा है। कोई विधिवत ग्रंथ न होने और अकादमिक इतिहासकारों की नजर से उपेक्षित होने के बाद भी यदि आज यह कहानी सुनकर श्रोताओं की भुजाएं फड़कती हैं तो यह आल्ह खंड की संवादपरकता की ही मिसाल है।

साहित्य के मर्मज्ञ मानते हैं कि आल्हखंड की रचना परमाल के दरबारी कवि जगनिक ने की थी। हालांकि वह रचना अप्राप्य है, लेकिन उसके आधार पर ही देश के हिंदी भाषी क्षेत्र में आल्ह खंड की कई शैलियां प्रचलित हैं। मूल रूप से यह अवधी-बुंदेली मिश्रित शैली में है और सिर्फ काव्य रूप में ही है। मध्य प्रदेश की बघेली बोली, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की भोजपुरी और उत्तर बिहार की मैथिली बोली में भी आल्हा का काफी प्रचार है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के ही ब्रज और रुहेलखंड क्षेत्र में भी आल्हा लोक बोली में गूंजता है। क्षेत्र के विस्तार के साथ आल्हा के गायकों की बोली बदल जाती है, वाद्य यंत्रों में कुछ अंतर दिखता है, लेकिन संदेश एक ही है। आमतौर पर इसे ढोल, मंजीरे और खंजड़ी के साथ गाया जाता है।

आल्हा की लोकप्रियता और प्रभाव को यूं भी समझ सकते हैं कि भारत से होते हुए यह ब्रिटेन तक पहुंचा है, जहां इस पर काफी शोध हुए हैं और साहित्य भी लिखा गया है। आल्ह खंड के एक हिस्से 'ब्रह्मा का विवाह' का अंग्रेजी में सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने 'The Lay of Brahma's Marriage: An Episode of the Alh-Khand' शीर्षक से अनुवाद किया है। आयरिश मूल के ग्रियर्सन 19वीं सदी में भारत में इंडियन सिविल सर्विसेज के तहत ब्रिटिश शासन के लिए काम कर रहे थे। हालांकि उनकी भारतीय भाषाओं और लोककलाओं में गहरी रुचि थी। यही वजह थी कि उन्होंने आल्ह खंड के इस हिस्से का अनुवाद किया था। सबसे पहले ब्रिटिश अधिकारी सर चार्ल्स इलियट ने आल्हा को लिपिबद्ध कराने का काम किया था।

आल्हखंड को लिपिबद्ध किए जाने का किस्सा भी बेहद रोचक है। 1865 में फर्रुखाबाद के कलेक्टर रहे अंग्रेज अधिकारी चार्ल्स इलियट की मुलाकात कुछ अल्हैतों (आल्हा गायन करने वाले) से हुई थी। आल्हा सुनकर इलियट मंत्रमुग्ध हो गए और फिर उनकी रुचि ऐसी बढ़ी कि उन्होंने एक गवैये को नौकरी पर ही रख लिया और उससे 'आल्ह खंड' के प्रचलित सभी किस्सों को लिपिबद्ध कराया। इलियट के प्रयास से 23 खंडों का आल्हा प्रकाशित हुआ। इसके बाद फिर कई प्रयास हुए और आज आल्ह खंड की कई रचनाएं उपलब्ध हैं। उनके अलावा एक और ब्रिटिश अफसर विलियम वाटरफील्ड ने 1860 में ‘Lay of Alha’ शीर्षक से आल्ह खंड के हिस्से का अंग्रेजी अनुवाद किया था। उनकी इस रचना को इंग्लैंड की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया था। बंगाल और बिहार में प्रशासक के तौर पर काम करने वाले सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने आल्ह खंड की लोकप्रियता को लेकर लिखा है कि पटना से दिल्ली के बीच में इससे लोकप्रिय कथा कोई दूसरी नहीं है।

'आल्ह खंड' के विस्तार में जाने से पहले हमें इसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और किरदारों के बारे में भी जानना होगा। बुंदेलखंड में स्थित महोबा पर 12वीं सदी में चंदेल राजपूत वंश के राजा परमाल देव का शासन था। उनके सेनापति थे, आल्हा और ऊदल। दोनों ही सगे भाई थे और बनाफर राजपूत थे। इन दोनों की वीरता पर ही राजा परमाल देव के दरबार में कवि जगनिक ने आल्ह खंड की रचना की थी। भले ही उनकी यह रचना उपलब्ध नहीं है, लेकिन जनश्रुतियों में ऐसी व्याप्त है कि उनके संकलन से ही कई रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। राजा परमाल देव और आल्हा ऊदल दिल्ली के राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान के समकालीन थे। आल्ह खंड में कुल 52 हिस्से हैं और हर हिस्से में युद्ध का वर्णन है, जिसमें आल्हा और ऊदल की वीरता का बखान किया गया है। इसके अलावा आल्हा ऊदल के मौसेरे भाई मलखान एवं सुलखान और राजा परमाल देव के बेटे ब्रह्मा अहम किरदार हैं।

आल्ह खंड में राजा परमाल की पत्नी मलहना के भाई माहिल का नकारात्मक किरदार चित्रित किया गया है। कहा जाता है कि राजा परमाल देव ने महोबा के राजा बासुदेव परिहार को परास्त कर महोबा पर जीत हासिल की थी और फिर उनकी बेटी मलहना से स्वयं विवाह किया था। इसके अलावा उनकी दो अन्य बेटियों देवला और तिलका का विवाह अपने दो बनाफर राजपूत सेवकों क्रमश: दसराज और बच्छराज से करा दिया था। इन्हीं दसराज के बेटे आल्हा और ऊदल थे। ऊदल को उदय सिंह भी कहा जाता है। इसके अलावा तिलका और बच्छराज के पुत्र थे, मलखान और सुलखान। महोबा पर भले ही परमाल का शासन था, लेकिन बुंदेलखंड के ही उरई के शासक और बासुदेव परिहार के बेटे माहिल को यह कभी स्वीकार नहीं था। उसे हमेशा यह लगता था कि परमाल देव ने महोबा को उनके पिता को हराकर जीता है और उसके वास्तविक अधिकारी वह हैं। कहा जाता है कि इसी के चलते वह अकसर ऐसे कुत्सित प्रयत्न करते थे कि महोबे की सेना किसी युद्ध में रत रहे। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि पृथ्वीराज चौहान से युद्ध में माहिल के बेटे अभय सिंह ने भी हिस्सा लिया था और वीर गति को प्राप्त हुआ था।

आल्ह खंड के बारे में बात करते हुए महोबा नगर के बारे में जानना भी जरूरी है, जिसके इर्द-गिर्द यह पूरा काव्य रचा गया है। महोबा को महोत्सव नगर के नाम से चंद्रवर्मन उर्फ नन्नुक ने स्थापित किया था, जो झांसी से 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। चंद्रवर्मन को ही चंदेल राजवंश का संस्थापक माना जाता है। चंदेलों से पहले यहां गहरवार और प्रतिहार राजपूतों का शासन था। पन्ना के चंद्र वर्मन ने प्रतिहार शासकों को परास्त कर महोबा पर सत्ता कायम की थी और इस शहर को स्थापित किया था। उनके बाद कई और प्रतापी चंदेल शासक हुए, जिनमें  प्रमुख नाम विजयी-पाल (1035-1045 ई.) और कीर्तिवर्मन (1060-1100 ई.) का है। कीर्तिवर्मन ने कीरत सागर झील का निर्माण कराया था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान और आल्हा-ऊदल के बीच पहली लड़ाई इस कीरत सागर के नजदीक ही हुई थी। आज भी इस कीरत सागर का महोबा में अस्तित्व मिलता है। कीर्तिवर्मन के बाद मदन वर्मन प्रमुख शासक थे, जिनका शासन 1128-1164 ई. के बीच रहा। इनके बाद राजा परमाल के हाथों में महोबा की सत्ता की बागडोर चली गई थी, जिनके सेनापति आल्हा-ऊदल थे। आज भी महोबा में चंदेल राजपूतों का बाहुल्य है, जिससे यह पुष्टि होती है कि एक दौर में चंदेल वंशी राजपूतों का प्रभुत्व रहा होगा।

जब आल्हा-ऊदल से परास्त हुई पृथ्वीराज की सेना
आल्हा ऊदल की वीरता को इससे आंका जा सकता है कि जिन पृथ्वीराज चौहान का भारत के इतिहास में अप्रतिम वीरता के लिए जिक्र किया गया है, उनकी सेना भी इन दोनों भाईयों से युद्ध में मात खाकर लौट गई थी। पृथ्वीराज चौहान और महोबा की सेना के बीच पहले युद्ध की कहानी भी काफी रोचक है। कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान की सेना एक बार तुर्की सेना का पीछा करते हुए राह भटक गई थी। सेना में पृथ्वीराज चौहान के अलावा उनके सेनापति चामुंडाराय भी मौजूद थे। किवदंती है कि इस दौरान पृथ्वीराज चौहान ने परमाल की पत्नी मलहना की सुंदरता के बारे में सुना तो रीझ गया और महोबे पर हमला कर दिया। इस हमले के जवाब में महोबा के सेना ने वीरता से लड़ाई लड़ी और आल्हा ऊदल के नेतृत्व में चौहान की सेना को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर कर दिया।

परमाल के बेटे पर मोहित थी पृथ्वीराज की पुत्री बेला
एक किवदंती है कि बनाफर राजपूतों को क्षत्रिय समाज में कमतर माना जाता था और कोई भी उनसे अपनी बेटी का ब्याह नहीं करना चाहता था। ऐसे में हर विवाह में लड़ाई का जिक्र है और विजेता होने के पश्चात ही विवाह संपन्न होता है। आल्हा का विवाह हो या फिर उनके छोटे भाई ऊदल का विवाह, इन सभी का फैसला युद्ध के जरिए ही हुआ था। कहा यह भी जाता है कि आल्हा और ऊदल की वीरता के चलते एक बार पृथ्वीराज चौहान की सेना भी पीठ दिखाकर भाग गई थी। हालांकि दूसरी बार पृथ्वीराज चौहान से जंग में ही राजा परमाल की सेना पराजित हुई थी। यह जंग में विवाह के चलते ही हुई थी। किवदंती के अनुसार राजा परमाल के बेटे ब्रहमा पर पृथ्वीराज चौहान की बेटी बेला मोहित हो गई थी और दोनों ने गुपचुप विवाह कर लिया था। यह बात पृथ्वीराज को स्वीकार नहीं थी और उसने दोनों को कभी मिलने नहीं दिया।

पृथ्वीराज से युद्ध में ऊदल को मिली वीरगति
पृथ्वीराज ने महोबे पर हमला कर दिया और युद्ध छिड़ गया। युद्ध के दौरान ताहर ने ब्रह्मा को घायल कर दिया, दूसरी ओर क्रोध में ऊदल ने ताहर का वध कर दिया। ब्रह्मा की मृत्यु हो गई और बेला सती हो गई। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की विजय हुई। कहा जाता है कि इस युद्ध में ऊदल की मृत्यु हो गई थी। यही नहीं अप्रतिम योद्धा कहे जाने वाले मलखान और सुलखान को भी इस युद्ध में वीरगति मिली थी। इसके बाद अपने भाई से अतिशय प्रेम करने वाले आल्हा के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया था। कहा जाता है कि आल्हा ने नाथ संप्रदाय अपना लिया था। कई स्रोतों के मुताबिक आल्हा-ऊदल का पृथ्वीराज चौहान से दूसरा युद्ध 1182 में हुआ था, जबकि पृथ्वीराज की मृत्यु 1192 में मोहम्मद गोरी से जंग में हुई थी। किवदंती है कि ब्रह्मा की युद्ध में मौत के बाद उसकी पत्नी बेला भी उसकी चिता के साथ ही शहीद हो जाती है। इस प्रसंग को बेहद दुख के साथ गाते हुए अल्हैत कहते हैं-

सावन सारी सोनवा पहिरे, चौड़ा भदई गंग नहाय, चढ़ी जवानी ब्रह्मा जूझे, बेलवा लेई के सती होइ जाय।

52 खंडों में है आल्हा
आल्हा की शुरूआत पृथ्वीराज चौहान व संयोगिता के स्वयंवर से होती है, अलग-अलग भाग में अलग-अलग कहानियां हैं, ज्यादातर भाग में युद्ध ही है। आखिरी भाग में महोबा की राजकुमारी बेला के सती होने की कहानी है। आल्हा में कुल 52 खंड हैं, जिनमें से प्रमुख हैं- परमाल का विवाह, महोबा की लड़ाई, गढ़ माड़ों की लड़ाई, नैनागढ़ की लड़ाई, विदा की लड़ाई, महला-हरण मलखान का विवाह, आल्हा की निकासी, लाखन का विवाह, बेतवा नदी की लड़ाई, लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई, बेला सती आदि।

वीर रस से पूर्ण है आल्ह खंड, अतिशयोक्ति अलंकार का सुंदर प्रयोग
आल्ह खंड की रचना की गहराई से विवेचना करें तो इस में अतिशयोक्ति अलंकार का काफी प्रयोग किया गया है। किसी भी एक दृश्य का चित्रण करने से पहले लंबी भूमिका सहारा लिया गया है । जैसे पृथ्वीराज और महोबा की सेना की लड़ाई का प्रसंग कवि ने इन शब्दों में किया है-

ना मुंह फेरैं, महोबे वाले, ना ई दिल्ली के चौहान।
कीरतसागर मदनताल पर, क्षत्रिन कीन खूब मैदान।
कटि कटि गिरैं बछेड़ा, चेहरा गिरैं सिपाहिन केर,
बिना सूंढ़ि के हाथी घूमैं, मारें एक एकको हेर।
चौड़ा ऊदल का रण सोहै, धांधूं बनरस का सरदार,
सवापहर लों चली सिरोही, नदिया बही रक्त की धार।

आल्हा के कीरत सागर की लड़ाई खंड के इस काव्य का अर्थ है- न महोबे के सैनिक पीछे हटने को तैयार हैं और न ही दिल्ली के चौहान पीछे हट रहे हैं। कीरत सागर और मदनताल पर क्षत्रियों के बीच घमासान युद्ध देखने को मिलता है। युद्ध में शामिल बैल, घोड़े और हाथियों के सिर कटकर गिरते हैं। सिपाहियों के सिर धड़ अलग होकर गिर रहे हैं। बिना सूंड़ के हाथी रण क्षेत्र में घूम रहे हैं। ऊदल और पृथ्वीराज के सेनापति चामुंडाराय का युद्ध देखते ही बनता है। देर शाम तक लड़ाई चलती है और नदी में रक्त बह निकलता है। कवि ने जिन शब्दों में युद्ध का चित्रण किया है, उनसे वीर रस का संचार होता है।

इसी प्रकार पहले खंड संयोगिता स्वयंवर को भी कवि ने बेहद रोचक शब्दों में प्रस्तुत किया है। राजा जयचंद की छटा, उसके आसन और दरबार का सुंदर का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा-

राजा जयचंद कनउज वाला, आला सकल जगत सिरनाम।
को गति बरनै त्यहिमंदिर कै, सो है सोन सरिस त्यहिधाम।
केसरि पोतो सब मंदिर है, औ छति लागि वनातन केर।
सुवा पहाड़ी तामें बैठे, चक्कस गड़े बुलबुलन केर।
लाल औ मैनन कै गिनती ना, तीतर घूमिरहे सब ओर।
पले कबूतर कहुं घुटकत हैं, कहुं-कहुं नाचि रहे हैं मोर।
लागि कचहरी है जयचंद कै, बैठे बड़े-बड़े नरपाल।
बना सिंहासन है सोने का, तामें जड़े जवाहिर लाल।
तामें बैठो महाराज है, दहिने धरे ढाल तलवार।

कन्नौज का राजा जयचंद पूरे जगत में सिरमौर है। उसके राज्य के मंदिर की महिमा कही नहीं जा सकती, जो पूरी तरह स्वर्णजड़ित है। केसर से पुते मंदिर में तोते, बुलबुल, मैना और तीतरों की आकृतियां बनी हैं, जिनकी शोभा देखते ही बनती है। कहीं बेशुमार कबूतर बने हैं तो कहीं नाचते मोरों की आकृति है। सोने के बने और जवाहरों से जड़े सिंहासन पर ढाल तलवार लिए बैठे राजा जयचंद के दरबार में बड़े-बड़े राजा बैठे हैं।

आल्ह खंड को लेकर क्या कहते हैं आचार्य़ रामचंद्र शुक्ल
आल्ह खंड की रचना करने वाले कवि जगनिक के बारे में कहा जाता है कि वह परमाल देव के दरबारी कवि थे। जनकवि जगनिक नाटक के रचयिता डॉ. कुंवर चंद्रप्रकाश सिंह ने लिखा है कि जगनिक और आल्हा के छोटे भाई ऊदल बचपन में ही निराश्रित हो गए थे। इसके बाद उन्हें राजा परमाल की पत्नी मलहना ने ही अपने पुत्र के समान पाला था। भले ही जगनिक परमाल के दरबार में कवि थे, लेकिन मलहना उनके लिए मां के समान थीं। इस बात को इससे भी बल मिलता है कि तमाम शोध ग्रंथों और लेखकों ने जगनिक के परिवार की पुष्टि नहीं की है। यहां तक कि उनकी जाति को लेकर भी लेखक एकमत नहीं हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास पुस्तक में कवि जगनिक को लेकर अहम टिप्पणी की है। उन्होंने लिखा है, 'ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमाल के यहां जगनिक नामक भाट थे, जिन्होंने महोबा के दो देश प्रसिद्ध वीरों आल्हा और ऊदल के वीर चरित्र का वर्णन काव्य के रूप में लिखा था, जो इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके गीतों का प्रचार पूरे उत्तरी भारत में हो गया। जगनिक के काव्य का आज कहीं अता-पता नहीं है, लेकिन उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई पड़ते हैं। ये गीत आल्हा के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाए जाते हैं।' रामचंद्र शुक्ल ने जगनिक को वीर गाथा काल के महत्वपूर्ण कवियों में शामिल किया है।

सावन में आल्हा सुनने का है प्रचलन, इससे भी जुड़ी है एक कहानी
दरअसल चंदेल वंश के 15वें शासक परमाल के राज्य महोबा पर पहली बार पृथ्वीराज चौहान ने उस समय हमला किया था, जब रानी मलहना रक्षाबंधन के मौके पर कीरतसागर में पूजा के लिए जा रही थी। इसके जवाब में आल्हा-ऊदल के नेतृत्व में महोबे की सेना ने वीरता से युद्ध लड़ा और पृथ्वीराज की सेना को भागना पड़ा। कहा जाता है कि यह लड़ाई तीन दिन तक चली थी। आज भी इस दिन के उपलक्ष्य में रक्षाबंधन के तीसरे दिन महोबा में कजली महोत्सव का आयोजन होता है। इस दिन महोबा के लोग कीरत सागर के नजदीक स्थित गोखर हिल में जाकर गजांतक शिव की पूजा करते हैं।
 

कोरोना काल में उत्सवधर्मी समाज का लोकसंवाद

भारत के वाचाल समाज ने हमेशा ही दुनिया के तमाम संकटों में एक नई दृष्टि के साथ समाधान की बात कही है। भारत में यह काम हमेशा ही लोकसंवाद के माध्यमों ने किया है। कोरोना के इस संकट में भी भारत के लोक कलाकारों ने आगे बढ़कर संदेश देने का काम किया है। अल्हैतों का आल्हा, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समाज में प्रचलित रागनियां और भोजपुरी लोकगीतों समेत तमाम लोककलाओं से जुड़े कलाकारों ने कोरोना से निपटने के संदेश को पिरोकर जन-जन तक पहुंचाया है। महाकाल में आस्था रखने वाले समाज ने कोरोना के चलते पैनिक में आने की बजाय सावधानी, नियमों के पालन और मुसीबत में फंसे लोगों की मदद का संदेश देने का काम किया।

आल्हा के लोकगायकों ने भी कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिए सहज और अर्थपूर्ण शब्दों में समाज को प्रेरित किया है। बुंदेलखंड के वीर योद्धाओं आल्हा और ऊदल की वीरता के बखान करने वाले काव्य आल्हखंड की तर्ज पर बने इन गीतों ने जनता को उनकी ही बोली में कोरोना के प्रति जागरूक किया है। ऐसे ही एक गीत में आल्हा की लोकगायिका संजो बघेल कोरोना से बचाव के लिए प्रेरित करते हुए कहती हैं-

लगी है किसकी है मोटी हाय, झेल रही है दुनिया बीमारी,
शहर वुहान से पहुंची आय, लाखों दीन्हें प्राण गंवाय।
सभी लोग संयम अपनाय, हाथों को अच्छे से धोना,
रहें सभी से दूरी बनाय, मुंह पर मास्क बांधकर रखना।
रहना घर संकल्प बनाय, इन बातों का पालन करना,
देंगे हम बीमारी को हराय, लॉकडाउन में घर ही रहना।


कोरोना के इस संकट में भोजपुरी गीतों ने भी अपने सुरीले अंदाज में कोरोना के पैनिक से बचाते हुए लोगों को सहज भाव के साथ घर रहने और नियमों के पालन के लिए प्रेरित किया। भले ही बीते कुछ सालों में भोजपुरी के साथ भड़कीले गीतों को कुछ गायकों ने चस्पा करने की कोशिश की है, लेकिन इस दौर में पलायन के दर्द, कोरोना के मर्ज और नियमों को मानने के फर्ज को भोजपुरी गीतों ने बेहद रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।

जे घर ही में प्रेम लगाई पिया, ओकर पजरा कोरोना न आई पिया।
घर ही में समय बिताईं, हमार पिया रोड पर न जाईं...
कोरोना पर भइल बा कड़ाई, हमार पिया बाहरा न जाईं,
बचब आप अउर परिवार बच जाई, कुछ जिम्मेदारी लीहै का चाही।
बार-बार हाथ सबुनियाईं, हमार पिया रोड पर न जाईं....
पुलिस घूम-घूम बात समझावै, डॉक्टर एहि के दवाई समझावै,
कोरोना पर भइल बा कड़ाई हमार पिया रोड पर न जाईं।


भोजपुरी के लोकप्रिय कलाकार भरत शर्मा ने अपने सुरीले अंदाज में इस गीत को पेश किया है। ऐसा ही एक गीत भोजपुरी गीत है, गइले कमाए उ तो दिल्ली ए सखी, लॉकडाउन में सइयां फंस गइले। इस गीत में लेखक ने एक साथ कोरोना के संकट, प्रेम और लॉकडाउन के नियमों को पिरोने का काम किया है। एक ऐसे दौर में जब हम अपनी लोकभा और लोककलाओं से दूर होते जा रहे हैं, तब इस तरह के गीतों ने यूट्यूब से लेकर फेसबुक तक न्यू मीडिया के तमाम माध्यमों में ख्याति हासिल की है। हरियाणवी के लोकगायक शैन्की गोस्वामी ने भी रैप की नई विधा के अंदाज में कोरोना के लॉकडाउन को लेकर बेहद रोचक गीत प्रस्तुत किया है। भारत की उत्सवधर्मिता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने इस गीत को जिस शैली में पेश किया है, उससे न सिर्फ कोरोना को लेकर संदेश मिलता है बल्कि समाज का सात्विक मनोरंजन भी होता है। प्रेमी और प्रेयसी के बीच संवाद को कोरोना और लॉकडाउन से जोड़ते हुए उन्होंने बेहद ही सहज ढंग से रोचक गीत प्रस्तुत किया है। जिसके बोल इस प्रकार हैं-

लॉकडाउन होया मेरा गाम सुण लै,
लगता न गेड़ा लाडो तेरे शहर का।
बात मेरी मान रखियो तू भी ध्यान,
घर आगे गेड़ा लागे पीसीआर का।
पड़ी है मुसीबत जो टल जावैगी,
राखना पड़ेगा लाडो ध्यान खुद का।
हाथ नहीं मिलाना, मेंटेन रखो गैप,
वर्ल्ड वार होया तीसरा मैदान युद्ध का।


शैन्की गोस्वामी के इस गीत को यूट्यूब पर अब तक करीब 2.5 करोड़ लोग सुन चुके हैं। भले ही किसी कला को मापने के लिए व्यूअरशिप ही एकमात्र पैमाना नहीं हो सकती, लेकिन आंकड़ों के इस दौर में महामारी पर बने गीत को इतनी लोकप्रियता मिलना मायने जरूर रखता है। स्थान की सीमा को देखते हुए तमाम ऐसे हर प्रयास का उल्लेख यहां नहीं किया जा सकता, लेकिन कोरोना के संकट में लोकसंवाद के माध्यमों ने एक बार फिर साबित किया है कि कोई भी संदेश व्यक्ति अपनी मौलिक भाषा में ही सहजता के साथ समझ पाता है। भाषाविज्ञानियों ने भी अपने तमाम अध्ययनों में कहा है कि लोकभाषाओं में संवाद तमाम विवादों के हल का कारण बन सकता है। कोरोना काल में भी हमें यह देखने को मिलता है कि जो काम अंग्रेजी अखबारों के लंबे अग्रलेख, टीवी चैनलों की अंतहीन उबाऊ बहसें नहीं कर पाई, उसे सहजता के साथ लोक गीतों ने किया है।

कोरोना जैसी महामारी के चलते जहां एक तरफ दुनिया खौफ के साये में जी रही है, वहां भारत में इस पर गीतों का सृजन होना बताता है कि भारत का उत्सवधर्मी समाज किस तरह से संकटों में भी अपनी राह बनाता है। यह सब इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह काम उस समाज ने जीवटता के साथ किया है, जिसका वैश्विक मीडिया ने हमेशा गरीबों के आंकड़े के तौर पर ही चित्रण किया है। उस समाज ने यह साबित किया है कि वह किस तरह सहजता से कड़े नियमों का पालन कर सकता है और संसाधनों की परवाह न कर हौसले के साथ कोरोना जैसे अदृश्य दुश्मन के मुकाबिल भी खड़ा रह सकता है।

 

भारत के समाज में लिखित इतिहास का प्रभाव भले ही बड़ा अकादमिक महत्व रखता है, लेकिन आम लोगों के जीवन की बात करें तो अब भी भारतीय समाज मौखिक तौर पर हासिल परंपराओं का पालन कर रहा है। कोरोना के इस संकट में भारत के लोक ने साबित किया है कि संवाद के असल मायने आज भी उनके लिए बहुत बदले नहीं हैं।

पत्रकारिता के प्रकाशपुंज बाबूराव विष्णु पराड़कर

भारत में पत्रकारिता का उदभव ही राष्ट्रव्यापी पुनर्जागरण और समाज कल्याण के उद्देश्य से हुआ था। महात्मा गांधी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महर्षि अरविंद आदि युगपुरुष पत्रकारिता की इसी परंपरा के वाहक थे। जिन्होंने पत्रकारिता को देशहित में कार्य करने का लक्ष्य और प्रेरणा दी। पत्रकारिता में उनके आदर्श ही पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी के लिए दिशा-निर्देश के समान हैं, जिन पर चलकर पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी अपनी इस अमूल्य विधा के साथ न्याय कर सकती है। पत्रकारिता की अमूल्य विधा वर्तमान समय में अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है। दरअसल पत्रकारिता में यह संक्रमण उन आशंकाओं का अवतरण है, जिसकी आशंका पत्रकारिता के युगपुरूषों ने बहुत पहले ही व्यक्त की थीं। संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने भविष्य में पत्रकारिता में बाजारवाद, नैतिकता के अभाव और पत्रकारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा था- ‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र संर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।‘‘(संपादक पराड़कर में उद्धृत)
पराड़कर जी के यह कथन वर्तमान दौर की पत्रकारिता में चरितार्थ होने लगे हैं। जब पत्रकारों की कलम की स्याही हल्का लिखने लगी है और समाजहित जैसी बातें बेमानी होने लगी हैं। इसका कारण पत्रकार नहीं बल्कि वे मीडिया मुगल हैं जो मीडिया के कारोबारी होते हैं। पत्रकारिता पर पूंजीपतियों के दखल और उसके दुष्प्रभावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘पत्र निकालने का व्यय इतना बढ़ गया है कि लेखक केवल अपने ही भरोसे इसमें सेवा प्राप्त नहीं कर सकता। धनियों का सहयोग अनिवार्य हो गया है। दस जगह से धनसंग्रह कर आप कंपनी बनाएं अथवा एक ही पूंजीपति पत्र निकाल दे, संपादक की स्वतंत्रता पर दोनों का परिणाम प्रायः एक सा ही होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रों की उन्नति के साथ-साथ पत्रों पर धनियों का प्रभाव अधिकाधिक परिणाम में अवश्य पड़ेगा।‘‘(इतिहास निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)
बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण समाचारपत्र के स्वरूप और समाचारों के प्रस्तुतिकरण में आ रहे बदलावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था- ‘‘पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरण मूलक अपराधों का चित्ताकर्षण वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रूचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं।‘‘(प्रथम संपादक सम्मेलन 1925 के वृंदावन हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय वक्तव्य से)
पराड़कर जी का यह कथन वर्तमान समय में और भी प्रासंगिक लगता है, जब खबर के बाजार में मीडिया मुगल अश्लील खबरों के माध्यम से बाजार पर हावी होने के प्रयास में रहते हैं। पत्रकार को देश के समसामयिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों के बारे में जानकारी अवश्य होनी चाहिए। तभी वह अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। इसका वर्णन करते हुएपराड़कर जी ने कहा था – ‘‘मेरे मत से संपादक में साहित्य और भाषा ज्ञान के अतिरिक्त भारत के इतिहास का सूक्ष्म और संसार के इतिहास का साधारण ज्ञान तथा समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय विधानों का साधारण ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का वह पण्डित न हो पर कम से कम भारतीय और प्रान्तीय बजट समझने की योग्यता उसमें अवश्य होनी चाहिए।‘‘ (इतिहास निर्माता पत्रकार, अर्जुन तिवारी)
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की थी कि ‘‘मीडिया अब जज की भूमिका अदा करने लगा है‘‘ यह कुछ अर्थों में सही भी है। पत्रकारों पर राजनीति का कलेवर हावी होने लगा है, पत्रकारिता के राजनीतिकरण पर टिप्पणी करते हुए पराड़कर जी ने कहा था- ‘‘आज का पत्रकार राजनीति और राजसत्ता का अनुकूल्य उपलब्ध करने के लिए उनके मुहावरे में बोलने लगा है। उपभोक्ता संस्कृति के अभिशाप को लक्ष्य कर राजनेताओं की तरह आवाज टेरने वाले पत्रकार स्वयं व्यावसायिक चाकचिक्य के प्रति सतृष्ण हो गए हैं और उपभोक्ता संस्कृति ही इनकी संस्कृति बनती जा रही है।‘‘(पत्रकारिता इतिहास और प्रश्न, कृष्णबिहारी मिश्र)
संपादकाचार्य पराड़कर जी की पत्रकारिता का लक्ष्य पूर्णतः स्वतंत्रता प्राप्ति के ध्येय को समर्पित था। पराड़कर जी ने अपने उद्देष्य की घोषणा इन शब्दों में की थी- षब्दों में सामर्थ्य का भरें नया अंदाज। बहरे कानों को हुए अब अपनी आवाज।
5 सितंबर, 1920 को ‘आज‘ की संपादकीय टिप्पणी में अपनी नीतियों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था- ‘‘हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ावें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान संचार करें।‘‘
पराड़कर जी की पत्रकारिता पूर्णतः ध्येय समर्पित पत्रकारिता थी, जिसका वर्तमान पत्रकार पीढ़ी में सर्वथा अभाव दिखता है। बाबूराव विष्णु पराड़कर पत्रकारिता जगत के लिए सदैव स्मरणीय आदर्श पत्रकार हैं। पत्रकारिता के सही मूल्यों को चरितार्थ करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़करजी की पत्रकारिता के पदचिन्ह वर्तमान पत्रकार पीढ़ी के लिए पथप्रदर्शक के समान हैं।

समाचार पत्र सर्व-साधारण के लिए नहीं रहे- गणेश शंकर विद्यार्थी

पत्रकारिता और बाजार वर्तमान समय में एक दूसरे के पूरक जान पड़ते हैं। मीडिया उन्हीं घटनाओं और मुद्दों को कवर करता है, जिनका मीडिया के बाजार से सरोकार होता है। देश व समाज की मूल समस्याओं से मीडिया अपना जुड़ाव महसूस नहीं करता है, बल्कि वह उन बातों को अधिक तवज्जो देता है जो उसके मध्यमवर्गीय उपभोक्ता वर्ग का मनोरंजन कर सकें। इसका कारण यह है कि मध्यम वर्गीय उपभोक्ता वर्ग को अपने बाजार हित के लिए साधना ही मीडिया का उद्देश्य बन गया है। मीडिया कारोबारी अब समाचार चैनलों और पत्रों का प्रयोग जनचेतना अथवा जनशिक्षण के लिए नहीं बल्कि अपने आर्थिक हित के लिए करने लगे हैं। इस प्रसंग में पत्रकार प्रवर गणेश शंकर विद्यार्थी जी की निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं- ‘‘यहां भी अब बहुत से समाचार पत्र सर्व-साधारण के लिए नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं। एक समय था, इस देश में साधारण आदमी सर्व-साधारण के हितार्थ एक ऊंचा भाव लेकर पत्र निकालता था, और उस पत्र को जीवन क्षेत्र में स्थान मिल जाया करता था। आज वैसा नहीं हो सकता। इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन से ही वे निकलते हैं और धन ही के आधार पर वे चलते हैं और बड़ी वेदना के साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन ही की अभ्यर्थना करते हैं। अभी यहां पूरा अंधकार नहीं हुआ है, किंतु लक्षण वैसे ही हैं: कुछ ही समय पश्चात यहां के स
माचार पत्र भी मशीन के सदृश हो जाएंगे, और उनमें काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे/व्यक्तित्व न रहेगा, सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा, अन्याय के विरूद्ध डट जाने और न्याय के लिए आफतों को बुलाने की चाह न रहेगी, रह जाएगा केवल खिंची हुई लकीर
पर चलना। ऐसे बड़े होने की अपेक्षा छोटे और छोटे से भी छोटे, किंतु कुछ सिद्धांतों वाला होना कहीं अच्छा।‘‘
गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकार को सत्य का पहरूआ मानते थे। उनके अनुसार सत्य प्रकाशित करना और उसे उजागर करना ही पत्रकार का धर्म होता है। उन्होंने कहा था-
‘‘मैं पत्रकार को सत्य का प्रहरी मानता हूं-सत्य को प्रकाशित करने के लिए वह मोमबत्ती की भांति जलता है। सत्य के साथ उसका वही नाता है जो एक पतिव्रता नारी का पति के साथ रहता है। पतिव्रता पति के शव साथ शहीद हो जाती है और पत्रकार सत्य के शव के साथ।‘‘ पत्रकार शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी ने पत्रकारिता को समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए कार्य करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि- ‘‘समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परम उद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति समझते हैं।‘‘
पत्रकारिता के इस दौर में पत्रों एवं समाचार चैनलों पर यह आरोप आम हो चुका है कि मीडिया पाठकों एवं दर्शकों की रूचि का नहीं बल्कि बाजार का ख्याल रखता है। विद्यार्थी जी के जीवनी लेखक देवव्रत शास्त्री ने उनकी पंक्तियों को दोहराते हुए लिखा है- ‘‘हमारे पाठक कैसे हैं, उन्हें कैसी पाठ्य सामग्री पसंद है, कैसी सामग्री उनके लिए फायदेमंद है। इस बात का ख्याल अधिकतर पत्र वाले नहीं रखते, परंतु प्रताप में इसका ख्याल रखा जाता था। विद्यार्थी जी सदा अपने सहकारियों को इसके लिए समझाते थे। वे इस बात का भी बहुत ख्याल रखते थे कि पाठकों की रूचि के अनुसार पाठ्य सामग्री तो जरूर दी जाए, परंतु कुरूचिपूर्ण न हो।‘‘
विद्यार्थी जी युवा पत्रकारों के लिए उनके शिक्षक के समान थे, उनके संपर्क में आकर बहुत से पत्रकारों ने पत्रकारिता में अग्रणी स्थान प्राप्त किया। वे उन्हें भली-भांति समझाते थे, एक बार वे कार्यालय में आए और अखबार उठाते हुए पूछने लगे ‘‘कोई नई बात है? यह उत्तर मिलने पर कि अभी देखा नहीं, कहने लगे, कैसे जर्नलिस्ट हो तुम लोग? नया पत्र आकर रखा हुआ है और उसी दम उठाकर देखने की इच्छा नहीं हुई?‘‘ विद्यार्थी जी की फटकार सुनकर सभी अपना सिर नीचा कर लेते।
गणेश विद्यार्थी ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से हिंदी को भी नए तेवर देने का कार्य किया। उनका पत्र ‘‘प्रताप‘‘ तत्कालीन समय का लोकप्रिय पत्र था, वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए सदा चिंतित रहे। हिंदी को वे जन-जन की भाषा बनाने का स्वप्न देखते थे। अखिल भारतीय हिन्दी सम्मेलन, गोरखपुर (1929) के अध्यक्षीय भाषण में गणेश जी ने कहा-
‘‘हिन्दी के प्रचार का सबसे बड़ा साधन है हिन्दी प्रांतों में लोक शिक्षा को आवश्यक और अनिवार्य बना देना। कोई ऐसा घर न रहे, जिसके नर नारी, बच्चे बूढ़े तक तुलसीकृत रामायण, साधारण पुस्तकें और समाचार पत्र न पढ़ सकें। यह काम उतना कठिन नहीं है, जितना कि समझा जाता है। यदि टरकी में कमाल पासा बूढ़ों और बच्चों तक को साक्षर कर सकते हैं और सोवियत शासन दस वर्षों के भीतर रूस में अविद्या का दीवाला निकाल सकता है, तो इस देश में सारी शक्तियां जुटकर बहुत थोड़े समय में अविद्या के अंधकार का नाश कर प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने और लिखने योग्य बना सकती है।”
गणेश शंकर विद्यार्थी सदा पत्रकारिता के कार्य में एक मोमबत्ती की भांति जलते रहे। उनका जीवन पूर्णतया पत्रकारिता को समर्पित था। विद्यार्थी जी एक पत्रकार ही नहीं क्रांतिकारियों के प्रबल समर्थक थे, वे क्रांतिकारियों को लेकर गांधी जी की आलोचना को भी पसंद नहीं करते थे। उनकी पत्रकारिता पूर्णतया भारत की स्वतंत्रता के ध्येय को लेकर समर्पित थी जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वर्तमान समय में जब पत्रकारिता अपने उद्देश्यों से भटक गई है, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे ध्येय समर्पित पत्रकार हमारे लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। जिनका हमें पत्रकारिता के नैतिक पथ पर चलते हुए स्मरण अवश्य करना चाहिए।

 

मतवाला पत्रकार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता में अमिट हस्ताक्षर के समान हैं। अपने नाम के अनुरूप वे निराले ही थे। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला मूलतः छायावादी कवि थे, उनका जीवन भी कविता के समान ही था। उनके कवि जीवन के आगे कई बार उनके पत्रकार होने का परिचय सामने नहीं आ पाता है। जिसका अवलोकन करने का हमने प्रयास किया है। महाकवि और महामानव जैसे उपनामों से सम्मानित निराला का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर में हुआ था। निराला जी की जन्मतिथि के विषय में मतैक्य नहीं है, परंतु वे अपना जन्मदिन बसंत पंचमी को ही मनाते थे। निराला का साहित्य ही नहीं साहित्यिक पत्रकारिता में भी महत्वपूर्ण योगदान था। भारतेंदु हरिशचंद्र के माध्यम से शुरू की गई साहित्यिक पत्रकारिता की विरासत महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद निराला जी को ही मिली थी। निराला ने साहित्यिक पत्रकारिता की शुरूआत ऐसे समय में की थी जब राजनीतिक पत्रकारिता के समकक्ष साहित्यिक पत्रकारिता ने भी अपना स्थान बना लिया था।
महामानव निराला का संबंध प्रमुख रूप से प्रभा, सरस्वती, माधुरी, आदर्ष, शिक्षा और मतवाला जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं से रहा। मतवाला से उनका विशेष लगाव रहा था। 23 अगस्त, 1923 को जब मतवाला निकला, तो उसपर छपा मोटो निराला ने ही तैयार किया था। वह मोटो इस प्रकार था-
अमिय-गरल, शशि-शीकर, रवि-कर, राग-विराग भरा प्याला पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला।
मतवाला के पहले अंक में ही रक्षाबंधन पर उनकी कविता छपी थी। इसके बाद तो निराला जी की कविता तो मतवाला की पहचान ही बन गई थी। वे मतवाला में गर्जन सिंह वर्मा, मतवाले, जनाबआलि, शौहर आदि नामों से लिखते थे। निराला भी उनका छद्म नाम ही था। जो आगे चलकर उनका उपनापम ही बन गया। इसका कारण यह था कि पत्र-पत्रिकाओं के छपने जाने से पूर्व कई बार लेखकों की रचनाएं नहीं मिल पाती थीं और संपादक ही अपनी रचनाओं को छद्म नाम प्रकाशित किया करते थे। उनकी रचनाओं में तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति चेतना का भाव हुआ करता था।
निराला गांधीवादी युग के साहित्यिक पत्रकार थे। वे गांधी जी के स्वदेशी आंदोलन और चरखा नीति के समर्थक थे। निराला अपनी बात को निराले ही ढंग से रखते थे। एक बार उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलने वाली सरस्वती पत्रिका की आलोचना की, तो द्विवेदी जी ने मतवाला को पूर्णतया संशोधित करके निराला के पास भेज दिया। निराला ने अपने समय के प्रतिष्ठित पत्र समन्वय में भी अपना योगदान दिया। समन्वय में उनके द्वारा अनूदित रामकृष्ण परमहंस की बांग्ला जीवनी का हिंदी अनुवाद छपा करता था। इसमें निराला अपना नाम एक दार्शनिक देते थे।
महामानव निराला की ने अपनी कविताओं के माध्यम से आर्थिक विपन्नता को बड़े ही मार्मिक ढंग से चित्रित किया था। जिसका उदाहरण है उनकी यह कविता- साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये, बायें से वे मलते हुए पेट को चलते, और दाहिना दया दृष्टि पाने की ओर बढ़ाये। भूख से सूख ओठ जब जाते छाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
निराला जी की रचनाओं में उनके जीवन का दर्द सुनाई देता था। अपनी पुत्री की मृत्यु ने निराला को झकझोर दिया था। उस महामानव ने बेटी की विकलता में निम्न पंक्तियों को लिखा था, जिसे विभिन्न लेखकों ने सर्वश्रेष्ठ शोक गीत की संज्ञा दी है- मुझ भाग्यहीन की तू संबल युग वर्ष बाद जब हुई विकल, छुख ही जीवन की कथा रही क्या कहूं आज जो नहीं कही! हो इसी कर्म पर वज्रपात यदि धर्म, रहे नत सदा माथ इस पथ पर, मेरे कार्य सकल हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल! कन्ये, गत कर्मों का अर्पण कर, करता मैं तेरा तर्पण!
निराला ने सदा ही फक्कड़ जीवन जिया, कष्टों को वे निराले ही ढंग से सह लिया करते थे। अपने से ज्यादा औरों के कष्टों से उनको पीड़ा हुआ करती थी। यही उनका स्वभाव था। उनका संपूर्ण जीवन दुखों और कष्टों में ही बीता। यही कारण था कि अपने अंतिम समय में वे आध्यात्मिक हो गए थे। वे तुलसीदास के प्रशंसक थे, शायद रामचरितमानस से ही उनको कष्टों को गले लगाने की प्रेरणा मिलती थी।
निराला जीवन पर्यंत हिंदी की सेवा में संलग्न रहे। महामानव निराला ने 15 अक्टूबर, 1961 को अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने निराला की मृत्यु के पश्चात् उनके संघर्षमय जीवन के बारे में ‘हिंदी टाइम्स‘ में लिखा था- ‘‘राष्ट्रपिता बापू की मृत्यु के बाद मौलाना आजाद ने अपने एक भाषण में कहा था कि कहीं बापू के खून के छींटे हमारे ही हाथों पर तो नहीं! यही प्रश्न निराला जी के संबंध में हम लोगों के मन में भी उत्पन्न होता है।
राष्ट्रकवि दिनकर की यह पंक्तियां निराला जैसे महामानव के संघर्षपूर्ण साहित्यिक जीवन को बयां करती हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का साहित्यिक और पत्रकार जीवन वर्तमान समय के पत्रकारों को पत्रकारिता के क्षेत्र में एक साधक के रूप में कार्य करने की प्रेरणा देता है।

 

साहित्यिक पत्रकारिता के स्तंभ- शिवपूजन सहाय

हिंदी साहित्यकारों ने समय-समय पर हिंदी पत्रकारिता में अपना योगदान दिया है। साहित्यकारों के मार्गदर्शन में पत्रकारिता ने भी नई ऊंचाईयों को प्राप्त किया है। साहित्य और पत्रकारिता का जब सम्मिश्रण होता है, तब पत्रकारिता सूचना ही नहीं जनशिक्षण और सांस्कृतिक उत्थान का भी माध्यम बनकर उभरती है। हिंदी साहित्यकारों का हिंदीपत्रकारिता से पुराना नाता रहा है जैसे भारतेंदु हरीश चन्द्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, मुंशी प्रेमचंद, माधवराव सप्रे एवं आचार्य शिवपूजन सहाय आदि।
आचार्य शिवपूजन सहाय की बात की जाए तोपत्रकारिता के क्षेत्र में वे साहित्यिक सरोकारों कोपत्रकारिता से जोड़ने के लिए जाने जाते हैं।पत्रकारिता की विधा से जब साहित्य जुड़ता है, तोपत्रकारिता भाषा के स्तर पर समृद्ध होती है और सामाजिक सरोकारों से भी सहज रूप से जुड़ जाती है। आचार्य शिवपूजन सहाय ने इस कार्य को भली-भांति अंजाम दिया। 9 अगस्त, 1993 को बिहार के शाहाबाद जिले में जन्मे शिवपूजन सहाय ने पत्रकारिता को खासतौर से साहित्यिक पत्रकारिता को एक दिशा प्रदान की। शिवपूजन सहाय छात्रजीवन से ही पत्रकारिता से जुड़ गए थे, उनके लेख ‘शिक्षा‘, ‘मनोरंजन‘, और ‘पाटलिपुत्र‘ जैसे पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे।
सहाय जी का समय वह समय था जब भारत अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए संघर्षरत था। ऐसे समय में शिवपूजन सहाय जैसे व्यक्तित्व का स्वाधीनता आंदोलन के संग्राम से जुड़ना स्वाभाविक ही था। गांधी जी के असहयोग आंदोलन में सहभागिता के लिए वे सरकारी नौकरी को छोड़कर आरा के स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे। लेकिन सहाय जी का पत्रकार मन पत्रकारिता से जुड़ने के लिए व्याकुल था, अतः आरा से ही उन्होंने 1921 में ‘मारवाड़ी सुधार‘ मासिक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया। इसके पश्चात् वे 20 अगस्त, सन 1923 में कोलकाता से प्रकाशित होने वाले ‘मतवाला‘ से जुड़ गए। शिवपूजन जी ‘मतवाला‘ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। इस पत्र में कार्य करने के दौरान उनको महान साहित्यकार और पत्रकार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का भी सहयोग प्राप्त हुआ। ‘मतवाला‘ को मूर्त रूप देने में शिवपूजन सहाय की प्रमुख भूमिका रही थी। ‘मतवाला‘ छपकर बाजार में आया तो धूम मच गई।
‘मतवाला‘ ने जबरदस्त लोकप्रियता प्राप्त की। साहित्य, समाज, संस्कृति, राजनीति, शासन, धर्म आदि सभी विषयों पर मतवाला में लेख और समाचार प्रकाशित होते थे। यह पत्र वैचारिक रूप सेलोकमान्य तिलक से प्रभावित रहा। साथ ही ‘मतवाला‘ को गांधी के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में भी गहरी आस्था थी। ‘मतवाला‘ के संपादन के अलावा उन्होंने ‘मौजी‘, ‘आदर्श‘, ‘गोलमाल‘, ‘उपन्यास तरंग‘ और ‘समन्वय‘ जैसे पत्रों के संपादन में भी सहयोग किया। कुछ समय के लिए सन् 1925 में आचार्य सहाय ने ‘माधुरी‘ का भी संपादन किया। इसके पश्चात सन् 1926 में वे पुनः ‘मतवाला‘ से जुड़ गए।
शिवपूजन सहाय ने भागलपुर के सुलतानगंज से छपने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘गंगा‘ का भी संपादन किया। इसके अलावा उन्होंने पुस्तक भंडार पटना के साहित्यिक पत्र ‘हिमालय‘ का भी संपादन किया। सन् 1950 में बिहार सरकार द्वारा गठित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का पहला निदेशक सहाय जी को ही चुना गया था। सन् 1950 में ही बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘साहित्य‘ के संपादन की जिम्मेदारी भी सहाय जी को ही मिली थी। सहाय जी ने विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के माध्यम से साहित्यिक पत्रकारिता को अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आचार्य शिवपूजन सहाय हिंदी की उन्नति के लिए सदैव चिंतित रहे। उन्होंने कहा- ‘‘हम सब हिंदी भक्तों को मिलकर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि साहित्य के अविकसित अंगों की भली-भांति पुष्टि हो और अहिंदी भाषियों की मनोवृत्ति हिंदी के अनुकूल हो जाए।‘‘ शिवपूजन सहाय की संपादन कला की एक बानगी यह भी है कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का संपादन भी उन्होंने ही किया था। राजेन्द्र प्रसाद ने उनकी प्रशंसा इन शब्दों में की थी- ‘‘जेल से निकलने पर इतना समय नहीं मिला कि इसे दोहराऊं। यह शिवजी (शिवपूजन सहाय) की कृपा की फल था कि वह प्रकाश में आ सकी। अत्यन्त अपनेपन से उन्होंने हस्तलिखित प्रति ले ली और बहुत परिश्रम करके उसे पढ़ा ही नहीं बल्कि जहां-तहां लिखने में जो भूले रह गईं थीं उनको भी सुधारा। शिवजी की इस प्रेमपूर्ण सहायता की जितनी भी प्रशंसा करूं, थोड़ी है।‘‘
साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सहाय जी ने जो भी कार्य किया, वह सराहनीय रहा। हिंदी भाषा और साहित्यिक पत्रकारिता में उनका योगदान मील का पत्थर साबित हुआ। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक के पद पर रहते हुए उन्होंने बिहार के ‘साहित्यिक इतिहास‘ को चार खण्डों में समेटा। साहित्य में उनके बेहतरीन योगदान के लिए उन्हें ‘पद्मभूषण‘ और ‘वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान‘ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार प्रदान किए गए।
पत्रकारिता के अतिरिक्त सहाय जी ने अनेकों कृतियों की रचना की। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने उनकी समस्त रचनाओं को ‘शिवपूजन रचनावली‘ के नाम से चार खण्डों में प्रकाशित किया है। एक पत्रकार और साहित्यकार के रूप् में उन्होंने हिंदी भाषा की जीवन भर सेवा की। 21 जनवरी, सन् 1963 को संपादकप्रवर आचार्य शिवपूजन सहाय चिरनिद्रा में लीन हो गए। ऐसे समय में जब पत्रकारिता और साहित्य की दूरी बढ़ती प्रतीत हो रही है, हिंदी के दधीचि कहे जाने वाले सहाय जी की स्मृतियां साहित्यिक पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य करती हैं।

 

हिंदी पत्रकारिता के अमिट हस्ताक्षर- राजेंद्र माथुर

राजेन्द्र माथुर हिंदी पत्रकारिता में अमिट हस्ताक्षर के समान हैं। मालवा के साधारण परिवार में जन्मे राजेन्द्र बाबू ने हिंदी पत्रकारिता जगत में असाधारण प्रतिष्ठा प्राप्त की। उनका जन्म 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश के धार जिले में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा धार, मंदसौर एवं उज्जैन में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे इंदौर आए जहां उन्होंने अपने पत्रकार जीवन के महत्वपूर्ण समय को जिया।
राजेन्द्र माथुर उन बिरले लोगों में से थे जो उद्देश्य के लिए जीते हैं। पत्रकार जीवन की शुरुआत उन्होंने स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही कर दी थी। जिस समय हिंदी पत्रकारिता मुख्य धारा में अपना स्थान बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी, उसी समय राजेन्द्र बाबू भी पत्रकारिता में अपना स्थान बनाने के लिए आए थे। पत्रकारिता जगत में उन्होंने अपना स्थान ही नहीं बनाया बल्कि हिंदी पत्रकारिता को भी मुख्य धारा में लाए। अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकार राजेन्द्र माथुर चाहते तो अंग्रेजी पत्रकारिता में अपना स्थान बना सकते थे। लेकिन तब शायद भारत के अंतर्मन को समझने का उचित मौका न मिलता।
भारतीय भाषा में भारत के सरोकारों को समझने के लिए उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अपने माध्यम के रूप में चुना। पत्रकारिता की दुनिया में उन्होंने नई दुनिया दैनिक पत्र के माध्यम से दस्तक दी। नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते से उनकी मुलाकात शरद जोशी ने करवाई थी। बारपुते जी से अपनी पहली मुलाकात में उन्होंने पत्र के लिए कुछ लिखने की इच्छा जताई। राहुल जी ने उनकी लेखन प्रतिभा को जांचने-परखने के लिए उनसे उनके लिखे को देखने की बात कही। उसके बाद अगली मुलाकात में राजेन्द्र माथुर अपने लेखों का बंडल लेकर ही बारपुते जी से मिले।
अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर गहन अध्ययन एवं जानकारी को देखकर राहुल जी बड़े प्रभावित हुए। उसके बाद समस्या थी कि राजेन्द्र माथुर के लेखों को पत्र में किस स्थान पर समायोजित किया जाए। इसका समाधान भी राजेन्द्र जी ने ही दिया। राहुल बारपुते जी का संपादकीय अग्रलेख प्रकाशित होता था, राजेन्द्र जी ने अग्रलेख के बाद अनुलेख के रूप में लेख को प्रकाशित करने का सुझाव दिया। अग्रलेख के पश्चात अनुलेख लिखने का सिलसिला लंबे समय तक चला। सन 1955 में नई दुनिया की दुनिया में जुड़ने के बाद वह 27 वर्षों के लंबे अंतराल के दौरान वे नई दुनिया के महत्वपूर्ण सदस्य बने रहे।
राजेन्द्र जी ने लगातार दस वर्षों तक अनुलेख लिखना जारी रखा। सन 1965 में बदलाव करते हुए उन्होंने पिछला सप्ताह नामक लेख लिखना प्रारंभ किया। जिसमें बीते सप्ताह के महत्वपूर्ण घटनाक्रम की जानकारी एवं विश्लेषण प्रकाशित होता था। सन 1969 में किसी मनुष्य ने चंद्रमा पर पहला कदम रखकर अप्रत्याशित कामयाबी पाई थी। मनुष्य के चंद्रमा तक के सफर पर नई दुनिया ने 16 पृष्ठों का परिशिष्ट प्रकाशित किया था। यह कार्य राजेन्द्र माथुर के नेतृत्व में ही हुआ था। वे गुजराती कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे, 1969 में वे अध्यापकी छोड़ पूरी तन्मयता के साथ नई दुनिया की दुनिया में रम गए।
पिछला सप्ताह स्तंभ लिखना उन्होंने आपातकाल तक जारी रखा। आपातकाल के दौरान सरकार ने जब प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास किया। तब राजेन्द्र जी ने शीर्षक के नाम से सरकारी प्रतिक्रिया की परवाह किए बिना धारदार आलेख लिखे। सन 1980 से उन्होंने कल आज और कल शीर्षक से स्तंभ लिखना शुरू किया। 14 जून, 1980 को वे प्रेस आयोग के सदस्य चुने गए। जिसके बाद सन 1981 में उन्होंने नई दुनिया के प्रधान संपादक के रूप में पदभार संभाला। प्रेस आयोग का सदस्य बनने के पश्चात वे टाइम्स आफ इंडिया के संपादक गिरिलाल जैन के संपर्क में आए।
गिरिलाल जैन ने राजेन्द्र माथुर को दिल्ली आने का सुझाव दिया। उनका मानना था कि राजेन्द्र जी जैसे मेधावान पत्रकार को दिल्ली में रहकर पत्रकारिता करनी चाहिए। लंबे अरसे तक सोच-विचार करने के पश्चात राजेन्द्र जी ने दिल्ली का रूख किया। सन 1982 में नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन कर वे दिल्ली आए। नवभारत टाइम्स की ओर से अमेरिकी सरकार के आमंत्रण पर उन्हें अमेरिका जाने का अवसर प्राप्त हुआ। अमेरिका में गए हिंदी पत्रकार ने अपनी अंग्रेजी की विद्वता से परिचय कराया। उनकी अंग्रेजी सुनकर अंग्रेज पत्रकार भी हतप्रभ रह गए। ऐसे समय में जब अंग्रेजी प्रतिष्ठा का सवाल हो हिंदी पत्रकारिता में योगदान देना प्रेरणादायी है।
दिल्ली आने के पश्चात राजेन्द्र माथुर ने नवभारत टाइम्स को दिल्ली, मुंबई से निकालकर प्रादेशिक राजधानियों तक पहुंचाने का कार्य किया। नवभारत टाइम्स को उन्होंने हिंदी पट्टी के पाठकों तक पहुंचाते हुए लखनऊ, पटना एवं जयपुर संस्करण प्रकाशित किए। यही समय था जब राजेन्द्र माथुर को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। वे एडिटर्स गिल्ड के प्रधान सचिव भी रहे। उनके लेखन को संजोने का प्रयास करते हुए उनके लेखों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें प्रमुख हैं- गांधी जी की जेल यात्रा, राजेन्द्र माथुर संचयन- दो खण्डों में, नब्ज पर हाथ, भारत एक अंतहीन यात्रा, सपनों में बनता देश, राम नाम से प्रजातंत्र।
राजेन्द्र माथुर की पत्रकारिता निरपेक्ष पत्रकारिता थी। पूर्वाग्रह ग्रसित पत्रकारिता से तो वे कोसों दूर थे। उनके निरपेक्ष लेखन का जिक्र करते हुए पत्रकार आलोक मेहता ने लिखा है-
‘‘1985-86 के दौरान भारत की एक महत्वपूर्ण गुप्तचर एजेंसी के वरिष्ठ अधिकारी ने मुलाकात के दौरान सवाल किया- ‘आखिर माथुर जी हैं क्या? लेखन से कभी वे कांग्रेसी लगते हैं, कभी हिंदूवादी संघी, तो कभी समाजवादी। आप तो इंदौर से उन्हें जानते हैं क्या रही उनकी पृष्ठभूमि?‘ मुझे जासूस की इस उलझन पर बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने कहा, ‘माथुर साहब हर विचारधारा में डुबकी लगाकर बहुत सहजता से ऊपर आ जाते हैं। उन्हें बहाकर ले जाने की ताकत किसी दल अथवा विचारधारा में नहीं है। वह किसी एक के साथ कभी नहीं जुड़े। वह सच्चे अर्थों में राष्ट्रभक्त हैं, उनके लिए भारत राष्ट्र ही सर्वोपरि है। राष्ट्र के लिए वे कितने ही बड़े बलिदान एवं त्याग के पक्षधर हैं‘‘ (सपनों में बनता देश, आलोक मेहता)
राजेन्द्र माथुर ने कभी किसी विचारधारा का अंध समर्थन नहीं किया। उनकी पत्रकारिता विशुद्ध राष्ट्रवाद को समर्पित थी। जड़ता की स्थिति में पहुंचाने वाली विचारधाराओं से उन्होंने सदैव दूरी बनाए रखी। पत्रकार के रूप में विचारधारा एवं पार्टीवाद से ऊपर उठकर वे पत्रकारिता के मिशन में लगे रहे। वर्तमान समय में जब पत्रकार विचारधाराओं के खेमे तलाश रहे हैं, ऐसे वक्त में राजेन्द्र माथुर की याद आना स्वाभाविक है।
राजेन्द्र माथुर ने बड़े ही जीवट से मूल्यपरक पत्रकारिता की थी, परंतु एक वक्त ऐसा भी आया जब वे बाजार के झंझावतों से निराश हुए। उन्होंने नवभारत टाइम्स को पूर्ण अखबार बनाने का स्वप्न देखा था। उनका यह स्वप्न तब तक रूप लेता रहा जब तक प्रबंधन अशोक जैन के हाथ था, किंतु जब प्रबंधन का जिम्मा समीर जैन पर आया तो यह स्वप्न बिखरने लगा था। समीर जैन नवभारत टाइम्स को ब्रांड बनाना चाहते थे जो बाजार से पूंजी खींचने में सक्षम हो। माथुर साहब ने अखबार को मुकम्मल बनाया था, लेकिन बाजार की अपेक्षाएं शायद कुछ और ही थीं। यही उनकी निराशा का कारण था। संभवतः पत्रकारिता के शीर्ष पुरूष की मृत्यु का कारण भी यही था। इस घटना के बारे में अनेको वर्षों तक उनके सहयोगी रहे रामबहादुर राय जी बताते हैं-
‘‘जब उन्हें लगा कि संपादक को संपादकीय के अलावा प्रबंधन के क्षेत्र का काम भी करना होगा, तो वह द्वंद में पड़ गए। इससे उन्हें शारीरिक कष्ट हुआ। अपने सपने को टूटते बिखरते हुए वे नहीं देख पाए। मृत्यु के कुछ दिनों पहले मेरी उनसे लंबी बातचीत हुई थी। एक दिन उन्हें फोन कर मैं उनके घर गया। माथुर साहब अकेले ही थे। वह मेरे लिए चाय बनाने किचन की ओर गए तो मैं भी गया। मैंने महसूस किया था कि वे परेशान हैं। मैंने पूछा क्या अड़चन है? उन्होंने कहा- देखो, अशोक जैन नवभारत टाइम्स पढ़ते थे। उनको मैं बता सकता हूं कि अखबार कैसे बेहतर बनाया जाए। समीर जैन अखबार पढ़ता ही नहीं है। वह टाइम्स आफ इंडिया और इकानामिक टाइम्स को प्रियारिटी पर रखता है। उससे संवाद नहीं होता। उसका हुकुम मानने की स्थिति हो गई है। यही माथुर साहब का द्वंद था।‘‘ (मीडिया विमर्श, मार्च 2012)
राजेन्द्र माथुर ने मानों शब्दों की सेवा का ही प्रण लिया था। यही कारण था कि अनेकों बार अवसर प्राप्त होने पर भी वे सत्ता शिखर से दूर ही रहे। श्री माथुर के सहयोगी रहे विष्णु खरे ने सन 1991 में उनके अवसान के पश्चात नवभारत टाइम्स में प्रकाशित लेख ‘बुझना एक प्रकाश-स्तंभ का‘ में लिखा था-
‘‘नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन जाने के बाद वे भविष्य में क्या बनेंगे, इसको लेकर उनके मित्रों में दिलचस्प अटकलबाजियां होती थीं और बात राष्ट्रसंघ एवं केन्द्रीय मंत्रिमंडल तक पहुंचती थी। लेकिन अपने अंतिम दिनों तक राजेन्द्र माथुर ‘एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया‘ जैसी पेशेवर संस्था के काम में ही स्वयं को होमते रहे। राजेन्द्र माथुर जैसे प्रत्येक व्यक्ति के चले जाने के पश्चात ऐसा कहा जाता है कि अब ऐसा शख्स दुबारा दिखाई नहीं देगा। लेकिन आज जब हिंदी तथा भारतीय पत्रकारिता पर निगाह डालते हैं और इस देश के बुद्धिजीवियों के नाम गिनने बैठते हैं तो राजेन्द्र माथुर का स्थान लेता कोई दूसरा नजर नहीं आता। बड़े और चर्चित पत्रकार बहुतेरे हैं, लेकिन राजेन्द्र माथुर जैसी ईमानदारी, प्रतिभा, जानकारी और लेखन किसी और में दिखाई नहीं दी।‘‘ (पत्रकारिता के युग निर्माता,शिव अनुराग पटैरया)
पत्रकारिता में स्थान बनाने के बाद पत्रकार सत्ता के केंद्रों से नजदीक आने को लालायित हैं। सत्ता केन्द्र से नजदीकी को कैरियर का शिखर मानने की वर्तमान समय में परिपाटी बन गई है। ऐसे में सत्ता केन्द्रों से समानांतर दूरी रखने वाले राजेन्द्र माथुर का पत्रकार जीवन अनुकरणीय है।

 

‘हिंदी केसरी’ माधवराव सप्रे

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में 19वीं सदी का अंतिम दशक एवं बीसवीं सदी का पहला दशक मील का पत्थर साबित हुए। यह समय देश में राजनीतिक, साहित्यिक एवं पत्रकारीय सुदृढ़ता के दशक माने जाते हैं। यह वह दौर था जब भारत की सुप्त चेतना जाग्रत हो रही थी, जागरण का यह काम कर रहे थे देशभक्त पत्रकार एवं क्रांतिकारी। उस दौर में प्राय क्रांतिकारी और पत्रकार एक दूसरे के पूरक थे।
यह दौर था तिलक युग। जब पत्रकारिता ने जन-जन में स्वदेशी एवं स्वतंत्रता की अलख जगाई थी। तिलक स्वयं पत्रकार थे, ‘मराठा’ एवं ‘केसरी’ माध्यम से तिलक ने देश के सरोकारों को जानने का काम किया था। उसी दौर के पत्रकार थे पं. माधवराव सप्रे।
माधवराव सप्रे का जन्म मध्य प्रदेश के दमोह जिले के पथरिया ग्राम में 19 जून, 1871 को हुआ था। चार भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके पिता ने खराब आदतों के चलते घर की समस्त संपत्ति नष्ट कर दी। घर चलना कठिन हो गया था, जिसके बाद बड़े भाई रामचन्द्रराव ने परिवार का संचालन किया। माधवराव दो वर्ष के ही थे कि बड़े भाई रामचन्द्रराव का निधन हो गया। जिसके बाद मंझले भाई बाबूराव ने विपरीत परिस्थितियों में परिवार के खर्चों को वहन करने के लिए नौकरी की। जब माधवराव चार वर्ष के थे बाबूराव ने उन्हें बिलासपुर बुला लिया। बिलासपुर में ही माधवराव ने मिडिल स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण की। सन 1887 में उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। बिलासपुर में हाईस्कूल नहीं था, हाईस्कूल पढ़ने के लिए उनको रायपुर भेजा गया। माधवराव ने हिंदी की सेवा का प्रण रायपुर में ही लिया था। रायपुर की धरती ने उनको हिंदी सेवा की जो प्रेरणा दी वह जीवन पर्यंत कायम रही।
माधवराव सप्रे का विवाह सन 1889 में हुआ, इसी वर्ष उन्हें एंट्रेंस की परीक्षा भी देनी थी। परंतु ऐन वक्त पर वे बीमार पड़ गए जिस कारण वे 1890 में एंट्रेंस की परीक्षा न दे सके। जिसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर चले गए। वहां उन्होंने अपने पाठ्यक्रम के अलावा विभिन्न गंभीर विषयों का अध्ययन किया। किंतु, इस दौरान उनको दो दुखद घटनाओं को सहना पड़ा। एक तो वे बीमार पड़ गए, दूसरे उनकी माता का देहांत हो गया। उस समय उनके ससुर की इच्छा थी कि वे रायपुर में ही तहसीलदार की नौकरी स्वीकार कर लें। उन्होंने इसके लिए उच्च अधिकारियों को राजी भी कर लिया था किंतु, माधवराव का मन नौकरी में नहीं पत्रकारिता में था।
उस दौरान देश में स्वतंत्रता की आंधी चारों ओर चल रही थी। लोकमान्य तिलक के ‘केसरी’ और ‘मराठा’ जैसे पत्रों के माध्यम से स्वदेशी एवं स्वतंत्रता की अग्नि प्रखर हो रही थी। माधवराव भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आना चाहते थे, किंतु पत्रकारिता उस समय में आज की भांति व्यवसाय नहीं था। जिससे लाभ अर्जित किया जा सके। अतः उन्होंने पीडब्ल्यूडी में ठेकेदारी की उनको इस धंधे में नुकसान ही हुआ। वे अपने भाई पर भी अत्यधिक निर्भर नहीं रहना चाहते थे। एक दिन उन्होंने पत्नी से कुछ जेवर लिए और ग्वालियर के लिए चल पड़े और ग्वालियर में ही एफ.ए में दाखिला ले लिया। इस कठिन वक्त में ही उनको एक और आघात सहन करना पड़ा। ग्वालियर में ही उनको पत्नी के देहांत की सूचना मिली। माधवराव के लिए यह दिन कितने संघर्ष के रहे होंगे यह समझना कठिन नहीं है। उन्होंने दुख को सहते हुए भी अपनी पढ़ाई जारी रखी। सन 1898 में उन्होंने बी.ए की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने अपने भाई के समझाने पर दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी पार्वती भी सुलक्षणा थीं। वे उनके समस्त कार्यों में उनको सहयोग करती थीं।
सन 1899 में उन्होंने पेंड्रा रोड के राजकुमार कालेज में अध्यापन कार्य शुरू किया। किंतु, अध्यापन कार्य उनको संतुष्ट नहीं करता था। पत्रकारिता की ललक उनके मन में अब भी जीवित थी, जिसके लिए वे नौकरी के माध्यम से धन संग्रह कर रहे थे। सन 1900 में उनकी परिकल्पना ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ मासिक पत्रिका के रूप में साकार हुई। उनके मित्र वामनराव लाखे पत्रिका के प्रकाशक बने एवं रामराव चिंचोलकर ने उनके साथ संपादक का दायित्व संभाला।
माधवराव सप्रे ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के प्रवेशांक में पत्रिका के उद्देश्यों को ‘आत्म परिचय’ शीर्षक के अंतर्गत स्पष्ट करते हुए लिखा-
‘‘सम्प्रति छत्तीसगढ़ विभाग को छोड़ ऐसा एक भी प्रांत नहीं है जहां दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या त्रैमासिक पत्र प्रकाशित न होता हो। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि सुसम्पादित पत्रों के द्वारा हिंदी भाषा की उन्नति हुई है। अतएव यहां भी ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ हिन्दी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से ध्यान दे। आजकल भाषा में बहुत सा कूड़ा-कर्कट जमा हो रहा है, वह न होने पावे इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी कहें।” (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
माधवराव सप्रे ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ का प्रकाशन छत्तीसगढ़ क्षेत्र में हिंदी एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ही किया था। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ ने इस उद्देश्य को पूरा भी किया। किंतु, ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ को तत्कालीन जमीदारों और राजाओं की ओर से अपेक्षित सहयोग नहीं प्राप्त हुआ। इस व्यथा को स्पष्ट करते हुए ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ संपादक ने लिखा-
‘‘अत्यन्त शोक और कष्ट से कहना पड़ता है कि मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ विभाग में राजा-महाराजा, श्रीमान तथा जमींदारों की इतनी विपुलता होने पर भी उनमें कोई भी विद्योतेजन की ओर यथावश्यक ध्यान नहीं देते। वे इस बात पर विचार नहीं करते कि विद्या की उन्नति करने में जब तक वे उदासीन बने रहेंगे तब तक समाज की प्रगति नहीं हो सकती।” (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
छत्तीसगढ़ मित्र‘ को आर्थिक मोर्चे पर काफी संघर्ष करना पड़ता था, फिर भी माधवराव जी ने पत्रकारिता के मानदंडों से कभी समझौता नहीं किया। पत्र में प्रकाशित सामग्री के प्रति वे पूर्ण सचेत रहते थे। संवाददाताओं को भी वे यही सत्य एवं तथ्य पर आधारित समाचार देने के लिए ही कहते थे। जिसका उदाहरण है ‘चाहिए’ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित यह विज्ञापन-
‘‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के लिए हिन्दुस्थान के बड़े-बड़े नगरों तथा राज संस्थानों, विशेषतः छत्तीसगढ़ विभाग के प्रायः संपूर्ण देशी रजवाड़ों तथा जमींदारियों से चतुर और विश्वास करने योग्य संवाददाता चाहिए। संवाददाताओं को स्मरण रहे कि सत्य-सत्य समाचार भेजें झूठ-मूठ किसी पर आक्षेप या गपोड़ी कपोल-कल्पित बातें कदापि न लिखें।” (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
माधवराव सप्रे एवं साथियों ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ को विशेष प्रयासों से दो वर्ष तक प्रकाशित करना जारी रखा। आय तो होती नहीं थी, लेकिन जो कुछ भी चन्दा अथवा विज्ञापन से प्राप्त होता था वे उसकों भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देते थे। वर्ष 1901 का आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए संपादक ने लिखा था-
‘‘मित्र’ के निकलने से पहले ही हमने सोच लिया था कि हमें घाटे के सिवाय कुछ लाभ न होगा। परंतु छत्तीसगढ़ में विद्या की वृद्धि, स्वदेश में ज्ञान का प्रसार, नागरी की उन्नति और हिन्दी साहित्य में सत्य समालोचना द्वारा सत्य विचार की जागृति करने के हेतु जिस समय हमने ‘मित्र‘ को जन्म दिया उसी समय हमने यह भी दृढ़ संकल्प कर लिया था कि इस कार्य में चाहे जैसी हानि और कठिनाई सहनी पड़े पर हम तीन वर्ष तक इसे अवश्य चलावेंगे।” (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के दो वर्ष बीत गए किंतु वह घाटे में ही चलता रहा। जिसके कारण माधवराव सप्रे एवं साथियों को पत्र बंद करने का कठिन निर्णय लेना पड़ा। अपनी व्यथा को उन्होंने इन शब्दों में लिखा-
‘‘हमारे संकल्पानुसार परमात्मा की कृपा से दो वर्ष बीत गए, और हमारे दुर्भाग्य से दोनों वर्ष हमें घाटा ही उठाना पड़ा। अब यह तीसरा वर्ष है। देखना चाहिए कि इसका क्या परिणाम होता है? यदि इस वर्ष भी ऐसे ही घाटा उठाना पड़ा तो समझ लिजिए कि आपके प्रिय ‘मित्र‘ के सौ वर्ष पूरे हो चुके और फिर बड़े दुख से लिखना पड़ता है कि यही इसकी आयु का अंतिम वर्ष भी होगा।” (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
शुरूआती दो वर्षों की भांति ही ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ तीसरे वर्ष भी घाटे में ही रहा। जिसके कारण सप्रे जी को प्रकाशन बंद करने का फैसला करना पड़ा। यह मासिक पत्रिका बंद तो हो गई किंतु छत्तीसगढ़ में साहित्य, पत्रकारिता एवं भाषा के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दे गई।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के 13 अप्रैल, 1907 में नागपुर से शुरू होने वाले ‘हिंदी केसरी’ में भी सप्रे जी ने अपना योगदान दिया। जिसने विदर्भ क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता के प्रचार-प्रसार के लिहाज से महत्वपूर्ण योगदान दिया। माधवराव सप्रे जी स्वयं को आजीवन पत्रकारिता के क्षेत्र में होमते रहे। सन 1920 में माखनलाल चतुर्वेदी जी के संपादन में प्रकाशित होने वाले पत्र ‘कर्मवीर’ में भी उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से अपना योगदान दिया।
माधवराव सप्रे का जीवन पत्रकारिता, साहित्य एवं भाषा के उत्थान को समर्पित था। हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम में माधवराव सप्रे का महत्वपूर्ण योगदान था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनका समस्त जीवन संघर्षपूर्ण ही रहा किंतु, वे कभी मुसीबतों के वक्त भी पीछे नहीं हटे। पत्रकारिता के क्षेत्र की वर्तमान एवं आगामी पीढ़ीयों के लिए उनका समस्त जीवन अनुकरणीय है।

लोकजीवन पर पंडित लखमीचंद की रागनियों और सांग का प्रभाव

लोककलाओं की यह विशेषता होती है कि वे आम समाज से उसके ही शब्दों, ठेठ भावों और आसपास के उदाहरणों के जरिए ही संवाद करती हैं। ‘कोस कोस पर पानी बदले और चार कोस पर वाणी’ की कहावत वाले भारत में लोककलाएं भी खासी विविधता लिए हुए हैं। लेकिन, यह अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में आम समाज का मनोरंजन ही नहीं करतीं बल्कि जीवन के कठिन पहलुओं को सहज शब्दों में पिरोकर सीख भी देती हैं। ऐसी ही लोककला हरियाणा की सांग और रागनी भी है।
रागनी और सांग के सबसे बड़े कलाकार और गायक पंडित लखमीचंद माने जाते हैं। उन्हें हरियाणवी संगीत और सांग का सूर्यकवि कहा जाता है। हरियाणा के शेक्सपियर की उपाधि भी उन्हें दी जाती है। हरियाणवी साहित्य में योगदान देने वाले कलाकारों को प्रत्येक वर्ष हरियाणा कला अकदमी की ओर से पंडित लखमीचंद अवॉर्ड दिया जाता है। 1903 में जन्मे लखमीचंद महज 42 साल की आयु में ही दुनिया छोड़ गए, लेकिन आज भी उनके द्वारा रचित सांग और रागनी हरियाणा ही नहीं बल्कि राजस्थान और पश्चिम उत्तर प्रदेश तक में लोकप्रिय हैं। उनकी रागनियां मनोरंजन का सरस माध्यम तो हैं ही बल्कि उनके जाने के करीब 85 साल बाद भी लोगों को नीति और धर्म का ज्ञान देती हैं।
उन्होंने भारत के मौलिक ज्ञान के स्रोत कहे जाने वाले पौराणिक किस्सों और कहानियों को सांग और रागनी के माध्यम से जन-जन तक हरियाणवी भाषा में पहुंचाया। हरियाणा के सोनीपत जिले के जट्टी कलां गांव में जन्मे पंडित लखमी चंद के पिता साधारण किसान थे। वह भी बहुत नहीं पढ़ सके, लेकिन उनकी चेतना का विस्तार कबीर सरीखा था। उनके कहे में ग्रामीण परिवेश के शब्द और भाव थे। यही कारण था कि उनकी रागनियां और सांग आज भी जन-जन के कंठ में बसी हैं। हरियाणवी का शायद ही कोई ऐसा लोकगायक होगा, जिसने लखमनीचंद की रागनियां न गाई हों।

पौराणिक किस्सों से दिया समाज को ज्ञान

भारतीय ज्ञान परंपरा में वेद, पुराण और किस्सों की अहम भूमिका रही है। पंडित लखमीचंद ने इनके जरिए ही आम जन को जीवन के कठिन पहलुओं को सहज शब्दों और भावों के जरिए पहुंचाया। उनकी रचनाओं का प्रकाशन लखमीचंद का ब्रह्मज्ञान खंड 1 और खंड 2 के तौर पर प्रकाशित हुआ है। पंडित लखमीचंद की रागनी का एक लिंक भी यहां पेश है, जिस पर क्लिक करके आप पूरी रागनी सुन सकते हैं।

प्रेम, सत्य और त्याग की कहानियां सुनाती रागनियां

हरियाणा के कलाकार प्रेम से उन्हें दादा लखमीचंद कहते हैं। लखमीचंद ने त्याग के पर्याय कहे जाने वाले राजा हरीशचंद्र पर रागनियों को किस्से के तौर पर पिरोया है और उन पर रागनियों की रचना की और गाया। इसके अलावा उन्होंने भारत में वर्णित नल-दमयंती के किस्से को भी रागनी के जरिए जन-जन तक पहुंचाया। यही नहीं भारतीय पौराणिक साहित्य में अहम स्थान रखने वाले सत्यवान और सावित्री की प्रेम कहानी को भी उन्होंने अपने ढंग से प्रस्तुत किया। इसके अलावा हीर रांझा के किस्से को भी उन्होंने हरियाणवी में रागनी के तौर पर पेश किया।

लोकभाषा में संवाद करते थे लखमीचंद

पंडित लखमीचंद की रागनियां और सांग खासे संवादपरक हैं। आम लोगों तक इन्होंने जो छाप छोड़ी है, वह वास्तव में शोध का विषय है। किस प्रकार एक लोक कला जन-जन के कंठ में बस जाती है, इसका लखमीचंद की रचनाएं अप्रतिम उदाहरण हैं। उनकी संवादपरकता, हरियाणवी भाषा क्षेत्र में उनके प्रभाव और समाज में उनकी गहरी पहुंच निश्चित तौर पर शोध का विषय हैं। अब तक उन पर व्यवस्थित ढंग से शोध नहीं हुआ हैं। इसके अलावा उनकी यदि उनके संबंध में व्यवस्थित ढंग से कुछ लिखा जाए तो निश्चित तौर पर उनको लेकर लोगों को जानकारियां मिल सकेंगी। इसके अलावा रागनी और सांग जैसी लोककला की प्रतिष्ठा भी बढ़ सकेगी।

लोकसंवाद में महाराणा प्रताप

हल्दी घाटी में समर लड्यो, वो चेतक रो असवार कठे... हिंदवा सूरज मेवाड़ रतन, वो महाराणा प्रताप कठे...। कभी आक्रांता मुगलों को भी लोहे के चने चबवाने वाले और भारत की प्रतिरोध की संस्कृति के प्रतीक महाराणा प्रताप को लोकसंवाद की परंपरा में कुछ यूं याद किया जाता है। विश्वविद्यालयों में इतिहास की पुस्तकों में हम जिन महाराणा के बारे में जानते हैं, उनका विस्तार लोक परंपरा में उससे कहीं अधिक है। राजस्थान और देश के असंख्य लोगों के मन में आज भी अन्याय के खिलाफ वह एक नायक के तौर पर स्थापित है। महाराणा प्रताप का अकबर से कब युद्ध हुआ, कौन जीता, किसका कितना नुकसान हुआ और उसके बाद क्या परिणाम हुए, यह इतिहासकारों के शोध के विषय हमेशा बने रह सकते हैं। लेकिन, भारतीय जनमानस के लिए महाराणा प्रताप इतिहास के किसी शासक या योद्धा की भूमिका से परे हैं।

बीते 400 सालों के इतिहास में महाराणा प्रताप की लोककथाएं एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी पीढ़ी और फिर आगे तक रिसते हुए यहां तक पहुंची हैं। भले ही उनके संबंध में तमाम इतिहासकारों ने संक्षिप्त भूमिका ही लिखी हो, लेकिन लोककंठ में उनका विस्तार अथाह है। वो नीले घोड़े रा असवार, म्हारा मेवाड़ी सरदार... लिखित इतिहास से परे हैं। महाराणा प्रताप के जीवन का हम अध्ययन करते हैं तो हम यह पाते हैं कि वह संसाधनों के बिना भी जीवट के साथ लड़ते रहे। परतंत्र नहीं होना है, भले ही उसकी कीमत घास की रोटियां खाना हो। महाराणा प्रताप की यह सीख भारत के स्वाभिमान का प्रतीक है। महाराणा प्रताप की कथाएं हमें यह भी बताती हैं कि भारत किस तरह से लोकसंवाद के जरिए अपने पूर्वजों का स्मरण करता रहा है। भले ही उनके बारे में हमें इतिहास कर अपने हिस्से का ही सच बताते हैं, लेकिन लोककथाएं हमें उन अनछुए पहलुओं से अवगत कराती हैं, जो महाराणा प्रताप होने के मायने बताते हैं।

भारत हमेशा से वाचाल समाज रहा है और यही कारण है कि हम पीढ़ियों तक किसी भी चीज को बिना लिखे ही पहुंचा सके हैं। इसका कारण लोकसंवाद की वह परंपरा ही है, जो हमें पूर्वजों से विरासत में मिली है। महाराणा प्रताप ऐसे नायक हैं, जिन पर कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया। उनका कोई दरबारी कवि नहीं था, जो उनकी वीरता की गाथाओं का दस्तावेजीकरण करे। फिर भी हमें महाराणा की वीरता से लेकर उनके अश्व चेतक की चपलता तक का वर्णन कविताओं, रागनियों, गीतों और किस्सों में मिलता है। भले ही महाराणा का केंद्र मेवाड़ और राजस्थान रहा हो, लेकिन लोकसंवाद की इस परंपरा के चलते ही वह पूरे भारत में आंक्राताओं के खिलाफ एक नायक, एक प्रतीक के तौर पर जाने गए।

कवि माधव दरक ने महाराणा के स्मरण में सुंदर कविता लिखी है। वह लिखते हैं-

ये माटी हल्दीघाटी री लागे केसर और चंदन है,

माथा पर तिलक करो इण रो इण माटी ने निज वंदन है...

या रणभूमि तीरथ भूमि, दर्शन करवा मन ललचावे,

उण वीर-सुरमा री यादा हिवड़ा में जोश जगा जावे...

उण स्वामी भक्त चेतक री टापा, टप-टप री आवाज कठे,

हल्दी घाटी में समर लड्यो, वो चेतक रो असवार कठे...।

महाराणा प्रताप के घोड़े 'चेतक' पर लिखी गई कविता भी हम सभी ने पढ़ी है। कवि श्यामनारायण पांडेय ने 20वीं सदी में इस कविता को रचा था, लेकिन उसकी प्रेरणा पीढ़ियों से लोककंठ में रची-बसी राणा की अनसुनी कहानियां ही थीं। जो चेतक पर सुंदर रचना के माध्यम से प्रस्फुटित हुईं। महाराणा प्रताप का यह नायकत्व लोकसंवाद की इस परंपरा के चलते और निखरे हुए स्वरूप में हम सभी के समक्ष आया है। महाराणा प्रताप की जयंती के इस अवसर पर अपने नायक का स्मरण करने के साथ ही हमें लोकसंवाद की उस शैली और परंपरा को भी बनाए रखने के क्या यत्न हो सकते हैं, उस पर विचार करना चाहिए। महाराणा प्रताप जैसे हमारी पीढ़ी तक आए हैं, वैसे ही भावी पीढ़ियां भी उन्हें समझ सकें, उनके व्यक्तित्व में झांक सकें, इसके लिए हमें लोकसंवाद का वह झरोखा खुला रखना होगा, जो हमारे पूर्वजों ने तैयार किया था।

जनसंचार से पहले था आल्हा का लोकसंचार

मीडिया की परिभाषा उसके तीन कामों का जिक्र करती है, सूचना, शिक्षण एवं मनोरंजन। भले ही इस दौर के मीडिया की पैकेजिंग में सूचना और शिक्षण के तत्व कम हुए हैं और मनोरंजन का मसाला ज्यादा है। लेकिन भारत की लोककलाएं जनसंचार का वह पक्ष हैं, जो आम लोगों का उनकी बोली में मनोरंजन ही नहीं करतीं बल्कि सूचित और शिक्षित भी करती हैं। भारत में संवाद और संचार की परंपरा मानव सभ्यता के विकास के साथ चलती रही है। धार्मिक ग्रंथ, प्राचीन साहित्य से लेकर देश के कोने-कोने की लोककलाएं संवाद का सशक्त माध्यम रही हैं। ऐसा ही एक लोक काव्य है, उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र का आल्हखंड, जिसे जनसामान्य में आल्हा के नाम से जाना जाता है और इसके गवैये अल्हैत कहलाते हैं।
जनसंचार के माध्यम भले ही आज रेडियो, टीवी, अखबार, इंटरनेट और तमाम तकनीकें हों, लेकिन जब ये न थीं, जब गूगल बाबा न थे तो निश्चित तौर पर ऐसी लोक परंपराएं ही आम जन के लिए ज्ञान का स्रोत थीं। आल्हा काव्य एक तरफ भारतीय लोक का रसपूर्ण मनोरंजन करता है तो दूसरी तरफ जीवन के कठिन पहलुओं को लेकर सहजता से शिक्षित भी करता है। राजा का दायित्व जनता के प्रति क्या हो, सेना किस प्रकार एकजुट हो, पारिवारिक संबंधों की गरिमा क्या रहे और समाज के प्रति सरोकर क्या हों, जीवन के ऐसे तमाम पक्षों पर आल्हखंड सुरुचिपूर्ण शिक्षण देता है।
आल्हा का कोई एक विधिवत ग्रंथ नहीं है, जैसा रामचरितमानस के साथ है। इसके बावजूद एक बड़े हिंदी क्षेत्र में इसकी लोकप्रियता को रामचरितमानस के बाद दूसरे स्थान पर रखा जा सकता है। जगनिक द्वारा रचित 'आल्हखंड' अप्राप्य है। फिर भी लोककंठ में सैकड़ों वर्षों तक यह ऐसा बसा रहा कि 1865 में फर्रुखाबाद के कलेक्टर रहे अंग्रेज अधिकारी चार्ल्स इलियट ने इसका संकलन कराया। इसके बाद भी कई छिटपुट प्रयास हुए हैं, लेकिन अर्थ सहित पूरा 'आल्हखंड' प्रकाशित नहीं हो सका है। यह अवधी-बुंदेली मिश्रित शैली में है और सिर्फ काव्य रूप में ही है।

1,000 साल से लोककंठ में मौजूद

आल्हा का भले ही कोई निश्चित ग्रंथ या भाषा टीका नहीं है, लेकिन लोगों के जेहन में यह इतना गहरे उतरा है कि पीढ़ियों रिसते हुए 1,000 साल का सफर तय कर चुका है। बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, रुहेली, ब्रज, बघेली, कौरवी और मैथिली समेत लगभग पूरी हिंदी पट्टी में वीर रस के इस अनुपम काव्य की गहरी मान्यता है। हर बोली के अल्हैत यानी आल्हा गाने वाले अपनी शैली में ढाल कर वीररस से लोगों को सराबोर करते हैं। आल्हा के पाठ को पंवाड़ा कहा जाता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार में इसका लोकजीवन पर ऐसा प्रभाव है कि तमाम लोकोक्तियां और कहावतें लोगों को आल्हा से मिलती हैं।

आल्हा सुन विश्व युद्ध में लड़ने गए थे सैनिक

हिंदी क्षेत्र के लोकमानस में आल्हा कितने गहरे उतरा है और इसका संचार पक्ष कितना सशक्त है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1914-18 और 1939-45 के पहले और दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने सैनिकों में उत्साह भरने के लिए छावनियों में इसके कार्यक्रम आयोजित कराए। यही नहीं लंबे समय तक पुलिस की पासिंग आउट परेड में भी जवानों में वीरता और कर्तव्यपरायणता के लिए आल्हा सुनाया जाता रहा।

अंग्रेजों ने कराया कई खंडों का अनुवाद

भले ही आल्हा हिंदी क्षेत्र की अमूल्य धरोहर है, लेकिन विदेशी विद्वानों ने स्वदेशी लेखकों से पहले ही इस पर काम शुरू कर दिया था। हिंदी के प्रसिद्ध ब्रिटिश मूल के इतिहास लेखक ग्रियर्सन ने आल्हा की लोकप्रियता को देखते हुए इसके कई खंडों का अंग्रेजी में अनुवाद कराया था। इनमें 'मारू फ्यूड' यानी 'माड़ो की लड़ाई' और 'नाइन लैख चेन' यानी 'नौलखा हार की लड़ाई' जैसे खंड विशेषतौर पर उल्लेखनीय हैं। यही नहीं अमेरिकी रिसर्चर डॉ. केरिन शोमर ने तो आल्हा की यशोगाथा की तुलना में यूरोप में ओजस्वी कवि होमर द्वारा रचित इलियड और ओडिसी के समकक्ष स्थान दिया है। ग्रियर्सन द्वारा 'ब्रह्म का विवाह' खंड का अंग्रेजी अनुवाद 'द ले ऑफ ब्रह्मज मैरिज: एन एपिसोड ऑफ द आल्हखंड' आज भी उपलब्ध है। ग्रियर्सन ने इसकी भूमिका में लिखा है कि पटना से लेकर दिल्ली तक आल्हा से अधिक कोई भी कहानी जनमानस में लोकप्रिय नहीं है।

गांवों की चौपारों से निकल यूट्यूब तक पहुंचा आल्हा

आल्हा मूल रूप से बुंदेलखंड की धरोहर है, लेकिन हिंदी पट्टी के हर क्षेत्र ने इसे अपनी शैली में ही इस तरह से अपना लिया है कि यह लोकजीवन का अंग बन गया है। आम मान्यता है कि गंगा दशहरा से लेकर दशहरे तक यानी बरसात के मौसम में इसका गायन किया जाता है। इसके लिए कहा भी जाता है कि-

'भरी दुपहरी सरवन गाइय, सोरठ गाइये आधी रात।
आल्हा पंवाड़ा वा दिन गाइय, जा दिन झड़ी लगे बरसात।'

गायन की एक नई शैली बना आल्हा

बदले सामाजिक जीवन में लोगों की बढ़ती व्यस्तता और ग्रामीण जीवन पर असर के चलते गांवों की चौपारों में अब इनका आयोजन इक्के-दुक्के ही होता है, लेकिन तकनीक के युग में यह मोबाइल और यूट्यूब तक भी अपनी पहुंच बना चुका है। संगीत के क्षेत्र में भी आल्हा की शैली का इन दिनों जमकर इस्तेमाल हो रहा है। कई भजनों से लेकर फिल्म 'मंगल पांडे' के गीत 'मंगल-मंगल' में भी इसकी शैली का इस्तेमाल किया गया है।

जीवन के गूढ़ रहस्यों को सरल शब्दों में समझाते हैं अल्हैत

आल्हा की शैली और शब्दों की यह विशेषता है कि इसे आम लोग भी बेहद आसानी से समझ लेते हैं और रस लेते हैं। यही नहीं बेहद सरल शैली में आल्हा गाने वाले यानी अल्हैत पंवाड़े के बीच में ही जीवन के कई गूढ़ पहलुओं को सरल शब्दों में सामने रखते हैं। जैसे-

'राम बनइहैं तो बन जइहैं, बिगरी बात बनत बन जाय।'

यह पंक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में ईश्वर पर भरोसा बनाए रखने की सीख देती है।

कर्तव्य पर डटे रहने का संदेश देते हुए अल्हैत कहता है-

'पांव पिछारे हम न धरिहैं, चाहे प्राण रहैं कि जायें।'

पुत्र के समर्थ होने से माता-पिता को किस प्रकार सहारा मिलता है। इस पर आल्हा की यह एक पंक्ति सार्थकता से अपनी बात कहती है-

'जिनके लड़िका समरथ हुइगे, उनका कौन पड़ी परवाह'

स्वामी तथा मित्र के लिए कुर्बानी दे देना सहज मानवीय गुण बताए गए हैं-

'जहां पसीना गिरै तुम्हारा, तंह दै देऊं रक्त की धार'

अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है-

'जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।'

सामाजिक समरसता का संदेश देते अल्हैत

आल्हा और ऊदल का स्तुतिगान भले ही योद्धा के तौर पर किया गया है, लेकिन जातियों से परे समूचे समाज के लिए आल्हा का नायक होना शायद इसलिए भी संभव हो पाया है क्योंकि वे शिवाजी सरीखे समावेशी सेनापति थे। जैसे महाराष्ट्र समेत देश भर में हिंदवी साम्राज्य की स्थापना के चलते जननायक बने शिवाजी के राज्य और सेना में सभी वर्गों को महत्व था, वैसी ही नीति महाबलि आल्हा की भी थी। 'आल्ह खंड' के मुताबिक, उनकी सेना में लला तमोली, धनुवा तेली, रूपन बारी, चंदर बढ़ई, हल्ला, देबा पेडित जैसे लोग सेना के मार्गदर्शक थे। आल्हखंड की पंक्तियां इसका प्रमाण हैं, जो सामाजिक समरसता का संदेश देती हैं-

'मदन गड़रिया धन्ना गूलर आगे बढ़े वीर सुलखान,
रूपन बारी खुनखुन तेली इनके आगे बचे न प्रान।
लला तमोली धनुवां तेली रन में कबहुं न मानी हार,
भगे सिपाही गढ़ माड़ौ के अपनी छोड़-छोड़ तलवार।।'


बुंदेली कवि जगनिक ने 'आल्ह खंड' की रचना कर भारतीय समाज को उस दौर में वीरता की गाथा सुनाई, जब देश चहुंओर विदेशी आक्रमण झेल रहा था। जगनिक की इस काव्य रचना का यही असर था कि विश्व युद्ध की छावनियों से निकल समर में उतरने के लिए इसने सैनिकों का हौसला बढ़ाया। आज भी यह काव्य वीरता, जीवटता, सामाजिक समरसता और मानवीय गुणों का संदेश देता है। भारत के वाचाल समाज में लोककलाओं के महत्व को आल्ह खंड के अध्ययन से बखूबी समझा जा सकता है।