दृष्टि


’सत्यं वद्, धर्मं चर’ भारतीयता की प्राथमिक अपेक्षा है। सत्य के साथ रहना, कष्टदायी हो तो भी सत्य को स्वीकार करना, सत्य ही कहना इस सूत्र का पहला चरण है और देश-काल-पात्र के अनुसार सत्य को अभिव्यक्त करना दूसरा पद है। यह अभिव्यक्ति वाचिक भी हो सकती है और सांकेतिक भी। दृश्य भी संभव है और श्रव्य भी। तत्वतः सत्य की इस अभिव्यक्ति में शिवत्व और सौन्दर्य अन्तर्भूत हो, जिससे वह धर्मसंस्थापना और लोकमंगल का आधार बने, यही भारतीय दृष्टि है।

कालवाह्य को त्यागना, कालजयी को जन-मन में जीवित रखना, काल के परे उस सनातन की कसौटी पर वर्तमान को आंकना, कालसापेक्ष ऋत को लोकभाषा में ढ़ालना और लोक तक

पहुंचाना, यह संवाद की भारतीय परम्परा की विशिष्टता रही है।
तामसिक शक्तियों के लिये तभी अवकाश है जब यह भारतीय अवधारणा अपना आधार खो दे। इसके लिये सूचना के आवरण में अर्धसत्य, विकृत सत्य और असत्य के परिपाक का प्रवाह जारी है जो समाज के सामूहिक मानस पर निरंतर चोट कर रहा है भ्रम का निर्माण कर रहा है।

इस कृत्रिम प्रवाह को पाट कर एक “संवादसेतु” का निर्माण आवश्यक है जो भारतीय दृष्टि से सूचनाओं की व्याख्या कर लोक तक पहुंचाये ताकि सतोगुणी समाज अपने नीर-क्षीर विवेक का प्रयोग कर उन्हें अपने कल्याण के लिये उपयोग कर सके। यही दृष्टि लेकर संवादसेतु की टोली कार्यशील है।